Sunday, January 8, 2017

भाजपा की चाल, चरित्र और चेहरा सबसे अलग कैसे?


- हेमंत पाल 

    भारतीय जनता पार्टी कि राजनीति की अपनी अलग धारा है। भाजपा के नेता अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं और देश की जनता को जो सलाह देते हैं, उस पर कभी खुद अमल नहीं करते! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह पार्टी के जिस चाल, चरित्र, चेहरे और शुचिता की बात करते हैं, उसका पालन उनकी ही पार्टी में नहीं हो रहा! पार्टी जिस आदर्शवाद की दुहाई देती है, उस नजरिए से तो भाजपा शासित राज्यों को देश के आदर्श राज्य होना था, पर इस नहीं है? मध्यप्रदेश के संदर्भ में ही देखा जाए तो यहाँ 13 सालों से भाजपा की सरकार है, फिर भी रामराज्य जैसा नजारा तो हरगिज नहीं है! अफसरशाही, भ्रष्टाचार, अपना आदमीवाद, बढ़ते अपराध, भ्रष्ट राजनीति, भ्रष्ट नौकरशाही समेत वो सारी खामियां हैं, जो किसी गैर-भाजपा शासित राज्य में भी होगी! यदि भाजपा वास्तव में देश में रामराज्य की कल्पना कर रही है, तो इसकी शुरुआत अपने ही घर से होना चाहिए! कई गैरकानूनी काम धंधों के अलावा नोटबंदी के इस दौर में पकडे जाने वालों में भाजपा के नेता भी तो हैं!

   एक जमाना था जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता सीना ठोंककर अपनी चाल, चरित्र और चेहरा सबसे अलग होने का दावा करते थे। राजनीति में शुचिता के झंडाबरदार होने का दम भरते थे। कांग्रेस को भ्रष्टाचार की ‘गंगोत्री’ बताते थे। लेकिन, धीरे-धीरे स्थितियां बदल गई। भाजपा खुद भ्रष्टाचार के आरोपों में सने अपने नेताओं के बचाव में फूहड़ तर्क देती दिखाई देती है। कानूनी कमजोरियों की आड़ ली जाती है। सबूत की खामी को बचाव की ढाल बनाया जाता है। जबकि, देखा जाए तो राजनीति तर्कों से तर्क नहीं, विश्वसनीयता से चलती है। जो मतदाता जिस नेता को अपना प्रतिनिधि चुनता है, उसके भरोसे पर खरा उतरना जरूरी है। जन-विश्वास की कसौटी पर कसा जाए तो भाजपा के अधिकांश नेताओं के दामन उजले दिखाई नहीं देते! भोपाल में ही आयकर विभाग ने भाजपा नेता और आवास संघ के पूर्व अध्यक्ष सुशील वासवानी के यहाँ छापा मारा। वासवानी के खिलाफ लंबे समय से आय से अधिक संपत्ति रखने की शिकायत थी। वासवानी पर आरोप है कि उन्होंने नोटबंदी के बाद कोऑपरेटिव बैंक के अपने खाते में आय से अधिक कैश जमा किया था। नोटबंदी के बाद बैंक के जरिए बड़े पैमाने पर कालेधन को सफेद किया गया है। वासवानी की पत्नी किरण वासवानी बैरागढ़ स्थित महानगर बैंक की चेयरमैन हैं।
