- हेमंत पाल
कांग्रेस के दिग्विजय सिंह ऐसे नेता हैं जो कब, क्या कर दें, कोई समझ नहीं सकता! पहले उन्होंने 'नर्मदा परिक्रमा' करके सियासत को चौंकाया, अब वे प्रदेशभर में एकता यात्रा निकालकर 'पंगत में संगत' के जरिए सुप्त पड़ी पार्टी को जागृत करने में लगे हैं। इन दिनों वे प्रदेशभर में बिखरे कांग्रेसियों को एक कर रहे हैं। वे पंगत की कसम खिलाकर वादा ले रहे हैं, कि पार्टी जिसे भी उम्मीदवार बनाए, सब मिलकर काम करेंगे और पार्टी को जिताएंगे! इसे भले ही राजनीतिक पाखंड माना जाए, पर इस एक कोशिश ने पार्टी में जागरूकता जरूर फैलाई है! दिग्विजय सिंह के निशाने पर भाजपा की वे 165 सीटें हैं, जहाँ इस पंगत के बहाने कांग्रेस के सही उम्मीदवार को खोजा जाना है। यदि इस पंगत के नमक में दम हुआ तो कोई विद्रोह नहीं कर पाएगा, वरना कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है! पार्टी जो भी पाएगी, उसे इसी पंगत का असर ही माना जाएगा!
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कांग्रेस की सियासत में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे कभी हाशिए पर नहीं होते! राजनीति के इस धुरंधर खिलाड़ी की 'पंगत में संगत' से मध्यप्रदेश की राजनीतिक की दशा व दिशा में बड़ा बदलाव आता दिखाई देने लगा है। उन्हें राजनीति का चाणक्य वैसे ही नहीं कहा जाता! इतिहास गवाह है कि उन्होंने कई बार हारी हुई बाजी को पलटा है। नर्मदा परिक्रमा पूरी करने के बाद राजनीतिक सक्रियता की पहली सीढ़ी चढ़ते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा था कि उनका लक्ष्य कांग्रेस को एकजुट और मजबूत करना है। इसके लिए वे एकता यात्रा निकालकर 'पंगत में संगत' का फार्मूला आजमाएंगे! जिसमें सभी कांग्रेसी नेता एक जगह मिलकर भोजन करेंगे! इस कार्यक्रम के माध्यम से सभी कांग्रेसियों को जोड़ेंगे। कांग्रेस में आपसी मनमुटाव समाप्त करने के लिए हम सभी ने चर्चा की है, कांग्रेस की जीत के लिए सभी नेताओं को साथ आना होगा।
दरअसल, 'पंगत में संगत' का फार्मूला मूलतः दिग्विजय सिंह का नहीं है। ये सिखों के महान गुरुओं की शिक्षा का हिस्सा है। उन्होंने ही बताया था कि इंसानियत के सिद्धांतों के मुताबिक संगत से ही बिना किसी धर्म, जाति, लिंग, नस्ल या रंग के एकता आती है। जब लोग इकट्ठे बैठकर पंगत अथवा एक पंक्ति में बैठकर लंगर छकते हैं, तो दिल में सामंजस्य का भाव पनपता है। 'संगत' और 'पंगत' की यह विचारधारा सिख धर्म की धुरी है और 15वीं सदी से इंसानियत का मार्गदर्शन करती आ रही है। सबसे पहले गुरु नानकदेव जी ने लंगर प्रथा शुरू की और यह प्रथा एक विचारधारा का रूप धारण करती हुई सारी मानवता को सद्भावना और समानता की नैतिक मूल्यों के लिए प्रेरित करती आ रही है। अब इसे दिग्विजय सिंह ने इसका राजनीतिक उपयोग पार्टी को एकजुट करने के लिए किया है, जो एक सही प्रयास है।
दिग्विजय सिंह की एकता यात्रा अभी तक प्रदेश के करीब आधे जिलों में पहुँच चुकी है। 'पंगत में संगत' का आयोजन भी हुआ! लेकिन, कहा नहीं जा सकता कि ये प्रयास पूरी तरह सफल रहा है। इसकी सफलता का आकलन तो उम्मीदवारी की घोषणा के बाद ही होगा! तभी सच्चाई सामने आएगी कि 'पंगत में संगत' कितनी असरकारक रही! अभी किसी पंगत में विवाद जैसे हालात नहीं बने हैं कि रायता ढुला हो! इसका कारण दिग्विजय सिंह का दबदबा भी माना जा सकता है। उनके सामने कोई खुलकर विरोध कर सके, ऐसा संभव नहीं है। लेकिन, पंगत ने भाजपा को परेशान तो कर दिया! क्योंकि, कांग्रेस का बिखराव और आपसी फूट का फ़ायदा भाजपा को मिलता रहा है। फूलछाप कांग्रेसी छुपकर भाजपा की मदद करते रहे हैं। इस बात को दिग्विजय सिंह ने भी महसूस किया और उन्होंने ट्वीट करके शिवराज सरकार और भाजपा पर हमला भी बोला! उन्होंने लिखा कि कांग्रेस की इस एकता यात्रा में आयोजित हो रही 'पंगत में संगत' में आ रही भीड़ देखकर भाजपा रायता फैलाने की कोशिश कर रही है। उन्होंने कार्यकर्ताओं को नसीहत देते हुए कहा है कि भाजपा के षडयंत्र में फंसकर ऐसा व्यवहार न करें, जिससे कांग्रेस को नुकसान हो। उन्होंने लिखा कि भाजपा में घबराहट होना स्वाभाविक है। क्योंकि, जनता में भाजपा के विरुद्ध आक्रोश है। अमित शाह भी निर्देश दे गए हैं कि दिग्विजय को घेरो!
