Friday, October 28, 2016

ऐसा 'दबंग' जो न खुद झुका, न किसी को झुकाया


मध्यप्रदेश के नए चीफ सेक्रेटरी : बसंत प्रताप सिंह

- हेमंत पाल 

 सलमान खान ने 'दबंग' में काम करके अपने नाम के आगे फ़िल्मी दबंग होने का तमगा भले लगा लिया हो! पर, नौकरशाही में असली दबंग बसंत प्रताप सिंह को ही माना जाता है। प्रदेश के अगले मुख्य सचिव नियुक्त किए गए श्री सिंह प्रदेश उन चंद नौकरशाहों में गिने जाते हैं, जिनकी दबंगता उनकी प्रशासनिक कार्यशैली में नजर आती है। इस महत्वपूर्ण पद के लिए उनका चुना जाना ही, उनकी सबसे बड़ी योग्यता है। 
बसंत प्रताप सिंह के साथ काम करने वाले कई अधिकारियों का मानना है कि जिसे भी उनके साथ काम करने का मौका मिला, वो उनका 'फैन' हो जाता है। इसलिए कि वे न तो किसी दबाव के आगे झुकते हैं और न किसी को झुकाने में उनका विश्वास है। लेकिन, सही का साथ देने में वे नियमों और प्रक्रियाओं को भी किनारे करने से नहीं चूकते! उनके पूर्व सहयोगी अफसर ऐसे कई प्रसंग याद करते हैं, जब बसंत प्रताप सिंह ने विपरीत परिस्थितियों में सिर्फ इसलिए उनका साथ दिया कि उन्हें विश्वास था कि हम अपनी जगह सही हैं। 
   उन्हें नौकरशाही और सरकार के बीच सामंजस्य बैठाने के लिए जाना जाता है। शायद इसी कार्यक्षमता के कारण उन्हें ये सबसे बड़ा ओहदा मिला है। वे सरकार की अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे उतरे, इसीलिए 1984 बैच के इस नौकरशाह का नाम तेजी से उभरकर सामने आया और नियुक्ति तक पहुंच! अब तक वे अपने हर कार्यकाल में श्रेष्ठ परफार्मेंस देते आए हैं। गृह विभाग में अपने कार्यकाल दौरान उन्होंने कई बड़े और सही फैसले लिए! श्री सिंह के बारे में कहा जाता है कि वे अपने मातहत हर छोटे, बड़े अधिकारी से एक जैसा व्यवहार रखने के लिए जाने जाते हैं। सहजता, सौम्यता, ईमानदारी के साथ उनकी दबंगता के उनके कई किस्से मशहूर है। एक घटना जो माधवराव सिंधिया से जुडी है, सभी पुराने अधिकारियों को याद है! बताते हैं कि बसंत प्रताप सिंह को जब ग्वालियर में कलेक्टर पदस्थ किया तो वे सौजन्य भेंट के लिए सिंधिया मिलने पहुंचे! मिलने का समय तय था! लेकिन, अफसरों से मिलने का 'महाराज' का अपना अंदाज था। श्री सिंह तो समय पर 'महल' पहुँच गए, पर 'महाराज' बहुत देर तक नहीं आए! कुछ देर इंतजार करने के बाद बसंत प्रताप सिंह को वहां रुकना नागवार गुजरा तो वे लौट गए! इसे सिंधिया ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और श्री सिंह को ग्वालियर से हटना पड़ा!    
  इंदौर में कमिश्नर के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान बसंत प्रताप सिंह ने कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए! ऐसा ही एक निर्णय सहकारी गृह निर्माण संस्थाओं और भू-माफियाओं के बीच गठजोड़ उजागर करने वाला रहा! उनकी पहल पर ही कई सहकारी संस्थाओं के रिकॉर्ड खंगाले गए। इसी से सामने आया कि किस तरह सहकारी संस्थाओं ने कॉलोनियों की जमीन उनके सही धारकों बजाए जमीन के घोटालेबाजों को बेच दी! इस गठजोड़ ने कई संस्थाओं की असलियत सामने ला दी! इस मामले में आज भी कार्रवाई चल रही है। बसंत प्रताप सिंह की ही पहल से कई सही लोगों को भूखंड मिल सके हैं।        
  एक रिटायर्ड अधिकारी ने बताया कि बसंत प्रताप सिंह कभी किसी नेता के प्रभाव में आए हों, ऐसा कभी देखने में नहीं आया! यदि किसी नेता ने सही काम के लिए पहल की है, तो उसे टालते भी नहीं! लेकिन, दबाव में आकर काम करना बसंत प्रताप सिंह के स्वभाव में कभी नहीं रहा। राजनीति से जुड़े जो लोग श्री सिंह के इस स्वभाव और कार्यशैली से परिचित हैं, उनके काफी आत्मीय संबंध रहे हैं! जहाँ तक प्रशासनिक क्षमता की बात है, तो इसमें उनका कोई सानी नहीं! कई विपरीत परिस्थितियों में श्री सिंह ने अपनी जबरदस्त प्रशासनिक क्षमता दिखाई है। उनकी त्वरित निर्णय लेने की क्षमता का कई पुराने अधिकारियों ने उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि यदि कोई मामला सही और स्पष्ट है, तो वे उसे कभी टालने या दोबारा विचार करने में समय नहीं गंवाते!   
  श्री सिंह के साथ अभी तक जिसने भी काम किया है, उनमें से अधिकांश अधिकारी इस बात के लिए भी उनकी प्रशंसा करते हैं कि बसंत प्रताप सिंह में जबरदस्त टीम-स्प्रीट भावना है। हमेशा ही उनकी कार्यशैली चलने की नहीं, दौड़ने और दौड़ाने की है। वे बहुत जल्द अपने सहयोगियों की कार्य क्षमता परख लेते हैं और उसी के अनुरूप उन्हें काम सौंपते हैं। लेकिन, काम में लापरवाही और कामचोरी वे पसंद नहीं करते! वे चमचागिरी बी पसंद करते! यही कारण है कि उनके साथ वही अधिकारी और कर्मचारी काम सके हैं, जो उनकी तरह तत्पर, सजग और ईमानदार होते हैं! 
  उत्तरप्रदेश की ग्रामीण ठाकुर पारिवारिक पृष्ठभूमि से सिविल सेवा में आए बसंत प्रताप सिंह पूरी तरह जमीन से जुड़े व्यक्ति हैं। उनकी पहचान खांटी ईमानदार अधिकारी के रूप में होती रही है। उनके पुराने सहयोगी बताते हैं कि वे प्रशासनिक रूप से सख्त होने के साथ कवि ह्रदय भी हैं। भाषा पर भी उनका बेहतरीन अधिकार है, जो उनके भाषण सुनने से ही पता चलता है। बसंत प्रताप सिंह कहते हैं कि मेरा गांव मेरे अंदर बसता है। इसलिए कि उनका बचपन गाँव में ही बीता। वे गाँव से आए हैं, इसलिए उनका गाँव के बारे में अलग ही सोच है। वे कहते हैं कि खाली वक़्त में मैं गाँव के विकास के बारे में सोचता हूं। प्रदेश सरकार की ग्रामीणों से संबंधित जितनी भी योजनाएं हैं, उनको क्रियान्वित करना मेरी प्राथमिकता होगी।  
-----------------------------------------------------------------