   राजनीति में सदैव नैतिकता की दुहाई देने वाला दल (भाजपा) और उसका मार्गदर्शक संगठन (आरएसएस) नफे-नुकसान का हिसाब कर कदम उठा रहा है। इस गणित से मौजूदा भाजपा नेतृत्व को लगता है कि भाषाई जुगाली से जनता को भरमाया जा सकता है, तो ये शायद उनकी गलती होगी! भाजपा के पुराने नेता भी मानते हैं कि ये अंतर्द्वंद्व का दौर मानते हैं। पुरानी भाजपा में कार्यकर्ताओं में मतैक्य था, अब गुटबाजी है। जनसंघ के समय सेवा, सत्कार और समाज कल्याण की भावना सबसे ऊपर थी। तब कार्यकर्ता पार्टी के कार्य को मजदूरी नहीं मानता था। आज कार्यकर्ता पैसे और पद की इच्छा पहले रखता है। अपने खून-पसीने से पार्टी को सींचने वाले गरिमामय लोगों को अपनी पार्टी के नेताओं-कार्यकर्ताओं से अपमानित होना पड़ता है। मूल कार्यकर्ता की अवहेलना हो रही है। यह भी विचित्र है कि सालों से जो नेता वंशवाद को कोसते रहे वे आज भाजपा में उन्हीं के पालक-पोषक मौजूद हैं।
 जनसंघ के समय से 90 के दशक तक के कार्यकर्ता जो काम करते थे, वो आज के कार्यकर्ता नहीं कर सकते। पहले दो जोड़ी धोती-कुर्ता और एक साइकल से व्यक्ति समाज और देशसेवा में जुटता था। अब तो राजनीति में आने के कुछ ही दिनों में महंगी गाड़ी में सवारी का लोभ उभरने लगता है। नए कार्यकर्ताओं में त्याग और समाजसेवा का अभाव साफ़ नजर आता है। भाजपा का देशसेवा और हिंदुत्व का एजेंडा तो कभी का इतिहास में कहीं खो चुका है। अब कार्यकर्ता और नेता पुराने नेताओं को पहचाने तक नहीं। वे भले ही बाद में आए हों, लेकिन जिन्‍होंने पार्टी को सींचा और यहां तक पहुंचाया उन्हें तो याद रखना चाहिए। पार्टी में जिस शुचिता, ईमानदारी और नैतिकता को मूल मंत्र माना जाता था, वो कहीं पीछे छूट गया। अटल बिहारी बाजपेई की सरकार एक वोट से गिर गई, लेकिन उन्होंने वोट नहीं खरीदा! आज पार्टी के नेता पुराने सिद्धांतों को दीवार पर लटकाकर तो रखते हैं, लेकिन अपनाते नहीं। भाजपा के सत्ता में आने के बाद चाटुकारों और अवसरवादियों का बोलबाला है। पुराने कार्यकर्ता उपेक्षित हैं।
  भाजपा आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांतों के पालन का भी दावा करती है। उसका कहना है कि देश में करीब 1600 पार्टियां हैं, लेकिन बहुत कम आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांतों पर काम करती हैं। दावे के मुताबिक भाजपा ऐसी अकेली पार्टी है, जहां आंतरिक लोकतंत्र के सिद्धांत का प्रभावी तरीके से पालन होता है। जहां जमीनी स्तर से जुड़ा कार्यकर्ता भी अपनी कड़ी मेहनत और लगन के बल पर शीर्ष पद पर पहुंचने की सोच सकता है। भाजपा में पद पाने के लिए किसी को परिवार विशेष में जन्म लेने की जरूरत नहीं! पार्टी का कोई भी कार्यकर्ता जो लगन से काम करता है सत्ता और संगठन में शीर्ष पद पर पहुँच सकता है। लेकिन, क्या ये बात संजय पाठक के संदर्भ में सही साबित होती है? पाठक कांग्रेस से भाजपा में आए और प्रदेश सरकार में मंत्री बन गए। वे प्रदेश सरकार में स्वतंत्र प्रभार वाले राज्यमंत्री हैं। उनके पास सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग मंत्रालय संभालते हैं, पर उनका खुद का कारोबार न सूक्ष्म है, न लघु और न मध्यम! वे भारी भरकम कारोबार वाले आसामी है। वे मंत्रिपरिषद के सबसे रईस मंत्री भी हैं। विधानसभा चुनाव के समय ही उन्होंने अपनी संपत्ति 141 करोड़ रुपए घोषित की थी। क्या ये सरकार और पार्टी संगठन में जमीनी कार्यकर्ताओं की भारी उपेक्षा नहीं है।
