Sunday, May 19, 2019

एक हादसा है, हाॅलीवुड का ये तमाशा!

- हेमंत पाल

  बाॅक्स आफिस के शीशे चटखाने वाली हाल ही में रिलीज हॉलीवुड फिल्म 'एवेंजर्स: एंडगेम' की भारत में सफलता निश्चित ही सिने प्रेमियों के मन में हलचल पैदा करती है। सवाल उठाती है, कि क्या हमारी संवेदनाओं पर खोखली अवधारणाएं हावी होती जा रही है? अभी तक 3 बिलियन डाॅलर यानी 20 हजार करोड रूपए कमाने वाली इस फिल्म के किरदारों और कथा वस्तुओं को देखा जाए तो इसमें कहीं भी मानवीय संवेदना के दर्शन नहीं होते। छोटे से प्रसंगों से आँखों का दरिया छलकाने वाले भारतीय दर्शक भी इस फिल्म को आँख फाड़-फाड़कर इस तरह देख रहे हैं, जैसे उनके सामने कोई तमाशा हो रहा हो! ऐसा तमाशा जो उनके दिमाग को सुन्न करके संवेदनहीन बना रहा है। 
    ये बात 'एवेंजर्स : एंडगेम' तक सीमित नहीं है। हम अपनी याददाश्त पर जोर दें, तो पाएंगे कि इससे कहीं ज्यादा बिजनेस करने वाली जेम्स कैमरून की फिल्म 'अवतार' भी हॉलीवुड का ऐसा ही तमाशा था, जो हमारी इस दुनिया में घटित होने वाली घटनाओं से परे और अविश्वसनीय था। इसके नीले- हरे रंगों से रंगे पात्रों ने फोटो सिंथेसिस की प्रक्रिया को पूरा करके प्राकृतिक रूप से ऑक्सीजन का उत्सर्जन करने में भले ही सफलता न पाई हो! लेकिन, सिनेमाघरों में बैठे करोड़ों दर्शकों की सांसों को तेज कर कार्बन डाई आक्साइड की परत को और घना बनाते हुए बाॅक्स ऑफिस पर पैसा लूटाने में कोई कोताही नहीं बरती! 
  यदि टाइटैनिक का घटनाक्रम और इससे जुडीं संवेदनाओं को बख्श भी दिया जाए, तो अभी तक हाॅलीवुड की तमाम कमाऊ फिल्मों ने ऐसा कोई काम नहीं किया, जिसमें रत्तीभर भी मानवीय संवेदना छलकी हों! स्टार वार्स: द फोर्स अवेकंस, एवेंजर्स : इंफिनिटी वार, जुरासिक वर्ल्ड, फ्यूरिस, एवेंजर्स : एज आफ अल्ट्रान और ब्लैक पैंथर जैसी फिल्मों में भले ही चकाचौंध का दरिया उछला हो! इनमें अविश्वसनीय घटनाओं का सैलाब उमड़ा हो, लेकिन इन फिल्मों में एक भी ऐसा घटनाक्रम नहीं था जिससे सिनेमाघर में बैठे दर्शक की भावनाएं उद्धलित हुई हों! हाॅलीवुड की पिछली फिल्में चाहे वह हैरी पाॅटर एंड द डेथली हाॅल, आयरन मैन, ट्रांसफार्मर्स : डार्क आफ द मून, लार्ड आफ द रिंग : रिटर्न आफ द किंग, द डार्क नाइट राइजेस, टाॅय स्टोरीज या द हाॅबिट : एन अनएक्सपेक्टेड जर्नी ही क्यों न हो! इन फिल्मों का तकनीकी पक्ष भले ही उजला हो, पर संवेदनाओं के नाम पर इन फिल्मों ने अमावस्या का स्याह अंधकार ही परोसा!  
  ऐसी बात नहीं कि हाॅलीवुड ने कभी संवेदनाओं को दर्शकों की आँखों के सामने उतारा ही नहीं! आरंभिक दिनों से लेकर पिछले दो दशक तक हाॅलीवुड ने ऐसी कई फिल्मों की सौगात दी, जो मानवीय संवेदनाओं को पूरे जज्बे के साथ रूपहले पर्दे पर पेश करने में कामयाब रही हैं। चार्ली चैप्लिन की फिल्मों में जीवन की कडवाहट के ऊपर हास्य की चाशनी चढाने का काम हॉलीवुड ने ही किया! सोफिया लाॅरेन जैसी अभिनेत्री की श्याम श्वेत फिल्म 'द टू वूमेन' देखकर अंग्रेजी न समझने वाले दर्शकों की ऑंखें भी छलछला जाती थी। बाॅलीवुड की दर्जनों फिल्में ऐसी हैं, जो मानवीय संवेदनाओं की अनुगामी और अग्रगामी रही हैं। लेकिन, आधुनिकता और तकनीकी सुविज्ञता की सुविधाओं ने लगता है हाॅलीवुड की संवेदनाओं को भी मशीनी बना दिया।  
  वास्तव में देखा जाए तो सिनेमा का बीज एक ऐसे बीज के साथ बोया गया था, जिसका मकसद एक संवेदनशील वृक्ष की तरह पल्लवित होकर सिनेमाधर में बैठे दर्शकों की संवेदनओं को उकेरकर मानवीय पक्ष को प्रतिपादित किया जा सके। यह पक्ष हमारी देशी फिल्मों में आज भी कायम है। राहत की बात है भारतीय फिल्मकारों की संवेदनाएं अभी सोई नहीं है। वह सुई धागा, पीकू, पिंक और इस लहर पर सवार इसी तरह की फिल्मों का निर्माण कर दर्शकों की संवेदनाओ को मरने से बचा रहे हैं। वरना हमारे कुछ फिल्मकार तो हाॅलीवुड की संवेदनहीनता की धार में बहकर उसी तर्ज पर फिल्में बनाने का दुःसाहस भी कर चुके हैं। पिछले दिनों प्रदर्शित सलमा-सितारों से जड़ी अमिताभ और आमिर खान अभिनीत 'ठग्स आफ हिन्दुस्तान' को दर्शकों ने ठुकराकर साबित कर दिया कि वे भले हाॅलीवुड की असंवेदनशीलता पर तालियां बजाते हों, लेकिन जब हिन्दुस्तानी सिनेमा से रूबरू होंगे तो मानवीय संवेदनाएं ही उनके लिए सर्वोपरि होंगी। यह बात हमारे फिल्मकार भी याद रखें, तो उनके लिए अच्छा होगा! अन्यथा हाॅलीवुड की भेड़चाल का शिकार होकर वह सिनेमाई हादसे का रचकर कंगाल होते रहेंगे।
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