Saturday, July 7, 2018

सिनेमा यानी दर्शक का नायकत्व!


- हेमंत पाल 

   क सहज सवाल है कि लोग फ़िल्में क्यों देखते है? क्या सिर्फ मनोरंजन के लिए, अपनी पीड़ा को भुलाने के लिए या फिर एक कहानी को सामने घटित होते देखकर कुछ सीख लेने के लिए? इसके अलावा भी कुछ कारण ढूंढे जा सकते हैं। यदि बात सिर्फ हिंदी सिनेमा की ही की जाए, जिसे सौ साल से ज्यादा समय हो गया तब भी ऐसा जवाब शायद नहीं मिले, जो संतोषजनक हो! दरअसल, फिल्मों का मूल मकसद लार्जर देन लाइफ होता है। सिनेमा की कहानियाँ व्यक्ति के सपनों को हवा देने का काम सबसे ज्यादा करती है। सिनेमा के पात्र लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जिस संघर्ष से गुजरते हैं उस तक पहुँचने की उनकी यात्रा संघर्षपूर्ण, नाटकीय, भावुक और घटनापूर्ण होती है। उस यात्रा से दर्शक के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ता है। पात्रों का अभिनय, उनकी नाटकीयता और संघर्ष उसके लिए आदर्श रचते हैं और वह उसे अपने जीवन से जोड़ लेता है। उसे लगता है कि जब यह पात्र ऐसा कार्य कर सकता है, तो वो क्यों नहीं?
   इस तरह सिनेमा का काम समाज के लिए एक आदर्श की रचना करना भी है, जहाँ वह लक्ष्य की प्राप्ति, सपने, संघर्ष और बदले के जरिए बेहतर मनुष्य के निर्माण में सहयोग देता है। सिनेमा में दिखाए गए सपने मनुष्य के अपने होते हैं, जिन्हें वह पूरा नहीं कर पाता है और उन्हें पूरा करने के लिए प्रयासरत रहता है। सिनेमा के पात्र, नायक, नायिका उसके लिए आदर्श बन जाते हैं और उसके लिए मार्गदर्शक का कार्य करते हैं। आम जीवन में जो नहीं होता, फ़िल्में वह दिखाती हैं और लोगों की उम्मीदों, इच्छाओं, सपनों और सफलताओं को मुखर बनाती हैं। आदमी जो काम अपने जीवन में नहीं कर सकता, उसे सिनेमा में होता देखकर खुश हो जाता है।
  आदमी जब दर्शक के रूप में फिल्म देखता है, वह समय, समाज, यथार्थ और परिस्थितियों से भी कट जाता है। वह ऐसे संसार में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसकी संपूर्ण चेतना सिनेमा के नायक पर केन्द्रित हो जाती है! उसे लगता है कि वही वो नायक है जो शत्रुओं का संहार कर रहा है। दर्शक जब सिनेमा हॉल से बाहर निकलता है, तब उसका मन जोश, साहस, वीरता, प्रेम, दयालुता, करुणा, दोस्ती जैसे मानवीय गुणों से परिपूर्ण होता है। उसे लगता है कि वही 'मुग़ले आज़म' का नायक दिलीप कुमार है, वही 'एक था टाइगर' का हीरो सलमान ख़ान है, वही 'बाजीगर' का शाहरुख ख़ान है। दर्शक चाहे समाज के किसी भी वर्ग का हो वह वो नायक बन जाता है, जो उसे अपने असल जीवन में नसीब नहीं होता! नायकत्व का यही सोच दर्शक को सबसे ज्यादा भाता है। 
  हर फ़िल्म किसी न किसी मनुष्य के जीवन का प्रतिनिधित्व करती है। किसी का कुछ कम तो किसी का ज्यादा! ऐसा कोई समाज, धर्म, कार्य या ज्ञान नहीं है जिसे फ़िल्मों में दिखाया न गया हो! इसे दिखाने के लिए एक अदना सा चरित्रवान मनुष्य चुना जाता है जो उसका प्रतिनिधित्व कर सके! उसका नायक बन सके और समाज के सामने एक उदाहरण बन सके। वास्तव में सिनेमा जन को नायकत्व प्रदान करने का माध्यम बन गया है। इसीलिए समाज के हर वर्ग में सिनेमा की लोकप्रियता असीमित है। इसके अलावा सिनेमा ही वह माध्यम है जो किसी आम आदमी को नायक बना देता है। इतिहास गवाह है कि सौ सालों से ज्यादा के सिनेमा ने न जाने कितने जन को नायक बना दिया! जबकि, सामान्यतः ऐसा होता नहीं है। इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में ऐसा नहीं होता जो फ़िल्मों में हो सकता है।
 ये भी नितांत सच है कि जीवन को संपूर्णता में देखना, हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं है! परंतु, सिनेमा उसे जीवन की संपूर्णता के साथ दर्शाता है। 'चक दे इंडिया' हो या 'भाग मिल्खा भाग' जीवन की संपूर्णता का आख्यान इन फ़िल्मों में सफलता से उभरा है। 'मदर इंडिया' में नरगिस का अपने बेटे को गोली मारना जीवन का कड़वा सच हो सकता है, लेकिन उसे छोड़ देने से वह कहानी अधूरी ही रह जाती! लगता कि जैसे कुछ बाकी रह गया, जिसका इंतजार दर्शक करता रहता है। सिनेमा का अपना अलग ही जीवन दर्शन होता है, जिसे सिनेमा ने हर स्तर पर भुनाने की कोशिश की है। इस कोशिश में कभी व्यक्ति के संघर्ष को दिखाया गया, तो कभी परिस्थितियों, कुरीतियों, मर्यादाओं और समस्याओं से नायक का संघर्ष दर्शाया गया है, जो मनुष्य की सफलता में बाधक बनती हैं। अपने जीवन में मनुष्य चाहे संघर्ष करता हुए जीत न पाए, किंतु सिनेमा में उसे जीतना ही होता है। क्योंकि, यही तो नायकत्व है जिसे दर्शक देखना चाहता है!
--------------------------------------------------

No comments: