Monday, May 27, 2019

'मौन' में छुपी वाचालता को पहचानिए!

  

 'मौन' क्या है, खामोश रहना या फिर बोलने की क्रिया का बंद हो जाना? वास्तव में ये 'मौन' जीवन की आंतरिक शक्ति है। देखा जाए तो वर्तमान दौर में बोलना एक कला है। व्याख्यान, संभाषण, उपदेश और वाकपटुता इसी कला के अलग-अलग आयाम हैं! किंतु, सबसे बड़ा है मौन रहना! क्योंकि, मौन की ताकत आपके बोल व्यवहार से कहीं ज्यादा प्रभावशाली है। मौन रहना या मौन रह पाना साधना के साथ वरदान भी है! मौन में सत्य को पहचानने और उसके परीक्षण की अद्भुत शक्ति होती है। जो व्यक्ति 'मौन' धारण करता है, उसकी विजयी होने की संभावना ज्यादा होती है! क्योंकि, प्रतिद्वंदी उसकी शक्ति को भांप नहीं पाता। वाचालता की स्थिति में चिंतन और शब्दों का चयन विपरीत भाव में रहते हैं! क्योंकि, तब बोलने के साथ ही सुनने की क्रिया भी आरंभ हो जाती है। यह स्थिति मानसिक धरातल पर अवरोध पैदा करती है और आत्मशक्ति घटाती है! ऐसे में एकाग्रता भी भंग होती है। अभिव्यक्ति की आजादी व बड़बोलेपन की पराकाष्ठा के बीच भी 'मौन' की शक्ति कभी कम नहीं है! 
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- हेमंत पाल 

    इंसान की पहचान पहले उसके काम और उसके बाद बोल व्यवहार से होती है। ऐसे कई अवसर आते हैं, जब व्यक्ति के बोल, उसके ज्ञान, आचार-विचार, व्यवहार एवं व्यक्तित्व को दर्शाने का माध्यम बनता है। इसके विपरीत कई बार ऐसे भी हालात बनते हैं, जब व्यक्ति का बोलना ही विवाद का कारण बन जाता है! सवाल उठता कि तब क्या किया जाए? अपनी बात को ज्यादा तार्किक ढंग से कहा जाए या मौन रहा जाए? बेहतर होगा कि ऐसी स्थिति में चुप रहे! क्योंकि, कई बार हम गुस्से, तनाव या मानसिक दबाव के हालात में लोगों को चुप रहने की सलाह देते हैं। ये कदम अच्छा भी है! लेकिन, क्या खुद उस पर अमल करते हैं? कई बार हमें खुद अफ़सोस होता है कि काश उस वक़्त हम चुप रहे होते!
    इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिन मामलों की रचनात्मक उपयोगिता न हो, वहाँ मौन रहा जाए! घर और बाहर हर जगह ये आत्म-अनुशासन बेहद जरुरी है। छोटी-छोटी बातें, जैसे कौन आया और कौन नहीं, किसने क्या पहना, क्या बनाया, क्या खाया, देर से क्यों आई, जल्दी क्यों चली गई वगैरह! ऐसी टीका-टिप्पणी व्यर्थ होती हैं! इस पर बहस भी की जाए तो वह व्यक्ति की नासमझी ही दर्शाती है। मौन की एक वजह यह भी है कि जब तक किसी मामले की ठोस और सप्रमाण जानकारी न हो, बहस करने के बजाए चुप रहना ही बेहतर है। यदि ऐसे में बहस की जाए तो उससे अपनी छवि ही धूमिल होगी। ऐसे वक़्त में विपक्षी अपने तर्क की सत्यता साबित कर दे, तो उसे सहजता से स्वीकार किया जाए और बहस पर पूर्णविराम लगा दें, अन्यथा आप कुतर्क करने वाले कहलाएंगे।
कबीरदास ने भी कहा है : 
     कबीरा यह गत अटपटी, चटपट
     लखि न जाए,
     जब मन की खटपट मिटे, 
     अधर भया ठहराय!