सरकार के सामने अब बिके सपनों को सच करने की चुनौती


हेमंत पाल 

इंदौर में 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' हो गई! दो दिन तक मध्यप्रदेश सरकार इन्वेस्टर्स के सामने पलक-पांवड़े बिछाए रही। लकदक इंतजामों के बीच देश और दुनिया के चार हज़ार से ज्यादा आमंत्रितों ने इसमें भाग लिया। 42 देशों के प्रतिनिधियों ने दो दिन तक मध्यप्रदेश सरकार की मेजबानी का लुत्फ़ उठाया। सभी ने सरकार की घोषणाओं को सुना, गुना और समझा! उद्योगपतियों ने भी अपने भविष्य के सपनों और सरकार की योजनाओं में सामंजस्य बैठाने की कोशिश की! मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने राजनीतिक क्षमता को किनारे करके अपना सेल्समैनशिप वाला हुनर जमकर दिखाया। कुछ उद्योगपतियों ने नए निवेश की पहल भी की! लेकिन, वास्तव में इस समिट से प्रदेश को क्या हांसिल हुआ, ये सच अभी सामने आना बाकी है। वादे तो खूब किए गए, लेकिन उन वादों को अभी धरातल पर उतारना है! सरकार को अपनी क्षमताओं और वादों की सच्चाई साबित करना है और उद्योगपतियों को अपने इन्वेस्टमेंट की! मुख्यमंत्री के सामने उससे भी बड़ी चुनौती नौकरशाहों को उन सपनों को पूरा करने के लिए तैयार करना है, जो इन्वेस्टर्स को सरकार ने इन दो दिनों में दिखाए हैं। आखिर सरकार ने इन्वेस्टर्स को सुविधाओं के जो सपने बेचे हैं, उन्हें सच करने की चुनौती भी तो सरकार ही ही है! 
00000000 
   मध्यप्रदेश सरकार की क्षमताओं और सुविधाओं की इससे अच्छी मार्केटिंग शायद नहीं हो सकती थी, जो मुख्यमंत्री ने 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' के दो दिनों में की! मेजबानी में कोई कमी नहीं थी। उद्योगपतियों को हाथों-हाथ लिया गया। इस पूरे इवेंट में कहीं सरकार नजर नहीं आ रही थी! सबकुछ ऐसा था, जो इवेंट कंपनियां करती है। मुख्यमंत्री तो किसी इवेंट कंपनी के सीईओ के रोल में थे! उद्योगों के लिए प्रदेश में जुटाई गई सुविधाओं को किसी प्रोडक्ट की तरह परोसा गया! यही स्थिति उनकी मेजबानी में भी दिखाई दी! सबकुछ पांच सितारा था। अपने स्वागत भाषण में ही मुख्यमंत्री ने स्पष्ट कर दिया था कि वे दो दिन यहीं हैं, पूरे 24 घंटे! कोई भी इन्वेस्टर कभी भी मुझसे मिल सकता है। जब मुख्यमंत्री का नजरिया ये रहा, तो नौकरशाह भी अपनी अफसरी किनारे रखकर इन्वेस्टर्स के सामने नत मस्तक रहे! मेहमान इन्वेस्टर्स की सुविधाओं के अलावा उनकी प्लानिंग को भी तवज्जो दी गई! लेकिन, समिट के बाद सरकार और उनके नौकरशाहों का रवैया कैसा रहता है, असल मुद्दे की बात ये है! क्योंकि, पिछले अनुभव बताते हैं कि इन्वेस्टर्स के लिए खिड़की के बजाए दरवाजे खोलने की बात करने वाली सरकार बाद में रोशनदान तक बंद कर देती है। जो नौकरशाह समिट के दौरान उद्योगपतियों के सामने बिछे जा रहे थे, वो उनसे मिलने तक को तैयार नहीं होते!      
   इन्वेस्टर्स के सामने सरकार ने प्रदेश की जो छवि परोसी है, निश्चित ही वो अतिश्योक्ति तो है! कुछ बातें बढा-चढ़ाकर दिखाई गई! बात चाहे बिजली की उपलब्धता की हो या भरपूर पानी की, दोनों का सच किसी से छुपा नहीं है! खपत से ज्यादा बिजली उत्पादन का मुख्यमंत्री का दावा प्रदेश के लोगों के गले नहीं उतरता! यदि वास्तव में प्रदेश में इतनी बिजली होती तो गाँव में आज भी घन्टों बिजली गायब नहीं रहती! किसानों को खेतों को पानी देने के लिए रातभर जागना नहीं पड़ता! शहरों में बिजली की कटौती नहीं होती! यही स्थिति पानी को लेकर भी है! पानी को लेकर पीथमपुर के उद्योगों