पारम्परिक मीडिया बनाम नया मीडिया
अभी तक मीडिया का एक ही मतलब निकाला जाता था और वो था अखबार! अर्थात कागजों का ऐसा पुलिंदा जो चौबीस से लगाकर दस घंटे पुरानी ख़बरों को समेटकर उसे पाठकों के सामने परोसता था! पाठक को भी पता था कि जिसे वो ताजा अखबार समझ रहा है वो कई घंटों पुरानी ख़बरों से भरा है, जो वक़्त के हिसाब से पुरानी पड़ चुकी हैं। घटनाओं को बीते बहुत सा समय हो गया! जब वो अखबार पाठक के हाथ तक पहुंचा होगा, सारे हालात भी बदल चुके होंगे! बरसों तक यही होता रहा। लेकिन, जब नए मीडिया के आधार के रूप में इंटरनेट ने दस्तक दी, सबकुछ बदलने लगा। अखबारों में ख़बरों की गति को पंख लग गए। प्रिंट के साथ-साथ अख़बारों के ऑनलाइन एडीशन निकलने लगे। वेब साइट्स और पोर्टल ख़बरों का ऐसा संसार बन गए, जहाँ खबरों को अपडेट किया जाने लगा। बात सिर्फ यहीं तक सीमित नहीं रही, इससे भी बहुत आगे निकल गई! सीधे शब्दों में कहा जाए तो नए मीडिया की गति के सामने पारम्परिक मीडिया बहुत पीछे छूट गया! जो हुआ वो जरुरी भी था। लेकिन, अभी भी 'नया मीडिया' थमा नहीं है, उसकी गति भी बढ़ रही है और नए प्रयोगों के रास्ते भी खुले हैं। एक ऐसा आभासी संसार रचा जाने लगा है, जहाँ सब कुछ इंटरनेट की उपलब्धता पर टिका है! सारी दोस्ती, रिश्ते और प्रेम तभी तक है, जब तक इंटरनेट से जुड़ाव बना है!
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नए और पुराने मीडिया के बीच कुछ सालों से एक अजीब सा अंतर्द्वंद छिड़ा हुआ है। नए मीडिया ने अपनी गति और व्यापकता से परंपरागत मीडिया को काफी पीछे छोड़ दिया। ये दोनों मीडिया के बीच कोई खींची तलवारों वाली जंग नहीं है। यदि कुछ है, तो वो पीढ़ियों के अंतर वाला परंपरागत संघर्ष! समय, काल और परिस्थितियों के मुताबिक सभी को बदलना पड़ता है, तो भला मीडिया इससे अलग-थलग क्यों रहे? सीधे शब्दों में कहा जाए तो कागज पर नीली श्याही से ख़बरों को हर्फों में उतारने वाला मीडिया पुराना मीडिया है और की-बोर्ड पर उँगलियाँ चलाकर ख़बरों को आकार देकर उसे चंद सेकंड में अपने पाठकों को परोसने वाला माध्यम नया मीडिया! यानी प्रिंट मीडिया बनाम वेब मीडिया, ऑनलाइन न्यूज़ पेपर्स, सोशल साइट्स, ब्लॉग्स और ऐसा ही बहुत कुछ!
