Tuesday, January 14, 2020

आजादी के बाद का बदला सिनेमा

- हेमंत पाल

   दो सौ सालों की अंग्रेजों की गुलामी के बाद 1947 में देश आजाद हुआ और दो हिस्सों में बंट गया! देश के इस हिस्से में रहने वाले कुछ लोग उस तरफ चले गए, जबकि कई वहां से यहाँ चले आए। सामाजिक व्यवस्थाओं में बहुत कुछ बदलने के साथ हमारे सिनेमा में भी बदलाव आया। सिनेमा या फिर मनोरंजन का कोई भी माध्यम, सामाजिक बदलाव देखकर ही अपने आपको बदलता है। विभाजन के बाद कई नए संदर्भों में बदलाव आया! भारतीय सिनेमा को भी इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता! फिल्मों के कथानक, निर्माण प्रक्रिया के साथ गीत-संगीत भी बदला! संगीतकार निसार बजूमी, गायिका नूरजहां पाकिस्तान चले गए। जबकि, बीआर चोपड़ा और साहिर लुधियानवी जैसे कई बड़े नाम बंटवारे के बाद इस तरफ आ गए! देश की आजादी की खुशी और बंटवारे का दर्द इन गीतकारों की कलम से खुलकर बिखरा। भाषा के रंगरूप में भी कुछ बदलाव आया।
    विभाजन के इस दौर का सीधा असर सिनेमा पर पड़ने लगा था। लेकिन, इसके साथ ही सिनेमा की दुनिया में मंदी भी छाने लगी थी! जब यह दौर खत्म हुआ, तो फिल्मों के कथानक में बदलाव दिखाई दिया। सबको इस बात का अहसास था, कि देश की वर्तमान पीढ़ी अभूतपूर्व दौर से गुजर रही है। सभी ने आजादी का स्वाद पहली बार चखा था और सबको पता था कि मिल जुलकर देश को तरक्की के रास्ते पर ले जाना है। फिल्म उद्योग को भी इसमें अपना योगदान देना था। इसी बीच 1948 में महात्मा गांधी की हत्या हो गई। गीतकार राजेंद्र कृष्ण ने महात्मा गांधी की याद में ‘सुनो सुनो ए दुनियावालों बापू की ये अमर कहानी गीत लिखा। जिसे मोहम्मद रफी ने गाया! इस गैर फिल्मी गीत की रचना फिल्म जगत के लोगों ने ही की थी। एक गीतकार होने के साथ राजेंद्र कृष्ण एक सफल पटकथा लेखक भी थे और 1990 तक सक्रिय भी रहे।    देश की आजादी के बाद धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और स्टंट प्रधान फिल्मों का दौर ख़त्म हुआ और सामाजिक विषयों के साथ प्रेम कथा पर बनने लगीं। फिल्मों के और भी नए-नए विषय सामने आए। गीत, संगीत और अभिनय सभी क्षेत्रों में नई प्रतिभाएं सामने आईं। निश्चित है कि इसका असर गीतों पर पड़ना भी लाजमी था। 1948 में राजकपूर की पहली फिल्म 'आग' आई। फिल्म के गाने शायर बहजाद लखनवी ने लिखे थे और संगीत दिया था राम गांगुली ने। मुकेश ने 'जिदा हूं इस तरह' गीत गाया। शमशाद बेगम ने अपनी दिलकश आवाज में 'काहे कोयल शोर मचाए रे' गाया। इस दौर के गीतों में शायरी हावी थी। अब 'बन की चिड़िया बन बन डोलू रे' जैसे अंदाज और अल्फाज नहीं रहे। फिल्मों में कहानी के पात्रों और कलाकारों के हिसाब से गाने बनाए जाने लगे थे।
   1949 में राजकपूर की ‘बरसात’ और महबूब खान की ‘अंदाज’ जैसी बड़ी फिल्में आईं। 'अंदाज' में नौशाद का संगीत था और 'बरसात' से आए शंकर-जयकिशन। गीतकारों की बात करें, तो शकील बदायूंनी, शैलेंद्र और हसरत जयपुरी जैसे नाम इसी दौर में सामने आए। इसी वक्त सुरैया की फिल्म 'बड़ी बहन' आई जिसमें राजेंद्र कृष्ण ने गीत लिखे थे। ये सभी समर्पित लोग थे। फिल्म 'बरसात' के जरिए लता मंगेशकर छा गईं। इनके गीत  तुम से मिले हम, हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा, जिया बेकरार है जैसे गाने छा गए। 'बड़ी बहन' के गीत 'चुप चुप खड़े हो जरूर कोई बात है' को भी  लता ने ही आवाज दी। पचास के दशक के ये गाने अपनी सादगी और संवेदनशीलता के लिए आज भी याद किए जाते हैं।
   प्रेम धवन ने 1948 की फिल्म 'जिद्दी' से अपना सफर शुरू किया। यह वही फिल्म थी, जिसमें किशोर कुमार ने पहली बार देव आनंद के लिए गाया था 'मरने की दुआएं क्यों मांगू।' उन्होंने तराना, मिस बॉम्बे, जागते रहो, काबुली वाला, दस लाख, एक फूल दो माली,  अपलम चपलम, हम हिन्दुस्तानी के लिए कई अच्छे गीत लिखे। उनकी कलम से 'छोड़ो कल की बातें' (हम हिन्दुस्तानी), ऐ मेरे प्यारे वतन (काबुलीवाला) जैसे गीत निकले। मनोज कुमार ने उन्हें गीतकार, संगीतकार की दोहरी भूमिका में आजमाया और 1985 की फिल्म 'शहीद' में मेरा रंग दे बसंती चोला, जोगी हम तो लुट गए, ऐ वतन ऐ वतन जैसे गीत उनके सबसे यादगार गीतों में शामिल हैं।
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