- हेमंत पाल
अपने जन्मकाल से ही हिंदी सिनेमा की अपनी एक धारा रही है। कुछ विषयों को छोड़ दें, तो ये धारा हमेशा बदलती रहती है। कभी ये समयकाल की घटनाओं से प्रभावित होती है, कभी सामाजिक बदलाव से! एक दौर ऐसा भी आया जब सिनेमा समाज के साथ साहित्य में भी अपने लिए मसाला ढूंढता रहा! बीसवीं सदी के शुरूआत में जब हिंदी सिनेमा गर्भ से बाहर निकला, तब उसकी सबसे ज्यादा मदद धार्मिक, पौराणिक और ऐतिहासिक विषयों की कहानियों ने की! सिनेमा की युवा अवस्था में इसके विषयों में स्वतंत्रता आंदोलन और गाँधीजी के आदर्श समाए रहे! याद कीजिए 'जिस देश में गंगा बहती है' को, जिसमें डकैतों और चोरों का ह्रदय परिवर्तन कराकर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लौटने की बात कही गई थी।
सिनेमा ने अपने सामाजिक सरोकारों को कभी अपने से अलग नहीं होने दिया, फिर वो किसी भी रूप में दर्शकों को परोसे जाते रहे हों! लगान, मुन्नाभाई एमबीबीएस, गजनी, कल हो ना हो, माई नेम इस खान, थ्री इडियट्स, तारे जमीं पर, चक दे इंडिया, स्वदेश, सुल्तान और दंगल जैसी फ़िल्में अलग और नए विषयों पर केन्द्रित जरूर थी, पर इनका लक्ष्य मनोरंजन था! प्रेम, बदला और पारिवारिक समस्याओं के अलावा खेल, शिक्षा, स्वास्थ्य, पहलवानी और आतंकवाद जैसे नए विषयों पर भी फ़िल्में बनी और पसंद की गईं! ये समय पहले नहीं था! लेकिन, ऐसी अभिव्यक्ति जो बीते कुछ दशकों में हुई, सिनेमा ने पहले कभी नहीं की थी। समाज और देश की समस्याओं पर चिंता मुख्य रूप में दिखाई देने लगी है।
ये भी सच है कि सामाजिक सरोकारों के लिए फिल्मकारों ने सबसे बड़ा माध्यम उस दौर में लिखी गई किताबों को बनाया! स्मृतियों के गर्भ को टटोला जाए तो 1953 में पहली बार सामाजिक सरोकारों को लेकर बिमल रॉय के निर्देशन में ‘दो बीघा जमीन’ बनाई गई थी। यह सलिल चौधरी की प्रसिद्ध कहानी पर आधारित थी। इसे उस साल की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना गया था। मजदूरों और किसानों की समस्या पर आधारित संभवतः ये पहली यथार्थवादी फिल्म थी। इस फिल्म ने किसानों के जीवन की समस्याओं का करुण और जीवंत प्रभाव दर्शाया था।
1954 से 60 तक ऐसी ही सामाजिक फिल्मों का दौर रहा! यथार्थ का चेहरा दिखाने का काम 'परिणीता' ने भी किया, जो शरतचंद्र के उपन्यास पर आधारित थी। इस फिल्म को भी बिमल रॉय ने बनाया था। सामाजिक विसंगतियों पर गहरी चोट करती ‘मदर इंडिया’ भी महबूब खान ने इसी समय बनाई थी! ये फिल्म सिनेमा इतिहास का मील का पत्थर साबित हुई! सामाजिक भावनाओं को कचोटती 'जागते रहो' का निर्माण भी राजकपूर ने 1956 में किया था। 1957 में गुरुदत्त की ‘प्यासा’ ने सामाजिक चेतना को झकझोरा! 1959 में फिर बिमल रॉय ने जाति बंधनों पर चोट करने वाली ‘सुजाता’ बनाई! कृष्ण चोपड़ा ने प्रेमचंद की कहानी ‘दो बैलों की कथा’ पर ‘हीरा मोती’ नाम से फिल्म बनाई, जो साहित्य और सिनेमा के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी बनी!
प्रेमचंद की ही कहानियों पर 'शतरंज के खिलाड़ी' और 'सद्गति' भी बनाई गई। फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’, मन्नू भंडारी के उपन्यास ‘आपका बंटी’ और ‘महाभोज’, शैवाल के उपन्यास पर ‘दामुल’ के अलावा केशव प्रसाद मिश्र की रचना ‘कोहबर की शर्त’ पर ‘नदिया के पार’ और बाद में ‘हम आपके हैं कौन’ का निर्माण हुआ! राजेन्द्रसिंह बेदी की कहानी पर ‘एक चादर मैली सी’, धर्मवीर भारती के उपन्यास पर ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’, विजयदान देथा की ‘दुविधा’ नामक कहानी पर ‘पहेली’, उदयप्रकाश के उपन्यास पर ‘मोहनदास’ जैसी फ़िल्में बनाने की हिम्मत की गईं और खूब चली!
इसका आशय ये कदापि नहीं कि कालजयी किताबों पर बनने वाली फिल्मों को हमेशा सफलता मिली है! कई फिल्मों को दर्शकों ने नकारा भी! क्योंकि, विषय की समझ और पटकथा की सृजनात्मक क्षमता आसान नहीं होती। बहुत कम फिल्मकार होते हैं, जो फिल्म की तकनीक और किताब की समझ के साथ न्याय कर पाते हैं।
गोदान, उसने कहा था, चित्रलेखा और 'एक चादर मैली सी' ऐसी ही फ़िल्में थीं जो असफल हुई। दरअसल, किताब के मूल भाव से सामंजस्य बैठाते हुए उसकी गहराई तक उतरकर फिल्म बनाना चुनौती भी है और जटिल प्रक्रिया भी। साहित्य को सिनेमा में बदलने वाले कुछ ही सिद्धहस्त निर्देशक हुए हैं। इनमें बिमल रॉय, सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकार अव्वल रहे हैं।
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