को 4 महीने तक किस तरह जूझना पड़ता है, ये वहां के उद्योगपतियों को भी पता है। इसलिए नए इन्वेस्टर्स इस सबसे अनजान होंगे, ये नहीं समझा जा सकता! जहाँ तक जमीन की उपलब्धता की बात है, इस प्रक्रिया को जितना आसान बताया गया, वैसा होगा नहीं! आज हर इन्वेस्टर्स को इंदौर, भोपाल, ग्वालियर और जबलपुर के नजदीक जमीन चाहिए! क्योंकि, महानगरीय सुविधाओं को वे जानते हैं। इसमें भी उद्योगपतियों पहली पसंद इंदौर है! लेकिन, इंदौर के आसपास उन्हीं उद्योगपतियों को जमीन मिलती है, जो सरकार पर प्रभाव डालने में कामयाब हो जाते हैं। एकेवीएन के पास पीथमपुर में करीब 1200 एकड़ जमीन है। माचल, महू के पास खंडवा, उज्जैनी में 150-150 एकड़ के साथ ही धामनोद व धार के हातोद में 1200-1200 एकड़ जमीन है। लेकिन, ये उन्हीं को मिलेगी जिनके पास कोई बड़ा राजनीतिक प्रभाव होगा।  
   ज्यादा जमीन लेने के मामले में बाबा रामदेव इसका सबसे अच्छा उदाहरण है, जिनके 'पतंजलि' प्रोजेक्ट को जमीन देने के लिए सरकार बिछी-बिछी सी दिखी! रामदेव ने अपने भाषण में सरकार को एक तरह से धमका ही दिया! 'हमें सरकार ने 45 एकड़ जमीन दी है, इतने में तो हम कबड्डी खेलते हैं!' बाबा रामदेव की इस बात के अपने इशारे थे। 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' के मंच से रामदेव ने यह बोलकर सुर्खियां बटोर ली। इसके बाद असर ये हुआ कि सरकार 'पतंजलि' को ज्यादा जमीन देने को तैयार हो गई!   रामदेव पीथमपुर में फूड प्रोसेसिंग यूनिट और आयुर्वेदिक दवा का प्लांट लगाना चाहते हैं। बाबा और उनके सहयोगी बालकृष्ण आवंटित जमीन देख भी चुके हैं। एकेवीएन ने तो जमीन खोजने का काम भी शुरू कर दिया। सवाल उठता है कि क्या ऐसा रवैया क्या सरकार सभी इन्वेस्टर्स के साथ रख सकेगी? 
  सरकार का ये इवेंट इस मायने में तो काफी हद तक सफल रहा कि इन्वेस्टर्स को मध्यप्रदेश में काफी संभावनाएं दिखाई दी! बिजली, पानी को लेकर सरकार के दावों में कुछ मिलावट हो सकती है! पर यहाँ उद्योगों के लिए माहौल काफी हद तक बेहतर है। यहाँ कानून व्यवस्था को लेकर कोई बड़ी समस्या नहीं है। जबकि, जहाँ औद्योगिक इलाका बसता है, वहां विघ्नसंतोषी पनपने लगते हैं! जिस यूनियनबाजी से उद्योगपति हमेशा परेशान रहते हैं, उस तरह की समस्या नहीं के बराबर है। मुख्यमंत्री ने भी अपने भाषण में भी उल्लेख किया कि 'चाहे जो मज़बूरी हो, हमारी मांगे पूरी हो!' जैसी समस्या मध्यप्रदेश में नहीं है। लेकिन, सबसे बड़ा मसला है कि समिट के दौरान जो सकारात्मकता मुख्यमंत्री के साथ नौकरशाहों ने दिखाई, क्या वो आगे भी नजर आएगी? इसमें संदेह बरक़रार है! क्योंकि, उधोगपतियों और इन्वेस्टर्स को सबसे ज्यादा जूझना ही अफसरशाही से पड़ता है!          
  ये पूरा आयोजन राजनीति से परे था, पर राजनीति से जुड़े सवाल तो फिर भी उठे! इन्वेस्टर्स समिट में पूर्व उद्योग मंत्री और फिलहाल भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की गैर मौजूदगी पर खुसुर-पुसुर भी हुई! इंदौर की प्रथम नागरिक महापौर मालिनी गौड़ को भी तवज्जो न देने पर उंगली उठाई गई! बात यहाँ तक उठी कि सीधे मुख्यमंत्री से सवाल किए गए! शिवराजसिंह चौहान ने भी दोनों नेताओं की वरिष्ठता और व्यस्तता को आयोजन से बड़ा बताते हुए, सवालों को किनारे करने की कोशिश की! फिर भी बात निकली थी, तो उसका दूर तलक तो जाना ही था! 
------------------------------------------------------------------------

Monday, October 24, 2016

खलनायक नहीं तो कैसा नायक?

