Tuesday, January 28, 2020

'पद्म पुरस्कारों' में पश्चिम मध्यप्रदेश का दबदबा!

 - हेमंत पाल  
    इस बार के पद्म पुरस्कारों में प्रदेश के पश्चिमी इलाके का जलवा रहा। प्रदेश की चार असाधारण हस्तियों को मिले 'पद्म श्री' सम्मान में से तीन इंदौर और उज्जैन संभाग के हैं। इंदौर के उद्योगपति और शिक्षा के लिए समर्पित नेमनाथ जैन, उज्जैन के कथक नृत्य को बढ़ावा देने वाले पुरुषोत्तम दाधीच और महिला रक्तअल्पता के लिए काम करने वाली रतलाम की डॉ लीला जोशी को इस सम्मान के लिए चुना गया। चौथा 'पद्म श्री' सम्मान भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगों के लिए काम करने वाले अब्दुल जब्बार को मरणोपरांत देने की घोषणा की गई। 
सोया मैन ऑफ़ इंडिया  
    डॉ. नेमनाथ जैन को यह सम्‍मान देश में कृषि, सोयाबीन एवं शिक्षा के विकास तथा समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया गया है। डॉ जैन की पहचान देश में 'सोया मेन ऑफ़ इंडिया' के रूप में भी होती है। 8 दशकों की जीवन यात्रा में कृषि, सोयाबीन, शिक्षा एवं समाज सेवा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें कई बार राष्‍ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इन पुरस्‍कारों में 1983 में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड, उद्योग पात्र पुरस्कार और उद्योग विभूषण पुरस्कार शामिल हैं। इंदौर के एसजीएसआईटीएस कॉलेज से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने कुछ समय तक नौकरी की। फिर 'प्रेस्टीज आद्योगिक समूह' की स्थापना की जो आगे चल कर सोयाबीन प्रसंस्करण एवं सोया उत्पादों के निर्माण में देश एवं मध्य भारत की सबसे प्रतिष्ठित कंपनियों में एक बन गया। 1994 में आधुनिकतम प्रबंध शिक्षा के लिए 'प्रेस्टीज इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड रिसर्च' की स्थापना की, जो आज देश की अग्रणी बिज़नेस स्कूलों में एक है। मध्यप्रदेश को सोयाबीन के क्षेत्र में वैश्विक पहचान देने के लिए उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई और उन्हीं के प्रयासों के कारण आज मध्य प्रदेश सोया राज्य के नाम से जाना जाता है। 

महिला एनीमिया को समर्पित   
    रतलाम की 82 साल की डॉ लीला जोशी को 'पद्म श्री' दी जाएगी। वे पिछले 22 सालों से महिलाओ में खून की कमी (एनीमिया) को लेकर अलख जगा रही हैं। उन्होंने आदिवासी अंचलो में कैंप लगाकर हज़ारों महिलाओं का मुफ्त इलाज किया। उन्हें रतलाम की 'मदर टेरेसा' भी कहा जाता है। मदर टेरेसा से ही प्रभावित होकर ही डॉ लीला जोशी ने आदिवासी इलाकों में महिलाओं के लिए 'एनीमिया जागरुकता अभियान' शुरू किया। महिला और बाल विकास विभाग ने 2015 में डॉ. लीला जोशी का चयन देश की 100 प्रभावी महिलाओं में किया था। वे रेलवे के चीफ मेडिकल डायरेक्टर के पद से रिटायर होने के बाद से ही आदिवासी अंचलों में महिलाओं और किशोरियों का मुफ्त इलाज कर रही हैं। उन्हें 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी सम्मानित किया था। 2013 में एनीमिया जागरूकता के लिए उन्हें रेल मंत्रालय का विशिष्ट सेवा सम्मान भी मिला। 2014 में माधुरी दीक्षित ने उन्हें 'वुमन प्राइड अवॉर्ड' से नवाजा था। 2014 में ही 'फोग्सी' (प्रेसिडेंट फेडरेशन ऑफ ऑबस्ट्रेटिक एंड गायनेकोलाजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया) ने भी सम्मान किया था। उन्होंने 1997 में रतलाम में हॉस्पिटल शुरु किया और आदिवासी महिलाओँ में खून की कमी से होने वाली मृत्यु दर को कम करने के लिए शिविर लगाए। 2007 में रक्ताल्पता कम करने का अभियान चलाया। 2003 में उन्होंने सामाजिक सेवा संस्थान की स्थापना कर गर्भवती महिलाओं के लिए आयरन दवा तथा पौष्टिक आहार वितरण की शुरुआत की।
कथक को समर्पित जीवन  
     उज्जैन के कथक गुरु 80 साल के नृत्यगुरु डॉ. पुरुषोत्तम दाधीच को भी इस साल 'पद्मश्री' देने की घोषणा की गई। वे युवाओं को इंदौर के नटवरी कथक केंद्र में कथक की तालीम दे रहे हैं। 1961 में उन्होंने उज्जैन में कथक का शिक्षण शुरू किया। उस समय राज्य में कथक का कोई पाठ्यक्रम नहीं था। इसके लिए डॉ दाधीच ने कथक का पाठ्यक्रम तैयार किया, किताबें लिखीं और इसे लागू कराया। वे कथक पर अब तक 17 किताबें लिख चुके हैं और यह काम करने वाले प्रदेश के वे पहले व्यक्ति है। 10 साल की उम्र में उन्होंने पंडित दुर्गाप्रसाद से कथक सीखा। बाद में दिल्ली में नारायण प्रसाद और सुंदर प्रसाद से बकायदा कथक की तालीम ली। फिर दिल्ली में ही पं बिरजू महाराज के चाचा शंभू महाराज से कथक सीखा। उन्हें मप्र का शिखर सम्मान, संगीत नाटक अकादमी सम्मान भी मिल चुका है। गांर्धव महाविद्यालय मुंबई ने उन्हें 'महामहोपाध्याय' की उपाधि दी थी। उनके पिता पहलवान थे, इसलिए शुरू में उनके कथक प्रेम को लेकर परिवार में काफी विरोध भी हुआ। लोग कहते थे कि 'पहलवान का बेटा नचनिया' बनेगा? जब उन्होंने नृत्य सीखना शुरू किया, तब बहुत ज्यादा विरोध का सामना करना पड़ा। क्योंकि, तब पुरुषों का नाचना अच्छा नहीं समझा जाता था। लेकिन, उन्होंने अपनी लगन नहीं छोड़ी और कथक को ही अपना पेशा बनाया। 
गैस त्रासदी को समर्पित 
    इस बार 'पद्म श्री' सम्मान के लिए 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए काम करने वाले स्व अब्दुल जब्बार को भी चुना गया। उन्हें मरणोपरांत 'पद्म श्री' से सम्मानित किया गया। अपने इस संघर्ष के बलबूते पर वे करीब पौने 6 लाख गैस पीड़ितों को मुआवजा और यूनियन काबाईड के मालिकों के खिलाफ कोर्ट में मामला दर्ज कराने में कामयाब रहे थे। गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले इस सामाजिक कार्यकर्ता का 14 नवंबर 2019 को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया था। दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी में फेफड़े से जुड़ी समस्या का सामना उन्हें भी करना पड़ा था। जब्बार की 50 प्रतिशत आंखों की रोशनी भी चली गई थी और उन्हें लंग फाइब्रोसिस हो गया था। वे मध्य प्रदेश सरकार के 'इंदिरा गांधी समाजसेवा पुरस्कार' से भी नवाजे जा चुके हैं। उन्होंने गैस पीड़ितों के परिवारों को मुआवजा दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। वे 'भोपाल गैस पीड़िता महिला उद्योग संगठन' के संयोजक भी थे। उन्होंने 2300 महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया। 
  अब्दुल जब्बार के इस संघर्ष में दो बातें ख़ास थीं। एक, तो इसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी और इसे स्वाभिमान की लड़ाई बनाया गया। जिसके लिए उन्होंने अपने संघर्ष को ‘ख़ैरात नहीं रोजगार चाहिए’ का नारा दिया और संगठन का नाम रखा 'भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन' रखा। उनके आंदोलन और बैठकों में मुख्य रूप से महिलाओं की ही भागीदारी होती थी। और जब्बार भाई के साथ हमीदा बी, शांति देवी, रईसा बी जैसी महिलाएं ही संगठन का चेहरा होती थीं. संघर्ष के साथ उन्होंने गैस पीड़ित महिलाओं के स्वरोजगार के लिए सेंटर की स्थापना की थी जिसे ‘स्वाभिमान केंद्र’ का नाम दिया गया।
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Tuesday, January 21, 2020

भाजपा के गुस्से पर निधि निवेदिता की लोकप्रियता भारी!

