Sunday, September 25, 2016

फिल्मों का उत्कर्ष और नायक का आदर्शवाद



-  हेमंत पाल 


 हिंदी फिल्मों के पात्रों का चरित्र निर्धारित है! नायक हमेशा आदर्शवादी, सद्चरित्र और समाजवादी मूल्यों को मानने वाला होता है! नायिका उसके इन्हीं सदगुणों पर फ़िदा होती है। खलनायक वो है, जो नायक के विपरीत चरित्र वाला होता है! इसीलिए क्लाइमेक्स में उसे अपने दुर्गुणों की सजा भी भोगना पड़ती है। बाकी के पात्रों का भी चरित्र तय है। जब किसी फिल्म निर्माण की योजना बनती है, तो इन्हीं निर्धारित पात्रों को निभाने वाले कलाकारों का चयन किया जाता है! समय बदला, माहौल बदला, सोच बदला! नहीं बदला तो नायक का आदर्शवादी चरित्र! लेकिन, फिल्मों के शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था! समाज के आदर्श व्यक्ति के रूप में नायक की पहचान आजादी के बाद बनी फिल्मों से बदली!  
  वास्तव में 1950 के दशक में ही परदे के नायक को बदलने का दौर आया! क्योंकि, उस वक़्त फिल्मकारों के जहन में देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। आजाद देश के जिम्मेदार नागरिक का किरदार सभी अपने-अपने तरीके से निभाया! आजादी पहले जो नायक क्रांति का अलख जगाए घूमता था, वो समाज का सबसे आदर्शवादी व्यक्ति बन गया! यह महबूब खान, दिलीप कुमार, राज कपूर, बिमल राय, ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरुदत्त, चेतन आनंद और देव आनंद का दौर था। उधर बंगाल में सत्यजित राय ने भी इसी वक़्त में अपनी सजग चेतना से भारतीय चिंतन को प्रभावित किया। आवारा, मदर इंडिया और 'जागते रहो' जैसी फ़िल्में भी इसी दौर में बनी। 1955 में राजकपूर की 'श्री 420' आई, जिसमें नायक अमीर होने के लिए गलत रास्ते पर चल पड़ता है! लेकिन, नायिका आदर्शवाद पर अड़ी रहती है और क्लाइमेक्स तक आते नायक को भी सही रास्ते पर ले आती है। आदर्श की जीत इस दौर में आम बात थी। 
  इस दौर में फिल्मकार का पूरा चिंतन समाज के प्रति सरोकार उसके नायक में झलकता था! कई बार तो खलनायक भी नायक के आदर्शवाद से प्रभावित हो जाता था। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता, तो अंत में उसके लिए पुलिस आ ही जाती थी! शंभु मित्रा की फिल्म 'जागते रहो' भी इसी आदर्शवादी समयकाल का निर्माण था! फिल्म में दिखाया गया था कि अमीर होने के लिए नायक सबकुछ करता हैं! जबकि, ईमानदार गरीब आदमी पानी तक के लिए भी तरसता है। पानी भी पीता है, तो उसे चोर करार दिया जाता है। शम्भू मित्रा के इस गरीब नायक ने पूरे समाज को आईना दिखाया था! 
   वक़्त के साथ हिंदी फिल्मों में नायकत्व भी सशक्त हुआ! इसलिए कि हमारा समाज हमेशा ही ऐसे नायक की तलाश में रहा है, जो खुद की नहीं सबकी बात करे! समाज के लिए खड़ा हो! जिसमे सभी का नेतृत्व करने की क्षमता हो! इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ये था कि इस दशक में देश की नई सरकार में ही कई नायक थे, जो आजादी की जंग से उभरे थे। महात्मा गांधी वाला युग बीत चुका था, नेहरू का दौर समाज पर हावी था। पं नेहरू की अपनी अलग आइडियोलॉजी थी! वे प्रैक्टिकल लाइफ को समझते थे! फिल्म प्रेमी भी थे और फिल्मकारों की लोकप्रियता से प्रभावित रहते थे। इस दौर में उन्होंने फिल्मों के विकास के लिए कुछ कदम भी उठाए गए! इससे भी फिल्मों में नायकत्व को आधार मिला! पिछले दशकों के मुकाबले आजादी के बाद के इस दशक में फिल्में ज्यादा बेहतर ढंग से अपनी बात कहने लगी! फिल्मों में भाषणबाजी से हटकर मनोरंजन का मसाला दिखाई देने लगा! अभाव, भेदभाव, जातिवाद, गरीबी, सांप्रदायिकता, हिंसा और महिलाओं पर जुल्म जैसी समस्याओं के बीच कहीं न कहीं मसाला और रोमांस नजर आने लगा! 
  इस दशक की एक और खास बात है कि नायक आदशरें और समाजवादी मूल्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक था, लेकिन उसे ठीक से प्यार करना नहीं आता था। प्यार की अनुभूति मजबूत आकार नहीं ले सकी थी। 'अरेंज्ड मैरेज' का समाज था, जैसी समाज और परिवार की इच्छा होती थी, युवा वैसा ही करते थे। अपने प्यार की बलि चढ़ा देते थे या समझ ही नहीं पाते थे कि प्यार में क्या किया जाए। ध्यान दीजिए, इसी दौर में बिमल राय ने 'देवदास' का निर्माण किया। एक ऐसा नायक जो न ठीक से प्यार कर सका, न ठीक से प्यार पा सका। गुरुदत्त की 'प्यासा' में भी यही हुआ। देवदास अगर चाहता, तो बहुत आसानी से पारो से विवाह करके सुखी हो जाता, पारो उसे बहुत चाहती थी, लेकिन फिर वही जमींदारी, लोकलाज, परिवार, समाज इत्यादि-इत्यादि। फिर उसे चंद्रमुखी से प्यार हुआ, लेकिन वह भी मुकाम पर नहीं पहुँच सका, फिर वही लोकलाज, परिवार, समाज इत्यादि-इत्यादि। शायद यह एक तरह से प्रगतिशीलता का आह्वान था कि देखो, व्यक्तिगत प्यार की कोई औकात नहीं, देश को देखो, समाज को देखो और तब फैसला लो। एक तरह से इस दशक में नायक यह तो बोल सका कि मैंने दिल तुझको दिया, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ा सका, क्योंकि उसमें साहस का अभाव था। प्रेम की पुकार की तुलना में देश, समाज और परिवार की पुकार बड़ी थी।
  पचास के दशक के उसी फिल्मी नायक का प्रभाव आज तक बना हुआ है! क्योंकि, वही हिंदी सिनेमा का सबसे प्रभावी नायक था, जो आज भी परदे पर मौजूद है। इसी दशक का नायक भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाया! पंडित नेहरू की तरह राजकपूर भी दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय थे! रूस में तो राजकपूर के लिए दीवानगी जग जाहिर थी! पंडित नेहरू राजनीति में समाजवादी थे, तो सिनेमा के परदे पर राजकपूर का नायकत्व भी समाजवादी दृष्टिकोण लिए था! सरकार नैतिकता के साथ सामाजिक समानता और संपन्नता के सपने संजो रही थी, तो यही काम फिल्मों में हो रहा था! ने भी यही किया। शक नहीं कि जब भी भारतीय फिल्मी नायक का विश्वास डिगेगा, उसे अपने पचास के दशक के पूर्वज नायक से सीखना पड़ेगा! क्योंकि, इस दशक से सीखने के लिए बहुत कुछ है, सरकार को भी और परदे के नायक को भी! 
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Saturday, September 24, 2016

मध्यप्रदेश में कांग्रेस को किस राजनीतिक मौके का इंतजार?


  मध्यप्रदेश में कांग्रेस इन दिनों सदमे में है! उसे ये तो पता चल गया कि प्रदेश की भाजपा सरकार की जमीन दरक रही है! बढ़ती अफसरशाही और उम्मीदों पर खरा न उतरने से जनता नाराज है। नगर पंचायतों और नगर पालिकाओं जैसे छोटे चुनाव में भाजपा लगातार पिछड़ रही है! ख़बरें भी है कि लोग अब बदलाव चाहते हैं! लेकिन, सामने कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा! कम से कम कांग्रेस तो ऐसा कुछ नहीं कर रही, कि लोग उसे भाजपा के विकल्प के रूप में देखें! लंबे अरसे से प्रदेश में कांग्रेस सुप्त अवस्था में है! अपनी मौजूदगी के लिए सरकार के फैसलों पर टिप्पणी या विरोध के अलावा कांग्रेस कुछ नहीं कर रही कि उसे प्रदेश में राजनीतिक विकल्प समझा जाए! सच ये है कि जब तक कांग्रेस में गुटबाजी ख़त्म नहीं होगी, तब तक मनमाफिक नतीजा नहीं आने वाला! कांग्रेस ने रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव जीता! उसमें कांतिलाल भूरिया के असर के साथ पार्टी नेताओं की मेहनत को भी सराहा गया! लेकिन, उसके बाद कांग्रेसी सीट मैहर की हार ने एक बार फिर गुटीय राजनीति को आइना दिखा दिया! यदि कांग्रेस के नेता अब भी होश में आने को तैयार नहीं हुए तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाना महज एक सपना बनकर ही रह जाएगा। ऐसे में प्रशांत किशोर भी कांग्रेस के लिए कुछ नहीं कर आएंगे, जिसकी टीम ने प्रदेश के नब्ज को टटोल लिया है।  
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- हेमंत पाल 
  मध्यप्रदेश में भाजपा लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार चला रही है। 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा को मतदाताओं ने दो तिहाई से ज्यादा बहुमत देकर सत्ता में बैठाया था। उसके बाद कुछ समय के लिए बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने! अब 13 साल से शिवराजसिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में काबिज हैं। भाजपा ने तीनों विधानसभा चुनाव अपने बलबूते पर कम और कांग्रेस के नाकारापन के कारण ही जीते! अब भाजपा सरकार भी लोगों की उम्मीदें उस सक्षमता से पूरी नहीं कर पा रही है, जितनी कि आस थी! ऐसे में कांग्रेस भाग्य भरोसे छींका टूटने का रास्ता देख रही है! कांग्रेस खुद कोई मेहनत नहीं कर रही, बल्कि भाजपा के कमजोर होने का रास्ता देख रही है। कांग्रेस के पास न तो कोई कार्यक्रम है न भविष्य को लेकर कोई योजना! राजनीति के नाम पर सरकार और मुख्यमंत्री के विरोध और प्रदर्शन से ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा! भी पूरी पार्टी के बजाए पार्टी प्रवक्ता तक ही सीमित है।   
  कांग्रेस के पास जब कोई काम नहीं होता तो गुटबाजी खुलकर सामने आ जाती है। अभी पार्टी फिर उसी राह पर है। अगले चुनाव में सत्ता पाने के लिए प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए जोड़-तोड़ फिर शुरू हो गई! प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर जो लॉबिंग शुरू हुई है, उसका नतीजा उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद सामने आएगा! क्योंकि, कांग्रेस अरुण यादव को हटाने खतरा उत्तरप्रदेश चुनाव के बीच में नहीं ले सकती! लेकिन, कांग्रेस की गुटबाजी का संदेश जनता के बीच तो पहुंच ही रहा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर प्रदेश में माहौल गरमाया जा रहा है। निश्चित तौर पर उनके नाम उछलने के पीछे राजनेताओं की सहमति भी होगी। इन नेताओं की सक्रियता के बीच ऐसे नजारे भी दिखे, जो इस बात का संकेत दे रहे हैं! इससे कांग्रेस के गुटों में बंटने का जो संदेश मतदाताओं के बीच जा रहा है, वह अच्छा संकेत।  इन्हीं हालातों की वजह से जनता बार-बार कांग्रेस को नकार रही है। यदि अभी भी कांग्रेस नहीं संभली, तो पार्टी को फिर उसी मोड़ पर खड़े होने को मजबूर होना पड़ेगा, जहाँ वो 2003 में थी! 
 कांग्रेस ने 2014 में अरुण यादव को कांग्रेस की कमान सौंपी थी! क्योंकि, तब हार से आहत होकर कोई भी इस जिम्मेदारी को सँभालने को तैयार नहीं था! विधानसभा चुनाव के बाद तो कांग्रेस को किसी करिश्में की उम्मीद भी नहीं थी। मोदी लहर ने पूरे देश में कांग्रेस को पटकनी दे दी थी! मध्यप्रदेश उसमें कोई अपवाद नहीं था। लोकसभा चुनाव में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाए थे। अरुण यादव को भी खंडवा सीट से हार का मुँह देखना पड़ा था। कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों के बाद अरुण को फ्री-हैंड दिया! जबकि, असलियत ये थी कि ऐसा कुछ होना भी नहीं था, जिससे उनकी राजनीतिक क्षमताओं का पता चल सके! फिर लग रहा है कि कांग्रेस अरुण यादव पर से भरोसा खो रही है! यादव को सामने रखकर पार्टी के बड़े नेता भी मेहनत करने से बच रहे है। सवाल उठता है कि क्या ये गुटबाजी कांग्रेस पर हमेशा हावी रहेगी? क्या सभी नेता मिलकर 'मिशन-2018' को लेकर निर्गुट राजनीति का एक उदाहरण पेश करने का मन नहीं बना पा रहे? 'मिशन-2018' से पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर चल रही जोर-आजमाइश अपने आपमें ऐसे कई सवाल खड़े कर रही है।
 सच्चाई ये भी है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है कि उनके आने से कोई चमत्कार हो सकेगा? कांग्रेस के लिए 2003 से 2016 के बीच हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में भी ये दोनों नेता कोई बड़ी उपलब्धि हांसिल नहीं कर सके! कमलनाथ महाकौशल क्षेत्र में प्रभावशाली सिंधिया का प्रभाव क्षेत्र ग्वालियर-चंबल! अपने क्षेत्र में भी इन दोनों नेताओं का असर बेहद ख़राब ही रहा! जबकि, कांग्रेस ने टिकट बांटने में इन नेताओं को पूरी आजादी दी! इतनी हारों के बाद भी कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, कांतिलाल भूरिया, अजय सिंह या फिर अब अरुण यादव के कंधों पर यह भार नहीं है कि सभी साथ बैठकर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्दशा पर विचार करें। साथ ही जनता के बीच गुटबाजी में बंटी कांग्रेस के मिथक को मिटाकर मजबूत कांग्रेस का भरोसा दिलाएं। लगता नहीं कि इन नेताओं कभी प्रदेश में पार्टी की दुर्दशा पर विचार किया होगा? क्या इन्होंने ये जानने की कोशिश की है कि कांग्रेस की ब्लॉक, जिला इकाईयां गुटबाजी में बंटी कांग्रेस का संदेश क्यों दे रही हैं और मैदानी स्तर पर वे सत्तारूढ़ भाजपा संगठन के सामने कहां खड़ी हैं? 
 एक अनुमान ये भी लगाया जा रहा है कि कांग्रेस 'मिशन-2018' के लिए पुराने चेहरों की जगह किसी नए चेहरे को आगे बढ़ा सकती है। लेकिन, वो कौन होगा, ये तय होना अभी बाकी है! प्रदेश के युवा विधायकों व कुछ चुनिंदा युवा पदाधिकारियों के साथ राहुल गांधी ने मंत्रणा भी की! पर, लगता नहीं कि इससे कुछ हो सकता है! विधान सभा चुनाव  मद्देनजर युवा विधायकों की राहुल गांधी के साथ हुई इस बैठक को काफी अहम माना गया! यदि ऐसा कुछ होता है तो जयवर्धन सिंह (दिग्विजय सिंह के पुत्र) ही हैं, जिनके लिए रास्ता बहुत आसान है। अभी भी प्रदेश की राजनीति बहुत कुछ उनके इर्द-गिर्द ही घूमती है। राहुल गांधी की विधायकों से मुलाकात के बाद प्रदेश कांग्रेस की राजनीति भी बदलाव की उम्मीद की गई थी, पर इस बात को भी लंबा अरसा बीत गया! प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में अब तक कुछ ही दिग्गज चेहरों के नाम लिए जाते है। इनमें कमलनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रमुख नाम शामिल है। अब कौनसा नया नाम सामने आने वाला है, ये यक्ष प्रश्न ही है। 
  इधर, नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान में अहम भूमिका निभाने वाले प्रशांत किशोर अब कांग्रेस के पाले में बैठे हैं। फिलहाल उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के लिए लिए संजीवनी तलाश रहे हैं। साथ में मध्यप्रदेश के लिए भी प्रशांत किशोर की टीम ने 230 सीटों का सर्वे किया! प्रदेश की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पृृष्ठभूमि के साथ नेताओं की लोकप्रियता के क्षेत्रवार, बूथवार सभी आंकड़े इकठ्ठे किए! आशय यह कि 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता वापसी कराने के लिए प्रशांत किशोर की टीम अभी से सक्रिय हो गई! उनकी टीम ने प्रदेश का राजनीतिक सर्वे करके मतदाताओं का मूड भी भांपा है। प्रशांत किशोर की चुनावी रणनीति के हिसाब से पार्टी संगठन में बदलाव लाने की तैयारी है। गुटबाजी रोकने के लिए प्रशांत किशोर असरदार नेताओं का अपनी रणनीति के तहत उपयोग संगठन में करेंगे। पूरे प्रदेश के लिए एक सामान रणनीति भी नहीं बनेगी! कुछ चुनिंदा सीटों के लिए अलग रणनीति बनाने की योजना है। विंध्य, मध्यक्षेत्र , मालवा-निमाड़, ग्वालियर-चंबल सहित महाकोशल, बुंदेलखंड इलाके के लिए प्रशांत किशोर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करने में लगे हैं। बुंदेलखंड में भाजपा की कमजोरी स्पष्ट है! यही कारण है कि वहाँ चार -पांच महीने से प्रशांत किशोर की टीम वहां सक्रिय है। उन्होंने सर्वे में सामने आए आउटपुट को गोपनीय रखते हुए राहुल गांधी को स्पष्ट कर दिया कि प्रदेश में सत्ता वापसी के लिए गुटबाजी छोड़कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह तथा ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी आदि नेताओं को कांग्रेस के लिए काम करना चाहिए। लेकिन, क्या ऐसा हो सकेगा? ये और ऐसे कई सवाल सामने खड़े हैं!
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Sunday, September 18, 2016