- हेमंत पाल 

   कभी किसी ने सोचा था कि एक दिन हिंदी फ़िल्मी दुनिया के दुर्दांत खलनायक प्राण को सिनेमा के प्रतिष्ठित सम्मान 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' मिलेगा? ये बात अलग है कि उन्हें ये सम्मान चरित्र अभिनेता तौर पर दिया गया था। उल्लेखनीय बात ये है कि किसी कलाकार की कला को उसकी जिंदगी के 93वें साल इस सम्मान के लायक समझा गया! दरअसल, यहाँ प्राण का जिक्र इसलिए कि आखिर सिनेमा के परदे पर नायक का जन्म क्यों हुआ? क्यों नायक आदर्शवाद का प्रतीक होता है! सद्चरित्रता, अच्छाई, आत्मविश्वास, और पुरुषत्व उसमें कूट कूटकर भरा होता है। वो हर मुश्किल से जूझना और जीतना जानता है! कथानक में जो इन सभी गुणों के विपरीत होता है, वो है खलनायक! बरसों से हिंदी फिल्मों का कथानक इसी ताने-बाने के आसपास बुना जाता रहा है।
  खलनायक का चरित्र समय के साथ-साथ बदलता रहा! जैसा समय, वैसा खलनायक! फिल्मों में खलनायकी का इतिहास वर्ग संघर्ष से भी जुड़ा है। हिन्दी सिनेमा का शुरुआती वक़्त धार्मिक कथाओं का रहा! तब देवताओं और दानवों बीच अच्छाई और बुराई का संघर्ष होता था! लंबे समय तक दर्शक रामकथा, महाभारत और देवी-देवताओं से जुडी कथाओं का फ़िल्मी चित्रण देखते रहे! फिर परदे पर आया सामंतों, जमींदारों और साहूकारों से गरीब किसानों, मजदूरों और कर्जदारों की टकराहट का दौर! जिसमें नायक उभरकर सामने आया। उसके सामने खड़े थे क्रूर सामंत, जमींदार और साहूकार! नायक जितना सत्यवादी और आदर्श का प्रतीक था, खलनायक उतना ही जुल्मी, अय्याश और झूठा! कहने का आशय यह कि खलनायक  क्रूरता के सामने ही नायक को उभरने का मौका मिला! यदि खलनायक नहीं होता तो नायक की तुलना का कोई पैमाना भी नहीं होता!
    खलनायक वास्तव में समाज की शोषक शक्तियों का प्रतीक है। ये शक्तियां अलग-अलग समय में अपने रूप, रंग और तरीके बदलती आई! ग्रामीण पृष्ठभूमि में ये ताकतें सामंत और साहूकार थीं, तो शहरों में इनका रूप गुंडे, मवाली, चोर, बदमाश से लेकर तस्कर, माफिया, डॉन बन गया! पचास और साठ के दशक में जहाँ जमींदार और साहूकार की क्रूरता थी! वहीं सत्तर और अस्सी के दशक में उद्योगपतियों और कारोबारी खलनायक बने! अस्सी के दशक में जहाँ खलनायक चेहरे पर डॉन और माफिया सरगना का मुख़ौटा लगा था! वहीं नब्बे और उसके बाद के दशक में सुपर हीरो की तरह सुपर विलेन सामने आया!
  फिल्मकारों ने शायद नायक को आदर्श और सच्चा बताने के लिए उतने प्रयोग नहीं किए, जितना खलनायक झूठा और क्रूर दर्शाने के लिए! उसे विध्वंसक, बर्बादी के अड्डे का बादशाह, हिंसक और ख़ौफ़नाक बताने के लिए कई तरह के स्वांग रचे गए! 'शान' का कुलभूषण खरबंदा हो, 'मिस्टर इंडिया' का मोगाम्बो हो या फिर सर्वकालीन सुपर खलनायक 'शोले' का गब्बर सिंह! जब कम्प्यूटर का भी जमाना नहीं था, तब भी 'शान' में समंदर के बीच उसका आधुनिक अड्डा था! मोगाम्बो का तो अपना अलग ही अंदाज था! उसका चर्चित डायलॉग 'मोगाम्बो खुश हुआ' आज भी बोलचाल  शामिल है। जबकि, गब्बर की लोकप्रियता फिल्म नायकों से कहीं ज्यादा रही! अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और संजीव कुमार जैसे कलाकारों के होते हुए गब्बर सब पर भारी था! 'यहाँ से पचास-पचास कोस दूर तक, जब कोई बच्चा सोता नहीं है, तो माँ कहती है बेटा सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा!' इस एक डायलॉग में बहुत कुछ ऐसा था, जो तीन नायकों को बहुत पीछे छोड़ देता है। ये हिन्दी के मेनस्ट्रीम सिनेमा के भविष्य के खलनायकों के लिए भी इशारा था! खलनायक की बर्बरता में भी और शैतानी फितरतों में भी!
  फिल्मों में जिस तरह नायक का किरदार बदला, उसी तरह कथाकारों ने खलनायक में भी बदलाव किए! कई बार तो नायक ही खलनायक बन बैठा! कभी वो 'डर' का मनोरोगी बना! कभी 'रमन राघव' में सायकोपैथ किलर! 'धूम' सिरीज में तो खलनायक बनने को बड़े-बड़े नायक तरसते हैं। क्योंकि, जब नायकों को लगा कि खलनायकी में ज्यादा स्कोप है तो उन्होंने यही करने में बेहतरी समझी! ये वही दौर है, जिसकी शुरुआत में फिल्मों के दिग्गज नायकों में खलनायक बनने की हसरत बढ़ी! अमिताभ से शाहरुख खान और जॉन अब्राहम तक ने यही किया! शायद इसलिए कहा जाता है कि तीन घंटे की फिल्म में ढाई घंटे खलनायक के होते हैं!
--------------------------------------------------------------

