Friday, January 13, 2017

नौकरशाही में राजनीतिक दखल के दर्द की इंतेहाँ

- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश सरकार इन दिनों एक नए संकट का सामना कर रही है। एक पुलिस अफसर के तबादले को लेकर उस शहर की जनता सड़क पर आ गई! लोगों का आरोप है कि ये तबादला राजनीतिक दबाव में किसी का हित साधने के लिए किया गया है। ये पहली बार हुआ कि किसी पुलिस अफसर के समर्थन में इस तरह का माहौल बना हो! जबकि, सामान्यतः जनता में पुलिस की छवि ऐसी नहीं होती कि उनके समर्थन में कोई स्वतः स्फूर्त आंदोलन खड़ा हो जाए! किसी अफसर का तबादला नई बात नहीं है, पर जिन परिस्थितियों में ये हुआ है वो सवाल करता है! इसलिए कि हमारे देश की नौकरशाही अंग्रेज राज की विरासत हैं। इस सेवा की स्थापना भारतीयों को दबाने और औपनिवेशिक शासकों के हितों की रक्षा के लिए की गई थी! जबकि, भारतीय और अंग्रेजी नौकरशाही के चरित्र और स्वरूप में बहुत फर्क है। अफ़सोस की बात तो ये कि आजादी के सात दशक बाद भी देश की सरकारों ने इस चरित्र को लोकतंत्र की अपेक्षाओं के अनुरूप ढालने की दिशा में कुछ नहीं किया! अब हालात ये हैं कि नेता, नौकरशाहों और पुलिस अफसरों को अपना निजी सेवक समझने लगे हैं। राजनीतिक दखल के कारण अच्छे अफसर महत्वपूर्ण पद पाने से वंचित रह जाते हैं। जबकि, राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के प्रति वफादारी दिखाने वाले नौकरशाहों को आसानी से बड़े पद मिल जाती है। प्रशासनिक और पुलिस सेवा अधिकारियों को राजनीतिक दखल का बहुत ज्यादा सामना करना पड़ता है। इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया, परिस्थिति काबू से बाहर हो जाएगी! 

