Saturday, September 24, 2016

मध्यप्रदेश में कांग्रेस को किस राजनीतिक मौके का इंतजार?


  मध्यप्रदेश में कांग्रेस इन दिनों सदमे में है! उसे ये तो पता चल गया कि प्रदेश की भाजपा सरकार की जमीन दरक रही है! बढ़ती अफसरशाही और उम्मीदों पर खरा न उतरने से जनता नाराज है। नगर पंचायतों और नगर पालिकाओं जैसे छोटे चुनाव में भाजपा लगातार पिछड़ रही है! ख़बरें भी है कि लोग अब बदलाव चाहते हैं! लेकिन, सामने कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा! कम से कम कांग्रेस तो ऐसा कुछ नहीं कर रही, कि लोग उसे भाजपा के विकल्प के रूप में देखें! लंबे अरसे से प्रदेश में कांग्रेस सुप्त अवस्था में है! अपनी मौजूदगी के लिए सरकार के फैसलों पर टिप्पणी या विरोध के अलावा कांग्रेस कुछ नहीं कर रही कि उसे प्रदेश में राजनीतिक विकल्प समझा जाए! सच ये है कि जब तक कांग्रेस में गुटबाजी ख़त्म नहीं होगी, तब तक मनमाफिक नतीजा नहीं आने वाला! कांग्रेस ने रतलाम-झाबुआ लोकसभा उपचुनाव जीता! उसमें कांतिलाल भूरिया के असर के साथ पार्टी नेताओं की मेहनत को भी सराहा गया! लेकिन, उसके बाद कांग्रेसी सीट मैहर की हार ने एक बार फिर गुटीय राजनीति को आइना दिखा दिया! यदि कांग्रेस के नेता अब भी होश में आने को तैयार नहीं हुए तो प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाना महज एक सपना बनकर ही रह जाएगा। ऐसे में प्रशांत किशोर भी कांग्रेस के लिए कुछ नहीं कर आएंगे, जिसकी टीम ने प्रदेश के नब्ज को टटोल लिया है।  
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- हेमंत पाल 
  मध्यप्रदेश में भाजपा लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीतकर सरकार चला रही है। 2003 में उमा भारती के नेतृत्व में भाजपा को मतदाताओं ने दो तिहाई से ज्यादा बहुमत देकर सत्ता में बैठाया था। उसके बाद कुछ समय के लिए बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री बने! अब 13 साल से शिवराजसिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में काबिज हैं। भाजपा ने तीनों विधानसभा चुनाव अपने बलबूते पर कम और कांग्रेस के नाकारापन के कारण ही जीते! अब भाजपा सरकार भी लोगों की उम्मीदें उस सक्षमता से पूरी नहीं कर पा रही है, जितनी कि आस थी! ऐसे में कांग्रेस भाग्य भरोसे छींका टूटने का रास्ता देख रही है! कांग्रेस खुद कोई मेहनत नहीं कर रही, बल्कि भाजपा के कमजोर होने का रास्ता देख रही है। कांग्रेस के पास न तो कोई कार्यक्रम है न भविष्य को लेकर कोई योजना! राजनीति के नाम पर सरकार और मुख्यमंत्री के विरोध और प्रदर्शन से ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा! भी पूरी पार्टी के बजाए पार्टी प्रवक्ता तक ही सीमित है।   
  कांग्रेस के पास जब कोई काम नहीं होता तो गुटबाजी खुलकर सामने आ जाती है। अभी पार्टी फिर उसी राह पर है। अगले चुनाव में सत्ता पाने के लिए प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए जोड़-तोड़ फिर शुरू हो गई! प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर जो लॉबिंग शुरू हुई है, उसका नतीजा उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद सामने आएगा! क्योंकि, कांग्रेस अरुण यादव को हटाने खतरा उत्तरप्रदेश चुनाव के बीच में नहीं ले सकती! लेकिन, कांग्रेस की गुटबाजी का संदेश जनता के बीच तो पहुंच ही रहा है। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर प्रदेश में माहौल गरमाया जा रहा है। निश्चित तौर पर उनके नाम उछलने के पीछे राजनेताओं की सहमति भी होगी। इन नेताओं की सक्रियता के बीच ऐसे नजारे भी दिखे, जो इस बात का संकेत दे रहे हैं! इससे कांग्रेस के गुटों में बंटने का जो संदेश मतदाताओं के बीच जा रहा है, वह अच्छा संकेत।  इन्हीं हालातों की वजह से जनता बार-बार कांग्रेस को नकार रही है। यदि अभी भी कांग्रेस नहीं संभली, तो पार्टी को फिर उसी मोड़ पर खड़े होने को मजबूर होना पड़ेगा, जहाँ वो 2003 में थी! 
