Monday, January 20, 2020

बोलने के साथ ही गाने लगी फ़िल्में!

- हेमंत पाल

   हिंदी फिल्मों के इतिहास में 14 मार्च 1931 ऐसी तारीख है, जो फिल्मों की तकनीक के बदलाव का प्रतीक है। इस दिन हिंदी फिल्मों में सबसे बड़ा बदलाव यह आया कि गूंगी फ़िल्में बोलने लगीं। ये वही दिन था, जब दर्शकों ने पहली बार परदे पर पात्रों को बोलते हुए सुना! इससे पहले दर्शक मूक सिनेमा अधिक पसंद करते थे। उस ज़माने में मूक सिनेमा की भी अपनी एक प्रसिद्धि थी। पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनाने वाले फिल्मकार थे अर्देशिर एम. ईरानी। उन्होंने 1929 में हॉलीवुड की एक बोलती फिल्म ‘शो बोट’ देखी, तब उनके मन में बोलती फिल्म बनाने की इच्छा हुई! पारसी थिएटर के एक लोकप्रिय नाटक को आधार बनाकर उन्होंने 'आलम आरा' की पटकथा लिखी। उन्होंने उस नाटक के गाने भी फिल्म में लिए थे। इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी फिल्मों ने बोलने के साथ ही गाना भी शुरू कर दिया था। 
   तकनीकी रूप से फिल्मों के पश्चिम से प्रेरित होने के बाद भी हमारे शुरुआती फिल्मकारों ने कभी सीधी नकल नहीं की। उन्होंने देशकाल और स्थानीय घटनाओं से जुड़ी कहानियों को परदे पर उतारा। हिन्दी सिनेमा के 100 साल से ज्यादा समय के बाद भी आज ऐसी चुनिंदा फिल्में ही हैं, जिनमें गीतों के लिए कोई जगह नहीं थी। आज के दर्शकों के लिए तो मूक और बिना गीत-संगीत की फिल्मों की कल्पना करना भी मुश्किल है। इसलिए कि गीत-संगीत हमारी तहजीब, संस्कार और बोलचाल में इस तरह समाए हैं, कि इनके बिना हम फिल्मों को अधूरा ही मानते हैं। न सिर्फ फिल्मों में गीतों को जरुरी हिस्सा माना जाता है, बल्कि ये हमारी संस्कृति का भी हिस्सा हैं। जीवन में खुशी का अवसर हो या गम का या फिर मिलन या वियोग का, फिल्मी गीतों के बिना बात पूरी ही नहीं होती।
    'आलम आरा' के पहले गीत 'दे दे खुदा के नाम पर' से लेकर आजतक न जाने कितने गीत बन और बज चुके हैं। इन गीतों ने कभी दर्शकों को रुलाया तो कभी हमारे जख्मों पर मरहम भी लगाया! कभी उठकर झूमने को मजबूर किया तो कभी मोहब्बत की गहराई को समझाया! कभी अकेले में गुनगुनाने की फितरत दी, तो कभी महफिल में छा जाने की कैफियत भी हमें इन्हीं फ़िल्मी गीतों ने दी है। यही कारण है, कि फिल्मी गीत हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गए। गीतों के मामले में हिन्दी फिल्में पश्चिम की फिल्मों से अलग हैं। क्योंकि, हिन्दी फिल्मों के गीत कलाकार, पात्र, परिस्थिति या जगह के अनुसार बनते रहे हैं! जबकि, पश्चिम में बनने वाली फिल्मों में ऐसा नहीं होता। हिंदी फिल्मों में कथानक और संवादों का भी गीतों पर असर होता है। हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर में कलाकार जीवंत संगीत के साथ खुद अपनी आवाज में गाना गाते थे। इसलिए कि तब पार्श्वगायन शुरु नहीं हुआ था। तब तो फिल्मों में गीतकार भी नहीं होते थे! गीतों को फिल्म के संवाद लेखक या कलाकार ही लिख दिया करते थे। 
   फिल्मों में पार्श्वगायन की शुरुआत वाली फिल्म थी ‘धूप छांव’ जिसके लिए पंडित सुदर्शन ने गीत लिखे थे। लेकिन, 40 के दशक के आते-आते फिल्मों में गीत-संगीत जरूरी सा हो गया था। पार्श्वगायन की शुरुआत होने से फिल्मों में गीत-संगीत को जरुरी हिस्सा माना जाने लगा। किसी भी फिल्म की सफलता में सुमधुर गीत और संगीत को भी जरूरी माना गया। समय के साथ फिल्मों में गीतों की संख्या बढ़ती गई! मिसाल के तौर पर फिल्म ‘ताजमहल’ में 17 गीत थे, ‘भक्त कबीर’ में 16, कारवां में 15 और 'सती सीता' में 20 गाने थे। लेकिन, 1932 में बनी 'इंद्र सभा' ने गानों के मामले में एक रिकॉर्ड बनाया। इस फिल्म में 71 गाने थे। इतने गाने आजतक किसी फिल्म में नहीं रहे। फिल्मों के उस दौर के जाने-माने गीतकारों में केदार शर्मा, डीएन मधोक, मुंशी आरजू लखनवी और कवि प्रदीप थे। केदार शर्मा 1936 में बनी फिल्म 'देवदास' के लिए 'बालम आज बसो मेरे मन में' और 'दुख के दिन अब बीतत नाही' जैसे गीतों से नाम कमाया था। 40 के दशक में भी उन्होंने निर्देशन के साथ कई फिल्मों में गीत भी लिखे। 1941 में आई 'चित्रलेखा' में उनके गीत 'सैंया सांवरे भये बावरे, सुन सुन नीलकमल मुस्काए और 'तू जो बड़े भगवान बने' पसंद किया गया।
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