Saturday, May 11, 2019

मनोविकार से ग्रस्त नायकत्व!

- हेमंत पाल

  एक प्रेमी ने अपनी कथित धोखेबाज प्रेमिका की उसकी शादी के मंडप में सिर्फ इसलिए हत्या कर दी! क्योंकि, उसने शादी से इंकार कर दिया था! बाद में उस प्रेमी युवक का कहना था कि यदि वो मेरी नहीं हो सकी तो किसी की कैसे हो सकती है! दरअसल, ये घटना उस फ़िल्मी हीरो के नायकत्व की तरह है, जो नायिका को अपनी जागीर समझता है! जो उसे नहीं मिलती तो उसे ख़त्म करने से भी नहीं हिचकिचाता! समाज में घट रही ऐसी घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार और व्यक्ति की संवेदनहीनता पर मुहर लगाती हैं। आज के युवा को उसके अहंकार पर चोट आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी हर लीक को तोड़ने में पीछे नहीं हटता! लेकिन, आखिर ये प्रेरणा आई कहाँ से, समाज से तो नहीं तो फिर फिल्मों से ही आई होगी?
  हमारे बदलते सामाजिक जीवन मूल्यों की बानगी पेश करके दर्शकों का नए आयामों से साक्षात्कार फ़िल्में ही कराती हैं। सामान्यतः फिल्मों के नायक को मर्यादित आचरण वाला और नकारात्मकता से बहुत दूर माना जाता है! अभी तक यही देखा भी गया है। लेकिन, कुछ फिल्मों में जब नायक अपने इस चरित्र से हटता है, तब भी वह नायक ही रहता है! फिर क्या कारण था कि प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आसक्त नायक कुछ फिल्मों में हिंसक एवं क्रूर प्रेमी बना? यह सवाल वस्तुतः एक समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय भी है। क्योंकि, ऐसी फ़िल्में प्रेम के विकृत रूप का परिचय कराती है।
    प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में बॉलीवुड में खूब बनीं। एक समय ऐसा भी था, जब शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए थे। मनोविकार से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार परदे पर शाहरूख खान ने ही चरितार्थ किया था। ‘बाजीगर’ से प्रेम में हिंसा का जो दौर शुरू हुआ था, उसे बाद में ‘डर’ और ‘अंजाम’ से विस्तार मिला! इसी मनोविकारी नायक वाली छवि ‘अग्निसाक्षी’ में नाना पाटेकर की दिखी! इसमें नाना पाटेकर ‘स्लीपिंग विद द एनमी’ के नायक जैसे पति साबित होते हैं। ‘नाना इस फिल्म में प्रेम के दुश्मन के रूप में नजर आए थे। ऐसा पति जिसे पत्नी की तरफ किसी देखना भी गवारा नहीं था! 
   90 के दशक की शाहरुख़ खान की इन फिल्मों ने प्रेम में नफरत के तड़के का रूप प्रदर्शित किया था। ये ऐसे नायक का चरित्र था, जो चुनौतियों से भागता है। शाहरूख ने जो किरदार निभाया था, वो कुंठित नायक का प्रतिबिंब था, जो प्रेम को अधिकार की तरह समझता है। वह प्यार तो करता है, पर उसमें स्वीकारने का साहस नहीं है। वो न तो मेहनत करना चाहता है न उसमें सही नायकत्व है। सबसे बड़ी बात ये कि वो इंतजार करना भी नहीं जानता! ये नायक जिस तरह की हरकतें करता है, उसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी है। उसके लिए खून बहाना बड़ी बात नहीं होती! 'डर' के नायक को याद कीजिए जो नायिका के एक तरफ़ा प्रेम में इतना पागल हो जाता है कि उसके पति को मारने की साजिश करने से भी बाज नहीं आता! 
  उपभोक्तावाद के इस दौर में भोगवादी संस्कृति की अंधड़ में हमारा दार्शनिक आधार दरकने लगा है। यही कारण है कि फिल्मों में भी ऐसे नकारात्मक चरित्र गढ़े जाने लगे जो नायक होते हुए, प्रेम के दुश्मन बन जाते हैं। वास्तव में ये सिर्फ फ़िल्मी किरदार नहीं है! बल्कि, नवधनाढ्यों के उभार के बीच ऐसी कहानियां समाज के सच की गवाही हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और टेलीविजन इसी नकारात्मक प्रवृत्ति को आधार देते हैं। ऐसी फ़िल्में देखकर ही गैर-शहरी नौजवान गलत प्रेरणा लेकर भटक जाते हैं। वे परदे पर दिखाई जाने वाली घटनाओं को जीवन में उतारने की कोशिश जो करने लगते हैं।
  हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभाव और बाजारवाद से ग्रस्त रहा है। पश्चिमी जीवन की स्वीकार्यता बढ़ने के साथ ही समाज में नई तरह का संकट बढ़ेगा। इसके साथ ही प्रेम के क्रूर चेहरे को भारतीय दर्शकों पर थोपने की कोशिशें भी जारी हैं। इसे दुर्भाग्य ही माना जाना चाहिए कि ये सबकुछ प्रेम के नाम पर ही हो रहा है। वास्तव में ये हमारी फिल्मों के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें प्यार और सामाजिक रिश्तों को तिलांजलि दी जाने लगी है। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में वह उसे समाप्त कर देने पर आमादा हो जाता है, जो उसके मनोविकार का संकेत है। ऐसा नायकत्व समाज और मनोरंजन दोनों के लिए खतरनाक है!
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