 कांग्रेस ने 2014 में अरुण यादव को कांग्रेस की कमान सौंपी थी! क्योंकि, तब हार से आहत होकर कोई भी इस जिम्मेदारी को सँभालने को तैयार नहीं था! विधानसभा चुनाव के बाद तो कांग्रेस को किसी करिश्में की उम्मीद भी नहीं थी। मोदी लहर ने पूरे देश में कांग्रेस को पटकनी दे दी थी! मध्यप्रदेश उसमें कोई अपवाद नहीं था। लोकसभा चुनाव में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया ही बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाए थे। अरुण यादव को भी खंडवा सीट से हार का मुँह देखना पड़ा था। कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों के बाद अरुण को फ्री-हैंड दिया! जबकि, असलियत ये थी कि ऐसा कुछ होना भी नहीं था, जिससे उनकी राजनीतिक क्षमताओं का पता चल सके! फिर लग रहा है कि कांग्रेस अरुण यादव पर से भरोसा खो रही है! यादव को सामने रखकर पार्टी के बड़े नेता भी मेहनत करने से बच रहे है। सवाल उठता है कि क्या ये गुटबाजी कांग्रेस पर हमेशा हावी रहेगी? क्या सभी नेता मिलकर 'मिशन-2018' को लेकर निर्गुट राजनीति का एक उदाहरण पेश करने का मन नहीं बना पा रहे? 'मिशन-2018' से पहले कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी को लेकर चल रही जोर-आजमाइश अपने आपमें ऐसे कई सवाल खड़े कर रही है।
 सच्चाई ये भी है कि कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है कि उनके आने से कोई चमत्कार हो सकेगा? कांग्रेस के लिए 2003 से 2016 के बीच हुए छह बड़े चुनावों 2003 विधानसभा, 2004 लोकसभा, 2008 विधानसभा, 2009 लोकसभा, 2013 विधानसभा और 2014 लोकसभा के चुनावों में भी ये दोनों नेता कोई बड़ी उपलब्धि हांसिल नहीं कर सके! कमलनाथ महाकौशल क्षेत्र में प्रभावशाली सिंधिया का प्रभाव क्षेत्र ग्वालियर-चंबल! अपने क्षेत्र में भी इन दोनों नेताओं का असर बेहद ख़राब ही रहा! जबकि, कांग्रेस ने टिकट बांटने में इन नेताओं को पूरी आजादी दी! इतनी हारों के बाद भी कांग्रेस के दिग्गज नेता कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, कांतिलाल भूरिया, अजय सिंह या फिर अब अरुण यादव के कंधों पर यह भार नहीं है कि सभी साथ बैठकर प्रदेश में कांग्रेस की दुर्दशा पर विचार करें। साथ ही जनता के बीच गुटबाजी में बंटी कांग्रेस के मिथक को मिटाकर मजबूत कांग्रेस का भरोसा दिलाएं। लगता नहीं कि इन नेताओं कभी प्रदेश में पार्टी की दुर्दशा पर विचार किया होगा? क्या इन्होंने ये जानने की कोशिश की है कि कांग्रेस की ब्लॉक, जिला इकाईयां गुटबाजी में बंटी कांग्रेस का संदेश क्यों दे रही हैं और मैदानी स्तर पर वे सत्तारूढ़ भाजपा संगठन के सामने कहां खड़ी हैं? 