- हेमंत पाल 

   राजगढ़-ब्यावरा की कलेक्टर निधि निवेदिता से भाजपा के नेता बहुत नाराज है। उन्हें ये कलेक्टर खलनायिका नजर आ रही है, जिसने उनके एक कार्यकर्ता को सरेआम थप्पड़ मार दिया। भाजपा इस महिला कलेक्टर के खिलाफ राजगढ़ में हल्ला बोल रही है। भाजपा नेताओं का आरोप है कि नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के समर्थन में बिना अनुमति के रैली निकालने पर उन्होंने एक भाजपा कार्यकर्ता को पीट दिया। जबकि,कलेक्टर का कहना है कि उसने एसडीएम प्रिया वर्मा से बदतमीजी की, इसलिए उसे थप्पड़ मारा! एक कहानी यह भी है कि धारा-144 लागू होने पर बिना अनुमति रैली निकालने पर कलेक्टर ने आपा खोया। भाजपा का कहना कुछ भी हो, पर इस महिला अधिकारी पर ऊँगली उठाने से पहले उनका दूसरा मानवीय चेहरा भी देखा जाना चाहिए। उनकी सदाशयता के किस्सों के सामने भाजपा का ये गुस्सा बहुत कमजोर नजर आता है। 
    कलेक्टर की मातहत एक महिला अधिकारी से बदतमीजी को सही नहीं कहा जा सकता! लेकिन, बिना इजाजत रैली निकालने का गुस्सा एक कार्यकर्ता पर निकालने की बात भी गले नहीं उतरती! कारण चाहे जो भी हो, फिलहाल ये महिला कलेक्टर भाजपा के निशाने पर है। उधर, कांग्रेस के नेता इस अधिकारी के पक्ष में ख़म ठोंककर खड़े हैं। भाजपा इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर माहौल बना रही है। सबसे आगे हैं शिवराजसिंह चौहान जो कलेक्टर और एसडीएम के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने की मांग को लेकर 22 जनवरी को राजगढ़ में जमावड़ा कर रहे हैं।
   इस मामले पर कांग्रेस और भाजपा के बीच राजनीतिक ट्विटर जंग भी खूब चली। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने घटना की निंदा करते हुए कहा कि पार्टी कलेक्टर के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराएगी। उन्होंने कहा कि कलेक्टर भारत माता की जय बोलने पर हाथ में में तिरंगा रखने पर थप्पड़ मार रही है, पार्टी इसे किसी भी हालत में इसे बर्दाश्त नहीं करेगी। उन्होंने सवाल करते हुए कहा कि क्या मुख्यमंत्री कमलनाथ के इशारे पर ये सब हो रहा है? नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव ने चेतावनी दी कि भाजपा कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज करने और कार्यकर्ताओं को थप्पड़ मारने से लगता है कि वे सरकारी सेवक नहीं, बल्कि सरकार के गुलाम बनकर काम कर रही है। उन्होंने अधिकारियों से कहा कि सरकार की अंधभक्ति करना छोड़ दें!
  कांग्रेस के बड़े नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने दोनों महिला अधिकारियों की तारीफ़ करते हुए ट्वीट किया। उन्होंने भाजपा पर गुंडागर्दी के आरोप भी लगाए। दिग्विजय सिंह ने महिला डिप्टी कलेक्टर को पीटने और बाल खींचने की घटना की दिग्विजय ने निंदा करते हुए महिला अधिकारियों की बहादुरी पर गर्व जताया। सरकार में मंत्री पीसी शर्मा का कहना है राजगढ़ में धारा 144 तोड़कर महिला कलेक्टर और महिला डिप्टी कलेक्टर से मारपीट निंदनीय है। उन्होंने आरोप लगाते हुए कहा कि बिना अनुमति, ये सब करना भाजपा की प्रवृत्ति रही है। नेता प्रतिपक्ष की महिला प्रशानिक अधिकारी पर टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है।
   निधि निवेदिता सिंह अभी तक जिस भी जिले में पदस्थ रहीं, उन्हें अपनी कार्यशैली की वजह से जनता में खासी लोकप्रियता मिली। वे सख्त हैं, ईमानदार हैं इसलिए कुछ लोगों की आँख में खटकती भी हैं। भाजपा ने उनके थप्पड़ को मुद्दा जरूर बनाया हो, पर एक अधिकारी के रूप में निधि निवेदिता को लीक से हटकर काम करने वाला माना जाता है। वे कलेक्टर के चेंबर तक की अफसरी नहीं करती, बल्कि वास्तविकता जानकर ही फैसले करती हैं। वे गरीबों के प्रति संवेदनशील हैं और जरूरतमंद लोगों की नियम-कायदों से हटकर मदद करने के लिए याद की जाती हैं। वे जहाँ भी रहीं, उन्होंने कई ऐसे काम किए जिसने उन्हें जनता में लोकप्रिय बनाया। वे जिस भी जिले में तैनात रहीं, अपनी सख्ती और कार्यशैली की वजह से चर्चा में रहीं! वे 2012 बैच की आईएएस अफसर हैं। मूलतः झारखंड के सिंदरी इलाके की रहने वाली भूमिहार हैं। उनके कार्यकाल की शुरुआत 2013-2014 में झाबुआ में असिस्टेंट कलेक्टर रहने से हुई!  
  पहली बार वे चर्चा में तब आई जब वे 2016 में सिंगरौली जिले में जिला पंचायत सीईओ थीं। तब वहां के पंचायत सचिव ने शौचालय निर्माण में घोटाला किया था। बताते हैं कि बिना शौचालय बनाए उसने कलेक्टर को उसकी फोटो दिखाई थी! बाद में पता चला कि वो फोटो वास्तव में फोटोशॉप का कमाल था। इसके बाद उन्होंने सचिव से सार्वजानिक उठक-बैठक करवाई! इस घटना का वीडियो भी वायरल हुआ था। कलेक्टर निधि निवेदिता सिंह को अलग अंदाज में त्वरित निर्णय लेने और अनोखी सजा सुनाने की वजह से भी जाना जाता है! उन्होंने एक बार अधिकारियों को चुस्त बने रहने की भी सजा सुनाई थी। हुआ यूँ कि राजगढ़ में 'सद्भावना दौड़' होना थी, जिसमे सभी अधिकारियों को आमंत्रित किया गया। लेकिन, 26 अधिकारी न तो वहां पहुंचे और न कोई कारण बताया। इसके बाद निधि निवेदिता ने उन्हें अपने अनोखे अंदाज में सजा सुनाई। उन्होंने दौड़ से बचने के बदले दौड़ लगाने की सजा सुनाई। मीटिंग से पहले इन 26 अधिकारियों को 3 किलोमीटर दौड़ाया था। आलम यह रहा कि दौड़ना था 26 अधिकारियों को दौड़ना था, लेकिन दौड़ने 50 पहुंचे। 26 के अलावा पहुंचे अधिकारियों का कहना था कि इसी बहाने वर्जिश हो जाएगी। 
  सख्ती के साथ उनकी सदाशयता के किस्से भी कम नहीं हैं। राजगढ़ जिले के ब्यावरा के पास खजूरिया गांव की कविता दांगी को बी-पॉजिटिव खून की ज़रूरत थी। लेकिन, वहां इस ग्रुप का ब्लड नहीं था। उसके पिता ने सोशल मीडिया पर इस आशय की पोस्ट डाली, उसे देखकर निधि निवेदिता ने अस्पताल जाकर ब्लड डोनेट किया था। राजगढ़ जिले की इस तेज-तर्रार कलेक्टर को वर्षों पुराना अतिक्रमण हटाने के लिए भी याद किया जाता है। उन्होंने कई बार स्वच्छता की अलख जागते हुए खुद हाथों में झाड़ू उठाकर सफाई भी की। उनको कई अनाथ बच्चों को स्कूलों में दाखिला करवाने और कुपोषित बच्चों का इलाज करवाने के लिए भी याद किया जाता है। उन्होंने पढ़ाई के लिए 'बादल पर पांव योजना' शुरू करके रास्ता खोला। उनकी अच्छाई के किस्सों का ये अंत नहीं है! लेकिन, ये सब भाजपा के गुस्से पर बहुत भारी है।  
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राजनीतिक शिष्टाचार के दायरे और रिश्तों की गर्मजोशी!

राजनीति के अपने दायरे होते हैं, उन्हीं दायरों में शिद्दत से शिष्टाचार निभाया जाता है। वैचारिक विरोध के बावजूद राजनीति में निजी रिश्तों का हमेशा सम्मान किए जाने नज़ारे दिखाई देते हैं। कई उदाहरण हैं, जब चिर-विरोधी पार्टियों के नेताओं ने जरुरत पड़ने पर दोस्ती निभाई और उसे छुपाया भी नहीं! क्योंकि, ये जरुरी नहीं कि यदि दो नेता एक-दूसरे के राजनीतिक प्रतिद्वंदी हों, तो वे हमेशा ही टांग खिंचाई के मौके तलाशते रहें! व्यक्तिगत रूप से वे दोस्त हो सकते हैं। दोस्ती और शिष्टाचार का राजनीतिक प्रतिद्वंदिता से कोई वास्ता नहीं होता! हाल ही में मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का इंदौर में सरेआम गले मिलने के प्रसंग को कई कोणों से देखा और विश्लेषित किया गया! इसके पीछे कारण तलाशने की भी कोशिश की गई! लेकिन, वास्तव में ये दो दोस्तों का सार्वजनिक मिलन ही था! ऐसे शिष्टाचार वाले प्रसंगों को हमेशा राजनीति नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। 
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- हेमंत पाल

