इंदौर की भविष्य की राजनीति का सिक्का हवा में उछल चुका है! जब ये सिक्का नीचे गिरेगा तो ऊपर 'चित' आता है या 'पट' कोई नहीं जानता! तीन दशकों से जिस लोकसभा सीट पर सुमित्रा महाजन यानी 'ताई' के बहाने भाजपा का जो झंडा गड़ा था, वो आगे भी बरक़रार रहेगा? इस सवाल पर सभी खामोश हैं! शहर में कोई चुनावी हलचल नजर नहीं आ रही! जो थोड़ी बहुत सरगर्मी है, वो भी दिखावटी और नाटकीय ज्यादा लग रही! 'ताई' के उम्मीदवार रहते, भाजपा मजबूत होती, ये दावा करने वाले कम नहीं हैं! लेकिन, कांग्रेस में भी उत्साह जैसी बात नहीं है। जो दिख रहा है, वो जीत में बदलेगा ये नहीं कहा जा सकता! क्योंकि, जो तीन मंत्री सक्रियता दिखा रहे हैं, कार्यकर्ता उन्हीं से ज्यादा नाराज हैं! ऐसे माहौल में वोटर ने भी अपने मुँह सिल लिए! वो भी मुँह देखी बात करने लगा! समझा जाए तो ये स्थिति भाजपा के लिए कुछ ज्यादा खतरनाक है! जिस भाजपा ने लगातार आठ बार जिस सीट को जीता, वहाँ आज इस पार्टी की जीत को लेकर असमंजस हैं।
000
- हेमंत पाल
इंदौर की मौजूदा सांसद सुमित्रा महाजन उर्फ़ 'ताई' ने लोकसभा चुनाव की घोषणा से पहले कहा था कि वे अपनी आठ कार्यकाल की विरासत किसी योग्य व्यक्ति को ही सौंपेगीं! जब 'ताई' ने ये बात कही थी, उस वक़्त इसे भविष्य का कोई संकेत नहीं समझा गया था! तब माना जा रहा था कि भाजपा की अगली उम्मीदवार भी वही होंगी, इसलिए विरासत सौंपने जैसी तो कोई बात नहीं! लेकिन, लगता है पार्टी के बड़े चौकीदारों ने ये बात सुन ली और उसे गंभीरता से ले लिया! पार्टी ने देशभर के उम्मीदवारों की घोषणा करना शुरू कर दी, पर 'ताई' के नाम का कहीं पता नहीं था! इस बीच उन्हें ये संकेत भी मिलने लगे कि वे सम्मानजनक बिदाई ले लें और अपनी राजनीतिक विरासत को सौंपने की तैयारी कर लें! इसके बाद तो इंदौर से संभावित उम्मीदवारों की लाइन लग गई! करीब हर नेता का नाम चला! कुछ ऐसे नाम भी सामने आए जिनका कोई राजनीतिक वजूद नहीं है! बड़ी उथल-पुथल के बाद पार्टी ने इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) के अध्यक्ष रहे शंकर लालवानी को उम्मीदवार बनाया!
भारतीय जनता पार्टी के इस फैसले पर बहुत सी टिप्पणियाँ हुई! बहस-मुबाहिसे भी चले कि शंकर लालवानी को उनकी किस राजनीतिक योग्यता की खातिर उम्मीदवार बनाया है! क्योंकि, जितने भी नाम चले थे, उनमें शंकर लालवानी सबसे कमजोर हैं। सवाल करने वालों का ये तर्क भी सही है कि लालवानी कभी शहर के जननेता नहीं रहे! नगर निगम के पार्षद रहने के अलावा उन्होंने कभी जनता से जुड़कर राजनीति नहीं की। उनकी जितनी लोकप्रियता नहीं है, उससे कहीं ज्यादा उन पर उंगलियां उठाने वाले मुद्दे हैं। ये भी नहीं कहा जा सकता कि वे शहर में सिंधी समाज के एक छत्र नेता हैं! क्योंकि, उनकी उम्मीदवारी की घोषणा के साथ ही समाज में विरोध की आवाज भी उठी! लोकसभा क्षेत्र में सिंधियों के इतने वोट भी नहीं हैं कि वे नतीजों को पलट सकें! ये भी दावा नहीं किया जा सकता कि पूरा सिंधी समाज शंकर लालवानी के साथ है या सभी भाजपा सोच वाले हैं।
इंदौर के सभी भाजपा नेता भाजपा उम्मीदवार के पक्ष में भी नहीं हैं। जो खुद उम्मीदवारी की दौड़ में थे, वे पिछड़कर दुखी हैं और महज दिखावे के लिए झंडा उठाए हैं। ये स्वाभाविक भी है। क्योंकि, जो खुद सांसद बनने के सपने देख रहा हो, वो क्यों दूसरे के लिए नारे लगाएगा? शंकर लालवानी ने एक बड़ी राजनीतिक गलती ये भी की, कि जिस सत्यनारायण सत्तन ने सुमित्रा महाजन को टिकट दिए जाने के खिलाफ मोर्चा खोला था, उन्हें अपने प्रचार अभियान में कुछ ज्यादा ही तवज्जो दी! सार्वजनिक रूप से तो इस पर कोई टिप्पणी नहीं हुई, पर अंदर की खदबदाहट बताती है कि सत्तन को आगे रखने से वे मराठी वोटर्स खफा हैं, जो 'ताई' के पक्षधर हैं और लालवानी जिन्हें अपना समझ बैठे हैं। अब जबकि, वे सुमित्रा महाजन के विरोधियों के साथ खड़े हैं, मराठी वोट बैंक बिचकता नजर आ रहा है! ऐसे में कैसे कहा जाए कि जिस वोट बैंक को शंकर लालवानी अपने खाते में गिन रहे थे, वे वास्तव में उनके साथ हैं?
