- हेमंत पाल
इस बार के पद्म पुरस्कारों में प्रदेश के पश्चिमी इलाके का जलवा रहा। प्रदेश की चार असाधारण हस्तियों को मिले 'पद्म श्री' सम्मान में से तीन इंदौर और उज्जैन संभाग के हैं। इंदौर के उद्योगपति और शिक्षा के लिए समर्पित नेमनाथ जैन, उज्जैन के कथक नृत्य को बढ़ावा देने वाले पुरुषोत्तम दाधीच और महिला रक्तअल्पता के लिए काम करने वाली रतलाम की डॉ लीला जोशी को इस सम्मान के लिए चुना गया। चौथा 'पद्म श्री' सम्मान भोपाल गैस त्रासदी से पीड़ित लोगों के लिए काम करने वाले अब्दुल जब्बार को मरणोपरांत देने की घोषणा की गई।
सोया मैन ऑफ़ इंडिया
डॉ. नेमनाथ जैन को यह सम्मान देश में कृषि, सोयाबीन एवं शिक्षा के विकास तथा समाज सेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया गया है। डॉ जैन की पहचान देश में 'सोया मेन ऑफ़ इंडिया' के रूप में भी होती है। 8 दशकों की जीवन यात्रा में कृषि, सोयाबीन, शिक्षा एवं समाज सेवा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हें कई बार राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है। इन पुरस्कारों में 1983 में लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड, उद्योग पात्र पुरस्कार और उद्योग विभूषण पुरस्कार शामिल हैं। इंदौर के एसजीएसआईटीएस कॉलेज से इंजीनियरिंग करने के बाद उन्होंने कुछ समय तक नौकरी की। फिर 'प्रेस्टीज आद्योगिक समूह' की स्थापना की जो आगे चल कर सोयाबीन प्रसंस्करण एवं सोया उत्पादों के निर्माण में देश एवं मध्य भारत की सबसे प्रतिष्ठित कंपनियों में एक बन गया। 1994 में आधुनिकतम प्रबंध शिक्षा के लिए 'प्रेस्टीज इंस्टिट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड रिसर्च' की स्थापना की, जो आज देश की अग्रणी बिज़नेस स्कूलों में एक है। मध्यप्रदेश को सोयाबीन के क्षेत्र में वैश्विक पहचान देने के लिए उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई और उन्हीं के प्रयासों के कारण आज मध्य प्रदेश सोया राज्य के नाम से जाना जाता है।
महिला एनीमिया को समर्पित
रतलाम की 82 साल की डॉ लीला जोशी को 'पद्म श्री' दी जाएगी। वे पिछले 22 सालों से महिलाओ में खून की कमी (एनीमिया) को लेकर अलख जगा रही हैं। उन्होंने आदिवासी अंचलो में कैंप लगाकर हज़ारों महिलाओं का मुफ्त इलाज किया। उन्हें रतलाम की 'मदर टेरेसा' भी कहा जाता है। मदर टेरेसा से ही प्रभावित होकर ही डॉ लीला जोशी ने आदिवासी इलाकों में महिलाओं के लिए 'एनीमिया जागरुकता अभियान' शुरू किया। महिला और बाल विकास विभाग ने 2015 में डॉ. लीला जोशी का चयन देश की 100 प्रभावी महिलाओं में किया था। वे रेलवे के चीफ मेडिकल डायरेक्टर के पद से रिटायर होने के बाद से ही आदिवासी अंचलों में महिलाओं और किशोरियों का मुफ्त इलाज कर रही हैं। उन्हें 2016 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी सम्मानित किया था। 2013 में एनीमिया जागरूकता के लिए उन्हें रेल मंत्रालय का विशिष्ट सेवा सम्मान भी मिला। 2014 में माधुरी दीक्षित ने उन्हें 'वुमन प्राइड अवॉर्ड' से नवाजा था। 2014 में ही 'फोग्सी' (प्रेसिडेंट फेडरेशन ऑफ ऑबस्ट्रेटिक एंड गायनेकोलाजिकल सोसायटी ऑफ इंडिया) ने भी सम्मान किया था। उन्होंने 1997 में रतलाम में हॉस्पिटल शुरु किया और आदिवासी महिलाओँ में खून की कमी से होने वाली मृत्यु दर को कम करने के लिए शिविर लगाए। 2007 में रक्ताल्पता कम करने का अभियान चलाया। 2003 में उन्होंने सामाजिक सेवा संस्थान की स्थापना कर गर्भवती महिलाओं के लिए आयरन दवा तथा पौष्टिक आहार वितरण की शुरुआत की।
कथक को समर्पित जीवन
उज्जैन के कथक गुरु 80 साल के नृत्यगुरु डॉ. पुरुषोत्तम दाधीच को भी इस साल 'पद्मश्री' देने की घोषणा की गई। वे युवाओं को इंदौर के नटवरी कथक केंद्र में कथक की तालीम दे रहे हैं। 1961 में उन्होंने उज्जैन में कथक का शिक्षण शुरू किया। उस समय राज्य में कथक का कोई पाठ्यक्रम नहीं था। इसके लिए डॉ दाधीच ने कथक का पाठ्यक्रम तैयार किया, किताबें लिखीं और इसे लागू कराया। वे कथक पर अब तक 17 किताबें लिख चुके हैं और यह काम करने वाले प्रदेश के वे पहले व्यक्ति है। 10 साल की उम्र में उन्होंने पंडित दुर्गाप्रसाद से कथक सीखा। बाद में दिल्ली में नारायण प्रसाद और सुंदर प्रसाद से बकायदा कथक की तालीम ली। फिर दिल्ली में ही पं बिरजू महाराज के चाचा शंभू महाराज से कथक सीखा। उन्हें मप्र का शिखर सम्मान, संगीत नाटक अकादमी सम्मान भी मिल चुका है। गांर्धव महाविद्यालय मुंबई ने उन्हें 'महामहोपाध्याय' की उपाधि दी थी। उनके पिता पहलवान थे, इसलिए शुरू में उनके कथक प्रेम को लेकर परिवार में काफी विरोध भी हुआ। लोग कहते थे कि 'पहलवान का बेटा नचनिया' बनेगा? जब उन्होंने नृत्य सीखना शुरू किया, तब बहुत ज्यादा विरोध का सामना करना पड़ा। क्योंकि, तब पुरुषों का नाचना अच्छा नहीं समझा जाता था। लेकिन, उन्होंने अपनी लगन नहीं छोड़ी और कथक को ही अपना पेशा बनाया।
गैस त्रासदी को समर्पित
इस बार 'पद्म श्री' सम्मान के लिए 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए काम करने वाले स्व अब्दुल जब्बार को भी चुना गया। उन्हें मरणोपरांत 'पद्म श्री' से सम्मानित किया गया। अपने इस संघर्ष के बलबूते पर वे करीब पौने 6 लाख गैस पीड़ितों को मुआवजा और यूनियन काबाईड के मालिकों के खिलाफ कोर्ट में मामला दर्ज कराने में कामयाब रहे थे। गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाले इस सामाजिक कार्यकर्ता का 14 नवंबर 2019 को लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया था। दुनिया की सबसे भीषण औद्योगिक त्रासदी में फेफड़े से जुड़ी समस्या का सामना उन्हें भी करना पड़ा था। जब्बार की 50 प्रतिशत आंखों की रोशनी भी चली गई थी और उन्हें लंग फाइब्रोसिस हो गया था। वे मध्य प्रदेश सरकार के 'इंदिरा गांधी समाजसेवा पुरस्कार' से भी नवाजे जा चुके हैं। उन्होंने गैस पीड़ितों के परिवारों को मुआवजा दिलाने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी। वे 'भोपाल गैस पीड़िता महिला उद्योग संगठन' के संयोजक भी थे। उन्होंने 2300 महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया।
अब्दुल जब्बार के इस संघर्ष में दो बातें ख़ास थीं। एक, तो इसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी और इसे स्वाभिमान की लड़ाई बनाया गया। जिसके लिए उन्होंने अपने संघर्ष को ‘ख़ैरात नहीं रोजगार चाहिए’ का नारा दिया और संगठन का नाम रखा 'भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन' रखा। उनके आंदोलन और बैठकों में मुख्य रूप से महिलाओं की ही भागीदारी होती थी। और जब्बार भाई के साथ हमीदा बी, शांति देवी, रईसा बी जैसी महिलाएं ही संगठन का चेहरा होती थीं. संघर्ष के साथ उन्होंने गैस पीड़ित महिलाओं के स्वरोजगार के लिए सेंटर की स्थापना की थी जिसे ‘स्वाभिमान केंद्र’ का नाम दिया गया।
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