Thursday, October 20, 2016

सिंधिया के पास नहीं है, कांग्रेस की संजीवनी


- हेमंत पाल 


   कांग्रेस ने इन दिनों फिर करवट ली! उसे लग रहा है कि प्रदेश में भाजपा के प्रति लोगों में नाराजी बढ़ रही है। इसका फ़ायदा 2018 के चुनाव में मिल सकता है। यही कारण है कि ढाई साल से सुप्त पड़ी कांग्रेस अपनी सलवटें दूर करने में लगी है! पार्टी के जो तारणहार प्रदेश कांग्रेस से बेखबर थे, वे फिर सक्रिय लगने लगे! उनकी जय जयकार करने वाले भी कड़क खादी में नजर आ रहे हैं! कांग्रेस के जिन दिग्गजों के पास कांग्रेस की कमान समझी जाती है, उनके बयान फिर अख़बारों में दिखने लगे! संगठन के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव खिलाफ फिर तलवारें भांजी जाने लगी है। पहले कमलनाथ को अरुण यादव जगह मुखिया बनाने की चर्चा सुनी जा रही थी, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सुनाई देने लगा! फिलहाल दिग्विजय सिंह चर्चा बाहर हैं! सिंधिया ने तो पार्टी को चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा तक घोषित करने की सलाह दे डाली थी! लब्बोलुआब ये है कि सिंधिया ने भावी मुख्यमंत्री बनने का सपना पाल लिया है। जबकि, 2013 के विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया ही चुनाव अभियान समिति के मुखिया थे और कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गई थी! इस बार भी सिंधिया वो संजीवनी नहीं खोज कर ला सके, जो कांग्रेस नैया पार लगा दे!  
00000000 