दो गज के नेता, चार गज की जुबान

- हेमंत पाल 

  राजनीति को उच्श्रृंखलता का पर्याय माना जाता है! कोई भी नेता, कहीं भी, कभी भी और कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र होता है! न तो कोई नकेल होती है न अनुशासन की चाबुक चलती है! विरोधियों के खिलाफ बयानबाजी तो ठीक, कई बार अपनी पार्टी को भी नहीं छोड़ा जाता! लेकिन, भारतीय जनता पार्टी में अभी तक ऐसा नहीं था!  इस कैडर बेस पार्टी में हर नेता अनुशासित था! सबकी जुबान मुँह के अंदर थी! लेकिन, अब वो दिन हवा हो गए, जब मियांजी फाख्ता उड़ाया करते थे! अब तो दो गज के नेता भी अपने मुँह में चार गज की जुबान लिए फिरते हैं। पूरी पार्टी में अनुशासन की धज्जियाँ ही उड़ गईं! सबकी जुबान मुँह के बाहर आ गई! जिसे देखो वो बाहें चढ़ाकर खड़ा है! कम से कम मध्यप्रदेश में तो इन दिनों यही हालात हैं! जिस पार्टी के अध्यक्ष ही अपनी अनर्गल बयानबाजी के लिए कुख्यात हों, उस पार्टी में अनुशासन का नगाड़ा तो बजेगा ही!
अभी कुछ दिन पहले भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने प्रदेश की अफसरशाही पर तंज किया था! बात सरकार और उसके अफसरों की थी! लेकिन, भाजपा प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान बीच में कूद पड़े! विजयवर्गीय को राजधर्म का पाढ़ पढ़ाने लगे! इसके बाद तो बात बढ़ती गई! दोनों तरफ से जुबानी हमले होने लगे! पार्टी का अनुशासन तार-तार हो गया! विवादों की खाई बढती गई! कबड्ड़ी की टीमों की तरह पार्टी में भी दो गुट बन गए! मीडिया ने रैफरी की भूमिका निभाई! कभी इधर ताली पिटती सुनाई देती, कभी उधर! अचानक पार्टी का राष्ट्रीय कोर ग्रुप मैदान में कूद पड़ा। राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री वी सतीश ने सीटी बजाकर दोनों टीमों को शांत कर दिया! कह दिया की दोनों नेता सार्वजनिक बयानबाजी बंद करें! इससे पार्टी का अनुशासन बिगड़ता है। मुद्दे की बात ये कि कोर ग्रुप ने भी विजयवर्गीय और चौहान का झगड़ा शांत नहीं करवाया! दोनों को बंद कमरे में भिड़ने की सलाह दी! जो जंग जुबान तक सीमित थी, वो बंद कमरे में कहाँ तक पहुँच सकती है, अनुमान लगाया जा सकती है! 
 मध्यप्रदेश में 13 साल से सत्ता पर काबिज भाजपा के हालात सामान्य नहीं लग रहे! कई मोर्चों पर जंग छिड़ी नजर आ रही है। सांसद, विधायक और पार्षद सभी बाहें चढ़ाकर, दंड पेलकर खड़े हैं! लेकिन, नेताओं के बड़बोले पर संगठन कोई कार्रवाई नहीं कर सकता! न तो नोटिस दे सकता है न कार्रवाई कर सकता है। संगठन सिर्फ नसीहत दे सकेगा! ये बात समझ से पर है कि जब पार्टी के नेता सीमा लांघ रहे हैं, उस नाजुक वक़्त में संगठन ने अपनी पकड़ ढीली कर दी! जबकि, प्रदेश भाजपा के पूर्व प्रवक्ता प्रकाश मीरचंदानी को पार्टी से निलंबित करने में देर नहीं की गई! मीरचंदानी ने फेसबुक पोस्ट में पार्टी के खिलाफ टिप्पणी भर की थी। उन्होंने लिखा था कि भाजपा में पराक्रम की जगह परिक्रमा करने वालों का बोलबाला है। हालांकि, बाद में वो अपने बयान से पलट गए थे और अपनी पोस्ट भी डिलिट कर दी थी। लेकिन, पार्टी ने अनुशासन की चाबुक बरसाने में देर नहीं की!
 अभी कुछ दिन पहले भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष सुदर्शन गुप्ता, रामेश्वर शर्मा, सांसद चिंतामणि मालवीय, विधायक शंकरलाल तिवारी, सुदर्शन गुप्ता, कालूसिंह ठाकुर और वेलसिंह भूरिया के अफसरों को धमकाते हुए ऑडियो सामने आए! ये सबूत पार्टी की नेकनीयती और सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हैं! संगठन पदाधिकारियों की वाचालता ध्यान देने वाली बात है! क्योंकि संघ की समन्वय बैठक में इन नेताओं ने ही भ्रष्टाचार को लेकर अफसरों पर हमला बोला था! हाल ही में सत्ता मद में चूर इन नेताओं के कई विवादास्पद बोल भी सामने आए जो न तो संघ को पंसद हैं और न भाजपा संगठन! लेकिन, अफ़सोस कि भाजपा के पास इन बड़बोलों का कोई इलाज नहीं है!  
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संवादों का तड़का ही कथानक की जान

हेमंत पाल 

  कहानी किसी भी फिल्म की जान होती है। कहानी ही फिल्म में रंग भी भरती है! लेकिन, उसी कहानी में यदि सटीक संवादों का तड़का लग जाए तो फिल्म की पहचान सालों तक बनी रहती है! लेकिन, अब फिल्मों में याद रह जाने लायक संवाद कम ही सुनाई देते हैं। आजादी से पहले जरूर कुछ फिल्में सिर्फ संवादों की वजह से ही चर्चित हुईं थीं! सोहराब मोदी की ‘पुकार’ व ‘सिकंदर’ ऐसी ही फ़िल्में थी! इन फिल्मों में दर्शक को देशप्रेम के प्रति उद्वलित करने की गजब की ताकत हुआ करती थी! बीआर चोपड़ा की ‘कानून’ व ‘इंसाफ का तराजू’ में संवादों से ही कानून की कमियों को उभारा गया था। कुछ फ़िल्में तो सिर्फ उनके संवादों के कारण ही आजतक याद की जाती हैं! ऐसी फिल्मों में मुगले आजम, शोले, दीवार हैं। पृथ्वीराज कपूर द्वारा 'मुगले आजम' में बोला गया संवाद 'सलीम की मोहब्बत तुम्हें मरने नहीं देगी और हम तुम्हें जीने नहीं देंगे!' ‘शोले’ का डायलॉग ‘तेरा क्या होगा कालिया’ और 'कितने आदमी थे', ‘दीवार’ का ‘मेरे पास मां है’ वो संवाद हैं जो सुनते ही फिल्म की याद दिलाते हैं! सहजता से बोले गए इन संवादों ने फिल्मों को कालजयी बनाने में खासा योगदान दिया!
   अमिताभ बच्चन का फिल्म ‘डॉन’ का ये संवाद ‘डॉन का इंतजार तो ग्यारह मुल्कों की पुलिस कर रही है, लेकिन डॉन को पकड़ना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है!’ आज भी सुनाई देता है, तो आँखों के सामने अमिताभ का शातिर चरित्र घूम जाता है। शत्रुघ्न सिन्हा जब अपने केरियर के शिखर पर थे, तब 'कालीचरण' और ‘विश्वनाथ’ के संवाद गली-गली में सुनाई दे जाते थे! शाहरुख़ खान का ‘बाजीगर’ में बोला गया संवाद ‘कभी कभी कुछ जीतने के लिए कुछ हारना पड़ता है और हार के जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं’ फिल्म के पूरे कथानक का निचोड़ था! ऐसा ही सलमान खान का ‘वांटेड’ का संवाद था ‘एक बार जो मैंने कमिटमेंट कर दी, फिर तो मैं अपने आपकी भी नहीं सुनता।’ सन्नी देओल का 'दामिनी' का संवाद 'तारीख पर तारीख…' और 'यह ढाई किलो का हाथ किसी पर पड़ जाता है तो आदमी उठता नहीं, उठ जाता है!' दर्शक शायद ही कभी भूलें! 
  संवादों का जोरदार असर तभी अच्छा होता है, जब उसे उसी शिद्दत से बोलने वाला एक्टर भी मिले! तभी हर संवाद चरित्र की पहचान से जुड़ता भी है। राजकुमार, शत्रुघ्न सिन्हा और नाना पाटेकर के संवादों में अकड़ की झलक देखी गई! लेकिन, राजकुमार के 'पाकीजा' में बोले गए उनके एक संवाद ने उनकी पहचान ही बदल दी! वो संवाद था ‘आपके पैर देखे, बहुत हसीन हैं। इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएंगे।’ इसी तरह रोमांटिक हीरो राजेश खन्ना के भी कुछ संवाद कालजयी तो बन गए! जैसे ‘आनंद’ का संवाद 'तुझे क्या आशीर्वाद दूं बहन, ये भी तो नहीं कह सकता कि मेरी उम्र तुझे लग जाए!' फिर ‘अमर प्रेम’ का संवाद ‘पुष्पा, आई हेट टियर्स!’ अजित, प्रेम चोपड़ा और अमरीश पुरी के बोले हर संवाद में क्रूरता का अंदाज था! प्रेम चोपड़ा का 'बॉबी' में बोला गया ये संवाद कितना सहज और सरल है 'प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा!' लेकिन, उनकी अदायगी की क्रूरता ने इसे यादगार बना दिया! ‘कालीचरण’ में अजित का संवाद ‘सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है’ और ‘मिस्टर इंडिया’ में अमरीश पुरी का ‘मोगैंबो खुश हुआ’ भी अपने अलग अंदाज की वजह से याद रहा! 
  यादगार संवाद सिर्फ हीरो के हिस्से में ही नहीं आए! कुछ हीरोइनों के संवाद भी दर्शक भूल नहीं पाए! जैसे ‘दबंग’ में सोनाक्षी सिन्हा का संवाद 'थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब प्यार से लगता है!’ ‘द डर्टी पिक्चर्स’ में विद्या बालन का ‘फिल्म तीन वजह से चलती है एंटरटेनमैंट, एंटरटेनमैंट और एंटरटेनमैंट और मैं एंटरटेनमैंट हूं’ लोकप्रिय हुआ। 'ओम शांति ओम' में दीपिका पादुकोण के संवाद 'एक चुटकी सिन्दूर की कीमत तुम क्या जानो रमेश बाबू' से फिल्म में दीपिका के अंदाज का सहज पता लग जाता है। 'गैंगस्टर' में कंगना रनोट का संवाद 'सपनों को देखना और सपनों का पूरा हो जाना बहुत अलग बातें हैं!' लेकिन, फिल्मों के संवाद तभी कारगर होते हैं, जब फिल्म में दर्शकों को सिनेमाघर तक खींचने की ताकत हो!  
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Friday, September 16, 2016

