Tuesday, December 31, 2019

सरकार चलाने और मुँह चलाने के पीछे छुपे फर्क को समझिए!

- हेमंत पाल

    राजनीति की अपनी एक मर्यादा और संस्कार होते हैं! विपक्षी नेताओं पर भी शाब्दिक हमलों के समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि वे किसी की भावनाओं को आहत न करें! ये भी जरुरी होता है कि व्यक्तिगत हमला न किया जाए! लेकिन, मध्यप्रदेश के कुछ भाजपा नेता अपनी राजनीतिक पहचान खोने के भय से मर्यादा की वो सीमा रेखा लांघ रहे हैं! उन्हें अपनी ही पार्टी के दूसरे नेताओं से भी खतरा है, कि कहीं वे किसी मुद्दे पर बयान देने उनसे आगे न निकल जाए! ऐसे में सबसे आगे हैं, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान! जब से वे कुर्सी से उतरे हैं, बयानों  जरिए खुद को जिंदा रखने की कोशिश में लगे हैं! मुद्दा बोलने का हो या न हो, वे कोई न कोई बखेड़ा जरूर खड़ा कर देते हैं! वे सिर्फ विपक्ष पर ही हमला नहीं कर रहे, अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के स्तुतिगान में भी इतना खो जाते हैं कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता पर भी शक होने लगता है! शायद इसीलिए मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा है 'सरकार चलाने और मुँह चलाने में फर्क होता है!' 
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   विधानसभा में पिछले दिनों किसानों को गेहूं की फसल पर बोनस देने की विपक्ष की मांग को लेकर जबर्दस्त हंगामा हुआ! विपक्ष की बोनस की घोषणा करने की मांग बार दोहराए जाने पर मुख्यमंत्री कमलनाथ ने कहा कि सरकार चलाने और मुंह चलाने में अंतर होता है, सरकार मुंह चलाने से नहीं चलती! किसानों की मदद सदन से बाहर भी कीजिए। सिर्फ मुंह चलाने से सरकार नहीं चलती! इस बयान पर नेता प्रतिपक्ष ने कहा था कि मुख्यमंत्री का ये बयान अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला है! सदन के नेता ने यह मर्माहत करने वाली बात कही, उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। इसके जवाब में मुख्यमंत्री ने कहा कि मुंह चलाने वाली बात मैंने किसी को टारगेट करने के लिए नहीं कही, आप टारगेट बनना चाह रहे हैं, तो मैं कुछ नहीं कर सकता! ये महज सदन में घटी घटना नहीं, सच्चाई भी है कि मध्यप्रदेश में विपक्ष के नेता बहुत ज्यादा शाब्दिक जुगाली में लगे हैं! उनमें भी पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान अव्वल हैं, जो बयानबाजी का कोई मौका नहीं छोड़ते! रोज कोई  शिगूफा छोड़ना उनकी आदत सी हो गई है! 
   विधानसभा चुनाव हारने के बाद भाजपा के नेता बिफर से गए हैं! बीते सालभर में ऐसे कई प्रसंग आए, जब ये नेता बिना बात के बोले और बेवजह माहौल बनाने की कोशिश की! इनमें विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव तो ज्यादा बोले ही, उनसे आगे निकले शिवराजसिंह चौहान! वे बोलने का ऐसा कोई मौका नहीं चूकते, जहाँ उन्हें माइलेज मिले! फिर चाहे वो मामला प्रासंगिक हो या नहीं! शिवराज सिंह सिर्फ मुख्यमंत्री कमलनाथ को ही निशाने पर नहीं रखते, हर कांग्रेसी नेता प्रति उनका रवैया एक जैसा ही दिखाई देता है! क्योंकि, उनका लक्ष्य मीडिया होता है! बयानबाजी में वे हमेशा भाजपा के उन नेताओं से आगे रहने की कोशिश में रहते हैं, जो किसी पद पर हैं और जिनके बोलने का कोई वजन होता है! फ़िलहाल शिवराज सिंह प्रदेश में ऐसे किसी पद पर नहीं हैं कि उनके बयानों को गंभीरता से लिया जाए! लेकिन, फिर भी वे बोलते रहने की अपनी आदत से मजबूर हैं! कुछ दिन पहले उन्होंने कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह पर बिना नाम लिए निशाना साधा था कि ऐसे व्यक्ति जो 10 साल मुख्यमंत्री रहे, मैं उसका नाम नहीं लूंगा वरना मुझे नहाना पड़ेगा! उन्होंने नाम नहीं लिया, पर समझ आ रहा था कि वे किसके बारे में ये बात कह रहे हैं! 
     पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने कश्मीर से जुड़े अनुच्छेद 370 पर कांग्रेस को घेरते हुए एक विवादस्पद बयान में ये भी कहा था कि पूर्व प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू 'क्रिमिनल' थे। भारतीय सेना जब कश्मीर से पाकिस्तानी कबाइलियों का पीछा कर रही थी, तो जवाहरलाल नेहरू ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी। कश्मीर के एक-तिहाई हिस्से पर पाक का कब्जा है। अगर, कुछ और दिनों के लिए युद्धविराम नहीं होता, तो पूरा कश्मीर हमारा होता। शिवराज ने ये भी कहा कि नेहरू का दूसरा अपराध 'अनुच्छेद-370' है। उन्होंने कहा कि एक देश में दो निशान, दो विधान, दो प्रधान, यह एक देश के साथ अन्याय नहीं बल्कि उसके खिलाफ अपराध है। दरअसल, नेताओं से ऐसी गलतियां तब होती  है,जब वे खुद की जानकारी के बजाए, किसी और बातों पर भरोसा करके बयान देते हैं! पं नेहरू से जुड़ा ये ऐतिहासिक तथ्य शिवराजसिंह ने कहा लिया, ये तो नहीं कहा जा सकता! लेकिन, ऐसी बातें जब सार्वजनिक रूप से कही जाए तो उसकी तथ्यात्मक पुष्टि जरुरी है! 
     सागर में एक प्रदर्शन के दौरान शिवराज सिंह ने मुख्यमंत्री कमलनाथ के खिलाफ बोलते हुए कहा था कि वे इंदिरा गांधी से नहीं डरे, तो कमलनाथ किस खेत की मूली हैं। देखा जाए तो राजनीति में कोई किसी नेता से नहीं डरता, जो विरोध है, वो भी मुद्दों के आधार पर वैचारिक होता है, न कि व्यक्तिगत द्वेष होता है! लेकिन, शिवराज सिंह के बयानों की भाषा से लगता है कि वे 'बिलो द बेल्ट' वार करने को ही अपना लक्ष्य बनाकर चलते हैं। यही कारण है कि अब ये कहा जाने लगा है कि शिवराज सिंह अमर्यादित भाषा बोलते हैं, क्योंकि उनकी पार्टी में कोई उन्हें अपना नेता मानने को तैयार नहीं है! इस वजह से वे इस तरह की भाषा का उपयोग कर रहे हैं। शिवराज सिंह का छिंदवाड़ा में वहां के कलेक्टर के खिलाफ दिए बयान की भी काफी आलोचना हुई थी! उन्होंने हेलिकॉप्टर उतारने की अनुमति न दिए जाने पर छिंदवाड़ा के कलेक्टर को 'पिट्ठू' कहा था। वे छिंदवाड़ा जिले के चौरई कस्बे में एक चुनावी जनसभा को संबोधित करने गए थे, जहां से उनके हेलिकॉप्टर को प्रशासन के निर्देश पर पांच बजे से पहले रवाना कर दिया गया। इस पर उन्होंने प्रशासन पर मुख्यमंत्री के दवाब में काम करने का आरोप लगाते हुए धमकी दी थी, 'ए पिट्ठू कलेक्टर सुन ले रे, हमारे भी दिन आएंगे, तब तेरा क्या होगा। जो नेता एक दशक से ज्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहा हो, उससे ऐसी चलताऊ भाषा की उम्मीद नहीं की जाती! लेकिन, शिवराज सिंह को लगता है कि वे जब तक कांग्रेस पर ऐसी भाषा में हमले नहीं करेंगे, उनकी बात में दम नहीं आएगा!  
   शिवराज सिंह विपक्ष के खिलाफ सिर्फ हमलावर की भूमिका ही नहीं निभा रहे, वे अपनी पार्टी के बड़े नेताओं की स्तुति करने में भी फर्शी सलाम करने का मौका नहीं चूकते! देश में इन दिनों 'नागरिकता संशोधन कानून' को लेकर बहस छिड़ी है। हजारों लोग कई दिनों से सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं। इसी बीच शिवराज सिंह ने कानून से प्रताड़ित लोगों के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भगवान तक कह डाला! उन्होंने कहा है कि नरेंद्र मोदी ऐसे लोगों के लिए भगवान बनकर आए हैं। मोदी के प्रति शिवराज सिंह की ये भाषा भी राजनीतिक पैंतरा है। क्योंकि, इससे पहले उनके भगवान लालकृष्ण आडवाणी हुआ करते थे और को मोदी का प्रतिद्वंदी समझा जाता था! 2013 में प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद उन्होंने मीडिया को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी की प्रधानमंत्री उम्मीदवारी के खिलाफ खड़े वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज को धन्यवाद किया था। लेकिन, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के लिए घोषित नरेंद्र मोदी का नाम सबसे आखिर में लिया। ये भी भूलने वाली बात नहीं है कि जब पिछले लोकसभा चुनाव में लालकृष्ण आडवाणी का नाम उम्मीदवारी की तीन सूची में नहीं आया तो शिवराज सिंह ने उन्हें भोपाल आकर चुनाव लड़ने का निमंत्रण दे डाला था। अब वही नरेंद्र मोदी को वे भगवान कहकर संबोधित कर रहे हैं। ये सब देखते हुए स्पष्ट है कि शिवराज सिंह जो करते हैं, उसके पीछे उनकी तयशुदा रणनीति होती है! यदि वे कांग्रेस नेताओं पर अमर्यादित भाषा में हमले कर रहे हैं, तो ये पार्टी के दिल्ली दरबार को प्रभावित करने की ही कोशिश का हिस्सा है!
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Sunday, December 29, 2019

समाज, किताबें और सिनेमा!

