Saturday, September 3, 2016

नौकरशाही के भ्रष्ट होने का सच इतनी देर से सामने कैसे?

हेमंत पाल 

    मध्यप्रदेश में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार कहाँ है? ये सच संघ की समन्वय बैठक में सामने आया! नेताओं ने भ्रष्टाचार के लिए अफसरों पर उंगली उठाई! पूरी व्यवस्था कोसा और अपनी पीड़ा व्यक्त की! लेकिन, नौकरशाही के भ्रष्ट होने के सच को सामने आने में इतने बरस क्यों लगे? उनके भ्रष्ट होने की जानकारी नई तो नहीं है! उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाले नेता ही नौकरशाही को कोसें ये तो हजम नहीं होता! जनता तो पिछले सात दशक से यही सब कहती आ रही है। नेता जनता की इस चिल्लाहट को मजाक ही समझते थे। वास्तव में ये सब उन बड़े अफसरों पर कार्रवाई नहीं होने का नतीजा है, जिनके संरक्षण में यह सब होता है! संघ की बैठक में ये मुद्दा उठते ही नेताओं शायद ऐसा लगा कि उन्हें कुप्रबंधन का सही हल मिल गया, जिसकी वे खोज कर रहे थे! सभी ने अपनी-अपनी तरह से नौकरशाही को कोसा भी! लेकिन, इसका आशय ये भी नहीं कि पूरी नौकरशाही ही भ्रष्ट हैं! व्यवस्था में ईमानदार और अच्छे अफसरों की भी कमी नहीं! वे अच्छे हैं, तभी पूरा सिस्टम चल भी रहा है। लेकिन, ये भी भुलाया नहीं जा सकता कि पन्ना में बांध टूटते हैं! सीधी में पुल बह जाता है! सतना में पांच साल पुरानी हाउसिंग बोर्ड की बिल्डिंग भरभराकर गिर जाती है। भ्रष्ट अधिकारियों के यहाँ छापे में इतने नोट निकलते कि गिनने के लिए मशीन लाना पड़ती है। तो लगता है कि कहीं न कहीं गड़बड़ तो है!
  भोपाल में हुई राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की समन्वय बैठक का निष्कर्ष क्या रहा, ये बात गौण हो गई! समन्वय के सारे फॉर्मूले नौकरशाही के भ्रष्ट आचरण की चर्चा के सामने दबकर रह गए! सांसद और मंत्री नौकरशाही से बहुत आहत दिखे! जब संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों ने मंत्रियों-सांसदों की क्लास ली, तो वे पलटकर प्रदेश की नौकरशाही पर ऐसे उलटे कि केंद्रीय विषय ही ये बन गया! भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने नौकरशाही के नेताओं पर हावी होने के साथ उनके भ्रष्ट होने का मुद्दा उठाया। सांसदों द्वारा गोद लिए गाँवों के विकास में भी अड़ंगेबाजी के लिए भी अफसरों को जिम्मेदार ठहराया! कहा कि अफसर फोन तक नहीं उठाते! मंत्रियों और विधायकों को अपने क्षेत्र में काम के लिए चक्कर काटना पड़ते हैं। उनके साथ कई और मंत्रियों और सांसदों ने अफसरों की शिकायत की! सवाल उठता है कि अफसरों की इस निरंकुशता का असल कारण क्या है? क्या वास्तव में अफसर सरकार की ताकत से बेख़ौफ़ हैं या उन्होंने नेताओं की कमजोरी को अपनी ताकत बना लिया? कारण जो भी हो, अफसरों के आचरण पर कैलाश विजयवर्गीय की टिपण्णी सही है! लेकिन, यदि नेता वास्तव में सजग, ईमानदार और दृढ़ प्रतिज्ञ हों तो क्या नौकरशाही का भ्रष्ट होना संभव है? कैसे संभव है कि राजनीतिको की हरी झंडी के बगैर कोई अफसर भ्रष्ट नजरिए से कोई फैसला कर ले? नौकरशाही का भ्रष्ट आचरण की तरफ उठा हर कदम राजनीति की समान भागीदारी का मोहताज होता है। किसी एक पक्ष को कोसने से सुधार संभव नहीं है। सुधार करना है तो सभी को अपने गिरेबान में झांकना होगा!