 
  ग्वालियर-चंबल संभाग की कांग्रेस राजनीति सिंधिया घराने से काफी प्रभावित रही है। पहले माधवराव सिंधिया और उनके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया! माधवराव पार्टी की रीति-नीति में इतना ढल गए थे, कि कार्यकर्ताओं ने उनमें राजशाही की ठसक कभी महसूस नहीं की! जबकि, ज्योतिरादित्य में अभी वह दंभ मौजूद है। उनके आचार-विचार से लगाकर व्यवहार तक में! उनकी भाव भंगिमाओं से लगाकर बोलचाल तक में राजशाही नजर आती है। सामान्य व्यवहार में तो ये स्वीकार्य है, पर राजनीति में इस तरह का दंभ स्वाभिमानी नेताओं को रास नहीं आता! 2013 के चुनाव में भी ऐसे कई प्रसंग आए, जब ज्योतिरादित्य को लेकर कई कांग्रेस उम्मीदवारों में नाराजी उभरी! इस चुनाव के दौरान ज्योतिरादित्य को पार्टी ने चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी सौंपी थी! कई टिकट उनकी सलाह पर दिए गए! चुनाव रणनीति बनाने में उनका दखल रहा! लेकिन, नतीजा इसके अनुरूप नहीं रहा! कांग्रेस मात्र 58 सीटों पर सिमट गई! जबकि, प्रदेश का राजनीतिक माहौल कांग्रेस के लिए इतना ख़राब नहीं था कि इतनी कम सीटें आएं! पार्टी के इस तरह मात खाने का एक मात्र कारण यही था कि कांग्रेस ने भाजपा को अपना प्रतिद्वंदी नहीं मानकर उन्हें प्रतिद्वंदी माना था, जो 'सिंधिया गुट' के नहीं थे! दबे-छुपे सिंधिया पर कई उँगलियाँ उठी थी!
   मध्यप्रदेश कांग्रेस की एकता हमेशा ही संदिग्ध रही है। आपातकाल के बाद 1981 में जब अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया था, तब भी विरोध हुआ था! पर, इस विरोध दबा दिया गया, क्योंकि पार्टी बड़ी मुश्किल से सत्ता में वापस लौटी थी! लेकिन, बाद में आदिवासी फैक्टर का ध्यान रखते हुए शिवभानुसिंह सोलंकी को उपमुख्यमंत्री बनाना ही पड़ा! यही स्थिति बाद में दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जमुनादेवी के मामले में आई थी! उन्हें भी उपमुख्यमंत्री बनाकर संतुष्ट किया गया था! अब कांग्रेस दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के आसपास चक्कर लगाती नजर आती है। अरुण यादव प्रदेश अध्यक्ष जरूर हैं, पर उनके पास अपनी कोई लॉबी नहीं है! वे अपने खंडवा और खरगोन क्षेत्र के चंद छोटे नेताओं से ही घिरे रहते हैं! अजय सिंह और सुरेश पचौरी तो इस दौड़ में बहुत पीछे छूट गए। इसके अलावा कई ऐसे क्षत्रप भी हैं, जिनकी कोई आवाज नहीं, पर उन्हें लगता है कि कांग्रेस उनके दम पर जिंदा है।  
  अगले विधानसभा चुनाव लेकर पार्टी में फिर हलचल होने लगी है। क्योंकि, प्रदेश अध्यक्ष बदला जाना तय माना जा रहा है! अरुण यादव के बाद जिसे प्रदेश कांग्रेस का मुखिया बनाया जाएगा, वही नेता चुनाव भी कराएगा! यही भांपकर कांग्रेस के नेता रणनीति बनाने में लग गए हैं! दिग्विजय सिंह इस सबके बीच खामोश हैं! क्योंकि, उन्हें पता है कि मतदाताओं के बीच उनकी छवि अभी चुनाव जिताने वाली नहीं है। लेकिन, प्रदेश में सबसे बड़ी कांग्रेस लॉबी उन्हीं के पास है। प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए सबसे ताकतवर नाम कमलनाथ का उभरा है! दिग्विजय सिंह की तरफ से इस नाम की काट करने की कोशिश नहीं की गई, तो माना गया कि इसमें कहीं न कहीं उनकी सहमति है। यही कारण है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने नाम का पत्ता फैंककर कमलनाथ काटने की कोशिश की! ज्योतिरादित्य मुख्यमंत्री बनने का सपना जहन में रखकर पार्टी में प्राण फूंकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, असलियत ये है कि पार्टी के इन्हीं नेताओं की कूटनीति के कारण प्रदेश में कांग्रेस की यह दुर्गति हुई है।
  सिंधिया आज खुद को कांग्रेस का सर्वमान्य नेता बताने कोशिश कर रहे हों, पर 2013 के चुनाव में उन्हीं पर कांग्रेस के कई नेताओं को हरवाने के आरोप लग चुके हैं। सेंवढ़ा विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े घनश्याम सिंह ने सिंधिया पर सीधा आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने निजी सचिव को भेजकर उन्हें हरवाया! इसलिए कि घनश्याम सिंह ने सिंधिया का पाला छोड़कर दिग्विजय सिंह का दामन पकड़ लिया था। घनश्याम सिंह भी राजघराने से आते हैं पर उनमें दंभ नहीं है। अपने व्यवहार के कारण वे लोकप्रिय हैं! लेकिन, सिंधिया की कूटनीति का शिकार होकर चुनाव हार गए! कुछ ऐसी ही कहानी धार से कांग्रेस के उम्मीदवार रहे बालमुकुंद गौतम के साथ भी रही! समाजसेवा कारण क्षेत्र में लोकप्रिय गौतम को हराने के लिए कांग्रेस की सिंधिया लॉबी सक्रिय थी! बदनावर से अपने ख़ास राजवर्धनसिंह 'दत्तीगांव' को जिताने और गौतम को हरवाने के लिए सिंधिया गुट ने हर तरफ से पूरा जोर लगा दिया था! हश्र ये हुआ कि दत्तीगांव भी जीत नहीं सके! लहार से विधायक रहे गोविंद सिंह और ज्योतिरादित्य के बीच तनातनी के किस्से कांग्रेस की राजनीति में चटखारे ले लेकर सुनाए जाते हैं! सिंधिया के सलाहकार गोविंद सिंह पर कई तरह के आरोप लगा रहे हैं और उन्हें पार्टी से बाहर करने की मांग तक कर रहे हैं। मुद्दे की बात ये है कि सिंधिया घराने की ठाकुरों से कभी नहीं बनी! ये परंपरागत दुश्मनी बरसों पुरानी है, जिसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं! लेकिन, ये अब राजनीति में हथियार  इस्तेमाल होने लगी!
   ये प्रसंग इसलिए उठा कि ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश में कांग्रेस के तारणहार बनना चाहते हैं। मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पालकर वे प्रदेश अध्यक्ष बनने कोशिश में हैं। लेकिन, क्या सिंधिया प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में इतने लोकप्रिय हैं कि मतदाता उनपर भरोसा करेंगे? न तो उनके पास दिग्विजय सिंह की तरह कार्यकर्ताओं और समर्थकों की लॉबी है और न वो सहजता, जिसकी राजनीति में जरुरत महसूस की जाती है! ठाकुरों से दूरी बनाने की आदत और 'महाराज' कहलाने की उनकी ठसक उनके रास्ते की सबसे बड़ी अड़चन है। 2013 में उनको आगे करके चुनाव लड़कर कांग्रेस ने देख भी लिया कि मतदाताओं की नजर में उनकी हैसियत क्या है? दोबारा यदि पार्टी ने ये गलती की, तो फिर कांग्रेस  बिखरने से कोई रोक नहीं पाएगा!
------------------------------------------------------