- हेमंत पाल
 पने जन्मकाल से ही हिंदी सिनेमा की अपनी एक धारा रही है। कुछ विषयों को छोड़ दें, तो ये धारा हमेशा बदलती रहती है। कभी ये समयकाल की घटनाओं से प्रभावित होती है, कभी सामाजिक बदलाव से! एक दौर ऐसा भी आया जब सिनेमा समाज के साथ साहित्य में भी अपने लिए मसाला ढूंढता रहा! बीसवीं सदी के शुरूआत में जब हिंदी सिनेमा गर्भ से बाहर निकला, तब उसकी सबसे ज्यादा मदद धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों की कहानियों ने की! सिनेमा की युवा अवस्था में इसके विषयों में स्वतंत्रता आंदोलन और गाँधीजी के आदर्श समाए रहे! याद कीजिए 'जिस देश में गंगा बहती है' को, जिसमें डकैतों और चोरों का ह्रदय परिवर्तन कराकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लौटने की बात कही गई थी। 
  सिनेमा ने अपने सामाजिक सरोकारों को कभी अपने से अलग नहीं होने दिया, फिर वो किसी भी रूप में दर्शकों को परोसे जाते रहे हों! लगान, मुन्नाभाई एमबीबीएस, गजनी, कल हो ना हो, माई नेम इस खान, थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर, चक दे इंडिया, स्वदेश, सुल्तान और दंगल जैसी फ़िल्में अलग और नए विषयों पर केन्द्रित जरूर थी, पर इनका लक्ष्य मनोरंजन था! प्रेम, बदला और पारिवारिक समस्याओं के अलावा खेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, पहलवानी और आतंकवाद जैसे नए विषयों पर भी फ़िल्में बनी और पसंद की गईं! ये समय पहले नहीं था! लेकिन, ऐसी अभिव्यक्ति जो बीते कुछ दशकों में हुई, सिनेमा ने पहले कभी नहीं की थी। समाज और देश की समस्याओं पर चिंता मुख्य रूप में दिखाई देने लगी है। 
   ये भी सच है कि सामाजिक सरोकारों के लिए फिल्मकारों ने सबसे बड़ा माध्यम उस दौर में लिखी गई किताबों को बनाया! स्मृतियों के गर्भ को टटोला जाए तो 1953 में पहली बार सामाजिक सरोकारों को लेकर बिमल रॉय के निर्देशन में ‘दो बीघा जमीन’ बनाई गई थी। यह सलिल चौधरी की प्रसिद्ध कहानी पर आधारित थी। इसे उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना गया था। मजदूरों और किसानों की समस्या पर आधारित संभवतः ये पहली यथार्थवादी फिल्म थी। इस फिल्म ने किसानों के जीवन की समस्याओं का करुण और जीवंत प्रभाव दर्शाया था। 
  1954 से 60 तक ऐसी ही सामाजिक फिल्मों का दौर रहा! यथार्थ का चेहरा दिखाने का काम 'परिणीता' ने भी किया, जो शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित थी। इस फिल्म को भी बिमल रॉय ने बनाया था। सामाजिक विसंगतियों पर गहरी चोट करती ‘मदर इंडिया’ भी महबूब खान ने इसी समय बनाई थी! ये फिल्म सिनेमा इतिहास का मील का पत्थर साबित हुई! सामाजिक भावनाओं को कचोटती 'जागते रहो' का निर्माण भी राजकपूर ने 1956 में किया था। 1957 में गुरुदत्त की ‘प्यासा’ ने सामाजिक चेतना को झकझोरा! 1959 में फिर बिमल रॉय ने जाति बंधनों पर चोट करने वाली ‘सुजाता’ बनाई! कृष्ण चोपड़ा ने प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर ‘हीरा मोती’ नाम से फिल्म बनाई, जो साहित्य और सिनेमा के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी बनी! 
    प्रेमचंद की ही कहानियों पर 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सद्गति' भी बनाई गई। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’, शैवाल के उपन्यास पर ‘दामुल’ के अलावा केशव प्रसाद मिश्र की रचना ‘कोहबर की शर्त’ पर ‘नदिया के पार’ और बाद में ‘हम आपके हैं कौन’ का निर्माण हुआ! राजेन्द्रसिंह बेदी की कहानी पर ‘एक चादर मैली सी’, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, विजयदान देथा की ‘दुविधा’ नामक कहानी पर ‘पहेली’, उदयप्रकाश के उपन्यास पर ‘मोहनदास’ जैसी फ़िल्में बनाने की हिम्मत की गईं और खूब चली! 
   इसका आशय ये कदापि नहीं कि कालजयी किताबों पर बनने वाली फिल्मों को हमेशा सफलता मिली है! कई फिल्मों को दर्शकों ने नकारा भी! क्योंकि, विषय की समझ और पटकथा की सृजनात्मक क्षमता आसान नहीं होती। बहुत कम फिल्मकार होते हैं, जो फिल्म की तकनीक और किताब की समझ के साथ न्याय कर पाते हैं। गोदान, उसने कहा था, चित्रलेखा और 'एक चादर मैली सी' ऐसी ही फ़िल्में थीं जो असफल हुई। दरअसल, किताब के मूल भाव से सामंजस्य बैठाते हुए उसकी गहराई तक उतरकर फिल्म बनाना चुनौती भी है और जटिल प्रक्रिया भी। साहित्य को सिनेमा में बदलने वाले कुछ ही सिद्धहस्त निर्देशक हुए हैं। इनमें बिमल रॉय, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार अव्वल रहे हैं।
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Tuesday, December 24, 2019

परदे पर फिर लौटने लगी भव्यता!

- हेमंत पाल

   हिंदी सिनेमा की भव्यता का जब भी ज़िक्र होता है, तब उन फिल्मों का ज़िक्र होता है, जिन्होंने हिंदी सिनेमा की पहचान बदल दी! न सिर्फ देश में बल्कि पूरी दुनिया में जिस एक फिल्म का ज़िक्र आज भी किया जाता है, वो है 'मुगल-ए-आजम!' यह फिल्म इतिहास के मील का पत्थर है। खास बात ये कि जब 'मुगले आजम बनी थी, तब ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का जमाना था। लेकिन, इस फिल्म के एक गीत को रंगीन फिल्माने शीश महल का सेट लगाया गया था! इस एक सेट को पूरा करने में दो साल लग गए थे। उसके बाद लम्बे समय तक ऐसी फ़िल्में नहीं आईं! क्योंकि, ऐसी फिल्मों के निर्माण पर अनाप-शनाप पैसा खर्च होता है और जिसकी वापसी की कोई गारंटी भी नहीं होती। लेकिन, पिछले कुछ सालों से फिल्मकारों का रुख फिर से ऐसी भव्य फ़िल्में बनाने की तरफ हुआ है। इसमें सबसे आगे रहे संजय लीला भंसाली जिन्होंने देवदास,  बाजीराव-मस्तानी और 'पद्मावत' जैसी भव्य फ़िल्में बनाई हैं। भंसाली की महँगी फिल्म ‘पद्मावत’ थी, जो मलिक मोहम्मद जायसी के महाकाव्य पर आधारित थी। यह फिल्म रानी पद्मावती के अलौकिक सौंदर्य और अल्लाउद्दीन खिलज़ी के आक्रमण पर आधारित थी। वे इतिहास से जुडी कुछ और फिल्मों की तैयारी है। 
     इसके बाद नंबर आता है आशुतोष गोवारीकर का जिन्होंने 'जोधा-अकबर' और 'मोहन जोदाड़ो' के बाद अब 'पानीपत' बनाने की हिम्मत की! कंगना रनोट की ‘मणिकर्णिका’ भी झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की शौर्यगाथा दिखाने वाली ऐतिहासिक फिल्म थी! लेकिन ये फिल्म उम्मीद के मुताबिक नहीं चली, क्योंकि कंगना ने खुद प्रमोट करने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को बदल दिया था। अब, अजय देवगन ‘तानाजी’ नाम से ऐतिहासिक चरित्र वाली फिल्म कर रहे हैं। वहीं, अक्षय कुमार ‘पृथ्वीराज चौहान’ की वीरता का वर्णन करने वाले हैं। करण जौहर ‘तख़्त’ नाम से इतिहास को दोबारा गढ़ने की कोशिश में हैं। कुणाल कोहली ‘रामयुग’ और आमिर खान ‘महाभारत’ बनाने की तैयारी कर रहे हैं। नीरज पांडेय अजय देवगन को लेकर ‘चाणक्य’ पर काम कर रहे हैं! आशय यह कि सिनेमा में भव्यता पर फिर से खासा जोर दिया जाने लगा है। इसका काफी कुछ श्रेय ‘बाहुबली’ की सफलता को दिया जाना चाहिए, जिसने फिल्मकारों को एक नया फार्मूला दिया! इस सीरीज की दोनों फ़िल्में देश की कई भाषाओं में चली और पसंद की गई| यह अब तक के सिनेमा के इतिहास की सबसे महँगी एवं सबसे अधिक कमाई करनेवाली फिल्म भी साबित हुई। लेकिन, भव्यता का फार्मूला ‘ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान’ पर फिट नहीं बैठा और 300 करोड़ की लागत से बनी यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर धराशायी हो गई! 
    इतिहास को पढ़ने और उसे परदे पर देखने में फर्क होता है। जब इतिहास को फिल्मों में फंतासी अंदाज परदे पर उतारा जाता है, तो दर्शक रोमांचित होते हैं। फिल्मों का इतिहास बताता है कि अमूमन ये फार्मूला पसंद किया जाता है। खामोश फिल्मों के दौर में 1924 में बाबूराव पेंटर ने 'सति पद्मिनी' निर्देशित की थी। इसी कहानी को संजय लीला भंसाली ने बाद में 'पद्मावत' के रूप में बनाया! जब फिल्मों ने बोलना सीखा तो सोहराब मोदी ने पहली बोलती फिल्म 'आलमआरा' बनाई, जो कॉस्ट्यूम ड्रामा ही थी! बाद में सोहराब मोदी ने ही पुकार, सिकंदर, पृथ्वी वल्लभ और झाँसी की रानी जैसी ऐतिहासिक फ़िल्में बनाई! 'झांसी की रानी' हिंदी फिल्म इतिहास की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। कमाल अमरोही ने 'रजिया सुलतान' बनाई, जो दिल्ली की शासक रज़िया की कहानी थी, जिसे गुलाम याकूत से प्रेम हो जाता है। इसी थीम पर 60 के दशक में निरुपा रॉय और कामरान लेकर भी फिल्म बनी थी! 'ताजमहल' में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की अमर प्रेम कहानी थी! शाहजहाँ की बेटी 'जहाँआरा' पर भी फिल्म बन चुकी है।
  इतिहास की भव्यता का प्रदर्शन करने वाली ये फ़िल्में राजशाही तेवर, पुरातन इतिहास और मिथकीय चरित्रों में दर्शकों को बांधकर उन्हें सिनेमा हॉल तक खींचने में कामयाब होने की कोशिश करती हैं। देखा गया है कि ऐतिहासिक फिल्में समयकाल के परिवेश और किरदारों की वजह से स्वाभाविक तौर पर भव्य हो जाती हैं। उनके लिए महँगे और विशाल सेट के अलावा उस समय की पोशाकों, हथियारों की भी जरुरत पड़ती है। कई बार लेखकों की कल्पना को मूर्त रूप देने के लिए वीएफएक्स तकनीक का जमकर उपयोग करना पड़ता है, जैसा 'बाहुबली' सीरीज की दोनों फिल्मों में हुआ! इन खर्चों से फिल्म की लागत भी काफी बढ़ जाती है। लेकिन, ये टोटके हर बार कामयाब नहीं होते और कई बार ऐसी भव्य फ़िल्में पिट जाती हैं। ‘अशोका’ और ‘मोहन जोदाडो’ भव्य होते हुए भी फ्लॉप हुई थीं। एक तथ्य यह भी है कि वीरों, राजाओं, योद्धाओं की शौर्यगाथा सुन-सुनकर दर्शक उबने लगते हैं।
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माफिया की अनदेखी करने वाले नौकरशाह अब बुलडोजर पर सवार!