   मध्यप्रदेश के छोटे शहर कटनी को अभी तक चूना पत्थर की खदानों के लिए जाना जाता था! लेकिन, अब इस चूने में पानी पड़ गया और चारों तरफ उबाल आ गया! छोटे से शहर के लोगों ने अपनी आवाज से प्रदेश की सरकार को हिला दिया। कटनी के पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी के तबादले को लेकर लोग सड़क पर आ गए। यहाँ की जनता का आरोप है कि सरकार ने हवाला कारोबार में घिरे अपने मंत्री संजय पाठक को बचाने के लिए पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया। जबकि, पुलिस जांच में सामने आया था कि हवाला कारोबारियों, बैंक व बैंक अफसरों की सांठगांठ से नोटबंदी के बाद पुराने नोटों की अदला-बदली का बड़ा घोटाला हुआ। पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी को ये सबूत मिल गए थे कि इस काले धंधे के पीछे संजय पाठक का हाथ है। पुलिस अधीक्षक पर दवाब बनाया गया, जब दवाब काम नहीं आया तो उनका तबादला करवा दिया गया। हैरान करने वाली बात ये है कि उन्हें छह महीने पहले कटनी में पदस्थ किया गया था। उनके सख्त और ईमानदार रवैये से लोग खुश थे। लेकिन, गौरव तिवारी से तबादले से कटनी से जो चिंगारी उठी है वो आवाज़ ईमानदार अफसरों के हक में जनक्रांति का संकेत है। संजय पाठक सरकार के वे मंत्री हैं, जो दल बदलकर कांग्रेस से भाजपा में आए हैं। जब तक वे कांग्रेस में थे, उनपर और उनके कारोबार पर भाजपा ऊँगली उठाती रही! लेकिन, जब से वे भाजपा में आए हैं वे और उनका कारोबार दोनों पवित्र हो गए!
   हमारे यहाँ नौकरशाही पर राजनीतिक दबाव के किस्से नए नहीं हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, अफसरों को अंकुश में रखना हर सरकार का शगल होता है। असल बात तो ये है कि ये किसी एक प्रदेश का किस्सा नहीं है, हर प्रदेश की सरकार में ये होता है। इन बातों से पूरी दुनिया भी वाकिफ है। तीन साल पहले अमेरिका की एक थिंक टैंक संस्था ने भी अपनी रिपोर्ट में भी कहा था कि भारतीय प्रशासनिक सेवा में तत्काल सुधार की जरूरत है। राजनीतिक दखलअंदाजी के कारण यह अक्षम होती जा रही है। 'कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस' द्वारा जारी रिपोर्ट 'द इंडियन ऐडमिनिस्ट्रेशन सर्विस मीट्स बिग डेटा' में कहा गया था कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय प्रशासनिक सेवाएं राजनीतिक दखलअंदाजी, पुरानी पड़ चुकी कार्मिक प्रक्रियाओं नीति क्रियान्वयन के कारण बुरी तरह प्रभावित हो रही है। इनमें तुरंत सुधार की जरूरत है। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सरकार को नियुक्ति और पदोन्नति की प्रक्रिया का पुनर्गठन करना चाहिए। नौकरशाही और राजनीति, दोनों में अच्छे और बुरे लोग हैं। मगर सबसे ज्यादा दोषारोपण नौकरशाही पर ही होता है। विदेशी ही नहीं, भारतीय भी नौकरशाही को अक्षम मानते हैं। हांगकांग की 'पॉलिटिकल एंड इकानॉमिक रिस्क कंसलटेंसी' के एक सर्वेक्षण के मुताबिक भी एशिया में सबसे निकम्मी नौकरशाही भारत की है। इस सर्वेक्षण में कहा गया कि विदेशी निवेशक ही नहीं, किसी भारतीय के लिए भी वहाँ की नौकरशाही से काम करवाना निराशाजनक अनुभव जैसा है।
   भाजपा के राज में ये दखल अपरिहार्य इसलिए भी समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अफसरों को कह चुके कि लोकतंत्र में ‘राजनीतिक हस्तक्षेप’ आवश्यक है। उन्होंने नौकरशाहों के सामने स्पष्ट कहा था कि वे इसे सुशासन में बाधा के तौर पर नहीं देखें! 'राजनीतिक हस्तक्षेप' और 'अनुचित हस्तक्षेप' में अंतर स्पष्ट करते हुए मोदी ने कहा था कि इनमें से एक व्यवस्था के लिए ‘अनिवार्य और अपरिहार्य’ है वहीं दूसरे से व्यवस्था ‘नष्ट’ हो जाएगी। प्रधानमंत्री ने सिविल सर्विस डे पर अधिकारियों को संबोधित करते हुए कहा था कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आगे बढ़ने में नौकरशाही मिजाज और राजनीतिक हस्तक्षेप की अकसर बाधक के तौर पर चर्चा की जाती है। जबकि, लोकतंत्र में, नौकरशाही और राजनीतिक हस्तक्षेप साथ-साथ चलते हैं। यह लोकतंत्र की विशिष्टता है। अगर हमें इस देश को चलाना है, तो हमें अनुचित राजनीतिक हस्तक्षेप की जरूरत नहीं है। लेकिन, राजनीतिक हस्तक्षेप अनिवार्य और अपरिहार्य है अन्यथा लोकतंत्र काम नहीं कर पाएगा।
  सुप्रीम कोर्ट ने भी 2013 के अपने एक अहम फैसले में कहा था कि नौकरशाहों के आए दिन होने वाले तबादलों की परंपरा को खत्म किया जाए। उन्हें राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने के लिए उनका कार्यकाल सुनिश्चित करना चाहिए! राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण ज्यादातर नौकरशाहों के कामकाज में गिरावट आती है। इसलिए जरूरी है कि नौकरशाहों की तैनाती एक निश्चित अवधि के लिए की जाए। कोर्ट का यह फैसला स्वागत योग्य था, क्योंकि देश की शीर्ष अदालत ने एक बार फिर देश के राजनीतिक नेतृत्व को उनके कर्त्तव्यों की याद दिलाई! नौकरशाही के कामकाज में सुधार की सलाह देते हुए न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा था कि नौकरशाहों की नियुक्ति, स्थानांतरण और उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई को नियंत्रित करने के लिए संसद को कानून बनाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि जब तक संसद कानून नहीं बनाती है, तब तक अदालत के दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा। अदालत ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों से कहा है कि वह नौकरशाहों का कार्यकाल तय करने के लिए तीन महीनों के भीतर दिशानिर्देश जारी करें। जबकि, कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को शीर्ष नौकरशाहों के ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रोमोशन और उन पर अनुशासनात्मक कार्रवाई आदि की प्रक्रिया तय करने के लिए सिविल सर्विस बोर्ड बनाने का निर्देश दिया था! लेकिन, तीन साल से ज्यादा वक़्त बीत जाने पर भी सर्वोच्च अदालत के निर्देशों को अनदेखी ही की गई!
  भारतीय लोकतंत्र में नौकरशाही की भूमिका क्या है? राजनीतिक नेतृत्व, जन प्रतिनिधियों और मंत्रियों के साथ नौकरशाहों का संबंध क्या है? क्या इस समय जो रिश्ता है, वह बरकरार रहना चाहिए या उसमें बदलाव की जरूरत है? ऐसे सवाल हमेशा उठते रहे हैं! देखा भी गया है कि ईमानदार और अपनी आत्मा की आवाज पर काम करने वाले अफसरों को अच्छे काम का ईनाम तबादले के रूप में मिलता है। ऐसे कई मामले सामने आए, जब ईमानदार अफसरों को बार-बार तबादले झेलने पड़े हैं। कटनी के बहाने नौकरशाही और नेताओं के बीच रिश्ते का सवाल एक बार फिर उभरा है। जबकि, लोकतंत्र में नौकरशाही को सरकार का 'फौलादी फ्रेम' कहा जाता है। सरकारें तो बदलती रहती हैं, नौकरशाही स्थिर रहती है। क्योंकि, नौकरशाही का काम कानून के दायरे में सरकार की नीतियों और योजनाओं को लागू करना है। लेकिन, सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों  गिरावट के साथ ही नेताओं और अफसरों के बीच का रिश्ता भी बदलता गया! अफसरों की निष्ठा सरकार के प्रति है, किसी दल विशेष के प्रति नहीं! क्योंकि, आज यदि एक दल सत्ता में है तो कल वही विपक्ष में हो सकता है। यही कारण है कि ईमानदार नौकरशाह राजनीतिक रूप से तटस्थ रहते हैं। लेकिन, सामान्यतः ऐसा होता नहीं है! चंद नौकरशाह ने तो अपने जमीर को बरक़रार रखा। पर, ऐसे भी कम नहीं हैं, जिन्होंने बहती गंगा में हाथ धोना ही बेहतर समझा! नतीजा ये हुआ कि उन पर राजनीति का वरद हस्त काबिज हो गया। जबकि, ईमानदारी से अपना कर्त्तव्य निभाने वाले गौरव तिवारी जैसे अफसरों को तबादले का दंश झेलना पड़ता है!  
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