Monday, September 5, 2016

सस्ती फिल्मों का भी बड़ा कारोबार


- हेमंत पाल 

  आज किसी डायरेक्टर से उसकी फिल्म का बजट पूछा जाए तो आंकड़ा 25 से 100 करोड़ के बीच ही सामने आएगा! लेकिन, हर साल अच्छा कारोबार करने वाली फिल्मों में अधिकांश फ़िल्में वे होती हैं, जिनका बजट उँगलियों पर गिना जा सकता है! दरअसल, आज का दौर करोड़ों की फिल्मों का है। ऐसे में यदि किसी फ़िल्मकार की फिल्म 15-20 करोड़ में बनकर 50-60 करोड़ का बिजनेस कर रही है, तो ये भी उसकी उपलब्धि ही कही जाएगी! लेकिन, इन फिल्मों की स्टोरी कला फिल्मों की तरह की नहीं होती, जिसमें समाज के दबे, कुचले वर्ग को आधार बनाकर स्टोरी का तानाबाना बना जाता है! इन फिल्मों की खासियत यही है कि ये अपनी लागत निकालकर मुनाफा कमाने में कामयाब रहती हैं। कुछ सालों में शहरों में मल्टीप्लेक्स खुले और नया दर्शक वर्ग तैयार हुआ! 
  सत्तर के दशक के अंत और अस्सी के दशक में एक दौर आया, जब कम बजट की फिल्मों ने नया दर्शक वर्ग खड़ा किया। छोटी और कलात्मक फिल्मों के इस दौर में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मीरा नायर जैसे फिल्मकारों ने कम बजट में कई फिल्में बनाई! दर्शकों ने इन्हें काफी पसंद भी किया गया। शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, अमरीश पुरी, ओम पुरी इसी दौर की देन हैं। इसके बाद केतन मेहता, मीरा नायर, कुंदन शाह ने कम लागत वाला मनोरंजक सिनेमा की तरफ रुख किया। जबकि, आज कई बड़े फिल्मकार भी छोटे बजट की फिल्मों की तरफ मुड़ गए!  
  बॉलीवुड में हाल में कई ऐसी फिल्में बनी हैं, जिनकी लागत बेहद कम थी, लेकिन ये फिल्में कमाई के बंपर रिकॉर्ड बनाने में कामयाब रहीं। महज 6 करोड़ रुपए की ‘दम लगा के हइसा’ ने 100% का मुनाफा कमाया! कम बजट की इन फिल्मों में आजकल कई तरह के प्रयोग भी किए जा रहे हैं। यही कारण है कि डायरेक्टर लीक से अलग हटकर फिल्में बनाने की रिस्क लेने लगे हैं। कम बजट की फिल्में बनाने में केवल छोटे डायरेक्टर्स ही नहीं, नामी फिल्मकारों ने भी हाथ आजमाया। गुलजार की बेटी मेघना ने 'तलवार' बनाकर 59 करोड़ रुपए कमाए! 'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' ने 368% का मुनाफा कमाया! बॉलीवुड में छोटे स्टारकॉस्ट वाली फिल्में कमाई के नए रिकॉर्ड बना रही हैं। इसका सीधा सा इशारा है कि आज भी दर्शकों का एक वर्ग ऐसा है, जो सिर्फ मनोरंजन के लिए सिनेमाघर नहीं जाता, उसे कुछ अर्थपूर्ण सिनेमा देखने की चाह है।  
  इस तरह की फ़िल्में मसाला फ़िल्मों से हटकर होती है! लेकिन, कम बजट की अर्थपूर्ण फिल्मों से फिल्मकार की अलग पहचान भी बनती है। हाल ही के सालों में बनी शिप ऑफ़ थीसियस, पानसिंह तोमर, शंघाई और गैंग्स ऑफ़ वासेपुर जैसी कम बजट की फ़िल्में, जिनमें बड़े सितारे भी नहीं थे। उनपर यू-टीवी, वॉयकॉम,  पीवीआर पिक्चर्स और रिलायंस जैसे प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियोज़ ने पैसा लगाया या डिस्ट्रीब्यूट किया! क्या माना जाए कि छोटे बजट की सितारा विहीन फ़िल्मों के दिन वापस आ गए?
  कुछ साल पहले तक प्रोड्यूसर ऐसी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए तैयार नहीं होते थे! आज जहां बड़े बजट की मसाला फ़िल्में बन और चल रही हैं, वहीं छोटे फ़िल्मकार लीक से हटके गंभीर, अर्थपूर्ण फ़िल्में बनाने का भी साहस कर पा रहे हैं। इसकी वजह है कि उन्हें यक़ीन होता है कि कहानी में दम होगा तो पैसे लगाने के लिए प्रोड्यूसर उन्हें मिल जाएगा! 80 के दशक में एनएफ़डीसी ने 'जाने भी दो यारो' समेत कई फ़िल्में बनाईं! उस दशक में नेशनल फ़िल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ने 'पेस्टनजी', 'मिर्च मसाला', 'जाने भी दो यारो' और 'सलाम बॉम्बे' जैसी कई फ़िल्में बनाईं! श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, केतन मेहता और मीरा नायर जैसे फ़िल्मकारों के लिए एनएफ़डीसी बड़ा सहारा हुआ करता था। इन फ़िल्मकारों को काफ़ी कम बजट में फ़िल्में बनाने में महारथ हांसिल थी। 
  अनुराग कश्यप जैसे फ़िल्मकारों की लीक से हटकर फ़िल्मों पर बड़े प्रोडक्शन हाउस पैसा लगा रहे हैं। लेकिन, अब बड़े प्रोडक्शन हाउस और स्टूडियो के आने से फ़िल्मकार थोड़ा और आज़ादी से फ़िल्म बना सकते हैं। फ़िल्म समीक्षक आज अनुराग कश्यप और दिबाकर बनर्जी जैसे फ़िल्मकारों की सराहना करते हैं। ये फ़िल्मकार विविध तरह का सिनेमा बना रहे हैं, बल्कि विक्रमादित्य मोटवानी जैसे निर्देशकों को इस तरह का सिनेमा बनाने का मौका भी दे रहे हैं। 'उड़ान', 'शैतान' और 'लुटेरा' जैसी फ़िल्में इस का सुबूत हैं। अनुराग और दिबाकर अब इतने बड़े नाम बन गए हैं कि इनकी फ़िल्मों में पैसा लगाने के लिए बड़े प्रोडक्शन हाउस जैसे यूटीवी और यशराज बैनर भी तैयार हैं। 
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