  
मध्यप्रदेश में इन दिनों माफिया पर सरकार बहुत सख्त है। यहाँ माफिया का आशय सिर्फ भूमाफिया नहीं है! बल्कि, हर कारोबार में ऐसे धंधेबाजों ने अपनी पैठ बनाई है जिनकी नैतिकता संदिग्ध होती है। लेकिन, सरकार के कहने पर नौकरशाही का बुलडोजर अवैध इमारतों को ही ज्यादा ढहा रहा। सरकार ने साफ़ कह दिया कि अब प्रदेश में माफिया को पनपने नहीं दिया जाएगा। मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अफसरों को हिदायत दी कि अब भूमाफिया का राज नहीं चलेगा। इस काम में किसी तरह का राजनीतिक दबाव सहन नहीं होगा। यह पहला मौका है, जब सरकार ने कथित मीडिया माफिया को भी नहीं बख्शा! उन्होंने यह भी कहा कि प्रदेश में महाराष्ट्र के 'मकोका' जैसा कानून लागू किया जाएगा। इस सख्ती के राजनीतिक कारणों को तलाशा जाए तो इशारा मिलता है कि माफिया को भाजपा राज में पनपने का मौका ज्यादा मिला, जिसने नौकरशाही के हाथ बांध रखे थे। अब, जबकि कमलनाथ सरकार ने उन जड़ों को उखाड़ने की कोशिश की, तो वे बिलबिला उठे! सरकार ने उन अफसरों को भी सबक सिखाया, जिन्होंने माफिया की हरकतों को अनदेखा किया! सिर्फ इंदौर में ही कार्रवाई के लिए 11 तरह के माफियाओं को चुना गया है। 
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हेमंत पाल

   ध्यप्रदेश में इन दिनों माफिया पर कार्रवाई का हल्ला है! हर छोटा-बड़ा माफिया सरकार के टारगेट पर दिखाई दे रहा है! प्रदेशभर के 590 माफियाओं की सूची बनाई गई है, जो अभी तक सरकार को चुनौती देते रहे हैं। बड़े माफियाओं के अलावा हजारों छोटे माफिया भी हैं, जिनकी शिकायतें मिल रही है। इंदौर के माफिया सरगना जीतू सोनी पर हुई कार्रवाई ने इस मंशा को साफ कर दिया कि सरकार किसी के दबाव में नहीं है। कमलनाथ की योजना के तहत पहले बड़े माफिया का सफाया किया जाएगा, उसके बाद जिन छोटे माफियाओं पर कार्रवाई होगी। यानी पहले माफिया की जड़ों को काटा जाए, फिर डालियों की छंटाई हो! बड़े शहरों के अलावा जिलों में सक्रिय संगठित माफिया भी निशाने पर है। लेकिन, इस सबके पीछे राजनीति करने वाले भी चुप नहीं है! भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह ने इसे भेदभाव की कार्रवाई बताकर अपना पक्ष स्पष्ट कर दिया। उनका कहना है कि सरकार माफिया मुक्त प्रदेश की जगह अराजकता के हालात बना रही है। भाजपा और सरकार विरोधियों पर कार्रवाई की जा रही है। सरकार भय और खौफ पैदा करना चाहती है। जबकि, कांग्रेस नेताओं का दावा है कि इस कार्रवाई का सीधा फायदा जनता को मिलेगा। सरकार के प्रति जनता में विश्वास पैदा होगा और जनता की गाढ़ी कमाई पर अपना अवैध कारोबार खड़ा करने वाले माफिया पर लगाम लगेगी। 
   हर क्षेत्र में माफिया को पनपने का मौका इसलिए मिला कि पिछले 15 सालों में इस पर किसी ने इन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं की, या यूँ कहिए कि सब कुछ जानकर भी अनदेखी की गई! नौकरशाही का संस्कार है कि वो सत्ता की मंशा को समझकर अपनी लाइन तय करता है। वैसे तो हर अधिकारी का अपना नजरिया होता है और कहीं न कहीं वो दिखता भी है। कोई चरित्र से कमजोर होता है, कोई सिक्कों की खनक से प्रभावित होता है! जब तक सरकार की तरफ से इशारा नहीं होता, ये अधिकारी अपनी कमजोरियों को अपने कर्त्तव्य से आगे रखकर काम करते हैं! लेकिन, जब उन्हें लगता है कि सरकार का मुखिया उन्हें समझकर अपने नजरिए से चलाना चाहता है, तो उनका बदला रूप दिखाई देने लगता है। फिलहाल जो कार्रवाई चल रही है, उसे इसी नजर से देखा जाए तो स्पष्ट होता है कि जिस नौकरशाही की आँखों पर पट्टी चढ़ी थी और उन्हें माफिया दिखाई नहीं दे रहा था, अब वही अधिकारी ढूंढ ढूंढकर खामियां खोज रहे हैं। ऐसे में सरकार को उन अधिकारियों को भी निशाने पर लेना चाहिए जिनके रहते या जिनकी शह पर प्रदेश में माफिया को पनपने पनपने का मौका मिला। देखा जाए तो प्रदेश में आज भी वही नौकरशाही है, जो पिछली सरकार के समय थी! लेकिन, सरकार के तेवर देखकर उनका लक्ष्य भी बदल गया! जो अधिकारी इन माफियाओं की महफ़िल में बैठकर झूमते थे, वही आज उनके अवैध धंधों के खिलाफ डंडा लेकर खड़े हैं!   
   इंदौर में माफिया सरगना जीतू सोनी पर हुई कार्रवाई की जमकर प्रशंसा हुई! महिलाओं ने भी इसे सराहा कि पहली बार किसी ने ऐसे असामाजिक, अवैध कारोबारी और हर गैरकानूनी काम में संलग्न गिरोह को तोड़ने की कोशिश की। सरकार की मंशा समझकर प्रशासन ने जीतू सोनी की अवैध सल्तनत को पूरी तरह नेस्तनाबूद कर दिया गया। पुलिस ने उनके खिलाफ दर्जनों मुकदमे दर्ज कर लिए। हालांकि, जीतू सोनी फरार है और उस पर एक लाख का इनाम घोषित है। बेटे और उसके दोनों भाइयों को उसके अवैध कारोबार में साझा-आरोपी बनाया गया है। इसके साथ ही इंदौर में बरसों से सक्रिय रहे भूमाफियाओं पर भी गाज गिरना शुरू हो गई! लेकिन, सीधा सवाल है कि ये सल्तनत एक साल, एक महीने या एक दिन में तो खड़ी नहीं हुई! इसे आकार लेने में सालों लगे हैं! तब ये नौकरशाही कहाँ थी, जो आज इस माफिया के खिलाफ कार्रवाई में लगी है! पिछली सरकार के समय भी यही अधिकारी तैनात थे, पर इनके मुँह बंद थे और हाथ बंधे क्यों थे। जवाब साफ़ है कि नौकरशाही सरकार के इशारे को अच्छी तरह से समझ रही थी, जिसने उन्हें चुप रहने का इशारा किया होगा! भाजपा लाख सफाई दे, पर इस सच को झुठलाया नहीं जा सकता कि भाजपा के डेढ़ दशक के शासन में हर धंधे माफिया पनपे हैं! 
     सरकार की मंशा कानून के दायरे से बाहर रहकर काम करने वाले माफिया को कानून के दायरे में लाने की है ताकि उनकी कारगुजारियों पर लगाम लगाई जा सके! उन पर कार्रवाई भी ऐसी की जाए, जिसका संदेश जनता तक जाए और फिर कोई माफिया अपराध करने का साहस न जुटा सके। सरकार ने पुलिस मुख्यालय में 'संगठित अपराध' के लिए एक अलग से ब्रांच बनाने तथा स्पेशल कोर्ट की भी बात की है। 'संगठित अपराध' के खिलाफ कानून बनाए जाने की भी तैयारी है। मुख्यमंत्री ने कहा कि कपड़ों पर राजनीतिक बिल्ला देखकर कार्रवाई न की जाए। कोई किसी की कितनी भी पैरवी क्यों न करे, माफिया को हर हाल में सलाखों के पीछे डाला जाए। सरकार ने पहली बार ऐसे कारोबार में अवैध काम करने वाले वालों की पहचान की है, जिन्होंने ईमानदारी का मुखौटा लगाकर काला कारोबार किया। गृह निर्माण संस्थाओं की जमीनों पर भी कब्जे करने वालों, सरकारी जमीनों को हथियाने और पात्र लोगों को बेदखल करके उनके प्लॉटों पर कब्जे करने वालों को निशाने पर लिया गया है। सिर्फ जमीन के घोटालेबाज ही निशाने पर नहीं हैं! परिवहन, रेत, शराब, वन, मिलावटी, ड्रग, जुए-सट्टे, चिटफंड और अन्य तरह के संगठित अपराध करने वाले भी सरकार की सूची में हैं। 
  माफिया के खिलाफ शिकायत के लिए पहली बार अधिकारियों ने अपने फोन नंबर जनता को देकर अपने इरादे भी स्पष्ट किए थे। इंदौर में ही इसका असर ये हुआ कि पहले दिन इन नंबरों पर ढाई सौ से ज्यादा फोन आए और 95 शिकायतें संदेश पर मिली। दुबई से भी एक व्यक्ति ने इंदौर के नगर निगम आयुक्त को उसकी जमीन पर किए गए कब्जे की जानकारी दी। सरकार से फ्री-हैंड मिलने के बाद अब सभी छोटे-बड़े शहरों में माफियाओं पर कार्रवाई शुरू हो गई! भोपाल, इंदौर, ग्वालियर और जबलपुर में अवैध निर्माणों की तोड़फोड़ की गई! रसूखदार और भू-माफियाओं द्वारा गलत तरीके से बनाए गए रेस्टोंरेट, हुक्का बार और पब पर भी प्रशासन कार्रवाई कर रहा है। राज्य सरकार द्वारा माफियाओं के खिलाफ शुरू हुई कार्रवाई से अवैध कारोबार से जुड़े लोगों में दहशत है। यही कारण है कि कई माफिया अपने क्षेत्रों को छोड़कर भाग गए हैं। इन माफियाओं पर इनाम भी घोषित किए गए है। 
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Tuesday, December 17, 2019