   इंदौर में 'स्वच्छता अभियान' का सर्वे चल रहा है। शहर की स्वच्छता को परखने शहरी विकास मंत्रालय की सांसदों वाली समिति का एक दल आया था! संयोग से वहाँ प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह और भाजपा के राष्ट्रीय महसचिव कैलाश विजयवर्गीय भी मौजूद थे! जब दोनों ने एक-दूसरे को देखा तो गर्मजोशी से गले मिले और कुछ देर बात की! लेकिन, इसे न जाने क्यों अनोखी घटना की तरह देखा गया! सोशल मीडिया पर इन नेताओं का मिलन सुर्खी बन गया! दोनों नेताओं के एक-दूसरे के खिलाफ दिए गए बयानों को भी उछाला गया! लेकिन, इस घटना के पीछे कारण ढूंढने वाले शायद ये भूल गए कि सालों तक ये दोनों नेता प्रदेश की विधानसभा में एक साथ बैठ चुके हैं! फर्क इतना था कि दोनों की पार्टियाँ अलग-अलग थी। 
   कम लोग जानते होंगे कि कैलाश विजयवर्गीय और दिग्विजय सिंह के निजी रिश्ते बहुत अच्छे हैं! राजनीति को जाँचने-परखने वाले जानते भी हैं कि जब कैलाश विजवर्गीय इंदौर के महापौर थे, उन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह का पूरा सहयोग मिला! इसलिए कि उस दौर में इंदौर के विकास की जो अवधारणा कैलाश विजयवर्गीय की रही होगी, उसे मूर्तरूप तभी मिला, जब तत्कालीन सरकार ने उनका साथ दिया! सिर्फ इन दोनों नेताओं में ही अच्छी मित्रता नहीं है, इनके बेटे विधायक आकाश विजवर्गीय और मंत्री जयवर्धन सिंह की दोस्ती भी जगजाहिर है।   
   राजनीति की खासियत है कि कितना भी कट्टर विरोधी क्यों न हो, यदि वह सामने आए तो उससे प्रेम से ही मिलो। हमेशा होता भी यही आया है। दरअसल, इसे भारतीय राजनीति का नवाचार कहा जा सकता है, जो कुछ सालों में कुछ ज्यादा ही निभाया जाने लगा! मध्यप्रदेश ने तो यह परम्परा बरसों से कायम है। सालभर पहले जब कमलनाथ मुख्यमंत्री पद शपथ ले रहे थे, तब उस समारोह में निवर्तमान मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी मौजूद थे! लोगों को याद होगा, कमलनाथ ने शिवराज सिंह को मंच पर बुलाया था जहाँ दोनों जोश के साथ गले मिले! ईद पर भी शिवराजसिंह चौहान और कमलनाथ भोपाल के ईदगाह पर गले मिलते लोगों को दिखाई दिए थे। कहा भी जाता है, कि राजनीति को दुश्मनी की तरह नहीं देखा जाना चाहिए! पार्टियां अलग हो सकती है, झंडों के रंग अलग हो सकते हैं! पर, कोई भी नेता आपस में दुश्मन नहीं होता!  
  अभी इस बात को ज्यादा वक़्त नहीं बीता, जब भाजपा के बड़े नेता और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव और नगरीय प्रशासन मंत्री जयवर्धन सिंह की सागर के नजदीक गढ़ाकोटा के बस स्टैंड पर अचानक मुलाकात हुई थी! आधी रात को हुई इस मुलाक़ात को लेकर भी सियासत के गलियारों खूब में चर्चा शुरू हुई और चटखारे लेकर इस घटना का छिद्रान्वेषण किया गया। बात बीते अगस्त की है, जब गोपाल भार्गव कुछ लोगों के साथ अपने क्षेत्र गढ़ाकोटा के बस स्टैंड पर बैठे थे! तभी दमोह से लौटते जयवर्धन सिंह का काफिला वहां से गुजरा। जयवर्धन सिंह को गोपाल भार्गव बस स्टैंड पर बैठे नजर आए! उन्होंने अपना काफिला रुकवाया और उनके पास जा पहुंचे। बताते हैं कि उन्होंने गोपाल भार्गव के चरण छूकर आशीर्वाद भी लिया। 
 इस बात को सालभर नहीं हुआ, जब कांग्रेस के बड़े नेता ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया अचानक पूर्व मुख्‍यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से मिलने भोपाल में उनके घर पहुँच गए थे। दोनों के बीच बंद कमरे में बहुत देर तक बातचीत हुई! लेकिन, उसके बाद अचानक प्रदेश की राजनीति काफी हद तक गरमा गई थी! मुलाकात के बाद दोनों नेताओं ने वहाँ मौजूद मीडिया से बात भी की। दोनों ने ही इसे सामान्य मुलाकात बताया! लेकिन, इसके बाद भी कई दिनों तक इसके मंतव्य तलाशे गए और बहुत कुछ ऐसे अनुमान तक लगाए गए। किंतु, सालभर बाद भी वो अनुमान सही साबित नहीं हुए! राजनीतिक संभावनाओं को देखते हुए नतीजे निकाले गए, पर किसी ने भी तब इसे शिष्टाचार मुलाकात नहीं माना, जो कि वास्तव में थी। ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया ने तो यहाँ तक कहा था कि मैं ऐसा व्‍यक्ति नहीं हूँ, जो रिश्तों में आजीवन कटुता लेकर चले! मैं रात गई, बात गई में विश्‍वास करता हूँ। ताजा मामला इंदौर एयरपोर्ट पर ज्योतिरादित्य सिंधिया और गोपाल भार्गव के अचानक मिलने का भी है। इस मुद्दे पर सवाल पूछे जाने पर सिंधिया का कहना था कि खेल के मैदान में राजनीति नहीं होना चाहिए, पर राजनीति के मैदान में खेल भावना बहुत जरुरी है।  
    प्रदेश के खेल मंत्री जीतू पटवारी भी राजनीतिक शिष्टाचार निभाने में अव्वल माने जाते हैं। कुछ दिनों पहले वे जब इंदौर में थे, हमेशा की तरह सुबह साइकिल चलाते हुए पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन के घर पहुंच गए थे! दोनों के बीच करीब आधे घंटे तक बातचीत हुई! बाद में चाय-नाश्ता करके पटवारी लौट आए! इस मुलाकात को भी सियासी चश्मे से देखकर कारण खोजे गए, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ, जैसी संभावनाएं जताई गई थी! जीतू पटवारी ने सिर्फ इतना कहा था कि उनकी मुलाकात को राजनीति से जोड़कर नहीं देखा जाए! मेरे क्षेत्र में मराठी समाज के लोग बड़ी संख्या में रहते हैं, उनकी समस्याओं के बारे में 'ताई' ने मुझे निर्देशित किया था, मैं उनसे वही बात करने आया था। बीते नवंबर में केंद्रीय खेल मंत्री किरण रिजिजू को भी जीतू पटवारी अपने इंदौर के बिजलपुर स्थित निवास पर लंच के लिए ले आए थे। दरअसल, केंद्रीय मंत्री एक स्विमिंग पुल का उद्घाटन करने उज्जैन आए थे। लेकिन, प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के निघन के कारण यह कार्यकम अचानक निरस्त कर दिया गया। इस कार्यक्रम में जीतू पटवारी भी उनके साथ थे। वापसी में पटवारी उन्हें लंच के लिए अपने साथ घर ले आए। 
 प्रदेश की राजनीति के पन्नों को पलटा जाए, तो पता चलता है कि पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और सुंदरलाल पटवा के बीच भी मधुर रिश्तों का दायरा बहुत बड़ा था। कहा तो यहाँ तक जाता है कि अर्जुन सिंह ने एक अधिकारी को ये जिम्मेदारी सौंप रखी थी कि सुंदरलाल पटवा के जो भी निजी काम हो, उन्हें प्राथमिकता से किया जाए! विधानसभा में इन दोनों ही नेताओं के बीच कई बार कटुता के प्रसंग भी देखे गए, पर निजी संबंध हमेशा अच्छे बने रहे। दिग्विजय सिंह और उनके कार्यकाल में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे विक्रम वर्मा भी अच्छे दोस्त रहे! यहाँ तक कि विक्रम वर्मा की बेटी को दिग्विजय सिंह अपनी बेटी की तरह ही मानते हैं! उस दौर में दोनों की दोस्ती पर कई बार टिप्पणी भी की गई! पर, जब भी कोई राजनीतिक प्रसंग आया, विक्रम वर्मा ने मुखरता से विरोध करने कोई कसर नहीं छोड़ी! इसका सीधा सा तात्पर्य है कि राजनीति को दुश्मनी की तरह देखने और आंकने वालों को रिश्तों की गर्माहट को महसूस करना चाहिए, क्योंकि यही 'राज-नीति' है!  
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Monday, January 20, 2020

बोलने के साथ ही गाने लगी फ़िल्में!

- हेमंत पाल

   हिंदी फिल्मों के इतिहास में 14 मार्च 1931 ऐसी तारीख है, जो फिल्मों की तकनीक के बदलाव का प्रतीक है। इस दिन हिंदी फिल्मों में सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि गूंगी फ़िल्में बोलने लगीं। ये वही दिन था, जब दर्शकों ने पहली बार परदे पर पात्रों को बोलते हुए सुना! इससे पहले दर्शक मूक सिनेमा अधिक पसंद करते थे। उस ज़माने में मूक सिनेमा की भी अपनी एक प्रसिद्धि थी। पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनाने वाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी। उन्होंने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी, तब उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा हुई! पारसी थिएटर के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने 'आलम आरा' की पटकथा लिखी। उन्होंने उस नाटक के गाने भी फिल्म में लिए थे। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों ने बोलने के साथ ही गाना भी शुरू कर दिया था। 
   तकनीकी रूप से फिल्मों के पश्चिम से प्रेरित होने के बाद भी हमारे शुरुआती फिल्मकारों ने कभी सीधी नकल नहीं की। उन्होंने देशकाल और स्थानीय घटनाओं से जुड़ी कहानियों को परदे पर उतारा। हिन्दी सिनेमा के 100 साल से ज्यादा समय के बाद भी आज ऐसी चुनिंदा फिल्में ही हैं, जिनमें गीतों के लिए कोई जगह नहीं थी। आज के दर्शकों के लिए तो मूक और बिना गीत-संगीत की फिल्मों की कल्पना करना भी मुश्किल है। इसलिए कि गीत-संगीत हमारी तहजीब, संस्कार और बोलचाल में इस तरह समाए हैं, कि इनके बिना हम फिल्मों को अधूरा ही मानते हैं। न सिर्फ फिल्मों में गीतों को जरुरी हिस्सा माना जाता है, बल्कि ये हमारी संस्कृति का भी हिस्सा हैं। जीवन में खुशी का अवसर हो या गम का या फिर मिलन या वियोग का, फिल्मी गीतों के बिना बात पूरी ही नहीं होती।
    'आलम आरा' के पहले गीत 'दे दे खुदा के नाम पर' से लेकर आजतक न जाने कितने गीत बन और बज चुके हैं। इन गीतों ने कभी दर्शकों को रुलाया तो कभी हमारे जख्मों पर मरहम भी लगाया! कभी उठकर झूमने को मजबूर किया तो कभी मोहब्बत की गहराई को समझाया! कभी अकेले में गुनगुनाने की फितरत दी, तो कभी महफिल में छा जाने की कैफियत भी हमें इन्हीं फ़िल्मी गीतों ने दी है। यही कारण है, कि फिल्मी गीत हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए। गीतों के मामले में हिन्दी फिल्में पश्चिम की फिल्मों से अलग हैं। क्योंकि, हिन्दी फिल्मों के गीत कलाकार, पात्र, परिस्थिति या जगह के अनुसार बनते रहे हैं! जबकि, पश्चिम में बनने वाली फिल्मों में ऐसा नहीं होता। हिंदी फिल्मों में कथानक और संवादों का भी गीतों पर असर होता है। हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर में कलाकार जीवंत संगीत के साथ खुद अपनी आवाज में गाना गाते थे। इसलिए कि तब पार्श्वगायन शुरु नहीं हुआ था। तब तो फिल्मों में गीतकार भी नहीं होते थे! गीतों को फिल्म के संवाद लेखक या कलाकार ही लिख दिया करते थे। 
   फिल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत वाली फिल्म थी ‘धूप छांव’ जिसके लिए पंडित सुदर्शन ने गीत लिखे थे। लेकिन, 40 के दशक के आते-आते फिल्मों में गीत-संगीत जरूरी सा हो गया था। पार्श्वगायन की शुरुआत होने से फिल्मों में गीत-संगीत को जरुरी हिस्सा माना जाने लगा। किसी भी फिल्म की सफलता में सुमधुर गीत और संगीत को भी जरूरी माना गया। समय के साथ फिल्मों में गीतों की संख्या बढ़ती गई! मिसाल के तौर पर फिल्म ‘ताजमहल’ में 17 गीत थे, ‘भक्त कबीर’ में 16, कारवां में 15 और 'सती सीता' में 20 गाने थे। लेकिन, 1932 में बनी 'इंद्र सभा' ने गानों के मामले में एक रिकॉर्ड बनाया। इस फिल्म में 71 गाने थे। इतने गाने आजतक किसी फिल्म में नहीं रहे। फिल्मों के उस दौर के जाने-माने गीतकारों में केदार शर्मा, डीएन मधोक, मुंशी आरजू लखनवी और कवि प्रदीप थे। केदार शर्मा 1936 में बनी फिल्म 'देवदास' के लिए 'बालम आज बसो मेरे मन में' और 'दुख के दिन अब बीतत नाही' जैसे गीतों से नाम कमाया था। 40 के दशक में भी उन्होंने निर्देशन के साथ कई फिल्मों में गीत भी लिखे। 1941 में आई 'चित्रलेखा' में उनके गीत 'सैंया सांवरे भये बावरे, सुन सुन नीलकमल मुस्काए और 'तू जो बड़े भगवान बने' पसंद किया गया।
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Tuesday, January 14, 2020

भूमाफिया ही नहीं, सूदखोरों का माफिया भी सक्रिय!

साठ के दशक में एक फिल्म आई थी 'मदर इंडिया' इसमें गाँव का सूदखोर सुक्खीलाल विधवा नर्गिस से कहता है 'तेरे गहने का तो तू मूल नहीं चुका पाई, अब तेरी उम्र ब्याज लौटाने की भी नहीं रही। जमीन मेरे नाम कर दे.. सब ठीक हो जाएगा।' वो तो फिल्म थी! लेकिन, आज  सुक्खिलाल जैसे हज़ारों सूदखोरों ने छोटे व्यापारियों और किसानों का जीना हराम कर रखा है! समय भले बदल गया हो, किंतु फिल्मी सूदखोर किरदारों की तरह हर गाँव और शहर में असली सूदखोरों की दहशत है। वे फ़िल्मी खलनायक की तरह लोगों के जीवन में दहशत फैला रहे हैं। इनकी प्रताड़ना से आकर लोग अकसर आत्महत्या करने तक को मजबूर हो जाते हैं। पुलिस के पास सूदखोरों के खिलाफ लगातार शिकायतें पहुंचती हैं। लेकिन, उनका कुछ नहीं बिगड़ता। इनके दबदबे के सामने पुलिस और प्रशासन भी दब जाता है। प्रदेश में ये ऐसा माफिया है, जो इनके चंगुल में फंसे लोगों को आत्महत्या के लिए मजबूर कर देता है।
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- हेमंत पाल

