- हेमंत पाल
जब से परदे पर फ़िल्में दिखाई जाने लगी हैं, इनमें एक लहर भी चलती रही! समय, दर्शकों की रूचि और व्यावसायिक कारणों से सिनेमा के कथानकों में बदलाव आता रहा! लेकिन, ज्यादातर विषय ऐसे रहे, जिनमें देखने वाले का मनोरंजन हो! जब सिनेमा थोड़ा समृद्ध हुआ तो कथानकों को जीवन से जोड़ा जाने लगा, ताकि दर्शक को लगे कि जो वो देख रहा है वो सब वास्तविकता के नजदीक है। एक समय था जब ऐसे विषयों को कला सिनेमा का दर्जा दिया गया। इसे व्यावसायिक सिनेमा की मुख्यधारा से हटकर एक नए विकल्प के रूप में देखा गया था। इसे सिनेमा में एक नए आंदोलन की तरह देखा गया। ऐसे विषयों को वास्तविकता के और नैसर्गिकता के साथ भी जोड़ा गया। ऐसे सिनेमा में नए कलेवर में सामाजिक घटनाओं को परदे पर उतारने की कोशिश की गई! सबसे पहले बंगाली सिनेमा में कला या सामानांतर सिनेमा का सत्यजीत रे, मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे सिनेमाकारों के जरिए प्रवेश हुआ। इसके बाद ही हिन्दी सिनेमा में इस शैली का प्रादुर्भाव हुआ।
माना जाता है कि सिनेमा में समानांतर फिल्मों की हवा सत्तर के दशक में काफी तेज थी। अंकुर, मंथन और निशांत जैसी फिल्मों को इसकी शुरूआत समझा जाता है! किंतु, इस सिनेमा का बीज तो 1920 से 1930 के दशक में ही पड़ गया था। 1925 में ही वी शांताराम ने एक मूक फिल्म 'सावकारी पाश' बनाई थी। फिल्म में एक किसान एक लालची साहूकार के कर्ज में अपनी जमीन गवां देता है। उसे पलायन करके शहर आता है और मजबूर होकर मिल मजदूर के रूप में काम करने लगता है। महिलाओं की दुर्दशा पर उन्होंने 1937 में 'दुनिया ना माने' बनाई थी, जो समानांतर फिल्म के शुरूआती उदाहरण हैं।
1940 से 1960 के बीच भी समानांतर सिनेमा ने फिर करवट ली। इस दौर में उसे सत्यजीत रे, ऋत्विक घटक, बिमल राय, मृणाल सेन, ख्वाजा अहमद अब्बास, चेतन आनंद, गुरूदत्त और वी.शांताराम ने पल्लवित किया। इस दौर की फिल्मों पर साहित्य की गहरी छाप थी। चेतन आनंद ने 1946 में 'नीचा नगर' बनाई जिसे पहले कॉन सिने फेस्टिवल में ग्रैंड प्राइज मिला था। 1950 से 1960 के दौर की अधिकांश फिल्मों में सरकारी पैसा लगा था, ताकि कला फिल्मों को पोषित किया जा सके! ऐसे फिल्मकारों में सत्यजीत रे का नाम सबसे ऊपरहै। बाद में इस परम्परा को श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, अदूर गोपालकृष्णन तथा गिरीश कासारावल्ली ने आगे बढ़ाया। सत्यजीत की सर्वाधिक प्रसिध्द फिल्मों में पाथेर पांचाली (1955), अपराजितो (1956) द वर्ल्ड आफ अप्पू (1959) प्रमुख हैं।
1970 और 1980 के दशक में समानांतर सिनेमा का नए सिरे से विकास हुआ। इस दौर में गुलजार, श्याम बेनेगल, बाबूराम इशारा और सईद अख्तर मिर्जा और उसके बाद महेश भट्ट और गोविन्द निहलानी ने ऐसी फिल्मों को बौद्धिक वर्ग से आगे बढ़ाकर आम दर्शकों से जोड़ने की कोशिश की। श्याम बेनेगल की 'अंकुर' को मिली सफलता के बाद ऐसी फ़िल्में बनाने वालों का हौंसला बढ़ा! ये वही दौर था, जब इसी दौर में शबाना आजमी, स्मिता पाटिल, रेहाना सुल्तान, अमोल पालेकर, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, कुलभूषण खरबंदा, पंकज कपूर, गिरीश कर्नाड के साथ समय-समय पर रेखा और हेमा मालिनी का भी साथ मिला।1990 के शुरू में निर्माण लागत बढ़ने के साथ फिल्मों के व्यावसायिकरण का असर समानांतर फिल्मों पर पड़ा। इस तरह की फिल्मों का निर्माण लगभग बंद ही हो गया। फिल्मों में सामाजिक समस्याओं के बजाए गैंगवार को ज्यादा जगह दी गई। लिहाजा समानांतर सिनेमा का सिलसिला थम सा गया।
समानांतर सिनेमा थोड़े बदले अंदाज में 2000 के बाद फिर लौट आया। इस दौर में प्रायोगिक फिल्मों के नाम से नए प्रयोग होने लगे। मणिरत्नम की दिल से (1998) और युवा (2004), नागेश कुकनूर की तीन दीवारें (2003) और डोर (2006), सुधीर मिश्रा की हजारों ख्वाहिशें ऐसी (2005), जानू बरूआ की मैने गांधी को नहीं मारा (2005), नंदिता दास की फिराक (2008) ओनिर की माय ब्रदर निखिल (2005) और बस एक पल (2006), अनुराग कश्यप की देव डी (2009) तथा गुलाल (2009) पियूष झा की 'सिकंदर' (2009 ) और विक्रमादित्य मोटवानी की 'उड़ान' (2009) से एक बार फिर समानांतर सिनेमा का अंकुरण होने लगा है। सफलता के नए कीर्तिमान बनाने वाली राजनीति, आरक्षण और कहानी जैसी फिल्मों को भी इसी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन, अब ये परंपरा वास्तविक सिनेमा की लहर में समा चुकी है।
------------------------------ ---------------
No comments:
Post a Comment