यदि शंकर लालवानी और कांग्रेस उम्मीदवार पंकज संघवी के राजनीतिक अनुभव की तुलना करें, तो पंकज का दायरा ज्यादा बड़ा है! उन्होंने भी पार्षद का चुनाव जीतकर राजनीति में कदम जरूर रखा, पर बाद तीन बड़े चुनाव लड़े! वे विधानसभा, लोकसभा व महापौर का चुनाव लड़े, लेकिन जीते नहीं! चुनाव लडऩे के मामले में पंकज संघवी को वजनदार माना जा सकता है। गुजराती समाज से जुड़े पंकज के पास समाज की भी विरासत है। उनका परिवार शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ा है, इसलिए भी उनके संपर्कों का दायरा भी बड़ा है! तीन बड़े चुनाव हारने का अनुभव भी कम नहीं होता! उन्होंने उन ग्रामीण क्षेत्रों की भी ख़ाक छानी है, जहाँ लालवानी की अपनी कोई पहचान नहीं है! भाजपा के लिए परेशानी की बात ये भी है कि इंदौर के दोनों ग्रामीण विधानसभा क्षेत्र सांवेर और देपालपुर कांग्रेस के पास हैं। कागजों पर भी शंकर लालवानी का पलड़ा कमजोर लग रहा है। उनके पक्ष में सिर्फ एक ही बात है कि नरेंद्र मोदी को पसंद करने वाले वोटर भाजपा उम्मीदवार को वोट देंगे। लेकिन, मोदी को नापसंद करने वाले भी तो कम नहीं है!
इस लोकसभा क्षेत्र की 8 विधानसभा सीटों में से 4 कांग्रेस और 4 भाजपा के पास है। कांग्रेस के लिए अच्छी बात ये है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। इंदौर से जीतू पटवारी और तुलसी सिलावट मंत्री हैं और तीसरे सज्जन वर्मा भी इंदौर की राजनीति में दखल रखते हैं! इस नजरिए से माहौल का पलड़ा कांग्रेस के पक्ष में झुका लग रहा है। लेकिन, सुगबुगाहट ये भी है कि इन तीनों मंत्रियों की अकड़ से पार्टी कार्यकर्ता काफी नाराज है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को इंदौर संसदीय क्षेत्र की 4 सीटें मिली थीं, जो कांग्रेस के लिए सकारात्मक है। पिछला लोकसभा चुनाव सुमित्रा महाजन करीब साढ़े 4 लाख वोट से जीती थीं। विधानसभा चुनाव में ये लीड घटकर 95,129 रह गई! जबकि, इंदौर क्षेत्र में सवा लाख नए वोटर भी बने हैं! ये सारे तथ्य शंकर लालवानी और पंकज संघवी की जीत के दावों पर सवाल खड़ा करते हैं! मराठी वोट किसका साथ देंगे, इस बारे में अभी सिक्का हवा में है! 'ताई' का खुद उम्मीदवार होना और किसी उम्मीदवार को जिताने के लिए 'ताई' की अपील से फर्क पड़ता है! यही स्थिति सिंधी वोटर्स की है। शहर का जो इलाका सिंधी और पंजाबी वोटर्स के प्रभुत्व वाला माना जाता है, वहाँ सज्जन वर्मा की भी खासी पकड़ है।
शंकर लालवानी की जीत को संदिग्ध बताने वालों ने ये तथ्य भी खोज निकाला कि इंदौर विकास प्राधिकरण (आईडीए) के अध्यक्ष की कुर्सी राजनीतिक रूप से मनहूस है। जो भी इस कुर्सी पर बैठता है, उसका राजनीतिक सफर इसी के साथ समाप्त हो जाता है! राजनीति में अंधविश्वासों को गंभीरता से लिया जाता है, इसलिए इस बात को किनारे भी नहीं किया जा सकता! इस कुर्सी को संभाल चुके दोनों पार्टियों के 6 नेता आज नेपथ्य में हैं। आईडीए के पहले अध्यक्ष थे भाजपा के देवीसिंह राठौर जिनकी राजनीति इस कुर्सी से उतरने के बाद हाशिए पर चली गई! उनके बाद कांग्रेस के शिवदत्त सूद और कृपाशंकर शुक्ला अध्यक्ष बने, लेकिन उनकी राजनीति ने भी गति नहीं पकड़ी! प्रदेश में जब भाजपा की सरकार आई तो मधु वर्मा को आईडीए का अध्यक्ष बनाया गया! वे लगातार दो कार्यकाल अध्यक्ष रहे! लम्बे समय तक उनका कोई नामलेवा तक नहीं रहा! 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने राऊ से उम्मीदवार जरूर बनाया, पर वे चुनाव हार गए! शंकर लालवानी भी दो बार अध्यक्ष रहे हैं और अब लोकसभा के उम्मीदवार हैं। यदि वे चुनाव जीतते हैं तो उन्हें 'ताई' की विरासत की विरासत का सही चौकीदार तो माना ही जाएगा! साथ ही ये अंधविश्वास भी खंडित होगा कि आईडीए की कुर्सी राजनीतिक मनहूसियत की निशानी नहीं है। अब सारी नजरें इस बात पर लगी है कि लोकसभा चुनाव नतीजों का जो सिक्का हवा में है, वो किस तरफ गिरता है? क्योंकि, जितनी कमजोरी और ताकत शंकर लालवानी की गिनी जा रही है, उतनी पंकज संघवी के पास भी है।
-----------------------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment