Sunday, September 25, 2016

फिल्मों का उत्कर्ष और नायक का आदर्शवाद



-  हेमंत पाल 


 हिंदी फिल्मों के पात्रों का चरित्र निर्धारित है! नायक हमेशा आदर्शवादी, सद्चरित्र और समाजवादी मूल्यों को मानने वाला होता है! नायिका उसके इन्हीं सदगुणों पर फ़िदा होती है। खलनायक वो है, जो नायक के विपरीत चरित्र वाला होता है! इसीलिए क्लाइमेक्स में उसे अपने दुर्गुणों की सजा भी भोगना पड़ती है। बाकी के पात्रों का भी चरित्र तय है। जब किसी फिल्म निर्माण की योजना बनती है, तो इन्हीं निर्धारित पात्रों को निभाने वाले कलाकारों का चयन किया जाता है! समय बदला, माहौल बदला, सोच बदला! नहीं बदला तो नायक का आदर्शवादी चरित्र! लेकिन, फिल्मों के शुरुआती दौर में ऐसा नहीं था! समाज के आदर्श व्यक्ति के रूप में नायक की पहचान आजादी के बाद बनी फिल्मों से बदली!  
  वास्तव में 1950 के दशक में ही परदे के नायक को बदलने का दौर आया! क्योंकि, उस वक़्त फिल्मकारों के जहन में देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। आजाद देश के जिम्मेदार नागरिक का किरदार सभी अपने-अपने तरीके से निभाया! आजादी पहले जो नायक क्रांति का अलख जगाए घूमता था, वो समाज का सबसे आदर्शवादी व्यक्ति बन गया! यह महबूब खान, दिलीप कुमार, राज कपूर, बिमल राय, ख्वाजा अहमद अब्बास, गुरुदत्त, चेतन आनंद और देव आनंद का दौर था। उधर बंगाल में सत्यजित राय ने भी इसी वक़्त में अपनी सजग चेतना से भारतीय चिंतन को प्रभावित किया। आवारा, मदर इंडिया और 'जागते रहो' जैसी फ़िल्में भी इसी दौर में बनी। 1955 में राजकपूर की 'श्री 420' आई, जिसमें नायक अमीर होने के लिए गलत रास्ते पर चल पड़ता है! लेकिन, नायिका आदर्शवाद पर अड़ी रहती है और क्लाइमेक्स तक आते नायक को भी सही रास्ते पर ले आती है। आदर्श की जीत इस दौर में आम बात थी। 
  इस दौर में फिल्मकार का पूरा चिंतन समाज के प्रति सरोकार उसके नायक में झलकता था! कई बार तो खलनायक भी नायक के आदर्शवाद से प्रभावित हो जाता था। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता, तो अंत में उसके लिए पुलिस आ ही जाती थी! शंभु मित्रा की फिल्म 'जागते रहो' भी इसी आदर्शवादी समयकाल का निर्माण था! फिल्म में दिखाया गया था कि अमीर होने के लिए नायक सबकुछ करता हैं! जबकि, ईमानदार गरीब आदमी पानी तक के लिए भी तरसता है। पानी भी पीता है, तो उसे चोर करार दिया जाता है। शम्भू मित्रा के इस गरीब नायक ने पूरे समाज को आईना दिखाया था! 
   वक़्त के साथ हिंदी फिल्मों में नायकत्व भी सशक्त हुआ! इसलिए कि हमारा समाज हमेशा ही ऐसे नायक की तलाश में रहा है, जो खुद की नहीं सबकी बात करे! समाज के लिए खड़ा हो! जिसमे सभी का नेतृत्व करने की क्षमता हो! इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ये था कि इस दशक में देश की नई सरकार में ही कई नायक थे, जो आजादी की जंग से उभरे थे। महात्मा गांधी वाला युग बीत चुका था, नेहरू का दौर समाज पर हावी था। पं नेहरू की अपनी अलग आइडियोलॉजी थी! वे प्रैक्टिकल लाइफ को समझते थे! फिल्म प्रेमी भी थे और फिल्मकारों की लोकप्रियता से प्रभावित रहते थे। इस दौर में उन्होंने फिल्मों के विकास के लिए कुछ कदम भी उठाए गए! इससे भी फिल्मों में नायकत्व को आधार मिला! पिछले दशकों के मुकाबले आजादी के बाद के इस दशक में फिल्में ज्यादा बेहतर ढंग से अपनी बात कहने लगी! फिल्मों में भाषणबाजी से हटकर मनोरंजन का मसाला दिखाई देने लगा! अभाव, भेदभाव, जातिवाद, गरीबी, सांप्रदायिकता, हिंसा और महिलाओं पर जुल्म जैसी समस्याओं के बीच कहीं न कहीं मसाला और रोमांस नजर आने लगा! 
  इस दशक की एक और खास बात है कि नायक आदशरें और समाजवादी मूल्यों का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थक था, लेकिन उसे ठीक से प्यार करना नहीं आता था। प्यार की अनुभूति मजबूत आकार नहीं ले सकी थी। 'अरेंज्ड मैरेज' का समाज था, जैसी समाज और परिवार की इच्छा होती थी, युवा वैसा ही करते थे। अपने प्यार की बलि चढ़ा देते थे या समझ ही नहीं पाते थे कि प्यार में क्या किया जाए। ध्यान दीजिए, इसी दौर में बिमल राय ने 'देवदास' का निर्माण किया। एक ऐसा नायक जो न ठीक से प्यार कर सका, न ठीक से प्यार पा सका। गुरुदत्त की 'प्यासा' में भी यही हुआ। देवदास अगर चाहता, तो बहुत आसानी से पारो से विवाह करके सुखी हो जाता, पारो उसे बहुत चाहती थी, लेकिन फिर वही जमींदारी, लोकलाज, परिवार, समाज इत्यादि-इत्यादि। फिर उसे चंद्रमुखी से प्यार हुआ, लेकिन वह भी मुकाम पर नहीं पहुँच सका, फिर वही लोकलाज, परिवार, समाज इत्यादि-इत्यादि। शायद यह एक तरह से प्रगतिशीलता का आह्वान था कि देखो, व्यक्तिगत प्यार की कोई औकात नहीं, देश को देखो, समाज को देखो और तब फैसला लो। एक तरह से इस दशक में नायक यह तो बोल सका कि मैंने दिल तुझको दिया, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ा सका, क्योंकि उसमें साहस का अभाव था। प्रेम की पुकार की तुलना में देश, समाज और परिवार की पुकार बड़ी थी।
  पचास के दशक के उसी फिल्मी नायक का प्रभाव आज तक बना हुआ है! क्योंकि, वही हिंदी सिनेमा का सबसे प्रभावी नायक था, जो आज भी परदे पर मौजूद है। इसी दशक का नायक भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाया! पंडित नेहरू की तरह राजकपूर भी दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय थे! रूस में तो राजकपूर के लिए दीवानगी जग जाहिर थी! पंडित नेहरू राजनीति में समाजवादी थे, तो सिनेमा के परदे पर राजकपूर का नायकत्व भी समाजवादी दृष्टिकोण लिए था! सरकार नैतिकता के साथ सामाजिक समानता और संपन्नता के सपने संजो रही थी, तो यही काम फिल्मों में हो रहा था! ने भी यही किया। शक नहीं कि जब भी भारतीय फिल्मी नायक का विश्वास डिगेगा, उसे अपने पचास के दशक के पूर्वज नायक से सीखना पड़ेगा! क्योंकि, इस दशक से सीखने के लिए बहुत कुछ है, सरकार को भी और परदे के नायक को भी! 
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