 एक अनुमान ये भी लगाया जा रहा है कि कांग्रेस 'मिशन-2018' के लिए पुराने चेहरों की जगह किसी नए चेहरे को आगे बढ़ा सकती है। लेकिन, वो कौन होगा, ये तय होना अभी बाकी है! प्रदेश के युवा विधायकों व कुछ चुनिंदा युवा पदाधिकारियों के साथ राहुल गांधी ने मंत्रणा भी की! पर, लगता नहीं कि इससे कुछ हो सकता है! विधान सभा चुनाव  मद्देनजर युवा विधायकों की राहुल गांधी के साथ हुई इस बैठक को काफी अहम माना गया! यदि ऐसा कुछ होता है तो जयवर्धन सिंह (दिग्विजय सिंह के पुत्र) ही हैं, जिनके लिए रास्ता बहुत आसान है। अभी भी प्रदेश की राजनीति बहुत कुछ उनके इर्द-गिर्द ही घूमती है। राहुल गांधी की विधायकों से मुलाकात के बाद प्रदेश कांग्रेस की राजनीति भी बदलाव की उम्मीद की गई थी, पर इस बात को भी लंबा अरसा बीत गया! प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में अब तक कुछ ही दिग्गज चेहरों के नाम लिए जाते है। इनमें कमलनाथ, पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रमुख नाम शामिल है। अब कौनसा नया नाम सामने आने वाला है, ये यक्ष प्रश्न ही है। 
  इधर, नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान में अहम भूमिका निभाने वाले प्रशांत किशोर अब कांग्रेस के पाले में बैठे हैं। फिलहाल उत्तरप्रदेश में कांग्रेस के लिए लिए संजीवनी तलाश रहे हैं। साथ में मध्यप्रदेश के लिए भी प्रशांत किशोर की टीम ने 230 सीटों का सर्वे किया! प्रदेश की भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक पृृष्ठभूमि के साथ नेताओं की लोकप्रियता के क्षेत्रवार, बूथवार सभी आंकड़े इकठ्ठे किए! आशय यह कि 2018 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता वापसी कराने के लिए प्रशांत किशोर की टीम अभी से सक्रिय हो गई! उनकी टीम ने प्रदेश का राजनीतिक सर्वे करके मतदाताओं का मूड भी भांपा है। प्रशांत किशोर की चुनावी रणनीति के हिसाब से पार्टी संगठन में बदलाव लाने की तैयारी है। गुटबाजी रोकने के लिए प्रशांत किशोर असरदार नेताओं का अपनी रणनीति के तहत उपयोग संगठन में करेंगे। पूरे प्रदेश के लिए एक सामान रणनीति भी नहीं बनेगी! कुछ चुनिंदा सीटों के लिए अलग रणनीति बनाने की योजना है। विंध्य, मध्यक्षेत्र , मालवा-निमाड़, ग्वालियर-चंबल सहित महाकोशल, बुंदेलखंड इलाके के लिए प्रशांत किशोर अपनी चुनावी रणनीति तैयार करने में लगे हैं। बुंदेलखंड में भाजपा की कमजोरी स्पष्ट है! यही कारण है कि वहाँ चार -पांच महीने से प्रशांत किशोर की टीम वहां सक्रिय है। उन्होंने सर्वे में सामने आए आउटपुट को गोपनीय रखते हुए राहुल गांधी को स्पष्ट कर दिया कि प्रदेश में सत्ता वापसी के लिए गुटबाजी छोड़कर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव, कमलनाथ, दिग्विजय सिंह तथा ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी आदि नेताओं को कांग्रेस के लिए काम करना चाहिए। लेकिन, क्या ऐसा हो सकेगा? ये और ऐसे कई सवाल सामने खड़े हैं!
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