Saturday, July 21, 2018

मोशन फिल्मों का 'नो-कांफिडेंस मोशन'


- हेमंत पाल

  फिल्म और राजनीति में एक जाना-अनजाना सा रिश्ता है। दोनों ही सामाजिक सरोकार से जुड़े होने का दावा करते हैं। ये बात अलग है कि आजकल फिल्म और राजनीति दोनों का ही समाज से कोई सरोकार नहीं होता। दोनों ही अपनी स्वार्थ सिद्धि का माध्यम बनकर रह गई हैं। फिल्मों और राजनीति का यह घालमेल बहुत पुराना है। कभी राजनीति पर फिल्में बनती है, तो कभी राजनीति में फिल्मी ड्रामेबाजी देखने को मिलती है। कभी नेता सेल्युलॉइड पर अपनी चमक बिखेरते हैं, तो कभी फिल्मकार राजनीति पार्टियों का झंडा थामे दिखाई देते हैं। दक्षिण भारत में यह सिलसिला कुछ ज्यादा ही देखने को मिला है।
    हाल ही में संसद में फुल फिल्मी ड्रामा देखने को मिला! सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ने ही बेहतरीन फिल्मी मेलोड्रामा प्रस्तुत करने का कमाल दिखाया। राहुल गांधी ने जहां प्रधानमंत्री के गले लगकर (या पड़कर) तमाशा किया, तो प्रधानमंत्री ने भी फिल्मी अंदाज में अपना जवाब पेशकर तालियां बटोरने का कमाल किया। अवसर था सरकार के खिलाफ 'नो-कांफिडेंस मोशन' का! नो-कांफिडेंस का ये सिलसिला सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं है! फिल्मों के प्रदर्शन के बाद दर्शक भी उन फिल्मों के प्रति नो-कांफिडेंस प्रदर्शित किया जाता रहा है। अक्सर दर्शक फिल्मों के प्रति अपना 'नो-कांफिडेंस मोशन' साबित करने में सफल रहते हैं! कभी-कभी इस 'नो-कांफिडेंस मोशन' के बाद भी फिल्में उसी तरह से सफल हो जाती है, जैसे मौजूदा सरकार इसे धकेलकर अपनी साख बचाने में सफल रही है।
   हमारे यहां मोशन फिल्मों के प्रति दर्शकोें के अविश्वास का सिलसिला भी काफी पुराना है। बॉलीवुड में ग्रेटेस्ट शो-मैन के नाम से विख्यात राज कपूर को आरके फिल्म्स के बैनर तले 1948 में निर्मित पहली फिल्म 'आग' में ही दर्शकों का नो कांफिडेंस झेलना पड़ा था। यह अपने समय की सुपर फ्लॉप फिल्म थी। उसके 5 साल बाद 'बरसात' जैसी फिल्मों की सफलता के कांफिडेंस से भरपूर राजकपूर ने 1953 में 'आह' बनाई! लेकिन, दर्शकों ने उसके प्रति भी अपना नो-कांफिडेंस ही व्यक्त किया। इसके बाद लम्बे अरसे तक राज कपूर सफलता में झूमते रहे! लेकिन, 1970 में उन्होंने अपनी सबसे बड़ी और महंगी फिल्म 'मेरा नाम जोकर' बनाई, पर दर्शकों ने एक बार फिर इसके प्रति अपना 'नो-कांफिडेंस मोशन' पारित कर दिया।
  बाॅलीवुड की त्रिमूर्ति देव आनंद, दिलीप कुमार और राज कपूर में केवल राज कपूर की फिल्मों के प्रति ही दशकों ने नो-कांफिडेंस प्रकट किया हो, ऐसी बात नहीं है। देव आनंद के निर्देशन में बनी पहली फिल्म 'प्रेम पुजारी' के प्रति भी दर्शकों का प्रेम नहीं बरसा, बल्कि नो-कांफिडेंस ही ज्यादा दिखाई दिया! उनकी तीन फिल्में फ्लॉप होती, तो चौथी इतनी हिट हो जाती कि उन्हें फिर तीन फिल्में मिल जाती! इसीलिए कभी-कभी देव आनंद को लीप-हीरो भी कहा गया! यह बात काबिले तारीफ है कि 1977 में प्रदर्शित 'देस परदेस' के बाद उनकी कोई फिल्म हिट नहीं हुई! लेकिन, फिर भी वे अगले 35 साल तक फिल्में बनाते हुए बाॅलीवुड में लोकप्रिय बने रहे! दिलीप कुमार ने 'लीडर' और 'दिल दिया दर्द लिया' के निर्माण में सहयोग दिया, लेकिन दर्शकों से उन्हें नो-कांफिडेंस ही मिला।
  बडे बजट बनने वाली फिल्मों में शान, शानदार, बाम्बे वैलेट, रूप की रानी चोरों का राजा, काइटस, अशोका, लव स्टोरी-2050, रावण, मंगल पांडे, सांवरिया, राजू चाचा, ब्ल्यू, द्रोणा, अजूबा, बेशरम, राम गोपाल वर्मा की आग जैसी फिल्में शामिल हैं! ऐसी बात नहीं कि आज बाक्स ऑफिस पर पैसा बनाने की मशीन माने जाने वाले सलमान खान या शाहरूख खान की फिल्मों के प्रति दर्शकों ने नो-कांफिडेंस प्रकट नहीं किया। पिछले साल ही इन दोनों की फ़िल्में 'ट्यूब लाईट' और 'जब हेरी मेट सेजल' के प्रति दर्शक अपना नो-कांफिडेंस प्रकट कर चुके हैं। 
  कभी-कभी ऐसा भी होता है कि शुरूआत में फिल्मों के प्रति दर्शक अपना नो-कांफिडेंस दिखाते हैं, बाद में फिल्में मौजूदा सरकार की तरह अपने आपको बचा ले जाती है। इतिहास बनाने वाली 'शोले' का पहला सप्ताह ऐसा ही ठंडा गुजरा था। बाद में दर्शकों ने उसके प्रति अपना कांफिडेंस जताया! 'पाकीजा' और 'गाइड' की कहानी भी ऐसी ही है। दशकों पहले 'कागज के फूल' और 'मेरा नाम जोकर' के प्रति दर्शक अपना नो-कांफिडेंस जता चुके थे! लेकिन, यह दोनों फिल्म आज हिन्दी सिनेमा की सबसे बेहतरीन फिल्मों में मानी जाती है। इससे यही लगता है कि समय के साथ 'नो कांफिडेंस मोशन' के मायने भी उसी तरह से बदलते रहे हैं, जैसे राजनीति में समय-समय पर इसके अर्थ बदलते रहे हैं।
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