सत्तामद में निरंकुश और बेलगाम होते भाजपा नेता


- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में चौथी बार सत्ता पर सवारी का सपना देखने वाली भाजपा इन दिनों चिंतित है! सबसे बड़ी चिंता उसके विधायक, सांसद और कार्यकर्ताओं की उच्श्रृंखलता, वाचालता, विवाद और सिर पर चढ़ा सत्ता का नशा है! भाजपा के नेताओं में टकराहट बढ़ रही है। छोटे, बड़े सभी नेताओं की जुबान और हाथ दोनों खुल गए! कहीं नेता सरकारी कर्मचारियों को धमका रहे हैं, कहीं सीधे हाथ उठ रहे हैं! इससे जनता के मन में पार्टी के प्रति गलत धारणा बन रही है। संघ ने भाजपा को उसकी खामियां गिनाते हुए उसे ठीक करने को कहा है। संघ का मानना है कि चौथी बार सरकार बनाने के लिए जनता का मानस टटोलना होगा! ताकि एंटी इनकमबेंसी फेक्टर का पता चले! संघ प्रचारकों ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा कि नेताओं के बेलगाम भाषा पार्टी की नकारात्मक छवि बना रही है। इस पर नियंत्रण किया जाना चाहिए! आश्चर्य इस बात पर की सोशल मीडिया पर पार्टी के बारे में एक टिप्पणी करने वाले प्रवक्ता प्रकाश मीरचंदानी को निलंबित करने में तो संगठन ने बहुत जल्दबाजी की, पर सरेआम उच्श्रृंखलता करने वालों के खिलाफ संगठन आँखें मूंदकर बैठा है!
 
  अनुशासन का दावा करने वाली भाजपा में अभी सबकुछ ठीक नजर नहीं आ रहा! खासकर नेताओं की बयानवाजी और पार्टी में अंतर्कलह परेशानी बनती जा रही है। जब पार्टी अध्यक्ष नंदकुमार चौहान की वाचालता पर ही अंकुश नहीं हो, तो बाकी किसी पर उंगली नहीं उठाई जा सकती! कैलाश विजयवर्गीय से ताजा विवाद के बाद वे मीडिया की सुर्खियां बन गए! पिछले दिनों राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और पंचायत एंव ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने पार्टी के आंतरिक हालातों और सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए थे। कैलाश विजयवर्गीय ने जहां इंदौर में मेट्रो को लेकर सरकार पर ताना कसा था! मंत्री गोपाल भार्गव ने पार्टी में चल रही अंतर्कलह को लेकर बयान दिया! दोनों के बयानों को लेकर पचमढी चिंतन शिविर में प्रदेश अध्यक्ष चौहान से जब मीडिया ने सवाल किया तो उन्होंने कैलाश विजयवर्गीय को ही नसीहत दे डाली! कहा कि उन्हें राजधर्म का पालन करना चाहिए! जब से वो दिल्ली गए हैं, उनकी प्रदेश के बारे में समझ कम हो गई! विजयवर्गीय ने भी नंदकुमार चौहान पर जवाबी हमला किया! कहा कि प्रदेश अध्यक्ष को अफसरों को संरक्षण देने की जगह भाजपा कार्यकर्ताओं की चिंता करनी चाहिए। राजधर्म को लेकर ऐसा जवाब दिया कि अध्यक्ष की बोलती बंद हो गई!
  एक सच ये भी है कि भाजपा नेताओं के बड़बोलेपर से नाराज प्रदेश भाजपा संगठन अब उन पर सीधी कार्रवाई नहीं कर सकता! न तो उन्हें नोटिस दे सकता है न कोई सीधी कार्रवाई कर सकता है। तय हुआ है कि अब संगठन सिर्फ नसीहत देगा! ये फैसला प्रदेश के भाजपा प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह के बीच हुई बैठक में तय हुआ! सहस्त्रबुद्धे ने चौहान से कहा कि प्रदेश में भाजपा के पदाधिकारी और विधायक जिस तरह सरकार और संगठन की कार्यप्रणाली पर उंगली उठा रहे हैं, उससे पार्टी की छवि को आघात लग रहा है। लेकिन, एक बात समझ में नहीं आई कि जब पार्टी के नेता सीमा लांघ रहे हैं, उसी नाजुक वक़्त में संगठन ने अपनी पकड़ ढीली कर दी! जबकि, प्रदेश भाजपा के पूर्व प्रवक्ता प्रकाश मीरचंदानी को पार्टी से निलंबित करने में देर नहीं की गई! मीरचंदानी ने फेसबुक पोस्ट में पार्टी के खिलाफ टिप्पणी की थी। उन्होंने लिखा था कि भाजपा में पराक्रम की जगह परिक्रमा करने वालों का बोलबाला है। हालांकि बाद में वो अपने बयान से पलट गए थे और अपनी पोस्ट भी डिलिट कर दी थी।
  संघ की शाखाओं में देशप्रेम और सेवा, हिन्दुत्व और समाज कल्याण का पाठ पढ़ने वाले नेताओं के पार्टी में आते ही बोल बिगड़ जाते हैं। भाजपा के इन बेलगाम नेताओं पर न तो पार्टी कोई कार्रवाई करती है और न सत्ता के भय से प्रशासन ही कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा पाता है। हाल ही में भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष सुदर्शन गुप्ता, रामेश्वर शर्मा, सांसद चिंतामणि मालवीय, विधायक शंकरलाल तिवारी, सुदर्शन गुप्ता, कालूसिंह ठाकुर और वेलसिंह भूरिया के धमकी भरे ऑडिया सामने आए! ये सबूत पार्टी की नीयत और सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हैं! संगठन पदाधिकारियों की वाचालता इसलिए भी ध्यान देने वाली हैं, क्योंकि संघ की समन्वय बैठक में नेताओं ने ही भ्रष्टाचार को लेकर अफसरों पर हमला बोला था! हाल ही में सत्ता मद में चूर इन नेताओं के कई विवादास्पद बोल भी सामने आए जो न तो संघ को पंसद हैं और न भाजपा संगठन! 
 विधायकों के विवादित बयान और धमकाने का सिलसिला कुछ दिनों से थम ही नहीं रहा! अब इस श्रृंखला में छतरपुर जिले से भाजपा विधायक रेखा यादव का नाम भी आया है। रेखा यादव ने पुलिसकर्मियों को धमकाते हुए घर बैठाने की धमकी दी! पुलिसवालों को धमकाते हुए कहा कि पुलिस वाले के भीतर कितनी उत्तेजना है उसे हम उतार देंगे! इसके पहले सरदारपुर से भाजपा विधायक वेलसिंह भूरिया ने दावा किया था कि उनके पास एनकाउंटर का अधिकार है। भोपाल के एक क्षेत्र के विधायक रामेश्वर शर्मा ने सरकारी कार्यक्रम में नहीं बुलाने पर तत्कालीन जिपं सीईओ को फोन पर कहा था कि 'जितना भगवान से डरते हो उतना ही मुझसे भी डरा करो!' इंदौर के विधायक सुदर्शन गुप्ता बयानबाजी को लेकर हमेशा विवादों में रहते हैं। उन्होंने पार्टी कार्यकर्ता के घर के बिजली के बिल को लेकर बिजली कंपनी के असिस्टेंड इंजीनियर को जूते मारने, मुंह काला कराने और कपड़े उतरवाकर नचवाने की धमकी दी। उज्जैन के सांसद चिंतामणि मालवीय ने तो अपने समर्थकों को टोल नाके पर टैक्स नहीं देने के लिए खुद के हस्ताक्षर से पास जारी कर दिए। जब टोल संचालक ने सांसद द्वारा दिए गए पास को नहीं माना तो उनके समर्थकों ने टोल नाके पर मारपीट कर दी! सतना विधायक शंकरलाल तिवारी भी विवादित बयानों के लिए जाने जाते हैं। इन्होंने भी कुछ दिन पहले बिजली कंपनी के अधिकारी को धमकाया था। इसकी शिकायत भी सरकार और संगठन को मिली। चूंकि भाजपा विधायक हैं तो मामला ठंडा है।
  धार जिले के धरमपुरी विधायक कालूसिंह ठाकुर पर सड़क निर्माण कंपनी के लोगों से पैसे मांगने और न देने पर मारपीट करने के आरोप लगे हैं। कंपनी के चैयरमेन के मुताबिक विधायक कालूसिंह कई दिनों से पैसों की मांग कर रहे हैं। कालूसिंह पर इससे पहले भी सरकारी कर्मचारियों, टोल नाके के कर्मचारियों और डॉक्टर के साथ मारपीट के आरोप लगे हैं! धार जिले के ही सरदारपुर विधायक वेलसिंह भूरिया भी अकसर विवादस्पद बयानों और मारपीट  चर्चा में बने रहते हैं। पार्टी के नेता शहडोल में होने वाले उपचुनाव से पहले भी अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे! ये सच जानते हुए भी कि चुनाव पूर्व के सर्वे में ये सीट भाजपा के हाथ से फिसलती नजर आ रही है! खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री ओमप्रकाश धुर्वे के जरिए अधिकारियों को फटकार लगाकर जनता की वाहवाही बटोरने की कोशिश की जा रही है। भाजपा का शीर्ष नेतृत्व भले ही बैठकों में पदाधिकारियों कार्यकर्ताओं व अपनी सरकार के मंत्रियों को सुशासन का पाठ पढ़ता है! लेकिन, शहडोल लोकसभा उपचुनाव से पहले नेताओं व मंत्रियों की बदजुबानी समझ से परे है। अनूपपुर जिले की पसान नगर पालिका के अध्यक्ष व अनूपपुर विधानसभा के प्रभारी रामअवध सिंह का टीआई सुनील गुप्ता को धमकाने वाला ऑडियो भी सामने आया! उसके बाद भाजपा के शहडोल जिला अध्यक्ष अनुपम अनुराग अवस्थी का पूर्व परियोजना प्रशासक प्रयास कुमार प्रकाश के बीच 50 हजार रूपये के लेन-देन का ऑडियो वॉयरल हुआ। इतनी घटनाओं के बाद भी पार्टी अनुशासन का पाठ पढ़ाए तो बात सोचने वाली है!
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Sunday, September 11, 2016