   हर से लेकर गांवों में ब्याज पर कर्ज देने वालों की कमी नहीं है। लोग सोने-चांदी के जेवर, मकान और जमीन सूदखोरों के यहां गिरवी रखकर उनके तय मनमाने ब्याज पर लाखों रुपए का कर्ज ले रहे हैं। लेकिन, प्रशासन और पुलिस के पास यह जानकारी नहीं है कि जिले व शहर में पंजीकृत कितने सूदखोर हैं। वे कितने प्रतिशत ब्याज पर लोगों को कर्ज देते हैं। कर्ज लौटाने की शर्त और नियम क्या है। सूदखोरों का धंधा हर गाँव और शहर में बेख़ौफ़ चल रहा है। इनके शिकंजे में शहर के कई बड़े बिल्डर और उद्योगपति फंसे हुए हैं। इनकी वसूली के सबसे खौफनाक हथकंडे सुरक्षा संस्थानों के आसपास तक देखने मिलते हैं। पुलिस और प्रशासन भले ही मुहिम चलाकर सूदखोरों पर शिकंजा कसने का दावा करता हो, लेकिन हकीकत इसके ठीक विपरीत है। 
   पिछले दिनों इंदौर में एक छोटे सब्जी व्यापारी ने सूदखोरों से परेशान होकर जान दे दी। उसके पास से एक सुसाइड नोट मिला, जिसमें चार सूदखोरों पर आरोप लगाया गया है। उसने अलग-अलग लोगों 5-6 लाख रुपए ब्याज पर लिए थे। 8 साल में वह पूरा मूलधन और उसका ब्याज भी दे चुका था। उसके बाद भी सूदखोर उससे ब्याज व आधे रुपए और मांग रहे थे। उसे धमकी दी जाती थी कि घर के किसी भी सदस्य को किडनेप कर लेंगे। जबलपुर में भी एक व्यक्ति ने सूदखोरों से परेशान होकर आत्महत्या करने की कोशिश की। क्योंकि, कर्ज चुकाने  बावजूद सूदखोर उस पर कर्ज लौटाने के लिए उस पर कई तरह का दबाव बना रहे थे। रुपया न देने पर परिवार को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। नीमच में सूदखोर के आंतक से प्रताडित होकर एक नौजवान ने सल्‍फास खाकर आत्‍महत्‍या करने की कोशिश की, जिसे गंभीर हालत में अस्‍पताल में भर्ती कराया गया। ऐसे ही सूदखोरों से प्रताड़ित होकर नीमच में ही एक किसान ने अपना वीडियो बनाकर आत्‍महत्‍या कर ली थी।
   किसान और व्यापारी बैंक कर्ज के कारण आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होते! वे सबसे ज्यादा सूदखोरों से परेशान होते हैं। वे ज्यादा ब्याज पर तो कर्ज देते ही हैं, बदले में खाली चेक, खेत और संपत्ति के कागजात तक बंधक बनाकर अपने पास रख लेते हैं। प्रदेश में छोटे व्यापारियों किसानों की ख़ुदकुशी का एक बड़ा कारण ये भी है। भूमाफिया समेत सभी माफियाओं पर नियंत्रण पाने के लिए सख्त कार्रवाई करने वाली कमलनाथ सरकार को प्रदेश के 'साहूकारी कानून' को भी सख्त बनाकर इससे प्रभावित लोगों को राहत देना चाहिए! शिवराज-सरकार तो घोषणा के बावजूद दबाव में आकर कोई कार्रवाई नहीं कर सकी थी! राजनीतिक पार्टियों के सामने किसानों की कर्जमाफी हमेशा ही एक मुद्दा बनती रही है। ज्यादातर  राजनीतिक दल इसकी भी वकालत करते हैं। लेकिन, किसी के पास इस समस्या का कोई स्थायी निराकरण नहीं है। 
   वास्तव में यदि ऐसा होता, तो 2008 की 60 हजार करोड़ रुपए से ज़्यादा की किसानों की कर्ज़ माफ़ी के बाद ख़ुदकुशी की घटनाएं बंद हो जाना थी, पर ऐसा नहीं हुआ! इस समस्या का हल किसानों की आय बढ़ाने में है, न कि कर्ज़ माफ़ी में! लेकिन, सरकार शायद अभी इस दिशा में कुछ सोचा नहीं रही है। मध्यप्रदेश ने पिछले कुछ सालों में कृषि में अभूतपूर्व प्रगति की है, तो फिर राज्य के किसान क़र्ज़ में क्यों हैं और वे ख़ुदकुशी क्यों कर रहे हैं? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है! अब ये कमलनाथ सरकार की जिम्मेदारी है कि वो किसानों के बैंक कर्ज माफ़ करने की वाह-वाही लूटने के बाद अब साहूकारों की गर्दन पर हाथ रखे! क्योंकि, जब तक किसानों और व्यापारियों को साहूकारों से मुक्ति नहीं मिलेगी, वे तनाव में रहेंगे और आत्महत्या के लिए मजबूर भी होंगे।
   बैंक से कर्ज लेने के अलावा सूदखोरों से भी कर्ज लेना किसानों और छोटे व्यापारियों की मज़बूरी है। साल में कम से कम दो बार ऐसे मौके आते हैं, जब उन्हें इन सूदखोरों के चंगुल में फंसना पड़ता है। इसी वक़्त का फ़ायदा उठाकर सूदखोर 8 से 12 फीसदी ब्याज पर कर्ज देते हैं। कर्ज देने के साथ ही वे अपना ब्याज भी काट लेते हैं। ब्याज पर रुपए देने के बदले किसान की जमीन, मकान की रजिस्ट्री, वाहन, सोने-चांदी के जेवर तक अपने पास रख लेते हैं। इसके बाद तय समय पर रुपए नहीं लौटाने पर पेनल्टी लगाई जाती है। पेनल्टी 10 से 25 फीसदी तक वसूली जाती है। जो रुपए नहीं देता उसकी उसकी जमीन, मकान, वाहन तक ये सूदखोर हड़प लेते हैं। उसे बेइज्जत भी किया जाता है। ऐसे में ब्याज लेने वाला व्यक्ति प्रताड़ित होने लगता है। उसके घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है और वह आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है। ब्याज पर रुपए देने के साथ ही हुंडी-चिट्ठी का कारोबार भी किसानों से किया जाता है। इसमें ब्याज पर रुपए देने के बाद चिट्ठियों से हिसाब-किताब रखा जाता है। ये भी देखा गया है कि ये सूदखोर गुंडों को कर्जदार के सारे कागजात बेच देते हैं! इसके बाद गुंडों की गैंग कर्जदार से मनमर्जी की वसूली का तगादा करने लगती है! ऐसे में न तो पुलिस कुछ कर पाती है, न प्रशासन को ही भनक लगती है।
    बड़े सूदखोर योजनाबद्ध तरीके से अवैध कारोबार चलाते हैं। सूदखोर पहले ही ब्याज काटकर कर्ज देते हैं। कर्ज देने से पहले कर्ज लेने वाले से हस्ताक्षर वाला ब्लैंक चेक या स्टांप ले लेते हैं। फिर 8 से 12 फीसदी मासिक ब्याज पर कर्ज दिया जाता है। इसके बाद मूल रकम के साथ ही ब्याज वसूली का खेल शुरू हो जाता है। मूल रकम से दो से तीन गुना से अधिक रकम कर्जदार ब्याज में चुका भी देता है, लेकिन उस पर कर्जा बरकरार रहता है। सूदखोरों की तरफ से वसूली के लिए प्रताड़ित तक किया जाता है। गुंडे बदमाशों तक की मदद तक ली जाती है। सूदखोरों की कोशिश होती है कि कर्जदार रकम चुकाने में असमर्थ हो जाए। जब वे अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं तो हस्ताक्षर वाले ब्लैंक चेक या कोरे स्टांप से ब्लैकमेलिंग का खेल शुरू हो जाता है। चेक में मनमानी रकम भरकर या तो बाउंस कराकर मुकदमा दर्ज करा दिया जाता है या फिर स्टांप के सहारे कर्जदार की संपत्ति पर कब्जा कर लिया जाता है। संगठित रूप से सक्रिय सूदखोरों का पेट भरता रहता है और कर्जदार अपना सबकुछ गंवा बैठता है।
   देखा गया है कि बेहद जरूरत के वक़्त ही व्यक्ति सूदखोर से कर्ज लेता है। इसलिए उस पर कर्ज चुकाने का खासा दबाव रहता है। कर्जदार तो पूरी रकम चुकाना चाहता है, मगर ब्याज की रकम इतनी बढ़ती जाती है कि उसकी कमाई इसे चुकाने में ही चली जाती है। सिर पर कर्ज होने की वजह से वह पुलिस प्रशासन से शिकायत करने का जोखिम उठाने से भी कतराता है। ऊपर से सूदखारों का रसूख भी उनको ऐसा करने से रोक देता है। कई सूदखोर छोटे दुकानदारों को ब्याज की किश्त पर उधार देते हैं। दस हजार रुपए का कर्ज चुकाने के लिए सौ दिन का वक्त दिया जाता है। रोज 130 रुपए की किस्त जमा करनी पड़ती है। अगर एक दिन किसी कारण किस्त नहीं दी तो 50 रुपए ब्याज चढ़ जाता है। अगर दूसरे दिन किस्त जमा नहीं कर पाया तो ब्याज की राशि दोगुनी हो जाती है। यह ब्याज सहित किस्त तो रकम के अनुसार तय होती है।
  प्रदेश में छोटे व्यापारी और किसान सूदखोरों से बहुत परेशान हैं। इसी से परेशान होकर वे मजबूर होकर ख़ुदकुशी कर लेते हैं। शिवराज सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में 'साहूकारी कानून' में बदलाव करने की घोषणा भी की थी! लेकिन, इन्हीं साहूकारों के दबाव में ये घोषणा पूरी नहीं हो पाई! साल 2010-11 में भी प्रदेश में ऐसे ही हालात बने थे, जब सूदखोरी के चलते 89 किसानों की आत्महत्या की थी। तब, शिवराज-सरकार ने स्वीकारा था, कि किसानों की ख़ुदकुशी का कारण सूदखोरी है। किसानों की ख़ुदकुशी पर जब हंगामा हुआ तो शिवराजसिंह चौहान ने 15 जनवरी 2011 को 'साहूकारी कानून' में बदलाव की घोषणा की। उन्होंने राजस्व विभाग को संशोधन का ड्राफ्ट जल्द तैयार करने के निर्देश भी दिए थे। विभाग को कानून में संशोधन का ड्राफ्ट तैयार करने में 4 साल लगे। दो बार ये ड्राफ्ट मुख्यमंत्री के सामने रखा गया, लेकिन अंतिम फैसला नहीं हुआ। इसके बाद 8 सितंबर 2015 को मुख्यमंत्री सचिवालय से प्रक्रिया को यथास्थिति रखने के निर्देश आ गए। तब से इस कानून में बदलाव की फाइल अलमारी में ही बंद है। कमलनाथ सरकार को चाहिए कि उस फाइल को नए सिरे से जांचे और साहूकारी माफिया को भी काबू में करे।
  'साहूकारी कानून' में प्रस्तावित बदलाव के तहत ब्याज पर लेन-देन करने वाले सूदखोरों को लाइसेंस देने और गैर-लाइसेंसी सूदखोरों द्वारा दिए गए कर्ज को शून्य घोषित करने का प्रावधान रखा गया था। सूदखोरों द्वारा दिए जाने वाले खेतीहर कर्ज की ब्याज दर का निर्धारण भी किया जाना था, ताकि सूदखोर मनमाने तरीके से ब्याज न वसूल सकें। प्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता ने किसानों की ख़ुदकुशी से संबंधित आंकड़े भी विधानसभा के सामने रखे थे। इस रिपोर्ट के मुताबिक 6 नवंबर 2010 से 20 फरवरी 2011 के बीच 89 किसान और 47 कृषि श्रमिक ने सूदखोरों के कारण ही ख़ुदकुशी की। वहीं 58 मामले ख़ुदकुशी की कोशिश के भी दर्ज हुए। 2010 में सरकार ने किसानों द्वारा की गई ख़ुदकुशी के मामलों की जांच कराई गई थी। जांच में पता चला था कि फसल खराब होने के कारण किसान कर्ज नहीं लौटा पा रहे हैं। किसानों ने बैंकों के अलावा सूदखोरों से भी 2 से 6 फीसदी ब्याज पर कर्ज ले रखा था, जिसकी वसूली के लिए सूदखोर लगातार तकादा लगा रहे थे।
      मानवाधिकार आयोग ने भी मध्यप्रदेश में किसानों की ख़ुदकुशी के बढ़ने मामलों पर टीम का गठन किया था। इस टीम ने जाँच के बाद आयोग को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी। इसमें खुलासा हुआ कि प्रदेश में व्यापारियों और किसानों की आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण सूदखोर ही हैं। इनके दबाव में ही ये लोग ख़ुदकुशी करते हैं। आयोग ने शिवराज सरकार के राजस्व विभाग को भी ये जाँच सौंपी थी। इस रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था कि प्रदेश सरकार साहूकारी कानून का पालन कराने में नाकाम साबित हुई है। क़रीब 9 साल पहले 'कृषि लागत एवं मूल्य आयोग' (सीएसीपी) ने पंजाब में कुछ घटनाओं के आधार पर किसानों की ख़ुदकुशी की वजह जानने की कोशिश की थी। इसमें भी सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज़ और उनकी छोटी होती जोत बताई गई। साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं। लेकिन, यह रिपोर्ट भी सरकारी दफ़्तरों में दबकर रह गई! असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की निराशा की सबसे बड़ी वजह है।
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आजादी के बाद का बदला सिनेमा