दस साल तक प्रदेश के मुख्यमंत्री रहने के बाद दिग्विजय सिंह अपनी इच्छा से सक्रिय राजनीति से दूर रहे! लेकिन, अब जबकि वे सक्रिय हुए हैं, राजनीतिक गलियारों में उनकी धमक को महसूस किया जाने लगा है! इस बीच अल्पसंख्यकों को लेकर उनके कई बयान विवाद भी बने! फिर भी कांग्रेस में कोई भी उनके कद को कोई कम नहीं कर सका। ऐसे भी मौके आए, जब उनके बयान पार्टी की फजीहत का कारण बने! फिर भी कांग्रेस में उनका वजन बना रहा। मुस्लिमों के पक्ष में आवाज बुलंद करने वाले दिग्विजय सिंह के बारे में बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे बेहद कर्मकांडी हैं और हिंदू परम्पराओं का कड़ाई से पालन करते हैं। स्वरूपानंद स्वामी के शिष्यों में एक दिग्विजय सिंह स्नान, ध्यान व पूजा पाठ करने के बाद ही दिन की शुरुआत करते हैं। उन्होंने अपनी नर्मदा परिक्रमा को आध्यात्मिक और धार्मिक अवश्य घोषित किया, परंतु उनका राजनीतिक चोला उनसे विलग नहीं हुआ! दिग्विजय इस यात्रा के जरिए प्रदेश की राजनीति की नब्ज समझ चुके हैं और अब वे उसी के मुताबिक अपना दांव खेल रहे हैं।
याद कीजिए, दिग्विजय सिंह की छह महीने से ज्यादा लंबी नर्मदा परिक्रमा को पहले भाजपा ने गंभीरता से नहीं लिया था। ये तक कहा गया था कि दिग्विजय सिंह की राजनीतिक पारी अब पूरी हो गई, इसलिए वे वैराग्य की दिशा शुरू करने के लिए नर्मदा की परिक्रमा के लिए निकल पड़े हैं। लेकिन, भाजपा की इस नासमझी का सही जवाब उन्हें जल्दी ही मिल गया, जब उनकी नर्मदा परिक्रमा के साथ भीड़ जुटने लगी! इस यात्रा को कांग्रेस का भी समर्थन मिलने लगा! नर्मदा किनारे के गाँवों में दिग्विजय सिंह का माहौल बनता दिखाई दिया! लेकिन, 9 अप्रैल को परिक्रमा कि समाप्ति के बाद दिग्विजय सिंह ने जिस तरह सियासत की बिसात पर 'पंगत में संगत' के मोहरे चले, भाजपा की सियासत को कंपन महसूस होने लगा!
कांग्रेस को एक बड़ा फ़ायदा दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा ये हुआ कि उसका सॉफ्ट हिंदुत्व वाला बदलाव सटीक बैठ गया! अपने गुरु शंकराचार्य के आशीर्वाद से उन्होंने यह परिक्रमा की! इस परिक्रमा का सीधा सा मतलब था कि वे उस हिंदुत्व की तरफ झुके, जिससे अभी तक कांग्रेस बचती आई है। उन्होंने अपनी इस परिक्रमा को पूरी तरह धार्मिक और आध्यात्मिक कहा था। लेकिन, दिग्विजय सिंह कितनी भी सैक्यूलर पॉलिटिक्स करें, व्यक्तिगत तौर पर वे बेहद धार्मिक और आस्थावान हैं। कहने वालों का तो ये भी इशारा है कि कांग्रेस उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनाव से जिस सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ बढ़ी है, दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा उसी कड़ी को आगे बढ़ाने के लिए थी! आमतौर पर उन्हें मुस्लिम हित रक्षक नेता माना जाता है। लेकिन, नर्मदा परिक्रमा के दौरान रास्ते के आने वाले हर मंदिर में माथा टेकना कांग्रेस की बदलती भविष्य की रणनीति का ही संकेत था। गुजरात में राहुल गाँधी का मंदिरों में जाना और दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा के अलावा भी कई ऐसी घटनाएं हैं, जो कांग्रेस की आत्मा में हिंदुत्व के प्रवेश का संकेत देती हैं। चित्रकूट उपचुनाव में कांग्रेस की जीत से उत्साहित कांग्रेसियों ने जिस तरह 'जय श्रीराम' के नारे लगाए थे, वो इस बदलाव का संकेत ही था!
अब देखना है कि 'पंगत' की ये 'संगत' कितना असर करेगी? पर, राजनीति में हमेशा ही पंगत का अंत भोज लुटने से होता रहा है! संगत को युद्ध करते हुए पंगत का भोजन हांसिल करना होता है! ऐसे में वही भोजन कर पाता है, जो ताकतवर होता है! कांग्रेस में पंगत लूटने की परंपरा बहुत पुरानी है! लेकिन, दिग्विजय सिंह की 'पंगत' में अभी तक तो ऐसा क़ुछ नहीं हुआ! कुछ जगह पंगत में पंगा जरूर हुआ, पर इतना नहीं कि उसे बाजीराव भोज कहा जाए! दरअसल, ये शिविरों की सांकेतिक भाषा है, जिसमें छीनकर भोज किया जाता है। अभी ये हालात तो नहीं आए हैं कि पंगत लुटे या पंगा हो! लेकिन, सारा दारोमदार इस बात पर है कि टिकट बंटने के बाद भी ये भावना बनी रहती है या नहीं? कांग्रेस में एकता के समंदर का पानी घटने से गुटबाजी के जो टापू उभर आए थे, वे इस 'पंगत से संगत' से फिर एकता के समंदर में समा गए तो दिग्विजय सिंह के प्रयास को सफल माना जाएगा! यदि ये प्रयोग असफल होता है तो शायद ये कांग्रेस के लिए आत्मघाती कदम होगा!
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