बरसों से परदे पर विराजे विघ्नहर्ता

- हेमंत पाल 

  फिल्मों में कुछ त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं! इनमें होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस के अलावा गणेश उत्सव का महत्व कुछ ज्यादा है! कई फिल्मों में गणेश उत्सव को लेकर ही कहानी को आगे बढ़ाया जाता रहा है। कभी गणेश विसर्जन के जुलुस में हीरो की खलनायक से भिड़ंत होती है तो कभी बिछड़े हीरो, हीरोइन आमने-सामने आते हैं! लेकिन, गणेशजी का प्रसंग फिल्म में सिर्फ स्थापना और विसर्जन तक ही सीमित नहीं होता! इस बहाने फिल्म में एक भक्ति गीत भी जुड़ जाता है। मुंबई में गणेश स्थापना का अपना अलग इतिहास रहा और मुंबई फिल्म निर्माण का गढ़ रहा है! ये भी एक कारण है कि फिल्मों में गणेश उत्सव का महत्व दर्शाया जाता रहा है। 
  हिंदी फिल्मों में गणेश उत्सव का प्रसंग कब से कहानी का हिस्सा बना, इसका कोई इतिहास नहीं है! पर, दादा साहेब फाल्के ने संभवतः 1925 में प्रदर्शित अपनी फिल्म 'गणेश उत्सव' में गणेशजी को पहली बार परदे पर प्रस्तुत किया था। वो ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों का दौर था! 1936 में आई फिल्म 'पुजारिन' में भी गणेशजी की स्तुति पर गीत रखा गया था। संगीतकार तिमिर बरन ने 'हो गणपति बप्पा मोरया' की जो धुन गढ़ी थी, वो आज भी सुनाई देती है। इसके बाद आजादी के लिए हुए संघर्ष और आजादी के बाद जो फ़िल्में आईं, उनमें भी गणेशजी कहीं न कहीं मौजूद रहे! आजादी के लिए संघर्ष कर रहे स्वतंत्रता सैनानी ऐसे ही उत्सवों के बहाने अपने मकसद को आगे बढ़ाते थे! वे मराठी फिल्मकार जिन्होंने हिंदी फ़िल्में बनाई उन्होंने गणेशजी हमेशा याद किया! वी शांताराम की 'नवरंग' समेत कई फिल्मों में गणेशजी का प्रसंग आता रहा!  
  गणेश उत्सव को सिर्फ फिल्म की कहानी आगे बढ़ाने तक के लिए ही सीमित नहीं किया गया! गणेशजी की महिमा दिखाने के लिए कई धार्मिक फ़िल्में भी बनती रही! 1977 में परदे पर आई फिल्म 'जय गणेश' को ऐसी ही फिल्म माना जाता है। संगीतकार एसएन त्रिपाठी ने सुषमा श्रेष्ठ और पूर्णिमा की आवाज में 'जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा' में गणेशजी की महिमा का बखान किया था। इसके बाद कई फिल्मों में गणेश उत्सव की धूम और उनसे जुड़े गीत दिखाई और सुनाई दिए! 1981 में आई फिल्म 'हम से बढ़कर कौन' में मिथुन चक्रवर्ती को इस विघ्नहर्ता देवता की स्तुति करते दिखाया गया था! मोहम्मद रफी और किशोर कुमार  गाया गीत 'देवा हो देवा गणपति देवा' आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ा है। 
  2007 में बच्चों के लिए बनी फिल्म 'माई फ्रेंड गणेशा' और 'बाल गणेशा' में तो पूरी फिल्म ही गणेशजी पर आधारित थी! ऐसी फिल्मों में श्रीगणेश जन्म, श्रीगणेश महिमा, श्रीगणेश विवाह, गणेश चतुर्थी, श्रीगणेश फ़िल्में प्रमुख हैं। इसके अलावा जलजला, हम पांच, आज की आवाज, अंकुश, टक्कर, दर्द का रिश्ता, मरते दम तक और इलाका प्रमुख है। अमिताभ बच्चन की फिल्म 'अग्निपथ' (1990) में भी गणेश चतुर्थी की धूम दिखाई गई थी! फिल्म में भगवान गणेश का विदाई गीत 'गणपति अपने गांव चले कैसे हमलों चैन पडे' की अपनी अलग ही रंगत रही! 'अग्निपथ' रिमेक में भी रितिक रोशन को 'देवा श्रीगणेशा' गाते देखा गया! 1990 में ही आई संजय दत्त में आई 'वास्तव' में 'सिन्दूर लाल चढायो' से गणेशजी छाए थे। 2006 में 'डॉन' के रिमेक में शाहरुख खान में भी गणेशजी पर आधारित गीत 'मोरिया मोरिया मोरिया रे' सुनाई दिया! रेमो डिसूजा 'एबीसीडी' में भी गणेशजी पर दो गीत थे! फिल्म का एक गीत 'साडा दिल भी तू' कहानी को ट्विस्ट देता हैं। संजय लीला भंसाली की बड़े केनवस पर हाल ही में आई हिट फिल्म 'बाजीराव मस्तानी' में भी 'गजानना गजानना श्री गणनायक' कानों में गूंजता है। रितेश देशमुख अभिनीत आने वाली फिल्म 'बेंजो' में भी गणेशजी पर 'बाप्पा' गीत है।   
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Friday, September 9, 2016

जनहित में महापौर से सवाल करने पर बवाल क्यों?