- हेमंत पाल

   दो सौ सालों की अंग्रेजों की गुलामी के बाद 1947 में देश आजाद हुआ और दो हिस्सों में बंट गया! देश के इस हिस्से में रहने वाले कुछ लोग उस तरफ चले गए, जबकि कई वहां से यहाँ चले आए। सामाजिक व्यवस्थाओं में बहुत कुछ बदलने के साथ हमारे सिनेमा में भी बदलाव आया। सिनेमा या फिर मनोरंजन का कोई भी माध्यम, सामाजिक बदलाव देखकर ही अपने आपको बदलता है। विभाजन के बाद कई नए संदर्भों में बदलाव आया! भारतीय सिनेमा को भी इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता! फिल्मों के कथानक, निर्माण प्रक्रिया के साथ गीत-संगीत भी बदला! संगीतकार निसार बजूमी, गायिका नूरजहां पाकिस्तान चले गए। जबकि, बीआर चोपड़ा और साहिर लुधियानवी जैसे कई बड़े नाम बंटवारे के बाद इस तरफ आ गए! देश की आजादी की खुशी और बंटवारे का दर्द इन गीतकारों की कलम से खुलकर बिखरा। भाषा के रंगरूप में भी कुछ बदलाव आया।
    विभाजन के इस दौर का सीधा असर सिनेमा पर पड़ने लगा था। लेकिन, इसके साथ ही सिनेमा की दुनिया में मंदी भी छाने लगी थी! जब यह दौर खत्म हुआ, तो फिल्मों के कथानक में बदलाव दिखाई दिया। सबको इस बात का अहसास था, कि देश की वर्तमान पीढ़ी अभूतपूर्व दौर से गुजर रही है। सभी ने आजादी का स्वाद पहली बार चखा था और सबको पता था कि मिल जुलकर देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है। फिल्म उद्योग को भी इसमें अपना योगदान देना था। इसी बीच 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई। गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने महात्मा गांधी की याद में ‘सुनो सुनो ए दुनियावालों बापू की ये अमर कहानी गीत लिखा। जिसे मोहम्मद रफी ने गाया! इस गैर फिल्मी गीत की रचना फिल्म जगत के लोगों ने ही की थी। एक गीतकार होने के साथ राजेंद्र कृष्ण एक सफल पटकथा लेखक भी थे और 1990 तक सक्रिय भी रहे।    देश की आजादी के बाद धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और स्टंट प्रधान फिल्मों का दौर ख़त्म हुआ और सामाजिक विषयों के साथ प्रेम कथा पर बनने लगीं। फिल्मों के और भी नए-नए विषय सामने आए। गीत, संगीत और अभिनय सभी क्षेत्रों में नई प्रतिभाएं सामने आईं। निश्चित है कि इसका असर गीतों पर पड़ना भी लाजमी था। 1948 में राजकपूर की पहली फिल्म 'आग' आई। फिल्म के गाने शायर बहजाद लखनवी ने लिखे थे और संगीत दिया था राम गांगुली ने। मुकेश ने 'जिदा हूं इस तरह' गीत गाया। शमशाद बेगम ने अपनी दिलकश आवाज में 'काहे कोयल शोर मचाए रे' गाया। इस दौर के गीतों में शायरी हावी थी। अब 'बन की चिड़िया बन बन डोलू रे' जैसे अंदाज और अल्फाज नहीं रहे। फिल्मों में कहानी के पात्रों और कलाकारों के हिसाब से गाने बनाए जाने लगे थे।
   1949 में राजकपूर की ‘बरसात’ और महबूब खान की ‘अंदाज’ जैसी बड़ी फिल्में आईं। 'अंदाज' में नौशाद का संगीत था और 'बरसात' से आए शंकर-जयकिशन। गीतकारों की बात करें, तो शकील बदायूंनी, शैलेंद्र और हसरत जयपुरी जैसे नाम इसी दौर में सामने आए। इसी वक्त सुरैया की फिल्म 'बड़ी बहन' आई जिसमें राजेंद्र कृष्ण ने गीत लिखे थे। ये सभी समर्पित लोग थे। फिल्म 'बरसात' के जरिए लता मंगेशकर छा गईं। इनके गीत  तुम से मिले हम, हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा, जिया बेकरार है जैसे गाने छा गए। 'बड़ी बहन' के गीत 'चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है' को भी  लता ने ही आवाज दी। पचास के दशक के ये गाने अपनी सादगी और संवेदनशीलता के लिए आज भी याद किए जाते हैं।
   प्रेम धवन ने 1948 की फिल्म 'जिद्दी' से अपना सफर शुरू किया। यह वही फिल्म थी, जिसमें किशोर कुमार ने पहली बार देव आनंद के लिए गाया था 'मरने की दुआएं क्यों मांगू।' उन्होंने तराना, मिस बॉम्बे, जागते रहो, काबुली वाला, दस लाख, एक फूल दो माली,  अपलम चपलम, हम हिन्दुस्तानी के लिए कई अच्छे गीत लिखे। उनकी कलम से 'छोड़ो कल की बातें' (हम हिन्दुस्तानी), ऐ मेरे प्यारे वतन (काबुलीवाला) जैसे गीत निकले। मनोज कुमार ने उन्हें गीतकार, संगीतकार की दोहरी भूमिका में आजमाया और 1985 की फिल्म 'शहीद' में मेरा रंग दे बसंती चोला, जोगी हम तो लुट गए, ऐ वतन ऐ वतन जैसे गीत उनके सबसे यादगार गीतों में शामिल हैं।
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Monday, January 6, 2020

कमलनाथ की ख़ामोशी में ही छुपी है उनकी ताकत!

   राजनीति में कोई व्यक्ति कम बोलकर कैसे सफल हो सकता है, ये मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपने पहले साल में साबित कर दिया। उनकी ये राजनीतिक अदा बहुत कुछ अर्जुन सिंह से मिलती जुलती है! वे भी कम बोलते थे और ख़ास बात ये कि उन्हें किसी ने अनावश्यक बोलते हुए भी नहीं सुना! कमलनाथ के पाँच साल के कार्यकाल का पहला साल चुनौतियों से भरा रहा! उपलब्धियों के नजरिए से इसे पूरी तरह तो नहीं, पर सफल तो कहा ही जा सकता! पहले साल ने सरकार का आत्मविश्वास तो बढ़ाया ही है, लोगों को ये भरोसा भी दिलाया कि मुख्यमंत्री अपने फैसलों के प्रति सख्त हैं। उधर, विपक्ष को भी ये लग गया कि असंतुलित बहुमत के मुहाने पर खड़ी इस सरकार को वे जितना कमजोर समझ रहे थे, वो उनका भ्रम था! राजनीति को समझने वाले जो जानकार कमजोर बहुमत देखकर कमलनाथ को जिस तरह आंक रहे थे, उन्होंने भी अपनी धारणा बदल ली होगी। मुख्यमंत्री ने अपने शुरूआती साल में कुछ ऐसे फैसले किए जिनसे उनके इरादे स्पष्ट होते हैं! माफियाओं के खिलाफ मुहिम, पार्टी में अंदरूनी असंतोष पर काबू और नौकरशाही की बिगड़ी चाल को उन्होंने सही करके अपनी सख्ती का अहसास भी करवा दिया। 
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- हेमंत पाल