कागज पर छपे काले हर्फ़ के मुकाबले में आभासी दुनिया!

पारम्परिक मीडिया बनाम नया मीडिया


  
  अभी तक मीडिया का एक ही मतलब निकाला जाता था और वो था अखबार! अर्थात कागजों का ऐसा पुलिंदा जो चौबीस से लगाकर दस घंटे पुरानी ख़बरों को समेटकर उसे पाठकों के सामने परोसता था! पाठक को भी पता था कि जिसे वो ताजा अखबार समझ रहा है वो कई घंटों पुरानी ख़बरों से भरा है, जो वक़्त के हिसाब से पुरानी पड़ चुकी हैं। घटनाओं को बीते बहुत सा समय हो गया! जब वो अखबार पाठक के हाथ तक पहुंचा होगा, सारे हालात भी बदल चुके होंगे! बरसों तक यही होता रहा। लेकिन, जब नए मीडिया के आधार के रूप में इंटरनेट ने दस्तक दी, सबकुछ बदलने लगा। अखबारों में ख़बरों की गति को पंख लग गए। प्रिंट के साथ-साथ अख़बारों के ऑनलाइन एडीशन निकलने लगे। वेब साइट्स और पोर्टल ख़बरों का ऐसा संसार बन गए, जहाँ खबरों को अपडेट किया जाने लगा। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रही, इससे भी बहुत आगे निकल गई! सीधे शब्दों में कहा जाए तो नए मीडिया की गति के सामने पारम्परिक मीडिया बहुत पीछे छूट गया! जो हुआ वो जरुरी भी था। लेकिन, अभी भी 'नया मीडिया' थमा नहीं है, उसकी गति भी बढ़ रही है और नए प्रयोगों के रास्ते भी खुले हैं। एक ऐसा आभासी संसार रचा जाने लगा है, जहाँ सब कुछ इंटरनेट की उपलब्धता पर टिका है! सारी दोस्ती, रिश्ते और प्रेम तभी तक है, जब तक इंटरनेट से जुड़ाव बना है!      
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- हेमंत पाल 