  आज भ्रष्टाचार के कटघरे में भले ही अफसरों को खड़ा किया जाता हो! पर, सच ये है कि पूरी व्यवस्था ही चौपट है। प्रदेश के सरकारी दफ्तरों के चपरासी से लगाकर बाबू तक के हाथ आरोपों से सने हुए हैं! सरकारी बाबुओं और राजस्व के सबसे छोटे कर्मचारी पटवारियों तक के यहाँ छापों में करोड़ों रुपए मिल रहे हैं! पकडे गए नोट गिनने के लिए मशीनों का इस्तेमाल करना पड़ता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलने वाली सरकारी एजेंसियों ने पिछले कुछ सालों के दौरान हजारों करोड़ रुपए की काली कमाई उजागर की! इन छापों से यह बात स्पष्ट हो गई कि सरकारी व्यवस्था का पूरा अमला ही भ्रष्टाचार में डूबा है। अफसरों के घर में नकदी और जेवरात रखने के लिए जगह नहीं है। कोई अपनी काली कमाई बिस्तर में छिपा रहा है तो किसी ने बैंक लॉकर नोटों से भर रखे हैं। बेनामी संपत्ति का तो अम्बार लगा है। प्रदेश में भ्रष्टाचार के किस्सों की कमी नहीं है! हर किसी के पास एक नई कहानी है। बड़े अफसर से लेकर पटवारी तक करोड़पति बन गए!
  आयकर विभाग की गोपनीय रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में ऐसी कंपनियों के नाम सामने आए हैं, जिन्होंने हजारों करोड़ रुपयों को काले से सफ़ेद में बदल दिया! ये कंपनियां काली कमाई को नकद में लेकर उन्हें लोन या शेयर कैपिटल के रूप में चेक से लौटा रही हैं। ये आंकड़े असेसमेंट में पकड़े गए हैं। आयकर विभाग का मानना है कि कई मामलों में तो फर्जी कंपनी की पड़ताल ही नहीं हो पाती। कर्ताधर्ताओं के पास बड़ी संख्या में कागजी कंपनी और उनके बैंक अकाउंट होते हैं। इन कंपनियों में डायरेक्टर अपने मातहतों को बनाकर उन्हें लिस्टेड करा लिया जाता है। दरअसल, नौकरशाहों की पहचान कारपोरेट घराने के प्रतिनिधियों की रह गई है। इस प्रतिनिधि को वेतन तो जनता की कमाई से मिलता है, लेकिन वह काम किसी बड़े घराने के लिए करता है!
  उद्योगपतियों की फाइलें सरकारी दफ्तरों में तेजी से दौड़ती हैं, लेकिन, किसी परेशान की पेंशन की फाइल पर से धूल तक नहीं झड़ती! इसलिए कि ज्यादातर लोग व्यवस्था का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाते! उन्हें ऐसा न करने और व्यवस्था से मिलकर चलने की सलाह ही ज्यादा मिलती है। जो व्यवस्था से लड़ने की कोशिश भी करते हैं, उनके पास कोई विकल्प नहीं होता, जहां उसकी बात सुनी जाए! क्या ये सच नेताओं से छुपा है? इस मसले पर सरकार से नाराज चल रहे बाबूलाल गौर की टिप्पणी सटीक है कि दोष घोड़े का नहीं उसका है जिसके हाथ में घोड़े की नकेल है! नौकरशाही प्रशासक की इच्छा शक्ति के आधार पर ही काम करती है। यह कहना उचित नहीं है कि अफसर सुनते नहीं! उनसे काम कराने का तरीका आना चाहिए। यानी घोड़े का दोष नहीं है, आपको अच्छी घुड़सवारी आनी चाहिए। घोड़ा कभी-कभी दुलत्ती भी मारता है तो उसे कंट्रोल करने का तरीका आना चाहिए।
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