  संघ की समन्वय बैठक में नेताओं की नौकरशाही के खिलाफ टिप्पणी पर मुख्य सचिव अंटोनी डिसा ने तो टिप्पणी करने से ही मना कर दिया! लेकिन, पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच मुखरता से बोली! उन्होंने सही कहा कि नौकरशाही यदि भ्रष्ट है तो उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हो रही? उनसे काम लेने का जिम्मा किसका है? व्यवस्था यही है कि वो काम करें और उनसे काम करवाया जाए। निर्मला बुच ने कहा कि प्रदेश में गड़बड़ी करने वालों पर कार्रवाई नहीं हो रही! यदि लोगों को डर हो कि कार्यवाही हो जाएगी तो कुछ ठीक हो सकता है। बुच ने यह भी कहा कि लोकतंत्र से चुनकर नेता आते हैं। नौकरशाहों को समझना होगा कि काम करना है और कैसे करना है! अफसोस तो इस बात का है कि नौकरशाही पर इतनी बात ही क्यों होती है। दरअसल, दोनों पक्षों को अपनी जिम्मेदारी समझ में आ जाए तो कभी ऐसी परेशानी सामने नहीं आएगी! राजनीति और नौकरशाही दोनों ही सार्वजनिक जीवन के हिस्से हैं! दोनों के लिए रूल बुक भी है। सिर्फ उसका पालन कर लिया जाए तो ही सब ठीक हो जाएगा।
  सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार से कौन आहत नहीं है! क्या सिर्फ मंत्रियों और नेताओं की बात नहीं सुनने को ही भ्रष्ट आचरण माना जाएगा? ये वो दर्द है, जिससे सबसे ज्यादा त्रस्त आम आदमी होता है! उसके जायज काम के लिए भी उसे वही रास्ता अपनाना पड़ता है, जो समय मांग है! यदि वास्तव में नौकरशाही नेताओं की बातों को गंभीरता से नहीं लेती, तो सहजता से कल्पना की जा सकती है कि ऐसे में उन लोगों की हालत क्या होती होगी, जिनके पास कोई सिफारिश होती! इसका आशय ये भी नहीं लगाया जा सकता कि पूरी नौकरशाही भ्रष्ट है! व्यवस्था में अच्छे अफसर भी हैं, जिनके कारण और जिनके कंधों पर ये व्यवस्था टिकी हुई है! ये लोग भी अपने आसपास फैले कुप्रबंधन से त्रस्त हैं, पर मज़बूरी में कुछ कह नहीं पाते! ऐसे में ये अपना दर्द कहीं न कहीं अपना व्यक्त करते रहते हैं!  प्रदेश की राज्य प्रशासनिक सेवा के एक अफसर ने भ्रष्ट नौकरशाही और फर्जी बाबाओं को माध्यम बनाकर अंग्रेजी में उपन्यास भी लिखा! 'अनटोल्ड सीक्रेट ऑफ माय आश्रम' शीर्षक वाले इस उपन्यास में उन्होंने व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा खोला है। ये उपन्यास किसी व्यक्ति विशेष पर आधारित न होकर एक कहानी भर है। लेकिन, पढ़कर समझ आ जाता है कि उंगली किस तरफ उठाई गई है। अपर कलेक्टर के पद पर पदस्थ इस अफसर ने अपने उपन्यास में नौकरशाहों पर कटाक्ष करते हुए लिखा कि देश में नौकरशाहों की पोस्टिंग से पहले उन्हें पीएमडी मशीन यानी 'नपुंसकता मापक यंत्र' में परखा जाता है। इस मापक यंत्र में नापतौल के बाद यदि नौकरशाह की रीडिंग ज़ीरो प्रतिशत होती है, तो उसे भ्रष्टाचारी का अवार्ड देते हुए मलाईदार पद दिया जाता है। यदि रीडिंग 100 प्रतिशत तक होती है तो उसे कभी अच्छा अधिकारी नहीं माना जाता! उसे लूपलाइन में पटक दिया जाता है। पीएमडी एक सांकेतिक मशीन है, जो नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार का चेहरा दिखाती है।