   जब किसी पार्टी को चुनाव में उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलें और विपक्ष कमजोर हो जाए, तो बहुमत पाने वाली पार्टी में से ही विपक्ष का जन्म होता है! ये बात किसने किस संदर्भ में कही, ये तो नहीं पता पर भाजपा में यही सब होता रहता है। सर्वानुमति का दावा करने वाली पार्टी के अंदर असहमति के बीज पेड़ बनने लगे हैं! इंदौर में तो भाजपा से जूझने के लिए कभी विपक्ष की जरूरत ही नहीं पड़ी! यहाँ वर्षों से भाजपाई आपस में ही गुत्थम-गुत्था होते रहते हैं। विधानसभा की 8 में से 7 सीटें भाजपा के पास है, पर कोई भी विधायक एक-दूसरे के साथ नहीं! जब भी किसी विधायक को मौका मिलता है, वो दूसरे की टांग खींचने में देर नहीं करता! ताजा मामला क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला द्वारा महापौर को लिखी गई चिट्ठी है। इस चिट्ठी से भाजपा में बवाल मच गया! इस चिट्ठी में शहर की जर्जर हो चुकी सडक़ों का जिक्र है। चिट्ठी की आग की लपटें भोपाल तक पहुंच गई! प्रदेश अध्यक्ष से लेकर पार्टी के कई बड़े नेता इंदौर की राजनीति को लेकर सकते में है। लेकिन, जनहित में महापौर तक अपनी बात पहुंचाना गुनाह कैसे हो गया, ये लोगों की समझ से बाहर है! 
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हेमंत पाल 
  इंदौर में भाजपा की राजनीति जब तक विपक्ष की भूमिका में थी, सब कुछ अच्छा था! फिलहाल यहाँ कि 8 में से 7 सीटों पर भाजपा के विधायक हैं, पर सब अकेले ही हैं! कोई किसी के साथ नहीं! दिखाने को सब एक झंडे के नीचे खड़े हैं, पर सभी के दिल में बैर है। ये स्थिति पिछले एक दशक से ज्यादा समय से बनी हुई है।इंदौर के विधायक साफ़-साफ़ दो गुटों में बंटें लगते हैं! एक वो जो मुख्यमंत्री के नजदीक हैं, दूसरे वो जो नजदीक से थोड़ा दूर हैं! जिनको ज्यादा नजदीक नहीं माना जाता, उनमें एक हैं रमेश मेंदोला! नजदीक वाले विधायकों में महापौर मालिनी गौड़, सुदर्शन गुप्ता और मनोज पटेल जैसे लोग हैं। यही कारण है कि महापौर को लिखी मेंदोला की चिट्ठी से राजनीतिक बवाल हो गया! क्षेत्र क्रमांक-2 के विधायक मेंदोला ने महापौर को लिखा कि शहर की सड़कों की हालत बदतर है। अनंत चतुर्दशी आने वाली है, इसलिए इन सड़कों को सुधारा जाना जरूरी है। बात बहुत छोटी और कहीं से भी राजनीतिक रंग लिए नहीं है! लेकिन, इसे इस नजरिये से समझा गया कि मेंदोला का इशारा है कि महापौर मालिनी गौड़ काम नहीं कर रही! इंदौर के लोग भी मेंदोला की चिट्ठी को जनहित में उठाया गया सही कदम मान हैं! लोगों को भी कई दिनों से लग रहा है कि इंदौर में गंभीरता से कोई काम नहीं हो रहा! सड़कों की बदहाली के अलावा शहर में गंदगी बढ़ रही है! साफ़-सफाई की सारी व्यवस्था ध्वस्त हो गई! आवारा मवेशियों लेकर कई दिनों से जो सक्रियता दिखाई जा रही है, वो भी गति नहीं पकड़ रही! सड़कों से हटाए गए मवेशी कॉलोनियों में घुस आए! नगर निगम की सारी कार्रवाई फौरी लग रही है! जनता ने जिन प्रतिनिधियों को चुना है, वो अफसरों के आगे के याचक की मुद्रा में नजर आ रहे हैं!  
   इन दिनों इंदौर नगर निगम में पूरी तरह अफसरशाही हावी है! एक पार्षद और उपायुक्त के बीच हुए विवाद और थप्पड़ कांड के बाद जनप्रतिनिधियों और अफसरों के बीच तलवारें खिंची हुई है। यही कारण है कि पार्षदों के अलावा विधायक भी किसी न किसी मामले में नगर निगम की कार्यपद्धति से नाराज है। सभी को नगर निगम कमिश्नर मनीष सिंह को लेकर सबसे ज्यादा नाराजी है। क्योंकि, कमिश्नर किसी भाजपा नेता को तवज्जो नहीं देते! क्षेत्र क्रमांक-2 के पार्षद उनसे सबसे ज्यादा नाराज है। थप्पड़ कांड के बाद से तो कोई पार्षद निगम कार्यालय भी नहीं आ रहा! घटना को लेकर एमआईसी मेम्बर चंदू शिंदे और राजेन्द्र राठौर ने तो एक तरह से वाकआउट कर रखा है। लेकिन, ख़राब सड़कों को लेकर मेंदोला की चिट्ठी के बाद नई राजनीति ने जोर पकड़ लिया! सांसद और विधायक अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि सड़कों की हालात बद से बदतर हो गई है। समझा जा रहा है कि इंदौर की जर्जर और खस्ताहाल सड़कों से दुखी विधायक रमेश मेंदोला ने महापौर मालिनी गौड़ को चिट्ठी लिखकर नगर निगम कमिश्नर मनीष सिंह पर निशाना साधा है। पत्र में मेंदोला ने यह भी लिखा था कि त्यौहार सामने हैं, पर नगर निगम सड़कों की दशा सुधारने को लेकर कतई गंभीर नहीं है। शहर की कोई ऐसी सड़क नहीं है जो गड्ढों में तब्दील नहीं हो। ऐसे में इंदौर की जनता हमें कोस रही है!
  महापौर गौड़ को लिखे पत्र में विधायक मेंदोला ने कहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान का सबसे अधिक फोकस अधोसंरचना विकास और सड़कों पर रहता है। लेकिन, उनके सपनों के शहर इंदौर की सड़कें तार-तार हो रही हैं। मानसून पहली बार नहीं आया और न पहली बार ऐसी बारिश हुई! हर साल ऐसा होता है, पर इस बारिश ने सड़कों को धो दिया! सीमेंटेड सड़कों पर सीवर के मेनहोल और बड़े गड्ढों ने चलना दूभर कर रखा है। वाटर स्टार्म लाइन का खूब प्रचार किया, पर उसका कोई फायदा नहीं हुआ! कहां सड़क है, कहां गड्ढा है? गड्ढे में सड़क है या सड़क में गड्ढा है। इसका पता ही नहीं चलता है। ये चिट्ठी सिर्फ महापौर तक सीमित होती तो शायद हंगामा नहीं होता! मेंदोला ने चिट्ठी की प्रतिलिपि मुख्यमंत्री, प्रभारी मंत्री, नगरीय विकास मंत्री, भाजपा के प्रदेश संगठन मंत्री, प्रदेश अध्यक्ष, मुख्य सचिव, संभागीय संगठन मंत्री, नगर अध्यक्ष को भी भेजी! 
   चिट्ठी मिलने के बाद महापौर मालिनी गौड़ भी खामोश नहीं रही! उन्होंने भी चिट्ठी को लेकर प्रतिक्रिया व्यक्त की! लेकिन, उनका पलटवार किसी को रास नहीं आ रहा! क्योंकि, मेंदोला ने अपनी चिट्ठी में वही लिखा, जो आँखों से दिखाई दे रहा है! महापौर ने कहा कि पहले भी सडक़ें उखड़ती रही हैं। उन्होंने मेंदोला के राजनीतिक आका कैलाश विजयवर्गीय के कार्यकाल का उल्लेख किया! कहा कि अनंत चतुर्दशी के पहले उन्होंने भी सडक़ों का डामरीकरण करवाया था! इस बार सडक़ें खराब हुईं तो कोई नई बात नहीं हैं। बारिश में अकसर ऐसा होता ही है। महापौर ने अन्य विधायकों के बारे में कहा कि किसी अन्य विधायक ने मुझसे शिकायत इस बारे में कोई शिकायत नहीं की! मालिनी गौड़ ने इस बहाने ये साबित करने की भी कोशिश की, कि बाकी सभी विधायक उनके और नगर निगम के काम से खुश है! जबकि, वास्तव में गणेश विसर्जन की झांकियों का अधिकांश क्षेत्र रमेश मेंदोला का ही इलाका है! यदि उन्होंने सड़कों की हालत को लेकर आपत्ति ली है तो महापौर को ये चिट्ठी सकारात्मक नजरिये से लेना थी, न कि इसके पीछे राजनीति ढूँढना थी! अब शहर के लोगों का ध्यान इस बात पर लगा है कि इस राजनीतिक लड़ाई के चलते शहर के विकास को नई गति मिलती है या मुद्दा हवा हो जाता है। लेकिन, रमेश मेंदोला की चिट्ठी को शहर के लोग सही मौके पर सही कदम बता रहे हैं! उन्हें लग रहा है कि किसी ने तो उनकी पीड़ा को आवाज दी! 
 इधर, इंदौर में कांग्रेस की भूमिका भाजपा नेताओं के आपसी विवाद में कूदने की रही है। इससे ज्यादा कांग्रेस से कुछ हो भी नहीं रहा! महापौर और मेंदोला बीच के ताजा विवाद में भी प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता नरेंद्र सलूजा ने कूदने का मौका नहीं छोड़ा! उन्होंने कहा कि बेहतर होता मेंदोला चिट्ठी लिखने के बजाए जनता को लेकर सड़क पर आते! सलूजा ने कहा कि भाजपा पार्षद व पूरी निगम परिषद् कहती रही है कि उसने इन दो वर्षों में शहर में विकास की गंगा बहा दी है। उसको इस चिट्ठी से आपने जो आईना दिखाया है, उसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। लेकिन, कांग्रेस से पूछा जाना चाहिए कि क्या इस तरह की पहल कांग्रेस के किसी नेता ने क्यों नहीं की? भाजपा के नेताओं के आपसी विवाद में प्रतिक्रिया देकर कांग्रेस क्या हांसिल करेगी, ये समझ से बाहर की बात है! कांग्रेस प्रवक्ता यदि ये करके ही खुश हैं तो ये उनकी खुशफहमी से ज्यादा कुछ नहीं है, पर भाजपा महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने जरूर मेंदोला की चिट्ठी पर मोहर लगाई! उन्होंने कहा कि प्रदेश में कुछ अधिकारियों के कारण ही गुड़ गवर्नेंस नहीं है। कहा कि मेंदोला ने पत्र लिखा है तो कुछ गड़बड़ तो जरूर है! बात सही भी है कुछ नहीं, बहुत ज्यादा गड़बड़ है!
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Monday, September 5, 2016

