Saturday, July 7, 2018

शैतान को साधु बनाने की सूत्रधार है 'संजू'


- हेमंत पाल

   इन दिनों बाॅक्स ऑफिस पर कमाई के रिकॉर्ड बना रही फिल्म 'संजू' को लेकर अजब सा माहौल खड़ा किया जा रहा है। ये साबित करने की कोशिश  है, जैसे यह फिल्म संजय दत्त के लिए पाप मोक्षनी गंगा है! जिसमें डुबकी लगाकर संजय दत्त उस पाप से मुक्त हो गए, जो उन्होंने किए या जिसे करने का उन पर आरोप लगे थे। फिल्म के निर्माता निर्देशक राजू हीरानी से लेकर संजय दत्त का गुणगान करने वाले तमाम लोग फिल्म को आधार बनाकर संजय के सीने पर ईमानदारी का तमगा टांगने की कोशिशों में जुट गए! इस मसले पर संजय के मित्र और पत्रकार प्रीतिश नंदी ने अपनी कलम को स्याही के बजाए सोने के पानी में डूबोकर एक लेख लिखा है। इसका शीर्षक है 'संजय दत्त जैसी शख्सियत होना आसान नहीं' इसका उप शीर्षक और ज्यादा चौंकाता है 'घोर विपत्तियों में भी अविचलित रहकर बर्दाश्त करने वाले बहादुर और अत्यंत ईमानदार इंसान!'
   सारा माजरा देख और सुनकर लगता है मानों हर कोई किसी शैतान को साधु बनाने की कोशिश कर रहा है। हर कोई अपना योगदान देने की कोशिश उसी तरह से कर रहा है, जैसे वह किसी पावन यज्ञ में अपनी पूर्णाहुति दे रहे हों! कभी-कभी तो ऐसा लगने लगा, जैसे फिल्मकार का मकसद फिल्म बनाना नहीं, बल्कि अपने प्रिय नायक के तमाम दोषों पर मखमली आवरण चढ़ाकर इस तरह से पेश करना है, जैसे कानून ने उसे अपराधी मानकर बड़ी भूल की है! फिल्म में संजय दत्त को अपराधी करार देने का सारा दोष मीडिया के माथे मढ़कर मुंबई बम धमाके में मारे गए 257 लोगों की जान का इतना सस्ता मोल लगाया गया।
   सारा देश उस असली 'संजू' की हकीकत जानता है, जिसे इस फ़िल्मी 'संजू' के जरिए उलटने का प्रयास किया गया है। अब यदि सीमा पार से आई हथियारों की खेप को अजंता आर्टस स्टूडियो में रखना और आतंकवादियों से गलबाहियां करते हुए एके-47 जैसे घातक हथियार रखने को बहादुरी और 308 लड़कियों के साथ हम-बिस्तर होने का इकरार किए जाने को ही ईमानदारी कहा जाए तो तमाम शब्दकोषों में बहादुरी और ईमानदारी के नए मतलब गढ़ना होंगे। पूरी फिल्म में यह कहने की भी कोशिश की गई है, कि यदि संजय दत्त ने नशाखोरी की तो इसके लिए वह नहीं बल्कि वह परिस्थिति जिम्मेदार हैं! वो दोस्त जिम्मेदार हैं, जिसने उसे नशे की लत लगाई।
  अपराधियों और आतंकवादियों से उनकी दोस्ती को उसका भोलापन बताया गया! 308 यौन शोषित लड़कियों की संख्या याद करने को ऐसा चित्रित किया गया, जैसे वह अपने हाथों में माला लेकर 108 मनकों को घुमाते हुए इष्ट देवता का जाप कर रहा हो! यह भी संयोग है कि पिछले दिनों यौन शोषण के जितने भी मामले सामने आए, उनमें किसी न किसी 'बाबा' का नाम सामने आया है। फिर संजय दत्त को प्यार से ही सही 'बाबा' तो पुकारा ही जाता है। अब यदि कल उन पर 308 लड़कियों में से किसी के यौन शोषण का कोई मामला उठता है तो इसके लिए भी शायद यह दलील दी जाएगी कि यह उनका नहीं उनके नाम में 'बाबा' होने का नतीजा है!
  किसी व्यक्ति के जीवन के पन्नों को खोलकर उसे दर्शकों के सामने रखना गलत बात नहीं है। लेकिन, इसे आधी हकीकत आधा फसाना का नाम देकर तथ्यों को गलत तरीके से पेश करना भी अच्छी बात नहीं है। यदि दूसरी बायोपिक की तरह 'संजू' बाॅक्स ऑफिस पर घुटने टेक देती, तो शायद इतनी चर्चा भी नहीं होती! किंतु, फिल्म की कामयाबी ने संजय दत्त को एक बार फिर जनता की अदालत में बेगुनाह साबित करने का काम किया है।  सवाल  होता है कि उसे बेगुनाह साबित करने के लिए क्या मीडिया को कटघरे में खड़ा करने की जरूरत थी?
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