 (इसका अर्थ है, होंठ वास्तव में तभी ठहरेंगें और शांत होंगे जब मन में खटपट मिट जाएगी। हमारे होंठ भी ज्यादा इसीलिए चलते हैं, क्योंकि मन अशांत रहता है। जब मन अशांत है, तो होंठ चलें या न चलें कोई फर्क नहीं पड़ता! क्योंकि, मूल बात तो मन की अशांति से है, जो बनी हुई है)
   सभी जानते हैं कि शरीर का सबसे जटिल और ताकतवर हिस्सा है हमारा दिमाग! व्यायाम से शरीर को फायदा होता है, उसी तरह दिमाग को सबसे ज्यादा लाभ चुप रहने या मौन रहने से होता है। बोलचाल की भाषा में कहा जाए तो मौन एक तरह से दिमाग की सर्विसिंग वाली क्रिया है। चुप रहना सिर्फ जुबान को आराम देना नहीं है! बल्कि, ये एक तरह साधना है और साथ ही एकाग्रता भी! कल्पना कीजिए कि आप किसी शांत स्थल पर ध्यान कर रहे हों, तभी आपके शरीर के किसी अंग पर खुजली होने लगती है। आप उसी अवस्था में अपनी उँगलियों को सक्रिय करते हैं और खुजली मिटा लेते हैं! लेकिन, विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए! आपको व्यवधान में भी ध्यान की आदत डालना हो, तो इस अवस्था को टालना ही बेहतर होगा! ठीक वैसे ही कि जब और जहाँ हमें लगे कि बोला जाना चाहिए, वहां मौन रहें!
  बोलने के मौके पर मौन धारण कर लेना, आसान बात नहीं है! ये एक तरह की साधना है़। मनोविज्ञान के जानकार और करियर विशेषज्ञ भी ज्ञान और स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए एकाग्रता और शांतमन को प्राथमिकता देते हैं। मन का शांत रहना मौन से ही संभव है! जब हम कुछ समय के लिए दिमाग और जुबान दोनों से मौन रहते हैं, तो हम अपने आपसे ही बात करते हैं। दरअसल, ये वक़्त आत्ममूल्यांकन की तरह होता है। इससे नई मानसिक ऊर्जा प्राप्त होती है़ और इस सकारात्मक ऊर्जा के लिए जीवन में ये सबसे आसान उपाय है। मनोविश्लेषक केली मैकगोनिगल का मानना है कि जब हम मौन रहते हैं, तभी दिमाग में सकारात्मक विचार आते हैं! इन विचारों को हम बाद में अमल में लाते हैं। इसी से हमारे भीतर सकारात्मक प्रवृत्ति निर्मित होती है। 
  ये व्यक्ति की सामान्य कमजोरी होती है कि वह कभी अपना अपमान नहीं सहता! कभी ऐसे हालात होते भी हैं तो खुद को चुप रख पाना मुश्किल होता है। लेकिन, ऐसे में भी कुतर्क करने से अच्छा है कि मौन साधा जाए! जो व्यक्ति आपके बारे में अनर्गल बातें कर रहा है, उसे उसी की भाषा में जवाब देने से दोनों के लिए परिणाम गलत ही निकलेगा। अच्छा हो कि ऐसे में बड़प्पन दिखाएं और मौन रहकर उसे उसी के हथियार से हरा दें। एक और बात, जब कोई दूसरा बोल रहा हो, तो उसे मौन रहकर सुना जाए! ये किसी भी वार्तालाप का प्राथमिक सिद्धांत है। लेकिन, जीवन में ऐसा कभी होता नहीं है! ये सिद्धांत लोग अकसर भुला देते हैं। एक बेहतर वार्तालाप के लिए भी जरुरी है कि मौका आने पर आप अपनी बात बताएं, लेकिन जब दूसरा बोले तो आप भी उसकी बात को पूरी तरह सुनें! उससे भी ज्यादा जरूरी है कि जब कोई और वार्तालाप में शामिल हो, तो उसे टोके नहीं! अकसर देखा जाता है कि वार्तालाप के दौरान कुछ लोग अपने अतिरेक ज्ञान को दर्शाने की कोशिश करते हैं! लेकिन, उनका ज्ञान ज्यादा देर छुप नहीं पाता और उजागर हो जाता है! अच्छा हो कि हम उनके ज्ञान की गंगा को बहने दें, ताकि अंततः वो उसी में डूबने भी लगे!