नए मीडिया को लेकर आज भी भ्रम की स्थिति कायम है। लोगों का मानना है कि नया मीडिया यानी इंटरनेट के माध्यम से होने वाली पत्रकारिता! जबकि, देखा जाए तो नया मीडिया ख़बरों, लेखों, रिपोर्ताज तक ही सीमित नहीं है। दरअसल, नए मीडिया की परिभाषा पुराने पारंपरिक मीडिया की तर्ज पर नहीं की जा सकती। अखबारों की वेबसाइट्स और पोर्टल ही नए मीडिया की परिभाषा नहीं हैं। जॉब सर्चिंग वेबसाइट, मेट्रीमोनियल साइट्स, ब्लॉग, स्ट्रीमिंग, ईमेल, चैटिंग, इंटरनेट-कॉल, ऑनलाइन शॉपिंग, नेट सर्वे, इंटरनेट मैसेज साइट्स, फ्रेंडशिप वेबसाइटें और सॉफ्टवेयर भी नए मीडिया का ही हिस्सा हैं। आज बड़ी गलती ये होती है कि नए मीडिया को पत्रकारिता का स्वरूप समझ लिया जाता है। समझने के लिए शायद इतना ही काफी होता। जबकि, वास्तव में नया मीडिया इन तक भी सीमित नहीं है। नए मीडिया की तो कोई सीमाएं ही नहीं हैं, ये अनंत है।
नए मीडिया का सीधा सा अर्थ है ऐसे सभी टेक्स्ट, फोटो, वीडियो, ऑडियो और ऐसी सर्विसेस जिन्हें डिजिटल माध्यमों से प्रोसेस किया जा सकता है। इसे दो अलग−अलग विधाओं वाले क्षेत्रों मीडिया और कम्प्यूटिंग के जोड़ के रूप में भी देखा और समझा जा सकता है। नए मीडिया का उभार तब शुरू हुआ, जब नए ज़माने के साथ कदम मिलाने के लिए इसकी जरुरत शिद्दत से महसूस की गई! 1995 के बाद इंटरनेट के विस्तार के साथ नए ज़माने के मीडिया का जो दौर शुरू हुआ था, वो आज भी नए-नए बदलाव के साथ जारी है। इसके बाद के दशक में शिक्षा और मनोरंजन के लिए सीडी रोम का दौर आया तो इस नए मीडिया को पैर जमाने का मौका मिला।
मुद्दे की बात ये है कि नए मीडिया का उपयोगकर्ता एकपक्षीय सूचना संचार तक बने रहने के लिए अभिशप्त नहीं है। वो खुद भी सूचनाओं के इस संसार में गोते लगाकर उसका हिस्सेदार बन सकने के लिए स्वंतत्र है। ब्लॉग से, वेबसाइटों और पोर्टलों पर अपना पक्ष देकर, यू-ट्यूब पर अपनी विधाओं के फोटो या वीडियो अपलोड करके! यानी जो पुराना मीडिया अब तक सिर्फ पाठक को ख़बरें परोसने तक सीमित था, वो पाठक अपने विचारों को सामने रखकर अब बराबरी में खड़ा होने लगा है। नए मीडिया ने पाठक को पुराने और पारंपरिक मीडिया की एकपक्षता और दूसरों का ज्ञान झेलने की प्रवृत्ति से मुक्त होने का मौका भी दिया। हमारा पुराना मीडिया एक से अनेक के मॉडल पर बना था। आशय यह कि एक समाचार प्रसारित करता था और उसे सैकड़ों-हज़ारों ग्रहण करते थे। जबकि, नया मीडिया कई से कई तक के मॉडल पर है। यही उसकी लोकतांत्रिक प्रवृत्ति का प्रतीक भी है। नया मीडिया अभिव्यक्ति की आजादी को अखबार मालिकों और पत्रकारों तक ही बांधकर नहीं रखता, बल्कि उसे पाठकों तक भी विस्तारित करता है।
लेकिन, नए मीडिया में सबकुछ अच्छा हो, ऐसा भी नहीं है। नए मीडिया के साथ एक जोखिम भी खड़ा नजर आता है। फ़ेसबुक जैसी लोकप्रिय सोशल नेटवर्किग वेबसाइट का इस्तेमाल दुनियाभर में अरबों लोग करते हैं। इस फेसबुक ने एक आभासी समाज खड़ा कर दिया है। दोस्तों की बड़ी आभासी फ़ौज खड़ी हो गई! लेकिन, वास्तव में ये सबकुछ छद्म दुनिया है। जैसे ही इंटरनेट का कनेक्शन टूटता है, सब छिन्न-भिन्न हो जाता है। आशय यह कि सारे रिश्ते इंटरनेट के मोहताज हैं। जबकि, परंपरागत मीडिया में ऐसा कुछ नहीं था! अख़बारों में 'संपादक के नाम पत्र' लिखने वालों के बीच भी एक अजीब सा जुड़ाव था। दरअसल, तब के ये पत्र लेखक ही आज के व्ह्सिल ब्लोअर हैं, जो अन्याय के खिलाफ खड़े होने में देर नहीं करते! अखबार में जो ख़बरें छूट जाती थी या न छापने की कोई मजबूरी होती थी, तब ये पत्र लेखक ही उसकी पूर्ति करने की भूमिका अदा करते थे।