सस्ती फिल्मों का भी बड़ा कारोबार


- हेमंत पाल 

  आज किसी डायरेक्टर से उसकी फिल्म का बजट पूछा जाए तो आंकड़ा 25 से 100 करोड़ के बीच ही सामने आएगा! लेकिन, हर साल अच्छा कारोबार करने वाली फिल्मों में अधिकांश फ़िल्में वे होती हैं, जिनका बजट उँगलियों पर गिना जा सकता है! दरअसल, आज का दौर करोड़ों की फिल्मों का है। ऐसे में यदि किसी फ़िल्मकार की फिल्म 15-20 करोड़ में बनकर 50-60 करोड़ का बिजनेस कर रही है, तो ये भी उसकी उपलब्धि ही कही जाएगी! लेकिन, इन फिल्मों की स्टोरी कला फिल्मों की तरह की नहीं होती, जिसमें समाज के दबे, कुचले वर्ग को आधार बनाकर स्टोरी का तानाबाना बना जाता है! इन फिल्मों की खासियत यही है कि ये अपनी लागत निकालकर मुनाफा कमाने में कामयाब रहती हैं। कुछ सालों में शहरों में मल्टीप्लेक्स खुले और नया दर्शक वर्ग तैयार हुआ! 
  सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक में एक दौर आया, जब कम बजट की फिल्मों ने नया दर्शक वर्ग खड़ा किया। छोटी और कलात्मक फिल्मों के इस दौर में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मीरा नायर जैसे फिल्मकारों ने कम बजट में कई फिल्में बनाई! दर्शकों ने इन्हें काफी पसंद भी किया गया। शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, ओम पुरी इसी दौर की देन हैं। इसके बाद केतन मेहता, मीरा नायर, कुंदन शाह ने कम लागत वाला मनोरंजक सिनेमा की तरफ रुख किया। जबकि, आज कई बड़े फिल्मकार भी छोटे बजट की फिल्मों की तरफ मुड़ गए!  
  बॉलीवुड में हाल में कई ऐसी फिल्में बनी हैं, जिनकी लागत बेहद कम थी, लेकिन ये फिल्में कमाई के बंपर रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रहीं। महज 6 करोड़ रुपए की ‘दम लगा के हइसा’ ने 100% का मुनाफा कमाया! कम बजट की इन फिल्मों में आजकल कई तरह के प्रयोग भी किए जा रहे हैं। यही कारण है कि डायरेक्टर लीक से अलग हटकर फिल्में बनाने की रिस्क लेने लगे हैं। कम बजट की फिल्में बनाने में केवल छोटे डायरेक्टर्स ही नहीं, नामी फिल्मकारों ने भी हाथ आजमाया। गुलजार की बेटी मेघना ने 'तलवार' बनाकर 59 करोड़ रुपए कमाए! 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' ने 368% का मुनाफा कमाया! बॉलीवुड में छोटे स्टारकॉस्ट वाली फिल्में कमाई के नए रिकॉर्ड बना रही हैं। इसका सीधा सा इशारा है कि आज भी दर्शकों का एक वर्ग ऐसा है, जो सिर्फ मनोरंजन के लिए सिनेमाघर नहीं जाता, उसे कुछ अर्थपूर्ण सिनेमा देखने की चाह है।  
  इस तरह की फ़िल्में मसाला फ़िल्मों से हटकर होती है! लेकिन, कम बजट की अर्थपूर्ण फिल्मों से फिल्मकार की अलग पहचान भी बनती है। हाल ही के सालों में बनी शिप ऑफ़ थीसियस, पानसिंह तोमर, शंघाई और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी कम बजट की फ़िल्में, जिनमें बड़े सितारे भी नहीं थे। उनपर यू-टीवी, वॉयकॉम,  पीवीआर पिक्चर्स और रिलायंस जैसे प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियोज़ ने पैसा लगाया या डिस्ट्रीब्यूट किया! क्या माना जाए कि छोटे बजट की सितारा विहीन फ़िल्मों के दिन वापस आ गए?
  कुछ साल पहले तक प्रोड्यूसर ऐसी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं होते थे! आज जहां बड़े बजट की मसाला फ़िल्में बन और चल रही हैं, वहीं छोटे फ़िल्मकार लीक से हटके गंभीर, अर्थपूर्ण फ़िल्में बनाने का भी साहस कर पा रहे हैं। इसकी वजह है कि उन्हें यक़ीन होता है कि कहानी में दम होगा तो पैसे लगाने के लिए प्रोड्यूसर उन्हें मिल जाएगा! 80 के दशक में एनएफ़डीसी ने 'जाने भी दो यारो' समेत कई फ़िल्में बनाईं! उस दशक में नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने 'पेस्टनजी', 'मिर्च मसाला', 'जाने भी दो यारो' और 'सलाम बॉम्बे' जैसी कई फ़िल्में बनाईं! श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, केतन मेहता और मीरा नायर जैसे फ़िल्मकारों के लिए एनएफ़डीसी बड़ा सहारा हुआ करता था। इन फ़िल्मकारों को काफ़ी कम बजट में फ़िल्में बनाने में महारथ हांसिल थी। 
  अनुराग कश्यप जैसे फ़िल्मकारों की लीक से हटकर फ़िल्मों पर बड़े प्रोडक्शन हाउस पैसा लगा रहे हैं। लेकिन, अब बड़े प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियो के आने से फ़िल्मकार थोड़ा और आज़ादी से फ़िल्म बना सकते हैं। फ़िल्म समीक्षक आज अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी जैसे फ़िल्मकारों की सराहना करते हैं। ये फ़िल्मकार विविध तरह का सिनेमा बना रहे हैं, बल्कि विक्रमादित्य मोटवानी जैसे निर्देशकों को इस तरह का सिनेमा बनाने का मौका भी दे रहे हैं। 'उड़ान', 'शैतान' और 'लुटेरा' जैसी फ़िल्में इस का सुबूत हैं। अनुराग और दिबाकर अब इतने बड़े नाम बन गए हैं कि इनकी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए बड़े प्रोडक्शन हाउस जैसे यूटीवी और यशराज बैनर भी तैयार हैं। 
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Saturday, September 3, 2016

नौकरशाही के भ्रष्ट होने का सच इतनी देर से सामने कैसे?