Sunday, October 16, 2016

नारी देह ही बेचती है हर प्रोडक्ट


- हेमंत पाल 

  बरसों पहले विज्ञापनों को एक तुकबंदी सुनी थी! 'विज्ञापन कम्बल का दर्शनीय टाँगे, दुकानदार से जाकर हम क्या मांगे?' ये वो वक़्त था, जब इस तुकबंदी को सुनना और सुनाना भी अश्लीलता की श्रेणी में आता था! जबकि, आज दुनिया बहुत आगे निकल गई! अब टांगे दिखाकर कंबल बेचना अश्लील नहीं रहा! कब किस प्रोडक्ट के विज्ञापन नारी देह का इस्तेमाल हो जाए, कहा नहीं जा सकता! जिस प्रोडक्ट का नारी से कोई वास्ता नहीं, उसे भी देह दर्शन के बहाने बेचने की कोशिश की जाती है। सच तो ये है कि इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट मीडिया और सिनेमाघरों में दिखाए जा रहे तमाम विज्ञापनों में ज्यादातर उपभोक्ता को उत्पाद की जानकारी देने के अलावा बाकी सब बताया और दिखाया जाता है। 

  चाहे जूतों का विज्ञापन हो या फिर अंडरगारमेंट, शेविंग क्रीम बनियान का! सभी पुरुष प्रोडक्ट में महिला मॉडल ही कामुकता परोसती दिखाई देंगी! सेक्स परोसे बिना क्या कोई विज्ञापन पूरा नहीं होता? ब्लेड से लेकर कार और यहाँ तक कि ट्रक तक के विज्ञापन में नारी देह का इस्तेमाल हो रहा है, पर कहीं कोई हरकत नहीं! एक बड़े ब्रांड के जूतों के विज्ञापन में एक न्यूड मॉडल को एक जोड़ी जूतों के अलावा कुछ भी नहीं पहने नहीं दिखाया गया! अश्लीलता से भरे इस विज्ञापन में शायद ही किसी की नजर जूतों पर गई हो! 
  एक समय वो भी था जब 1991 में 'डेबोनियर' में छपे मार्क रॉबिंसन और पूजा बेदी के अश्लील विज्ञापन पर देशभर में हंगामा हुआ था! उससे पहले मिलिंद सोमण और मधु सप्रे पर फिल्माया गया एक जूते का विज्ञापन भी इसीलिए चर्चित हुआ था, कि इसमें अश्लीलता की सारी सीमाएं लांघ ली गई थी! एक अजगर दोनों के नग्न शरीर से लिपटा दिखाया गया था! एक परफ्यूम के विज्ञापन में एक महिला खुशबू से इतनी बहक जाती है कि अपने पति को छोड़कर परफ्यूम लगाए पुरुष की तरफ आकर्षित होने लगती है। कंडोम के विज्ञापन में कॉफी, स्ट्राबेरी के फ्लेवर की बात होना तो आम बात हो गई! किस्मत चमकाने वाले सिद्धि यन्त्र और भगवानों के लॉकेट फ़िल्मी कलाकारों के जरिए बेचना तो सामान्य बात हो गई है। 
  सिनेमाघरों में फिल्म से पहले जो विज्ञापन दिखाए जाते हैं, उनके साथ सेंसर सर्टिफिकेट दिखाई देता हैं। लेकिन, दिनभर टीवी पर चलने वाले अश्लील विज्ञापनों के साथ इस तरह की व्यवस्था क्यों नहीं? आश्चर्य है कि सेंसर की कैंची फिल्मों के सामाजिक दुष्प्रभाव वाले कंटेंट तो कतर देती है! लेकिन, विज्ञापनों की अनदेखी कर दी जाती है। सभी तरह के अनसेंसर्ड विज्ञापन समाज में कैसा अंधविश्वास और दुष्प्रभाव फैला हैं, इस बात की चिंता सरकार क्यों नहीं करती? उसके लिए भी दर्शकों से ही जागरूक होने की उम्मीद की जाती है। कुछ साल पहले एक दर्शक की शिकायत पर सेंसर बोर्ड ने अंडरगारमेंट के दो अश्लील विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया था। एक डियोड्रेंट के विज्ञापन में भी उत्तेजना की सीमा लांगी गई थी! ये सभी बैन लोगों की शिकायत के बाद लगाए गए! क्या बोर्ड को अपने तई सुध नहीं लेना थी?
  टीवी पर अब ऐसे सैकड़ों विज्ञापन दिखाए जाते हैं जिनसे हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा मिल रहा है और सेंसर चुप है। जागरूक दर्शकों की शिकायत पर ही सेंसर की नींद टूटती है। 'उड़ता पंजाब' को लेकर पिछले दिनों जो विवाद हुआ, ऐसा कुछ किसी विज्ञापन के लिए क्यों नहीं हुआ? सेंसर बोर्ड को सारे कानून और सांस्कृतिक मूल्य तभी याद आते हैं, जब निर्माता छोटा हो! बड़े निर्माताओं की फिल्मों में कला दृष्टि या स्टोरी की डिमांड बताकर कुछ भी दिखाने का रास्ता खोज लिया जाता है। यही कारण है कि लोग सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता पर उंगली उठाने लगे हैं। 
------------------------------------------------------------------

Friday, October 14, 2016

'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' या बेनतीजा भव्य सरकारी इवेंट?