   मौन का मतलब यह नहीं होता कि मुँह बंद रखा जाए! असल बात है मन से और दिमाग से मौन रहना! यदि किसी दबाव में चुप रहा जाए, तो उसमें सकारात्मकता नहीं आती! जब आप खुद को बहुत ज़्यादा महत्व नहीं देंगे, तभी ये स्थिति आएगी और मौन रहने में कोई अड़चन भी नहीं होगी! अगर आपको ये अहम्ल है कि मैं क्यों चुप रहूँ, मैं भी जवाब दे सकता हूँ तो फिर ये साधना नहीं है! एक बात ये भी है कि मौन रहना हमारे सोच की शक्ति को बढ़ाता है़! इसलिए साधना के सभी पंथ में मौन की अहमियत को स्वीकारा गया है। हमारी कार्य संस्कृति में सिर्फ उत्पादकता की बात की जाती है। पूछा जाता है कि आपका देश आपके लिए क्या कर सकता है या आप अपने देश के लिए क्या कर सकते हैं? इस सवाल के मूल में एक ही तत्व रहता है 'क्या किया जा सकता है?' इसका जवाब हमें वाचालता से नहीं, मौन में मिलता है! हमारा मौन हमें मानसिक विचलन की स्थिति से कुछ समय के लिए स्वतंत्रता देता है। कई बार यही मौन ज्यादा उत्पादकता का माध्यम बनता है। 
   मौन का अर्थ है अंदर और बाहर दोनों तरफ से चुप रहना! जबकि, आमतौर पर हम ‘मौन’ का अर्थ ये लगाते हैं कि जुबान खामोश रहे! वास्तव में ये बड़ा ही सीमित अर्थ है। किसी के शब्दहीन हो जाने का तात्पर्य यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि वो चुप हो गया! वास्तव में वो निःशब्द होकर भी चिल्ला रहा है, शब्दहीन है पर चीख रहा है। ... बस उसके शब्द हमारे कानों तक नहीं पहुँच रहे हैं। वो बोल तो रहा है, पर आवाज़ नहीं आ रही। दरअसल, शब्दहीनता और ध्वनिहीनता को मौन न समझा जाए! वास्तविक मौन है, मन का शांत होना! आंतरिक ख़ामोशी में लगातार शब्द मौजूद भी रहें, तो भी मौन बना रहता है। उस मौन में कुछ बोलते भी रहो, तो मौन पर कोई फर्क नहीं आता! ये भी याद रखा जाना चाहिए कि मौन का महत्व इसलिए है कि भाषा की भी अपनी विकृतियां हैं। ऐसी स्थिति में वही व्यक्ति चुप रह सकता है, जो अंदर से मजबूत हो! क्योंकि, आंतरिक कमजोरी और अल्पज्ञता ही वाचालता के लिए विवश करती है। कमजोर मन और क्षीण अभिव्यक्ति वाला व्यक्ति ही अपनी बात कहने के लिए लालायित होता है। व्यक्ति की वैचारिकता जब परिपक्व होने लगती है, तो उसकी सुनने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है! उसका बोलना स्वत: घट जाता है। मौन का आशय सर्वथा ये नहीं होता कि बोला ही न जाए! बोलते रहने पर भी मौन भाव बना रहता है, यानी अनावश्यक न बोला जाए! संयमित भाषा भी मौन के समान ही है। कब बोलना, क्या बोलना जैसी बातें भी व्यक्ति को तभी स्मरण रहती हैं, जब वो बोलते हुए भी मौन की मर्यादा का पालन करता है। क्योंकि, मौन का मर्यादा से भी संबंध है। मर्यादित आचरण तभी संभव है, जब मौन का पालन किया जाए!
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