    नए और पुराने मीडिया के बीच कुछ सालों से एक अजीब सा अंतर्द्वंद छिड़ा हुआ है। नए मीडिया ने अपनी गति और व्यापकता से परंपरागत मीडिया को काफी पीछे छोड़ दिया। ये दोनों मीडिया के बीच कोई खींची तलवारों वाली जंग नहीं है। यदि कुछ है, तो वो पीढ़ियों के अंतर वाला परंपरागत संघर्ष! समय, काल और परिस्थितियों के मुताबिक सभी को बदलना पड़ता है, तो भला मीडिया इससे अलग-थलग क्यों रहे? सीधे शब्दों में कहा जाए तो कागज पर नीली श्याही से ख़बरों को हर्फों में उतारने वाला मीडिया पुराना मीडिया है और की-बोर्ड पर उँगलियाँ चलाकर ख़बरों को आकार देकर उसे चंद सेकंड में अपने पाठकों को परोसने वाला माध्यम नया मीडिया! यानी प्रिंट मीडिया बनाम वेब मीडिया, ऑनलाइन न्यूज़ पेपर्स, सोशल साइट्स, ब्लॉग्स और ऐसा ही बहुत कुछ!       
   नए मीडिया को लेकर आज भी भ्रम की स्थिति कायम है। लोगों का मानना है कि नया मीडिया यानी इंटरनेट के माध्यम से होने वाली पत्रकारिता! जबकि, देखा जाए तो नया मीडिया ख़बरों, लेखों, रिपोर्ताज तक ही सीमित नहीं है। दरअसल, नए मीडिया की परिभाषा पुराने पारंपरिक मीडिया की तर्ज पर नहीं की जा सकती। अखबारों की वेबसाइट्स और पोर्टल ही नए मीडिया की परिभाषा नहीं हैं। जॉब सर्चिंग वेबसाइट, मेट्रीमोनियल साइट्स, ब्लॉग, स्ट्रीमिंग, ईमेल, चैटिंग, इंटरनेट-कॉल, ऑनलाइन शॉपिंग, नेट सर्वे, इंटरनेट मैसेज साइट्स, फ्रेंडशिप वेबसाइटें और सॉफ्टवेयर भी नए मीडिया का ही हिस्सा हैं। आज बड़ी गलती ये होती है कि नए मीडिया को पत्रकारिता का स्वरूप समझ लिया जाता है। समझने के लिए शायद इतना ही काफी होता। जबकि, वास्तव में नया मीडिया इन तक भी सीमित नहीं है। नए मीडिया की तो कोई सीमाएं ही नहीं हैं, ये अनंत है।
   नए मीडिया का सीधा सा अर्थ है ऐसे सभी टेक्स्ट, फोटो, वीडियो, ऑडियो और ऐसी सर्विसेस जिन्हें डिजिटल माध्यमों से प्रोसेस किया जा सकता है। इसे दो अलग−अलग विधाओं वाले क्षेत्रों मीडिया और कम्प्यूटिंग के जोड़ के रूप में भी देखा और समझा जा सकता है। नए मीडिया का उभार तब शुरू हुआ, जब नए ज़माने के साथ कदम मिलाने के लिए इसकी जरुरत शिद्दत से महसूस की गई! 1995 के बाद इंटरनेट के विस्तार के साथ नए ज़माने के मीडिया का जो दौर शुरू हुआ था, वो आज भी नए-नए बदलाव के साथ जारी है। इसके बाद के दशक में शिक्षा और मनोरंजन के लिए सीडी रोम का दौर आया तो इस नए मीडिया को पैर जमाने का मौका मिला।
    मुद्दे की बात ये है कि नए मीडिया का उपयोगकर्ता एकपक्षीय सूचना संचार तक बने रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। वो खुद भी सूचनाओं के इस संसार में गोते लगाकर उसका हिस्सेदार बन सकने के लिए स्वंतत्र है। ब्लॉग से, वेबसाइटों और पोर्टलों पर अपना पक्ष देकर, यू-ट्यूब पर अपनी विधाओं के फोटो या वीडियो अपलोड करके! यानी जो पुराना मीडिया अब तक सिर्फ पाठक को ख़बरें परोसने तक सीमित था, वो पाठक अपने विचारों को सामने रखकर अब बराबरी में खड़ा होने लगा है। नए मीडिया ने पाठक को पुराने और पारंपरिक मीडिया की एकपक्षता और दूसरों का ज्ञान झेलने की प्रवृत्ति से मुक्त होने का मौका भी दिया। हमारा पुराना मीडिया एक से अनेक के मॉडल पर बना था। आशय यह कि एक समाचार प्रसारित करता था और उसे सैकड़ों-हज़ारों ग्रहण करते थे। जबकि, नया मीडिया कई से कई तक के मॉडल पर है। यही उसकी लोकतांत्रिक प्रवृत्ति का प्रतीक भी है। नया मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी को अखबार मालिकों और पत्रकारों तक ही बांधकर नहीं रखता, बल्कि उसे पाठकों तक भी विस्तारित करता है।
  लेकिन, नए मीडिया में सबकुछ अच्छा हो, ऐसा भी नहीं है। नए मीडिया के साथ एक जोखिम भी खड़ा नजर आता है। फ़ेसबुक जैसी लोकप्रिय सोशल नेटवर्किग वेबसाइट का इस्तेमाल दुनियाभर में अरबों लोग करते हैं। इस फेसबुक ने एक आभासी समाज खड़ा कर दिया है। दोस्तों की बड़ी आभासी फ़ौज खड़ी हो गई! लेकिन, वास्तव में ये सबकुछ छद्म दुनिया है। जैसे ही इंटरनेट का कनेक्शन टूटता है, सब छिन्न-भिन्न हो जाता है। आशय यह कि सारे रिश्ते इंटरनेट के मोहताज हैं। जबकि, परंपरागत मीडिया में ऐसा कुछ नहीं था! अख़बारों में 'संपादक के नाम पत्र' लिखने वालों के बीच भी एक अजीब सा जुड़ाव था। दरअसल, तब के ये पत्र लेखक ही आज के व्ह्सिल ब्लोअर हैं, जो अन्याय के खिलाफ खड़े होने में देर नहीं करते! अखबार में जो ख़बरें छूट जाती थी या न छापने की कोई मजबूरी होती थी, तब ये पत्र लेखक ही उसकी पूर्ति करने की भूमिका अदा करते थे।
  इंटरनेट के बारे में लोगों की धारणा है कि ये लोगों को एक-दूसरे से अलग करता है। इंटरनेट के इस युग में सभी बिखरे हुए हैं। भौतिक रूप से साथ होकर भी कोई साथ नहीं होता! हर तरफ सिर्फ वर्चुअल रिश्ता ही रह गया है। ज्यादातर लोग ईमेल, मैसेज, ऑनलाइन चैटिंग, गेम, ऑनलाइन शॉपिंग, व्हाट्सएप्प, फ़ेसबुक और ट्विटर में ही अपना वक़्त बिताते हैं। ख़बरों की तीव्रता, अपडेशन इतना सघन और बाध्यकारी हो जाता है कि कोई भी इस माध्यम से हटना नहीं चाहता। दरअसल, आज इंटरनेट लोगों की लत बन चुका है। इस बारे में कई अध्ययन और शोध किए जा चुके हैं, इनमें पाया गया है कि जिन लोगों को इंटरनेट की आदत है वो अकेलेपन और अवसाद के शिकार हो जाते हैं।
  आज लोगों के वास्तविक जीवन की प्रवृत्ति है कि उसे सामाजिक रहने के लिए सोशल मीडिया का मोहताज होना पड़ रहा है। नए मीडिया पर ये ऊँगली भी उठाई जाती है कि वो उपयोगकर्ता को अपने आसपास यहाँ तक कि परिवार से भी विमुख करके असामाजिक बना रहा है। देखा जाए तो हर नए बदलाव के साथ अच्छाई के साथ कुछ खामियां भी होती है। नए मीडिया ने यदि सुविधा और आज़ादी उपलब्ध कराई है, उसका सही इस्तेमाल करने का दायित्व तो उपयोगकर्ता पर ही है। पारम्परिक मीडिया के मुकाबले नए मीडिया ने पुराने अवरोधों से आज़ादी दिलाई है तो इसका मतलब कदापि ये नहीं कि उसे अपने दायित्वों से मुक्त मान लिया जाएं।
  मैसेजों वाले एप्स पर ऑनलाइन व्यवहार भी सामाजिकता ही है। इंटरनेट ये सुविधा उपलब्ध कराता है कि मेल या सोशल मीडिया के ज़रिए किसी व्यक्ति या समूह से संवाद किया जा सके। उस पर लिखा जा सके, लेकिन क्या लिखा जाए और कैसे ये तो सोचने, लिखने और अपनी बात कहने वाले की अपनी भाषा और रवैये पर निर्भर है। किस तरह से सभ्य तरीके से ऑनलाइन बिरादरी के सामने पेश आना चाहिए, इंटरनेट ये भी बताता है।
  इंटरनेट को व्यक्ति के एकाकीपन का एक लाभदायक उपचार माना जाने लगा है। फ़ेस-टू-फ़ेस संवाद में शर्मीले और असहज लोग आभासी दुनिया में दोस्तियां बनाने और संवाद करने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। फ़ेसबुक जैसे माध्यम न सिर्फ़ व्यक्ति केंद्रित भावनाओं को प्रश्रय देते हैं, बल्कि उसके ज़रिए कई सामाजिक दायित्व भी पूर किए जा सकते हैं। फ़ेसबुक पर बने कई पेज सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए प्रयासरत हैं। आभासी समुदाय का एक हिस्सा सोशल मीडिया को वास्तविक जीवन के संघर्षों और ख़ुशियों से जोड़े रखता है। ऑनलाइन उपलब्ध अधिकांश सामग्री बुरी नहीं है। वो ज़रूरत में काम आती है और लाभप्रद रहती है। एडिक्शन या लत से आगे इंटरनेट ने अब आम उपभोक्ताओं की ज़िंदगी में स्वाभाविक जगह बना ली है।
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परदे का दुष्कर्म इतना वीभत्स नहीं!

- हेमंत पाल

 न दिनों समाज में दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ रही है। जिस वीभत्स तरीके से ये घटनाएं हो रही है, उसे देखकर लगता है मानो हर दुष्कर्मी ये साबित करने में तुला है कि इस दरिंदगी में वे सबसे आगे है। एक समय वो भी था जब दुष्कर्म के इक्का-दुक्का मामले होते थे, जिन्हें भाषा संस्कार के तहत 'शील भंग' कहा जाता था। इसके बाद इसे बलात्कार के रूप में परिभाषित किया जाने लगा! क्योंकि, जो कृत्य होता था, वो बलात होता है। लेकिन, अब जिस तरह से नाबालिग और दूध पीती बच्चियों के साथ दरिंदगी के मामले सामने आए हैं, उसने हैवानिययत की पराकाष्ठा लांघ ली। समाज में बरसों से यह चलन है कि हर सामाजिक बुराई के पीछे फिल्मों को दोष दिया जाता है। यह भी कहा जाता रहा है कि दुष्कर्म की घटनाओं में उन फिल्मों की ख़ास भूमिका होती है, जिनमें ऐसे दृश्यों का महिमा मंडन किया जाता है। लेकिन, आज जिस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं, उन्हें देख और सुनकर सिनेमाई दुष्कर्म बौना सा लगने लगा है। क्योेंकि, शायद ही कोई फिल्म ऐसी होगी जिसमें बलात्कार के इतने घिनौने चेहरे को दिखाया गया होगा! हकीकत तो यह है कि आज समाज में व्याप्त इस हिंसक तथा घिनौनी प्रवृत्ति के सामने सिनेमा के परदे पर दिखाए जाने वाले नकली दुष्कर्म वास्तविकता से कोसों दूर हैं।
  हिन्दी फिल्मों की कहानी मेें दुष्कर्म का सिलसिला काफी पुराना है। दिलीप कुमार से लेकर देव आनंद और राज बब्बर से लेकर रणजीत और प्रेम चोपड़ा तक इस घिनौनी सामाजिक बुराई के हिस्सेदार बन चुके हैं। लेकिन, किसी भी फिल्म में ऐसे दृश्यों को इतने विकृत रूप में नहीं बताया गया, जैसा कि आज वास्तविकता में देखा जा रहा है। फिल्म 'अमर' में दिलीप कुमार एक अनपढ़ नौकरानी निम्मी के साथ दुष्कर्म करते हैं। फिल्म की नायिका उनके खिलाफ न्यायालय में कड़ी होकर उसे इंसाफ दिलाती है। देव आनंद की फिल्म 'आंधियाॅं' में भी देव आनंद के कोप का शिकार निम्मी ही होती है। संयोग है या भेड़चाल है कि 50 के दशक की अधिकांश ऐसी फिल्मों में निम्मी को सबसे ज्यादा बार दुष्कर्मियों ने अपना शिकार बनाया। इंदौर मे फिल्माई गई फिल्म 'आन' में भी निम्मी ही प्रेमनाथ की हवस का शिकार बनती है।
  इसके बाद वह दौर भी आया जब नायक की बहन को खलनायक ने अपनी बदनीयत का शिकार बनाता है। इस तरह की पीड़ित बहनों में नाजिमा के हिस्से यह भूमिका सबसे ज्यादा बार आई। कई फिल्मों में नायक की अंधी बहन के साथ दुष्कर्म के दृश्य फिल्माए गए! नौकरानी के साथ नायक के भाई या किसी रिश्तेदार ने परदे पर ज्यादती की। दुष्कर्म के दृश्यों से भरपूर इस तरह की फिल्मों में अंजाना, झील के उस पार जैसी फिल्मों के नाम हैं। ऐसा नहीं है कि केवल सह-नायिकाएं ही पर्दे पर दुष्कर्म का शिकार बनी! कई फिल्मों में नायिकाओं को भी इस पीड़ा से गुजरना पडा है। ऐसी फिल्मों में सबसे सफल फिल्म थी बिमल राय की 'मधुमति' जिसमें नायिका वैजयंती माला को अय्याश जमींदार की भूमिका निभा रहे प्राण की हवस का शिकार बनना पडता है। श्वेत-श्याम दौर की इस फिल्म में बिमल राय ने लाइट एंड शेड के माध्यम से इस दृश्य को इतना वास्तविक बनाया था, कि दर्शकों को केवल प्राण की आंखे और दीवार पर टंगे शेर के मुखौटे को देखकर की दुष्कर्म का वीभत्स चेहरा दिखाई देने लगता है।
  जब रंगीन फिल्मों का दौर आया तो दुष्कर्म के दृश्यों में रंगीनियत जोड़कर इससे दर्शकों को गुदगुदाने का काम किया गया। 'अपराध' जैसी फिल्मों में दुष्कर्म के लम्बे सीन करने के बाद रणजीत को इसका एक्सपर्ट माना जाने लगा। मनमोहन भी इसी श्रेणी में आए थे, जब उन्होंने 'आराधना' में शर्मिला टैगौर के साथ दुष्कर्म का दृश्य जीवंत बनाया। मनोज कुमार ने 'रोटी कपडा मकान' में मौसमी चटर्जी के साथ दुष्कर्म का दृश्य आटे की बोरियों के बीच फिल्माकर एक नया अंदाज दिया था। 'इंसाफ का तराजू' में पदमिनी कोल्हापुरे के अधोवस्त्र पर की रिंग फेंककर राज बब्बर ने दुष्कर्म की वीभत्सता का नया अंदाज दिखाया था। 
  अजय देवगन की फिल्म 'जिगर' में हीरो बहन की इज्जत लूटने का बदला लेता है। फिल्म 'बहार आने तक' में रूपा गांगुली अपने बलात्कार का बदला लेने के लिए बलात्कारी के बड़े भाई से शादी कर लेती है। बाद में देवर को ख़ुदकुशी करना पड़ती है। 'सात खून माफ़' में प्रियंका चौपड़ा भी दुष्कर्म का बदला लेती है तो दुश्मन फिल्म में काजोल अपनी बहन से हुए बलात्कार का बदला लेती है! लेकिन, 'प्रेम ग्रंथ' में माधुरी के साथ हुए दुष्कर्म का पूरा गाँव आरोपी को जिंदा जलाकर बदला लेता है। एक ऐसी भी फिल्म 'जख्मी औरत' बनी थी, जिसमें डिंपल कपाड़िया दुष्कर्म पीड़ित महिलाओं की गैंग बनाकर बदला लेती है? लेकिन, इन सब फिल्मों का आधार दुष्कर्म और बदले की भावना थी। इस दौर में 'मधुमति' के बाद बलात्कार पर सबसे ज्यादा सटीक तथा प्रभावकारी फिल्म बनी थी रेखा अभिनीत 'घर' जिसमें सामूहिक दुष्कर्म से गुजरी महिला की भावनाओं तथा दर्द को रेखा ने वास्तविकता प्रदान की थी। 'दामिनी' में भी इस समस्या पर कैमरा सार्थक तरीके से चलता दिखाई दिया! वरना अधिकांश फिल्मों में सिनेमाई दुष्कर्म हमेशा ही असलियत से परे ही दिखाई दिए। 
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प्रदेश भाजपा अध्यक्ष वो बनेगा, जिसे शिवराज सिंह नहीं चाहेंगे?