   सालभर पहले कमलनाथ ने जब मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री का पद संभाला था, तब जानकारों का मानना था कि वे ज्यादा दिन सरकार नहीं चला सकेंगे! इस आशंका के पीछे उनके पास कई तर्क और तथ्य भी थे! सबसे ठोस आधार था, सरकार का बहुमत के मुहाने पर खड़े होना, पार्टी में आंतरिक गुटबाजी, कमलनाथ का प्रदेश की राजनीति का कम अनुभव, राज्य का खजाना खाली होना और सशक्त विपक्ष के रूप में सामने भाजपा का होना! बात सही भी थी, लेकिन सालभर बाद इस धारणा में बदलाव आ गया! झाबुआ जीतकर कांग्रेस ने अपनी ताकत तो बढ़ा ही ली, कमलनाथ ने पार्टी में गुटबाजी भी कम की। सबसे बड़ी बात ये कि वे अनर्गल बयानबाजी से बिल्कुल दूर रहे! उन्होंने कोई गैरवाजिब घोषणाएं नहीं की और विपक्ष के आरोपों जवाब न देकर उनका मुँह बंद कर दिया। वे कम जरूर बोलते हैं, लेकिन जब बोलते हैं तो उनके शब्द मिसाइल की तरह विपक्ष को ध्वस्त कर देते हैं! 'सरकार चलाने और मुँह चलाने में फर्क है' और 'हमारी विजन की सरकार है, टेलीविजन की नहीं' जैसे वाक्यों में उन्होंने बहुत कुछ कह दिया, जिसने विपक्ष की जुबान पर ताले डाल दिए!    
  अब ये माना जाने लगा है, कि मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ के कामकाज की शैली में बदलाव आ रहा है! वे खामोश रहकर भी अपनी आक्रामकता का अहसास करा रहे हैं। पहले उन्होंने अपनी कूटनीति से पार्टी के अंदर की गुटबाजी को तो काबू में किया ही, पार्टी के ऐसे लोगों को भी अहसास करवा दिया कि वे कमजोर मुख्यमंत्री नहीं है! जो लोग ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके बीच खाई को खुदता हुआ देखना चाहते थे, वे मायूस हो गए! सिंधिया को राज्यसभा में भेजने की ख़बरों ने उन लोगों की बोलती बंद कर दी, जो इस जंग में पलीता लगने का इंतजार कर रहे थे! दिग्विजय सिंह और उनके रिश्तों को लेकर भी कुछ लोगों ने गलतफहमियां पैदा करने की कोशिश की थी! लेकिन, ऐसे लोगों की दाल नहीं गली! लक्ष्मण सिंह जैसे विघ्नसंतोषी कांग्रेसी विधायक भी अनर्गल बोलने के बाद अब बगले झांकने लगे हैं! 
  भाजपा के डेढ़ दशक के राज में पगडंडी से उतर आई नौकरशाही को भी उन्होंने सुधारा! बिना राजनीतिक बदले जैसी कार्रवाई किए नौकरशाही में सुधार लाने की हरसंभव कोशिश भी की! इसका नतीजा ये रहा कि प्रदेश में सरकार के स्थिर होने के प्रति आत्मविश्वास बढ़ा! नाकारा सरकारी मशीनरी को दुरुस्त करने के लिए उन्होंने सेवाकाल के 20 साल और नौकरी के 50 साल पूरे करने वालों को अनिवार्य रूप से घर भेजने का फैसला किया गया! क्योंकि, सरकार चाहती है कि कर्मचारी और अधिकारी अपनी जिम्मेदारी को ठीक तरह से निभाएं। जो अपनी जिम्मेदारियों के प्रति लापरवाह हैं, उन्हें सेवा में रहने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए! प्रदेश में निवेश को लेकर हुई समिट 'मेग्निफिशेंट एमपी' उनकी रणनीतिक सफलता का सबसे बड़ा उदहारण है। उन्होंने भाजपा के राज में करीब 75 करोड़ में हुई ऐसी ही समिट को 32 करोड़ में समेत दिया और वो भी ज्यादा सफलता के साथ!    
    माफिया सरगनाओं के खिलाफ प्रदेशभर में चली मुहिम ने आम लोगों के चेहरे पर ख़ुशी लाने का सबसे बड़ा काम किया। क्योंकि, आम लोग ऐसे माफियाओं को सींखचों के पीछे देखना चाहते थे, वही हुआ भी! ये मुहिम अपने कार्यकाल के पहले साल में ही छेड़ना कमलनाथ सरकार का सबसे हिम्मत वाला काम भी रहा! सरकार ने प्रदेशभर के हर तरह के अवैध धंधों में लिप्त माफिया सरगनाओं की कमर तोड़ने की शुरूआत की है। मिलावटखोरों के खिलाफ 'शुद्ध के लिए युद्ध' अभियान छेड़ा, जमीनों की लूट-खसोट करने वालों के कब्जे से जमीनें मुक्त कराई जा रही है। ऐसे सभी सफेदपोशों को निशाने पर लिया गया है, जो अवैध कारोबार करते हैं। इस कार्रवाई में न तो किसी के प्रभाव के आगे झुका गया और न अपनी पार्टी के लोगों को बख्शा गया।   
  ऐसे भाजपा नेताओं की भी कुंडली बनाई जा रही है, जो अनैतिक गलत गतिविधियों में लिप्त लोगों को संरक्षण देते हैं या जिनका खुद का ऐसा कारोबार है। सरकार की नजर उन लोगों पर भी है, जो राजनीतिक रसूख रखते हैं और अपने प्रभाव से गलत धंधों का कारोबार जमाए बैठे हैं। जिलों के प्रशासन से ऐसे लोगों के बारे में आंकड़े जुटाने को कहा गया है। इन लोगों पर कभी भी गाज गिर सकती है। कई भाजपा नेता हमेशा सरकार को अस्थिर करने की कोशिश में लगे रहते हैं। अब सरकार इस रणनीति पर भी काम कर रही है, कि इन पर कैसे लगाम लगाई जाए! रसूखदार नेताओं की उन कमजोर कड़ियों पर चोट की जाए, जहाँ वार करने से वे तिलमिलाएं! सरकार से जुड़े लोगों का ये भी मानना है कि जब विरोधी दल के नेताओं की सारी कारगुजारियों का ब्यौरा सरकार के पास होगा, तो ऐसे लोगों पर आसानी से लगाम लगाई जा सकेगी।
   झाबुआ में हुए पहले विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस काे मिली बड़ी जीत ने भी मुख्यमंत्री कमलनाथ को मजबूती दी। उपचुनाव में कांग्रेस की जीत पर मुख्यमंत्री ने जनता का आभार जताते हुए कहा था कि हमारा आपका संबंध चुनावी नहीं, दिल से है। उन्होंने शिवराजसिंह पर निशाना साधते हुए कहा कि वे घोषणा की राजनीति करते हैं, मैं घोषणाओं पर विश्वास नहीं करता। मुख्यमंत्री ने यह भी कहा कि आपने कांग्रेस को चुनाव जिताकर अपना भविष्य सुरक्षित किया है। चुनाव के समय मैंने कहा था कि मैं आपसे दिल का संबंध बनाना चाहता हूं। यदि पिछली भाजपा सरकार ने यहां 15 सालों में कुछ काम किया होता, तो आपको मुझे इतने सारे आवेदन देने की जरूरत ही नहीं होती। हमने एक साल में अपनी नीति और नीयत से प्रदेश को आगे ले जाने का काम किया है। मुख्यमंत्री ने ये भी कहा था कि शिवराजसिंह हमेशा घोषणाएं करते थे। लेकिन, मैंने कहा कि मैं घोषणा नहीं करूंगा, जो करूंगा आपके सामने करूंगा। आपको निराश नहीं होने दूंगा। घोषणा करना बहुत आसान है, लेकिन उसे पूरा करना मुश्किल है। मैं घोषणा की राजनीति नहीं करता। ये बात काफी हद तक सही भी है! न तो कमलनाथ ने खुद कोई घोषणा की और न उनके मंत्रियों ने!
     कांग्रेस सरकार का पहला साल पूरा होने के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में मुख्यमंत्री ने 'विजन टू डिलेवरी रोड मैप 2020-2025' में अपने आने वाले चार साल के कार्यकाल के विजन के बारे में बताया। इस मौके पर भी उन्होंने एक सटीक बात ये भी कही कि 'हमारी विजन की सरकार है, टेलीविजन की नहीं। हमने पहले ही कहा था कि घोषणा नहीं करेंगे। हमें अपने लोगों का सटिर्फिकेट चाहिए। एक साल पहले खाली खजाना मिला था। हमने 365 दिन में 365 वायदे पूरे किए हैं। हमने एक-एक साल की कार्य योजना बनाई है। हम माफिया मुक्त प्रदेश बनाएंगे, जिससे विकास के हर बिंदु को छुआ जा सके। ये प्रदेश के हर व्यक्ति, किसान और महिला का सपना भी है। कमलनाथ ने अपने रोड मैप में पांच साल में 10 लाख नए रोजगार के अवसर पैदा करने की बात कही है। 3.50 लाख जॉब मैन्युफैक्चरिंग तो 1.50 लाख सर्विस सेक्टर से रोजगार सृजित किए जाएंगे। इसके अलावा पांच लाख नौकरियां पर्यटन क्षेत्र से दी जाएंगी। इन लक्ष्यों को हांसिल करने के लिए कमलनाथ खुद इस रोड मैप की मॉनिटरिंग करेंगे। लेकिन, पहले साल में ये दावा थोड़ा कमजोर नजर आया! क्योंकि, एक साल में प्रदेश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्‍या 7 लाख बढ़कर लगभग 28 लाख हो गई है। करीब 34 हजार को रोजगार भी मिला! लेकिन, ये संख्या सरकार के लिए चुनौती तो है। 
  विपक्ष की ताकत बनने की कोशिश में भी शिवराजसिंह चौहान कमलनाथ के खिलाफ फिर हल्की भाषा का इस्तेमाल करने से नहीं चूके! उन्होंने कहा कि 'टाइगर अभी जिंदा है!' 15 साल तक प्रदेश की सत्ता पर राज करने के बाद भाजपा जब पिछले साल सत्ता से बाहर हुई थी, तब मुख्यमंत्री निवास को खाली करने से पहले लोगों को संबोधित करते हुए शिवराज सिंह ने यही कहा था कि 'टाइगर अभी जिंदा है।' उस समय इस बात को गंभीरता से नहीं लिया गया था! लेकिन, पूरे साल शिवराज सिंह ने सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ा! आज वे विपक्ष के बड़े चेहरे के रूप में स्थापित होने की कोशिश में लगे हैं। लेकिन, यदि उन्हें वास्तव में कमलनाथ की घेराबंदी करना है, तो तथ्यात्मक आधार के साथ भाषा की गंभीरता भी रखना होगी! क्योंकि, लोग अब उलजुलूल बयानबाजी से ऊब चुके हैं! उन्हें कम बोलने और ज्यादा काम करने वाला नेता चाहिए, जिसमें कमलनाथ काफी हद तक सही साबित होते दिखाई दे रहे हैं!
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Sunday, January 5, 2020