इंटरनेट के बारे में लोगों की धारणा है कि ये लोगों को एक-दूसरे से अलग करता है। इंटरनेट के इस युग में सभी बिखरे हुए हैं। भौतिक रूप से साथ होकर भी कोई साथ नहीं होता! हर तरफ सिर्फ वर्चुअल रिश्ता ही रह गया है। ज्यादातर लोग ईमेल, मैसेज, ऑनलाइन चैटिंग, गेम, ऑनलाइन शॉपिंग, व्हाट्सएप्प, फ़ेसबुक और ट्विटर में ही अपना वक़्त बिताते हैं। ख़बरों की तीव्रता, अपडेशन इतना सघन और बाध्यकारी हो जाता है कि कोई भी इस माध्यम से हटना नहीं चाहता। दरअसल, आज इंटरनेट लोगों की लत बन चुका है। इस बारे में कई अध्ययन और शोध किए जा चुके हैं, इनमें पाया गया है कि जिन लोगों को इंटरनेट की आदत है वो अकेलेपन और अवसाद के शिकार हो जाते हैं।
आज लोगों के वास्तविक जीवन की प्रवृत्ति है कि उसे सामाजिक रहने के लिए सोशल मीडिया का मोहताज होना पड़ रहा है। नए मीडिया पर ये ऊँगली भी उठाई जाती है कि वो उपयोगकर्ता को अपने आसपास यहाँ तक कि परिवार से भी विमुख करके असामाजिक बना रहा है। देखा जाए तो हर नए बदलाव के साथ अच्छाई के साथ कुछ खामियां भी होती है। नए मीडिया ने यदि सुविधा और आज़ादी उपलब्ध कराई है, उसका सही इस्तेमाल करने का दायित्व तो उपयोगकर्ता पर ही है। पारम्परिक मीडिया के मुकाबले नए मीडिया ने पुराने अवरोधों से आज़ादी दिलाई है तो इसका मतलब कदापि ये नहीं कि उसे अपने दायित्वों से मुक्त मान लिया जाएं।
मैसेजों वाले एप्स पर ऑनलाइन व्यवहार भी सामाजिकता ही है। इंटरनेट ये सुविधा उपलब्ध कराता है कि मेल या सोशल मीडिया के ज़रिए किसी व्यक्ति या समूह से संवाद किया जा सके। उस पर लिखा जा सके, लेकिन क्या लिखा जाए और कैसे ये तो सोचने, लिखने और अपनी बात कहने वाले की अपनी भाषा और रवैये पर निर्भर है। किस तरह से सभ्य तरीके से ऑनलाइन बिरादरी के सामने पेश आना चाहिए, इंटरनेट ये भी बताता है।
इंटरनेट को व्यक्ति के एकाकीपन का एक लाभदायक उपचार माना जाने लगा है। फ़ेस-टू-फ़ेस संवाद में शर्मीले और असहज लोग आभासी दुनिया में दोस्तियां बनाने और संवाद करने में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। फ़ेसबुक जैसे माध्यम न सिर्फ़ व्यक्ति केंद्रित भावनाओं को प्रश्रय देते हैं, बल्कि उसके ज़रिए कई सामाजिक दायित्व भी पूर किए जा सकते हैं। फ़ेसबुक पर बने कई पेज सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना जगाने के लिए प्रयासरत हैं। आभासी समुदाय का एक हिस्सा सोशल मीडिया को वास्तविक जीवन के संघर्षों और ख़ुशियों से जोड़े रखता है। ऑनलाइन उपलब्ध अधिकांश सामग्री बुरी नहीं है। वो ज़रूरत में काम आती है और लाभप्रद रहती है। एडिक्शन या लत से आगे इंटरनेट ने अब आम उपभोक्ताओं की ज़िंदगी में स्वाभाविक जगह बना ली है।
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