   मध्यप्रदेश भाजपा का नया अध्यक्ष कौन होगा, इसे लेकर पार्टी के अंदर घमासान जारी है। सतह पर शांति नजर आ रही है, पर नीचे जमकर राजनीति चल रही! एक तरफ वर्तमान अध्यक्ष राकेश सिंह को दोबारा अध्यक्ष बनाए जाने की कोशिश है, दूसरी तरफ शिवराजसिंह चौहान अपने गुट के किसी नेता को अध्यक्ष बनाए जाने की जुगत में लगे हैं! वे खुद इस दौड़ में नहीं हैं, पर राजनीति की शतरंज की बिसात पर मोहरे वे ही चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में आम सहमति बनने में मुश्किल नजर आ रही है! इस चुनाव में संघ की भी भूमिका नजर आ रही है! संघ की कोशिश है कि किसी ऐसे नेता को प्रदेश की कमान सौंपी जाए, जो उनसे जुड़ा हो! भाजपा में इस बार का प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव पिछले चुनाव से अलग है। क्योंकि, पार्टी सत्ता में नहीं है! लेकिन, हालात जो भी बनें, अंतिम फैसला पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की मर्जी के बिना संभव नहीं है! ऐसी स्थिति में शिवराज सिंह का पत्ता सबसे कमजोर है! इस बात के भी पूरे आसार हैं कि अध्यक्ष की कुर्सी उसे मिलेगी जिसे शिवराज अध्यक्ष बनने देना नहीं चाहेंगे! 
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- हेमंत पाल

     मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को नए प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव की हलचल पूरे शबाब पर है। सतह से ऊपर सन्नाटा है, पर सतह के नीचे एक-दूसरे की टांग खिंचाई चल रही है। ऐसे हालात में पार्टी को मुश्किल दौर से गुजरना पड़ सकता है! डेढ़ दशक बाद प्रदेश में ऐसा मौका आया, जब पार्टी सत्ता में नहीं है और गुटबाजी का नेतृत्व करने वाले नेता अपने चहेते को अध्यक्ष बनाने की जुगत लगा रहे हैं! भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव दिसंबर माह के अंत में प्रस्तावित है, इसलिए प्रदेश के अध्यक्ष का चुनाव इससे पहले होना जरूरी समझा जा रहा है। भाजपा में इस बार अध्यक्ष पद के लिए वर्तमान अध्यक्ष राकेश सिंह के अलावा, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा, पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्रा, भूपेंद्र सिंह, विश्वास सारंग और सांसद विष्णुदत्त शर्मा बड़े दावेदार हैं। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रहलाद पटेल की सक्रियता भी नजर आ रही है। पार्टी के मुताबिक प्रदेश भाजपा का अध्यक्ष वही होगा, जिसे पार्टी नेतृत्व के अलावा आरएसएस का समर्थन मिलेगा। भाजपा चाहती है कि प्रदेश में पार्टी का नेतृत्व किसी युवा और साफ-सुथरी छवि के व्यक्ति को सौंपा जाए, जिसके पास सशक्त जनाधार हो! 
  मध्यप्रदेश के अध्यक्ष के लिए रायशुमारी का फैसला और उसकी बागडोर राम माधव जैसे नेता को दी गई हैं। बतौर पर्यवेक्षक केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी और अश्विनी चौबे को नियुक्त किया है। इससे लगता है कि इस पद को लेकर पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व भी गंभीरता से मंथन कर रहा है। संघ भी नहीं चाहता कि वो इस बार अध्यक्ष पद को अपने हाथ से जाने दे! इसका सीधा आशय है कि किसी एक नाम पर आम सहमति न बन पाने की स्थिति में प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी संघ समर्थित किसी नेता को सौंपी जाने के आसार हैं। अरविंद भदौरिया, विष्णुदत्त शर्मा और अजयप्रताप सिंह को संघ ने ही आगे बढ़ाया है! बताते हैं कि विष्णुदत्त शर्मा के नाम को लेकर काफी कुछ सहमति बन भी चुकी है, लेकिन अभी कुछ कहा नहीं जा सकता कि अंतिम स्थिति क्या होगी! 
  रायशुमारी के पीछे मुख्य मकसद मौजूदा अध्यक्ष राकेश सिंह को एक बार फिर मौका दिए जाने, संघ समर्थित किसी नेता को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपने, राकेश सिंह के विरोधियों को किनारे करने और ऐसे लोगों को चुनाव की दौड़ से अलग रखना हैं, जो इस काबिल नहीं हैं! लेकिन, सहमति के आसार बहुत कम नजर आ रहे हैं। चुनाव में शिवराज सिंह की भूमिका को लेकर दूसरे गुट के कई नेताओं को आपत्ति है। क्योंकि, वे खुद के तो चुनाव से अलग होने की घोषणा कर चुके हैं, पर अपने गुट के भूपेंद्र सिंह और रामपाल सिंह के लिए जमकर लॉबिंग कर रहे हैं। उनका एक ही मकसद है कि किसी भी स्थिति में राकेश सिंह को दोबारा मौका नहीं दिया जाना चाहिए! लेकिन, शिवराज सिंह की बात को पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व गंभीरता से लेगा, इसमें शक है! शिवराज सिंह ने शुरू से ही राकेश सिंह को आने निशाने पर रखा है, कि वे कहीं दोबारा अध्यक्ष न बन जाएं! इसलिए उन्होंने अपने तरकश के हर तीर का इस्तेमाल किया। जब उनकी चाल कमजोर पड़ने लगी, तो उन्होंने कृष्णमुरारी मोघे तक पर दांव खेलने की कोशिश की! उन्हें पता था कि ये बुझा हुआ तीर है, फिर भी उन्होंने पांसा फैंका! इसका नतीजा ये हुआ कि मोघे का नाम सामने आते ही सुमित्रा महाजन ने दिल्ली की तरफ कूच किया और पार्टी को अपना पक्ष बताया! इसके बाद स्थिति ये बनी कि खुद शिवराज सिंह भी राकेश सिंह के घर पहुँच गए! उधर, प्रभात झा ने भी ऐसा ही एक बुझे तीर उषा ठाकुर का नाम आगे बढ़ाकर किया था, पर इस नाम को किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया! 
  राकेश सिंह दूसरी पारी के लिए आश्वस्त हैं, लेकिन शिवराज सिंह के साथ भिड़ंत के कारण उनका दावा कमजोर लगता है। उनके विरोधी गुट का कहना है कि राकेश सिंह की अपने कार्यकाल में कोई खास उपलब्धि नहीं रही। उनके कार्यकाल में ही भारतीय जनता पार्टी को सत्ता गंवानी पड़ी है। जहाँ तक लोकसभा चुनाव में 29 में से 28 सीट जीतने की बात है, तो इसे मोदी लहर माना गया! पार्टी में सबसे बड़ी चुनौती नेताओं की आपसी गुटबाजी को माना गया था, जिसे दूर करने में राकेश सिंह सफल नहीं हुए! उन पर ये भी आरोप लगा है कि उन्होंने खुद का भी एक गुट खड़ा कर लिया। उनके और शिवराज सिंह के बीच चल रही गुटबाजी भी साफ दिखाई दे रही है। एक मुद्दा ये भी है कि क्या सामाजिक समीकरणों की इन चुनाव में अनदेखी की जाएगी? अभी अध्यक्ष पद पर राकेश सिंह हैं, जो ठाकुर हैं तो क्या फिर किसी उच्च जाति के नेता को मौका दिया जाएगा? यदि ब्राह्मण, ठाकुर या वणिक जाति के नेता को अध्यक्ष बनने का मौका दिया गया तो ओबीसी या आदिवासियों में अच्छा संदेश नहीं जाएगा! लेकिन, अभी जो नाम सामने आए हैं, उनमें न तो कोई आदिवासी है और किसी ओबीसी का नाम किसी गुट ने आगे बढ़ाया है!   
   खजुराहो लोकसभा सीट से सांसद और संघ के खाते से विष्णुदत्त शर्मा को प्रदेश अध्यक्ष पद की दौड़ में दमदार नाम बताया जा रहा है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के नेता होने के नाते संघ में विष्णुदत्त शर्मा की अच्छी पकड़ है। वे संगठन के आदमी है और उन्होंने पूरे प्रदेश में काम किया है! उनके समर्थकों की संख्या भी अच्छी खासी है। लेकिन, भाजपा के कुछ नेता विष्णुदत्त शर्मा को अध्यक्ष पद तक पहुँचने देना नहीं चाहते! इसके कई कारण हैं! सबसे बड़ा तो ये कि वे प्रदेश में बड़े नेता बनकर उभरेंगे, जो अभी नहीं हैं! इसके अलावा वे स्वभाव से गुस्सैल हैं और कभी भी, कहीं भी वे अपना संयम खो देते हैं! ऐसी स्थिति में उनकी ये आदत पार्टी को नुकसान पहुंचा सकती है। इसके अलावा नरोत्तम मिश्रा का नाम भी शुरू में लिया जा रहा था, लेकिन वे अब पीछे हट गए! इसके पीछे उनकी अपनी रणनीति समझी जा रही है। शिवराज गुट से भूपेंद्र सिंह और रामपाल सिंह के नाम भी हैं। विश्वास सारंग को भी शिवराज समर्थकों में गिना जाता है। जबकि, राज्यसभा सांसद प्रभात झा और सांसद वीरेंद्र खटीक के नाम भी चर्चा में हैं। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को भी इस पद के लिए स्वाभाविक दावेदार समझा जाता रहा है। लेकिन, अभी उनके पास पश्चिम बंगाल की बड़ी जिम्मेदारी है, इसलिए पार्टी उनका लक्ष्य बदलना नहीं चाहेगी! 
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Wednesday, December 11, 2019