कभी न भूलने वाली बेहतरीन कॉमेडी फिल्में

- हेमंत पाल

  हिंदी सिनेमा के हर दौर में कॉमेडी फिल्में बनती रही हैं। लेकिन, समय के साथ इनका स्टाईल और पैटर्न बदलता रहा। कॉमेडी फिल्म के रूप में देश की पहली कॉमेडी फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' को माना जा सकता है। इसके बाद समय-समय पर कॉमेडी फिल्में दर्शकों को गुदगुदाती रहीं। लेकिन, समय के साथ कॉमेडी का ट्रेंड बदला और दर्शकों की पसंद भी! 1958 में बनी किशोर कुमार की फिल्म 'चलती का नाम गाड़ी' में किशोर के साथ उनके दो भाई अशोक कुमार और अनूप कुमार ने भी काम किया था। यह फिल्‍म अपनी शैली की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसके विषय में ही हास्य समाहित था। इस फिल्म के पहले ‌फिल्मों में कॉमेडी होती थी, पर पूरी तरह कॉमेडी फिल्में नहीं बनी। यह एक तरह का पहला प्रयोग था, जो सफल रहा! इस फिल्म को कॉमेडी फिल्मों का ट्रेंड सेटर कहा जाता है। इसके बाद 1962 में आई फिल्म ‘हाफ टिकट’ में किशोर कुमार की एक्टिंग को लोग आज भी याद करते हैं।
    1968 में आई 'पडोसन' का कथानक भी हंसी-मजाक से भरा था। इस फिल्म के हर पात्र ने अपनी सहज कॉमेडी से दर्शकों को हंसने पर मजबूर किया। ये फिल्म में पडोसी लड़की को प्रभावित करने और उससे प्रेम करने की कोशिश को बेहद चटपटे अंदाज में कहा गया था। गाँव के गेटअप वाले भोले (सुनील दत्त) का दिल उनकी पड़ोसन बिंदू (सायरा बानो) पर आ जाता है। बिंदू को संगीत का शौक है, उसे संगीत सिखाने मास्टर जी बने महमूद रोज आते हैं। 1972 में आई 'बॉम्बे टू गोवा' अमिताभ बच्चन के अभिनय वाली फिल्म थी। ये फिल्म एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो एक हत्या की गवाह होने के बाद कश्मकश में है। बस में उसकी मुलाकात कंडक्टर अभिताभ बच्चन से होती है। यह एक ऐसी मजेदार सवारी बस होती है, जो भारत के विभिन्न धर्मों और मान्यताओं के लोगों को एक साथ लेकर शुरू होती है। अमिताभ बच्चन के साथ एक रोमांचक सफर और शानदार गानों के साथ यह फिल्म काफी पसंद की गई! 
  ऋषिकेश मुखर्जी की 1975 में आई 'चुपके-चुपके' को सिचुएशनल कॉमेडी की पहली फिल्म माना जा सकता है। इस फिल्म को देखते वक्त तो दर्शक हंसते ही हैं, बाद में भी फिल्म के दृश्‍य उन्हें गुदगुदाते हैं। फिल्म में धर्मेंद्र का एक नया रूप दिखाई दिया था। प्रो परिमल त्रिपाठी बने धर्मेंद्र अपनी स्टाईल से दर्शकों को हंसाते हैं। फिल्म का हास्य तब चरम पर पहुंचता है, जब अंग्रेजी के प्रो सुकुमार सिन्हा (अमिताभ बच्चन) परिमल त्रिपाठी बनकर जया बच्चन को बॉटनी पढ़ाते हैं। ऋषिकेश मुखर्जी की ही फिल्म 'गोलमाल' को भी बेस्ट कॉमेडी फिल्म माना जाता है। 1979 में आई इस फिल्म में अमोल पालेकर ने पहली बार अपनी संजीदा पहचान से बाहर निकलकर कॉमेडी की थी। अमोल पालेकर ने इस फिल्म में दो किरदार निभाए थे। राम प्रसाद और लक्ष्मण प्रसाद की यह भूमिकाएं अलग ही ढंग से दर्शकों को हंसातीं। एक ही व्यक्ति मूंछों के साथ अलग तरह से बर्ताव करता और बिना मूंछों के दूसरे तरह से। मजे की बात यह थी कि दोनों की ही अलग-अलग पहचान थी। इस फिल्म का हास्य मूंछ लगाकर अभिनय करने और मूंछ न होने के डर में छुपा है। सई परांजपे की 1981 में आई फिल्म 'चश्मे बद्दूर' भी ऐसी फिल्म थी, जिसे आज भी याद किया जाता है। ये दिल्ली के तीन बेराजगार नौजवानों की कहानी है। इन तीनों नौकरी के साथ प्रेमिका की भी जरुरत होती है। हास्य का ताना-बाना इसी दूसरी जरूरत के इर्द-गिर्द है। फिल्म में फारुख शेख, रवि वासवानी और राकेश बेदी के अलावा दीप्ति नवल भी थी।  
    गुलजार जैसे गंभीर फिल्मकार ने 1982 में 'अंगूर' बनाकर अपनी नई पहचान से दर्शकों को अवगत कराया था। यह कॉमेडी अंग्रेजी प्ले 'कॉमेडी ऑफ इरर' पर आधारित थी। फिल्म का हास्य दो जुड़वां जोड़ियों के हमशक्ल होने की वजह से गढ़ा गया था। यहां एक जैसे चेहरे वाले दो आदमियों की दो जोड़ियां होती हैं। संजीव कुमार नौकर बने देवेन वर्मा के साथ उसी शहर में पहुंच जाते हैं, जहां पहले से ही संजीव कुमार और देवेन वर्मा की एक जोड़ी पहले से रह रही होती है। 1983 की फिल्म 'जाने भी दो यारों' राजनीति, मीडिया और नौकरशाही की बुराइयों पर एक सटीक व्यंग्य था। फिल्म के निर्देशक कुंदन शाह गंभीर समस्याओं पर प्रकाश डालने में शानदार तरीके से कामयाब रहे। उत्कृष्ट कलाकारों जैसे नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, सतीश शाह, सतीश कौशिक और नीना गुप्ता ने इस फिल्म में शानदार अभिनय किया है, जिसके कारण निर्देशक और अभिनेताओं को कुछ अवार्डों से भी सम्मानित किया गया। फिल्म को गति तब मिलती है जब नसीरुद्दीन शाह और रवि बसवानी द्वारा खींचे गए एक फोटो से एक व्यक्ति आत्महत्या कर लेता है। यह लगातार कई ट्विस्टों और छलकपटों का कारण बनता है।
 1994 में आई 'अंदाज अपना अपना' उस दौर में आई थी, जब कॉमेडी फिल्में लगभग बंद हो गई थीं। राजकुमार संतोषी की यह फिल्म अपने अंदाज और कॉमेडी की परफेक्ट टाइमिंग से दर्शकों को हंसाती है। उस दौर के दो सुपर स्टार सलमान खान और आमिर खान एक साथ फिल्म में थे। 2000 में परदे पर आई प्रियदर्शन की फिल्म 'हेराफेरी' नए दौर की कॉमेडी को लेकर ट्रेंड सेटर फिल्म कही जा सकती है। इस फिल्म के बाद फिल्मकारों को जैसे कॉमेडी फिल्म बनाने का कोई नुस्‍खा मिल गया। प्रियदर्शन ने भी इसके बाद इस शैली की कई फिल्में बनाई। फिल्म में अक्षय कुमार, परेश रावल और सुनील शेट्टी मुख्य भूमिका में हैं। फिल्म का हास्य नौसिखए लोगों द्वारा किडनैपिंग का एक अधकचरा प्लान बनाकर पैसे कमाने की मानसिकता से उपजता है। 2003 में आई फिल्म ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ एक बेहतरीन कॉमेडी फिल्म थी। इस फिल्म में संजय दत्त और अरशद वारसी की एक्टिंग को लोग आज भी याद करते हैं। तीन साल बाद 2006 में इसका सीक्वल 'लगे रहो मुन्नाभाई' भी आया जो खूब चला! 
   अनीस बज्मी की 2005 की फिल्म 'नो एंट्री' का हास्य शादी के बाद बनने वाले अफेयर की वजह से शुरू होता है। फिल्म के पात्र अफेयर तो कर लेते हैं, पर उसे सही तरीके से हैंडिल न कर पाने की वजह से उनकी हालत बेचारों जैसी हो जाती हैं। फिल्‍म में अनिल कपूर, सलमान खान और फरदीन खान की तिकड़ी है। डर-डरकर इश्क कर रहे नायक की भूमिका में अनिल कपूर खूब जचे हैं। इसी साल आई 'क्या कूल हैं हम' एक सेक्स कॉमेडी फिल्म थी। इसे पहली सेक्स कॉमेडी फिल्म भी कहा जाता है। फिल्म का हास्य द्विअर्थी संवादों से रचा गया था। फिल्म में द्विअर्थी स्टाईल वाले जो संवाद छुपकर बोले जाते थे, इस फिल्‍म में उनका सरेआम प्रयोग हुआ। संवाद के साथ फिल्म के दृश्यों में भी विषयगत सेक्स कॉमेडी थी। फिल्म के कई दृश्य वाकई हास्य पैदा करते हैं। युवाओं के बीच यह फिल्म खूब लोकप्रिय हुई। लोगों को गांंधीगीरी का पाठ पढ़ाने जैसे गंभीर विषय पर हास्य रचना आसान नहीं है, पर राजकुमार हीरानी ने ये कमाल कर दिखाया! 
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