हेमंत पाल 

    मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार कहाँ है? ये सच संघ की समन्वय बैठक में सामने आया! नेताओं ने भ्रष्टाचार के लिए अफसरों पर उंगली उठाई! पूरी व्यवस्था कोसा और अपनी पीड़ा व्यक्त की! लेकिन, नौकरशाही के भ्रष्ट होने के सच को सामने आने में इतने बरस क्यों लगे? उनके भ्रष्ट होने की जानकारी नई तो नहीं है! उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले नेता ही नौकरशाही को कोसें ये तो हजम नहीं होता! जनता तो पिछले सात दशक से यही सब कहती आ रही है। नेता जनता की इस चिल्लाहट को मजाक ही समझते थे। वास्तव में ये सब उन बड़े अफसरों पर कार्रवाई नहीं होने का नतीजा है, जिनके संरक्षण में यह सब होता है! संघ की बैठक में ये मुद्दा उठते ही नेताओं शायद ऐसा लगा कि उन्हें कुप्रबंधन का सही हल मिल गया, जिसकी वे खोज कर रहे थे! सभी ने अपनी-अपनी तरह से नौकरशाही को कोसा भी! लेकिन, इसका आशय ये भी नहीं कि पूरी नौकरशाही ही भ्रष्ट हैं! व्यवस्था में ईमानदार और अच्छे अफसरों की भी कमी नहीं! वे अच्छे हैं, तभी पूरा सिस्टम चल भी रहा है। लेकिन, ये भी भुलाया नहीं जा सकता कि पन्ना में बांध टूटते हैं! सीधी में पुल बह जाता है! सतना में पांच साल पुरानी हाउसिंग बोर्ड की बिल्डिंग भरभराकर गिर जाती है। भ्रष्ट अधिकारियों के यहाँ छापे में इतने नोट निकलते कि गिनने के लिए मशीन लाना पड़ती है। तो लगता है कि कहीं न कहीं गड़बड़ तो है!
  भोपाल में हुई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की समन्वय बैठक का निष्कर्ष क्या रहा, ये बात गौण हो गई! समन्वय के सारे फॉर्मूले नौकरशाही के भ्रष्ट आचरण की चर्चा के सामने दबकर रह गए! सांसद और मंत्री नौकरशाही से बहुत आहत दिखे! जब संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने मंत्रियों-सांसदों की क्लास ली, तो वे पलटकर प्रदेश की नौकरशाही पर ऐसे उलटे कि केंद्रीय विषय ही ये बन गया! भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने नौकरशाही के नेताओं पर हावी होने के साथ उनके भ्रष्ट होने का मुद्दा उठाया। सांसदों द्वारा गोद लिए गाँवों के विकास में भी अड़ंगेबाजी के लिए भी अफसरों को जिम्मेदार ठहराया! कहा कि अफसर फोन तक नहीं उठाते! मंत्रियों और विधायकों को अपने क्षेत्र में काम के लिए चक्कर काटना पड़ते हैं। उनके साथ कई और मंत्रियों और सांसदों ने अफसरों की शिकायत की! सवाल उठता है कि अफसरों की इस निरंकुशता का असल कारण क्या है? क्या वास्तव में अफसर सरकार की ताकत से बेख़ौफ़ हैं या उन्होंने नेताओं की कमजोरी को अपनी ताकत बना लिया? कारण जो भी हो, अफसरों के आचरण पर कैलाश विजयवर्गीय की टिपण्णी सही है! लेकिन, यदि नेता वास्तव में सजग, ईमानदार और दृढ़ प्रतिज्ञ हों तो क्या नौकरशाही का भ्रष्ट होना संभव है? कैसे संभव है कि राजनीतिको की हरी झंडी के बगैर कोई अफसर भ्रष्ट नजरिए से कोई फैसला कर ले? नौकरशाही का भ्रष्ट आचरण की तरफ उठा हर कदम राजनीति की समान भागीदारी का मोहताज होता है। किसी एक पक्ष को कोसने से सुधार संभव नहीं है। सुधार करना है तो सभी को अपने गिरेबान में झांकना होगा!
  संघ की समन्वय बैठक में नेताओं की नौकरशाही के खिलाफ टिप्पणी पर मुख्य सचिव अंटोनी डिसा ने तो टिप्पणी करने से ही मना कर दिया! लेकिन, पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच मुखरता से बोली! उन्होंने सही कहा कि नौकरशाही यदि भ्रष्ट है तो उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? उनसे काम लेने का जिम्मा किसका है? व्यवस्था यही है कि वो काम करें और उनसे काम करवाया जाए। निर्मला बुच ने कहा कि प्रदेश में गड़बड़ी करने वालों पर कार्रवाई नहीं हो रही! यदि लोगों को डर हो कि कार्यवाही हो जाएगी तो कुछ ठीक हो सकता है। बुच ने यह भी कहा कि लोकतंत्र से चुनकर नेता आते हैं। नौकरशाहों को समझना होगा कि काम करना है और कैसे करना है! अफसोस तो इस बात का है कि नौकरशाही पर इतनी बात ही क्यों होती है। दरअसल, दोनों पक्षों को अपनी जिम्मेदारी समझ में आ जाए तो कभी ऐसी परेशानी सामने नहीं आएगी! राजनीति और नौकरशाही दोनों ही सार्वजनिक जीवन के हिस्से हैं! दोनों के लिए रूल बुक भी है। सिर्फ उसका पालन कर लिया जाए तो ही सब ठीक हो जाएगा।
  सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार से कौन आहत नहीं है! क्या सिर्फ मंत्रियों और नेताओं की बात नहीं सुनने को ही भ्रष्ट आचरण माना जाएगा? ये वो दर्द है, जिससे सबसे ज्यादा त्रस्त आम आदमी होता है! उसके जायज काम के लिए भी उसे वही रास्ता अपनाना पड़ता है, जो समय मांग है! यदि वास्तव में नौकरशाही नेताओं की बातों को गंभीरता से नहीं लेती, तो सहजता से कल्पना की जा सकती है कि ऐसे में उन लोगों की हालत क्या होती होगी, जिनके पास कोई सिफारिश होती! इसका आशय ये भी नहीं लगाया जा सकता कि पूरी नौकरशाही भ्रष्ट है! व्यवस्था में अच्छे अफसर भी हैं, जिनके कारण और जिनके कंधों पर ये व्यवस्था टिकी हुई है! ये लोग भी अपने आसपास फैले कुप्रबंधन से त्रस्त हैं, पर मज़बूरी में कुछ कह नहीं पाते! ऐसे में ये अपना दर्द कहीं न कहीं अपना व्यक्त करते रहते हैं!  प्रदेश की राज्य प्रशासनिक सेवा के एक अफसर ने भ्रष्ट नौकरशाही और फर्जी बाबाओं को माध्यम बनाकर अंग्रेजी में उपन्यास भी लिखा! 'अनटोल्ड सीक्रेट ऑफ माय आश्रम' शीर्षक वाले इस उपन्यास में उन्होंने व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोला है। ये उपन्यास किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित न होकर एक कहानी भर है। लेकिन, पढ़कर समझ आ जाता है कि उंगली किस तरफ उठाई गई है। अपर कलेक्टर के पद पर पदस्थ इस अफसर ने अपने उपन्यास में नौकरशाहों पर कटाक्ष करते हुए लिखा कि देश में नौकरशाहों की पोस्टिंग से पहले उन्हें पीएमडी मशीन यानी 'नपुंसकता मापक यंत्र' में परखा जाता है। इस मापक यंत्र में नापतौल के बाद यदि नौकरशाह की रीडिंग ज़ीरो प्रतिशत होती है, तो उसे भ्रष्टाचारी का अवार्ड देते हुए मलाईदार पद दिया जाता है। यदि रीडिंग 100 प्रतिशत तक होती है तो उसे कभी अच्छा अधिकारी नहीं माना जाता! उसे लूपलाइन में पटक दिया जाता है। पीएमडी एक सांकेतिक मशीन है, जो नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार का चेहरा दिखाती है।
  कटघरे में भले ही अफसरों को खड़ा किया गया हो, पर सच ये है कि पूरी व्यवस्था ही चौपट हो गई! चपरासी से लगाकर बाबू तक  वैतरणी में डुबकी लगा रहे हैं! बाबुओं और पटवारियों तक के यहाँ पड़ रहे छापों में करोड़ों रुपए निकल रहे हैं, जिन्हें गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली सरकारी एजेंसियों ने पिछले कुछ सालों के दौरान हजारों करोड़ रुपए  की काली कमाई उजागर की! इन छापों से यह बात स्पष्ट हो गई कि सरकारी व्यवस्था का पूरा अमला ही भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के घर में नकदी और जेवरात रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं। बेनामी संपत्ति का तो अम्बार लगा है। प्रदेश में भ्रष्टाचार के किस्सों की कमी नहीं है! हर किसी के पास एक नई कहानी है। बड़े अफसर से लेकर पटवारी तक करोड़पति बन गए!
    आयकर विभाग की गोपनीय रिपोर्ट पर यदि भरोसा किया जाए तो मध्यप्रदेश में ऐसी कंपनियों के नाम सामने आए हैं, जिन्होंने हजारों करोड़ रुपयों को काले से सफ़ेद में बदल दिया! ये कंपनियां काली कमाई को नकद में लेकर उन्हें लोन या शेयर कैपिटल के रूप में चेक से लौटा रही हैं। ये आंकड़े असेसमेंट में पकड़े गए हैं। आयकर विभाग का मानना है कि कई मामलों में तो फर्जी कंपनी की पड़ताल ही नहीं हो पाती। कर्ताधर्ताओं के पास बड़ी संख्या में कागजी कंपनी और उनके बैंक अकाउंट होते हैं। इन कंपनियों में डायरेक्टर अपने मातहतों को बनाकर उन्हें लिस्टेड करा लिया जाता है। दरअसल, नौकरशाहों की पहचान कारपोरेट घराने के प्रतिनिधियों रह गई है। इस प्रतिनिधि को वेतन तो जनता की कमाई से मिलता है, लेकिन वह काम किसी बड़े घराने के लिए करता है! उद्योगपतियों की फाइलें सरकारी दफ्तरों में तेजी से दौड़ती हैं, लेकिन, किसी मजलूम को पेंशन दिए जाने की फाइलों पर से धुल तक नहीं झड़ती! ये सब इसलिए होता है कि अधिकांश लोग व्यवस्था का विरोध करने हिम्मत नहीं करते! उन्हें ऐसा न करने और व्यवस्था से मिलकर चलने की सलाह ही ज्यादा मिलती है। जो व्यवस्था से लड़ने की कोशिश भी करते हैं, उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, जहां उसकी बात सुनी जाए! क्या सच नेताओं से छुपा है? इस मसले पर सरकार से नाराज चल रहे बाबूलाल गौर की टिप्पणी सटीक है कि दोष घोड़े का नहीं उसका है जिसके हाथ में घोड़े की नकेल है! नौकरशाही प्रशासक की इच्छा शक्ति के आधार पर ही काम करती है। यह कहना उचित नहीं है कि अफसर सुनते नहीं! उनसे काम कराने का तरीका आना चाहिए। यानी घोड़े का दोष नहीं है, आपको अच्छी घुड़सवारी आनी चाहिए। घोड़ा कभी-कभी दो लत्ती भी मारता है तो उसे कंट्रोल करने का तरीका आना चाहिए।
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