पुलिस और अपराधियों के बीच लाचार जनता की बेबसी!

   देश के 10 लाख से अधिक आबादी वाले 35 शहरों में से 18 ऐसे शहर हैं, जिनके आपराधिक आँकड़े दिल्ली को पीछे छोड़ चुके हैं। इनमें इंदौर का भी नाम है। जब रिपोर्ट दर्ज करने के कारण इतना बढ़ा हुआ आंकडा मिल रहा है, तो बिना शिकायत वाले अपराधों का आंकड़ा क्या होगा, ये सोचा जा सकता है। पर, सवाल है कि क्या मामले सिर्फ छोटे शहरों में ही दर्ज हो रहे हैं? बढ़ती जनसंख्या का दबाव छोटे शहरो के संसाधनों पर भारी पड़ रहा है। अपर्याप्त पुलिस बल और पुराने जमाने के बने कानून इस समस्या को ज्यादा गंभीर बना रहे हैं। बढ़ती राजनीतिक स्पर्धा के चलते लोगों का ध्यान सामाजिक समस्याओं पर न होकर राजनेताओं को अपने पक्ष में करने के लिए सिर्फ भीड़ जुटाने के लिए किए जाने वाले सम्मेलनों पर लगा हुआ है। प्रजातंत्र पर आज पूरी तरह भीड़तंत्र हावी हो चुका है।
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हेमंत पाल

   इन दिनों प्रदेश में बढ़ते अपराधों के साथ इंदौर भी इस मुद्दे पर खासी चर्चा में है। यहाँ अपराधों की नई फसल लहलहा रही है। मिनी मुंबई कहा जाने वाला यह शांतिप्रिय शहर कुछ सालों से अपराधियों, संगठित अपराधों, जमीन से जुड़े विवादों और धार्मिक वैमनस्यता के चलते लगातार खबरों में हैं। आज इस शहर में रीयल एस्टेट कारोबार में बेतहाशा वृद्धि हुई! कुकुरमुत्तों की तरह उग आईं शराब की दुकानें, खुलेआम नशीली दवाईयों का मिलना, आसानी से उपलब्ध अवैध हथियार और वर्षों से चला आ रहा भ्रष्टाचार, रंगदारी, अवैध वसूली और लचर कानून व्यवस्था की वजह से बढ़ रहे अपराधों ने शहर को अपराधों के मामले में देश के शीर्ष 10 शहरों में लाकर खड़ा कर दिया है। शहर के जिम्मेदार नागरिकों के लिए यहाँ के अपराधी किसी आतंकवादियों और नक्सलियों से कम नहीं हैं। लूट-खसौट, कॉन्ट्रैक्ट किलिंग कैसे अपराध पनप रहे हैं। पकड़े जाने के बावजूद इन अपराधियों को सजा नहीं हो पा रही! ऐसे अपराधियों के हौंसले बुलंद होते जा रहे हैं। ऐसे में सरकार की भूमिका कहीं नजर नहीं आ रही! सरकार को और जनता को तय कर लेना चाहिए कि जघन्य अपराधियों को फास्ट ट्रायल के जरिए जितनी जल्दी हो सके सख्त सजा मिलना चाहिए। पुलिस की सख्ती मीडिया में तो दिखती है, परोक्ष में नजर नहीं आती! जब भी पुलिस की सख्ती पर उंगली उठाई जाती है, तो पुलिस प्रशासन ट्रैफिक की सख्ती दिखाने लगता है! कभी हेलमेट तो कभी रांग साइड  मुहिम छेड़ दी जाती है! जबकि, जरुरत रात्रि गश्त, आदतन अपराधियों पर नियंत्रण और सड़क पर जनता की सुरक्षा।   
   भाजपा लगातार कानून व्यवस्था के मामले में प्रदेश सरकार को घेर रही है। विधानसभा में भी नरोत्तम मिश्रा ने इस मसले को उठाया था। उन्होंने कहा था कि प्रदेश में अपहरण उद्योग पनप रहा है। ऐसा लग रहा है कि प्रदेश में अपहरण  का कारोबार शुरू हो गया। अनुपूरक बजट पर चर्चा करते समय प्रदेश में बढ़ते अपराध पर कई सदस्यों ने सवाल उठाए थे। नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने भी आंकड़ों के साथ कहा था कि 11 नवंबर से 22 जनवरी के बीच प्रदेश में 12325 अपराध हुए, इसमें 332 हत्या, 213 लूट, 6310 महिलाओं पर अत्याचार, 3 डकैती  और 5467 चोरी के मामले थे। महिला अत्याचार के सबसे ज्यादा 445 मामले भोपाल जिले में दर्ज हुए। आरिफ मसूद के एक सवाल के जवाब में यह सामने आया कि 1 जनवरी 2018 से 31 दिसंबर 2018 के बीच भोपाल जिले में महिलाओं के साथ 664 अपराध गंभीर अपराध हुए, इनमें 152 बलात्कार, 185 छेड़छाड़, 327 अपहरण के थे।
  आए दिन होने वाली सड़क लूट से व्यापारियों का इस शहर से मानो विश्वास ही उठ गया है। पिछले दिनों कई व्यापारियों को लुटेरों ने रास्ते में ही लूट लिया। सड़क पर सुरक्षित चलना भी मुश्किल हो रहा है। कौन कब हमला कर दे, मोबाइल या गले की चेन छीन ले या शराब के लिए पैसे मांग ले कहा नहीं जा सकता। जघन्य अपराधों के बढ़ते ग्राफ के कारण इंदौर शहर देश की आपराधिक राजधानी बनता जा रहा है। आंकड़ों के औसत के हिसाब से इंदौर में हुए अपराधों की संख्‍या दिल्ली की तुलना में तीन गुना बताई जा रही है। देखने में आ रहा है कि महानगरों की तुलना में टियर-2 शहरों में अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं। इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि अपराधियों में पुलिस का खौफ नहीं रहा! जमानत में छूटे अपराधी फिर अपने काम पर लग जाते हैं और पुलिस को पता भी नहीं चलता।
  शहर में आपराधिक घटनाओं में अचानक हो रही बढ़ोतरी की वजह से पुलिस के सिस्टम पर सवाल खड़े होने लगे हैं। एडीजी का मुख्यालय भी यहीं है। मॉनिटरिंग के लिए तीन एसपी के साथ एसएसपी सिस्टम लागू है। एएसपी और सीएसपी स्तर के अफसरों की भी पर्याप्त संख्या है। बावजूद इसके रात गहराते ही मैदान में नजर आने के बजाए पुलिस थानों में लौट जाती है। करीब 40 किलोमीटर लम्बा बायपास अपराध का नया अड्डा बनता जा रहा है। अँधेरा होते ही यहाँ अपराधी सक्रिय हो जाते हैं, पर पुलिस बेखबर! शहर की कानून व्यवस्था के लचर होने का जीवंत सबूत ये है कि यहाँ बाल सुधार गृह की भोजनशाला की खिड़की तोड़कर 8 विचाराधीन बाल अपचारी भाग गए। ये प्रदेश के अलग अलग हिस्सों के रहने वाले थे और गंभीर वारदातों में लिप्त रहे थे। इन तमाम लोगों के मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं। पिछले कुछ ही महीनों में 13 बाल अपचारियों के फरार होने से हड़कंप मच गया है! कुछ महीनों में इस तरह की 2 बड़ी घटनाएं सुधार गृह की सुरक्षा और वहां के जिम्मेदारों की चौकसी पर सवाल खड़े करती है। बाल सुधार गृह के अधीक्षक के मुताबिक भवन जर्जर है इसलिए इस तरह की घटनाएं हो रही हैं। 
     प्रदेश में बढ़ते अपराधों का सबसे बड़ा कारण छोटे शहरों के संसाधनों पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव है। राजनीतिक संरक्षण, पुलिसकर्मियों की अपराधियों से सांठगांठ, अपर्याप्त पुलिस बल और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगवाने वाले पुराने कानून इस मसले को और गंभीर बना रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं कि राजनीति संरक्षण प्रदेश में अपराधों के बढ़ने का एक बड़ा कारण है! नेताओं के आस-पास समर्पित कार्यकर्ताओं के बजाए अपराधिक गतिविधियों में संलग्न गुंडों की भीड़ बढ़ती जा रही है! राजनीति से भयभीत होकर पुलिस भी उनपर हाथ डालने से डरती है! यही कारण है कि अपराधों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है! ऐसे में सरकार का ये दावा कहाँ गया कि मध्यप्रदेश 'शांति का टापू' है?
    अपराधों के मामले में प्रदेश का सबसे आधुनिक शहर इंदौर लगातार असुरक्षित होता जा रहा है! अमन पसंद और चैन की जिंदगी जीने वालों का ये शहर कुछ सालों से हत्या, लूटपाट,अवैध हथियारों और ड्रग्स के कारोबार, कॉन्ट्रैक्ट किलिंग और भू-माफिया के विवादों के कारण लगातार चर्चित है! जमीन की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि और रियल इस्टेट कारोबार बढ़ने के कारण अवैध वसूली करने वाले गुंडे राजनीतिक संरक्षण में पनप रहे हैं! इस कारण इंदौर को अपराधों के मामले में देश के शीर्ष 10 शहरों में लाकर खड़ा कर दिया है। अकसर होने वाली लूटपाट से कारोबारियों का इंदौर पर से भरोसा उठने भी लगा! अपराधों के बढ़ते आंकड़ों के कारण इंदौर एक तरह से आपराधिक राजधानी बनता जा रहा है। महिलाओं से होने वाली लूटपाट आम बात हो गई! एक काला सच ये भी है कि शरीफ लोग तो अपनी बात कहने थाने जाने से ही घबराते हैं! सरकार थानों का माहौल ऐसा नहीं बना सकी कि आम शहरी निश्चिंत होकर शिकायत लिखवाने थाने जा सके! जब तक थानों का खौफ नहीं घटेगा, अपराध कैसे कम होंगे?
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Friday, December 6, 2019

नायिका की दूसरी पारी आसान नहीं!

हेमंत पाल

  अभी तक बॉलीवुड वो फार्मूला नहीं खोज पाया, जिसे अपनाकर फिल्म की सफलता का दावा किया जा सके! लेकिन, बॉलीवुड के जांबाज हीरो और हीरोइन भी उस मिट्टी के बने होते हैं, जो आसानी से हार नहीं मानते! उनकी एक पारी पूरी होते ही वे दूसरी पारी की तैयारी कर लेते हैं! ऐसे हीरो, हीरोइनें की लंबी लिस्ट है, जिन्होंने दूसरी पारी में भी किस्मत आजमाई और सफल हुए! कुछ का सिक्का दूसरी बार में भी अच्छा चला! पर, ज्यादातर दूसरी पारी में कोई करिश्मा नहीं कर सके! अपनी दूसरी पारी में सर्वकालीन सफल अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन अकेले हैं! अमिताभ पहली पारी में जितने सफल रहे, उससे कहीं ज्यादा सफलता उन्होंने दूसरी पारी में पाई! लेकिन, कोई अभिनेत्री दूसरी पारी में बहुत ज्यादा सफल नहीं हुई! फिर वो धक् धक् गर्ल माधुरी दीक्षित ही क्यों न हो! 
  परदे पर हीरोइन की दोबारा वापसी आसान नहीं होती! उम्र की ढलान का असर दर्शक भांप लेते हैं! वे बूढ़े हीरो को तो स्वीकार लेते हैं, पर बूढ़ी हीरोइन को परदे पर इश्क़ फरमाते देखना नहीं चाहते! बॉलीवुड में 35 प्लस की हीरोइन के लिए वैसे भी कोई पटकथा नहीं लिखी जाती! अधिकांश हीरोइनों की दूसरी पारी माँ या बहन तक सीमित हो जाती हैं। 13 साल के लम्बे अंतराल के बाद अब शिल्पा शेट्टी भी अभिनय की अपनी दूसरी पारी शुरू कर रही है! वे सब्बीर खान की फिल्म 'निकम्मा' में नजर आएंगी। शिल्पा को आखिरी बार 2007 में 'लाइफ इन ए मेट्रो' और 'अपने' में देखा गया था। लेकिन, वे अपनी इस कोशिश में कितनी सफल रहती हैं, ये सामने आना अभी बाकी है।
  सौदागर, खामोशी, दिल से जैसी फिल्मों से पहचान बनाने वाली मनीषा कोइराला कैंसर से जंग लड़ने के बाद ‘डियर माया’ में दिखाई दी! पर, बात नहीं बनी! कपूर खानदान की करिश्मा की दूसरी पारी भी कमजोर साबित हुईं। छ: साल बाद करिश्मा ने विक्रम भट्ट की 'डेंजरस इश्क' जैसी फिल्म की! लेकिन, दर्शकों ने फिल्म को नकार दिया! सफलतम हीरोइन की इमेज वाली माधुरी दीक्षित की दूसरी पारी भी फीकी रही! 2007 में उन्होंने 'आजा नच ले' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म नहीं चली! इसके बाद एक्शन फिल्म 'गुलाब गैंग' भी पानी नहीं माँगा! 'डेढ़ इश्किया' को दर्शक नहीं मिले! रेखा जैसी नामचीन एक्ट्रेस ने भी 'सुपर नानी' से वापसी की कोशिश की, लेकिन फिल्म असफल रही!  
   तब्बू भी काफी समय से इस इंतजार में थीं कि बॉलीवुड में उनकी दूसरी पारी शुरू हो! लेकिन, तब्बू का ये फैसला सही था कि उन्होंने हीरोइन के बजाय कैरेक्टर रोल को चुना! पहले 'हैदर' और उसके बाद तब्बू 'दृश्यम' में दिखाई दी और दोनों ही फिल्मों में उनके अभिनय को सराहा गया! श्रीदेवी को भी उस फेहरिस्त में रखा जा सकता है, जिनकी वापसी का दर्शकों ने स्वागत किया था! 2012 में आई 'इंग्लिश विंग्लिश' सफल रही थी! फिल्म की पटकथा मजबूत थी और श्रीदेवी ने भी उस अधेड़ महिला का किरदार निभाया था, जो बेटियों  पर इंग्लिश सीखती है। इस फिल्म की सफलता के बाद भी श्रीदेवी ने दूसरी फिल्म की जल्दबाजी नहीं की! डिम्पल कपाड़िया दूसरी पारी को भी सफल कहा जा सकता है। रुदाली, लेकिन, बनारस जैसी फिल्मों से डिम्पल ने अपनी ग्लैमरस पहचान को पूरी तरह बदल डाला था! लेकिन, राजेश खन्ना की मौत के बाद से ही वे परदे से दूर हैं! डिंपल ने होमी अदजानिया की ही फिल्म 'कॉकटेल' की थी। फिल्म में डिंपल सैफ अली की माँ के रोल में थी! 'कॉकटेल' से पहले डिंपल ने होमी की एक फिल्म 'बीइंग सायरस' में भी काम किया था।
  सलमान खान से साथ 'तेरे नाम' से अभिनय यात्रा शुरू करने वाली एक्ट्रेस भूमिका चावला कई सालों से बॉलीवुड से अलग रहीं! 2007 में उनकी आखिरी फिल्म 'गांधी माई फादर' रिलीज हुई थी। इसके बाद भूमिका ने 'एसएस धोनी' की बायोपिक फिल्म में धोनी की 'बहन' बनकर वापसी की। एक वेब सीरिज में भी भूमिका को दर्शकों ने देखा है। पीछे पलटकर देखा जाए तो पुराने दौर में हीरोइन का वापसी करना बेहद मुश्किल काम माना जाता था। वापसी होती थी तो मां के रोल में! वहीदा रहमान, नूतन, माला सिन्हा, शर्मीला टैगोर, सायरा बानू समेत कई हीरोइनों ने फिर परदे का रुख किया, पर हीरो या हीरोइन की माँ बनकर! हीरोईन बनने का साहस संभवतः 70 के दशक में अपने अभिनय से धूम मचाने वाली मुमताज ने किया था! 1990 में 'आंधियां' से वापसी की कोशिश की थी। लेकिन, इस फिल्म के पिटने के साथ ही उन हीरोइनों की वापसी के दरवाजे भी बंद हो गए। ऐसी स्थिति में शिल्पा की परदे पर क्या कमाल दिखाती है, अभी इस बारे में कयास नहीं लगाए जा सकते! क्योंकि, सारा दारोमदार शिल्पा के कैरेक्टर पर निर्भर है! 
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