  कटघरे में भले ही अफसरों को खड़ा किया गया हो, पर सच ये है कि पूरी व्यवस्था ही चौपट हो गई! चपरासी से लगाकर बाबू तक  वैतरणी में डुबकी लगा रहे हैं! बाबुओं और पटवारियों तक के यहाँ पड़ रहे छापों में करोड़ों रुपए निकल रहे हैं, जिन्हें गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली सरकारी एजेंसियों ने पिछले कुछ सालों के दौरान हजारों करोड़ रुपए  की काली कमाई उजागर की! इन छापों से यह बात स्पष्ट हो गई कि सरकारी व्यवस्था का पूरा अमला ही भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के घर में नकदी और जेवरात रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं। बेनामी संपत्ति का तो अम्बार लगा है। प्रदेश में भ्रष्टाचार के किस्सों की कमी नहीं है! हर किसी के पास एक नई कहानी है। बड़े अफसर से लेकर पटवारी तक करोड़पति बन गए!
    आयकर विभाग की गोपनीय रिपोर्ट पर यदि भरोसा किया जाए तो मध्यप्रदेश में ऐसी कंपनियों के नाम सामने आए हैं, जिन्होंने हजारों करोड़ रुपयों को काले से सफ़ेद में बदल दिया! ये कंपनियां काली कमाई को नकद में लेकर उन्हें लोन या शेयर कैपिटल के रूप में चेक से लौटा रही हैं। ये आंकड़े असेसमेंट में पकड़े गए हैं। आयकर विभाग का मानना है कि कई मामलों में तो फर्जी कंपनी की पड़ताल ही नहीं हो पाती। कर्ताधर्ताओं के पास बड़ी संख्या में कागजी कंपनी और उनके बैंक अकाउंट होते हैं। इन कंपनियों में डायरेक्टर अपने मातहतों को बनाकर उन्हें लिस्टेड करा लिया जाता है। दरअसल, नौकरशाहों की पहचान कारपोरेट घराने के प्रतिनिधियों रह गई है। इस प्रतिनिधि को वेतन तो जनता की कमाई से मिलता है, लेकिन वह काम किसी बड़े घराने के लिए करता है! उद्योगपतियों की फाइलें सरकारी दफ्तरों में तेजी से दौड़ती हैं, लेकिन, किसी मजलूम को पेंशन दिए जाने की फाइलों पर से धुल तक नहीं झड़ती! ये सब इसलिए होता है कि अधिकांश लोग व्यवस्था का विरोध करने हिम्मत नहीं करते! उन्हें ऐसा न करने और व्यवस्था से मिलकर चलने की सलाह ही ज्यादा मिलती है। जो व्यवस्था से लड़ने की कोशिश भी करते हैं, उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, जहां उसकी बात सुनी जाए! क्या सच नेताओं से छुपा है? इस मसले पर सरकार से नाराज चल रहे बाबूलाल गौर की टिप्पणी सटीक है कि दोष घोड़े का नहीं उसका है जिसके हाथ में घोड़े की नकेल है! नौकरशाही प्रशासक की इच्छा शक्ति के आधार पर ही काम करती है। यह कहना उचित नहीं है कि अफसर सुनते नहीं! उनसे काम कराने का तरीका आना चाहिए। यानी घोड़े का दोष नहीं है, आपको अच्छी घुड़सवारी आनी चाहिए। घोड़ा कभी-कभी दो लत्ती भी मारता है तो उसे कंट्रोल करने का तरीका आना चाहिए।
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