Sunday, April 14, 2019

जिन्हें पसंद नहीं, वे फ़िल्में न देखें!

- हेमंत पाल

  सिनेमा के जितने प्रशंसक हैं, उतने ही आलोचक भी! जो प्रशंसक हैं उनको हर फिल्म पसंद आती है और जो आलोचक हैं, वो हर फिल्म में खामी ढूंढते हैं! ये स्वाभाविक है और हर विधा में ये होता भी है! लेकिन, समय के साथ-साथ फिल्म बनाने वाले और इसे देखने वाले दोनों की समझदारी बढ़ी है। पहले दर्शक एक्टर को उसके कैरेक्टर से पहचानते थे! अब, फिल्म बनाने वालों और दर्शकों की मैच्योरिटी है कि दर्शक एक्टर को उसके रोल से कंफ्यूज नहीं करते! बल्कि समझते हैं कि ये अच्छा एक्टर है, इसने यदि फिल्म में हीरो का रोल किया था, तो विलेन बनने का मौका मिला तो वो ये रोल भी अच्छा करेगा। यानी अब एक्टर की सीमाबंदी नहीं रही! राजकपूर और राजेंद्र कुमार जैसे अभिनेता अपनी इमेज तोड़कर शायद ही किसी फिल्म में विलेन बने हों! लेकिन, अब अमिताभ, शाहरुख़ और आमिर जैसे एक्टर भी विलेन बनने का मौका नहीं छोड़ते और रोल के साथ पूरा इंसाफ भी करते हैं।
    फिल्मों की कहानी चोरी के मामलों में भी पहले के मुकाबले लगाम लगी है। पहले तो हॉलीवुड की फिल्में हमारे यहाँ आती ही नहीं थीं! आती भी थी, तो बरसों बाद और बड़े शहरों के चंद थियेटर में लगती थीं। इसलिए कि तब हॉलीवुड की इंग्लिश फ़िल्में एक दूसरी चीज थी, कहीं दूसरी दुनिया के अजूबे की तरह! लेकिन, अब संचार तंत्र इतना आसान हो गया कि हॉलीवुड की फ़िल्में पहले हमारे देश में रिलीज होने लगी! ऐसे में किसकी हिम्मत होगी कि वह कहानी की जस की तस चोरी कर सके! ऐसा किया तो पता लग जाएगा कि यह आइडिया कहां से आया है। एक बात ये भी कि आज के फिल्मकारों में आत्मविश्वास भी बहुत ज्यादा है! उन्हें पसंद दूसरे के आइडिये चुराकर अपनी कलात्मकता का दावा किया जाए! 
  दरअसल, सिनेमा ने धीरे-धीरे चलते हुए दौड़ना सीख लिया है। सिनेमा ने ही दुनिया को अलग-अलग आयामों से अभिव्यक्त किया! क्योंकि, किसी भी देश की फिल्में उस समाज का हिस्सा होती है! जैसे-जैसे समाज बढ़ता या बदलता है, उसी तरह वहां कि फिल्में भी बदलती हैं। अगर समाज की हालत बेहतर होती है, तो वहां की फ़िल्में भी उसी अनुपात में बेहतर होती चली जाएँगी! कोई समाज जब अपनी परंपराओं को बदलता है, तो वह बदलाव फिल्मों में भी दिखता है। वास्तव में फिल्में समाज का आईना नहीं होती, वो तो समाज का ख्वाब होती हैं। उसके अंदर वो तमाम उम्मीदें भी दिखाई देती हैं, जो समाज के जहन में पलटी हैं। साथ में तमाम तरह के डर और फिक्र भी साथ चलती है! सिनेमा ही वो माध्यम है जिसमें समाज की सभी अच्छी-बुरी बातें होती हैं। उसकी रिवायतें होती हैं, लेकिन वो समाज की तस्वीर नहीं होता! फिल्म देखकर उस समाज की कल्पना बेमानी होगी! किसी ने एक बात बहुत सोच-समझकर कही है 'मुझे किसी देश के विज्ञापन दिखा दो, मैं उस समाज के बारे में सब कुछ बता सकता हूँ।' हो सकता है मनोरंजन के लिए बनने वाली फिल्में कमाई के मकसद से बनाई जा रही हों! लेकिन, वे भी समाज को ही दिखाती हैं। इनमें भी समाज के ख्वाब या उम्मीदें हैं। उनके संस्कार और उनके नैतिक मूल्य सब कुछ तो हैं। वक्त के साथ नैतिक मूल्यों में भी तब्दीली आती है, उसी तरह फिल्मों में भी यह तब्दीली दिखाई देती है।
  जहाँ तक फिल्म की कहानी की बात है तो हमारे देश में कहानी सुनाने की प्रथा हज़ारों साल पुरानी है। गाँव की चौपाल हो, संस्कृत के नाटक हो, रामलीला या कृष्णलीला हो, नौटंकी हों, यात्रा हो चाहे उर्दू पारसी थियेटर हों! ये सब बोलती फिल्म के पहले का मनोरंजन था। उन सबमें गाने होते थे। हम कहानी में गीत पिरोकर उसे सुनाते थे और यही हमारा रिवाज भी था! अब ये किसी आलोचल को पसंद नहीं है, तो ये उसकी अपनी परेशानी है! अगर कोई एतराज करे कि इतालवी ओपेरा में लोग गाते क्यों हैं? क्योंकि, उसमें गाया जाता है! यदि आपको इतालवी ओपेरा नहीं पसंद है तो आप कुछ और देख लीजिए! सबको खुश रखने का जिम्मा फिल्मकारों का तो नहीं होता! हमारे यहाँ फिल्म बनाने का बरसों से यही अंदाज है और आगे भी रहेगा। वक्त के साथ अलग तरह की फिल्में भी बन रही हैं। उनमें कई बार संगीत है भी तो बैकग्राउंड में है, लिप सिंक नहीं हैं। लेकिन, ऐसी फिल्में जरूर बनें, जो पारंपरिक हैं! जो पहले बना करती थीं, वो भी बनती रहें। हमारे यहाँ फिल्म में कहानी सुनाने का एक खास अंदाज है, हम वो क्यों छोड़ें और किसके लिए? जहाँ तक फिल्मों में नाच गाने की बात है तो ये हिंदी फिल्मों का सुहाग है। अब जिन दर्शकों को हिंदी फिल्मों की कहानी और नाच-गाना पसंद नहीं है, वो हमारी फ़िल्में न देखें, दूसरी फिल्में देखें या कोई और मनोरंजन ढूंढ लें!
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