हेमंत पाल 

   मध्यप्रदेश सरकार के सामने फ़िलहाल 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' से बड़ा कोई काम नहीं है। प्रदेश सरकार से लगाकर इंदौर समेत कई जिलों का प्रशासन इस 'इवेंट' को सफल बनाने में लगा है! निवेशकों के स्वागत सत्कार, इंतजाम और आयोजन की भव्यता के लिए पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है! देश, विदेश के निवेशकों को लुभाने के लिए अफसरों और नेताओं की यात्राओं पर समिट से पहले ही करोड़ों रुपए फूंके जा चुके हैं। निवेशकों को दिखाने के लिए मध्यप्रदेश का चेहरा झाड़ पौंछकर चमकाया जा रहा है। पूरे आयोजन का मूल मकसद निवेशकों को ये समझाना है कि प्रदेश में निवेश की अपार संभावनाएं हैं। लेकिन, इस मकसद को किनारे करके इसे सिर्फ भव्य सरकारी इवेंट की तरह आयोजित किया जा रहा है। पूरी नौकरशाही भी अपने हिस्से का मक्खन निकालने के लिए छाछ मथने में लगी है। अभी तक हुई 'इन्वेस्टर्स मीट' और 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' से प्रदेश को कितना निवेश हांसिल हुआ, यदि इसकी जमीनी हकीकत आंक ली जाए तो सारा सच सामने आ जाएगा कि ये सिर्फ छलावा है। न तो निवेशक मध्यप्रदेश में निवेश को लेकर गंभीर है और न सरकार वास्तव में आयोजन से कुछ पाना चाहती है। समिट के बाद सरकार और अफसर ऐसे निश्चिंत दिखाई देते हैं, जैसे बेटी की शादी निपटने के बाद पिता चैन सांस लेता है! जबकि, वास्तव में ये आयोजन एक बड़े अभियान की शुरुवात है, अंत नहीं!       

  मध्यप्रदेश में निवेश बढ़ाने और नए उद्योगों की स्थापना की कोशिशों के तहत अब तक तीन 'ग्लोबल इंवेस्टर समिट' हो चुकी हैं। 2010 में खजुराहो में और 2012 व 2014 में इंदौर में! चौथी समिट इंदौर में होने जा रही है! जिसके लिए मंडप सज चुका है। निवेशकों को दूल्हा समझकर अगवानी के लिए अफसर फर्शी सलाम करने को तैयार खड़े हैं! लेकिन, इस भव्यता का नतीजा क्या होगा, ये अभी से तय है! करोड़ों, अरबों के निवेश की घोषणा करने वाले निवेशक सरकारी खातिरदारी के बाद लौटकर मुँह दिखाने भी नहीं आएंगे! 2010 और 2012 की ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में बड़े पैमाने पर निवेश के एमओयू हुए थे! सरकार भी उत्साहित हुई कि उनकी योजना सफल हुई! लेकिन, इन एमओयू में से 10 फीसदी भी आकार नहीं नहीं ले सके। 2014 में हुई आखरी 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' में भी 6.89 लाख करोड़ रूपए के निवेश का वादा उद्योगपतियों ने किया था। लेकिन, ये दावा भी झूठ निकला। इस तरह की समिट का फायदा न मिलने का सबसे बड़ा कारण है सरकार के पास निवेशकों के लिए सही रोडमैप न होना और समयबद्ध तैयारी का अभाव! 
 प्रदेश में निवेश के लिए इच्छा जताने वाले और एमओयू साइन करने वाले उद्योगपतियों को एमओयू के बाद की कार्रवाई के लिए लालफीताशाही के चंगुल में फंसना पड़ता है। इन्वेस्टर्स समिट के वक़्त जो अफसर उनकी अगवानी करते नजर आते हैं, वही उनपर रौब गांठने लगते हैं। नतीजा ये होता नौकरशाहों की इच्छाशक्ति में कमी  देखकर निवेशक प्रदेश में रूचि दिखाने बावजूद लौटने पर मजबूर हो जाते हैं। कई बड़े उद्योग समूहों ने तो 'सिंगल विंडो सिस्टम' न होने और जमीन मिलने में सरकारी अड़चनों के कारण दूसरे प्रदेशों की तरफ रूख कर लिया। निवेशकों के लिए प्रदेश की नीतियां भी दूसरे प्रदेशों के मुकाबले बेहद उलझन वाली हैं। यहां उद्योगों की मंजूरी के लिए शर्ते भी कठिन है! लेकिन, सबसे ज्यादा मुश्किल है अफसरशाही से निजात पाना, जो बिल्कुल बेकाबू हो चुकी है। 
  'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' के प्रति सरकार की असली गंभीरता को लेकर हमेशा ही संदेह किया जाता है और सवाल उठाए जाते हैं। जबकि, मुख्यमंत्री ने निवेशकों को आमंत्रित करने के लिए अफसरों के साथ कई देशों की यात्राएं की! इवेंट को भव्य बनाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी! फिर भी सवालों की कमी नहीं है। इसलिए कि इतने बड़े आयोजन के बावजूद कोई सार्थक नतीजा सामने नहीं आता! जब भी इन इवेंट को लेकर कहीं पूछताछ होती है, जवाब में लीपापोती की जाती है। कोलारस (शिवपुरी) के विधायक रामसिंह यादव ने विधानसभा में पिछले दिनों 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' पर हुए खर्च, उपलब्धियों और आयोजकों को लेकर एक सवाल किया था! इसके जवाब में कहा गया कि मध्यप्रदेश में नए उद्योगों के लिए वाणिज्य, उद्योग एवं रोजगार विभाग ने अप्रैल 2014 से जून 2016 के बीच देश-विदेश में सेमिनार, इवेंट व ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का आयोजन किया। इन पर 2182.89 लाख रुपए खर्च हुए! जबकि, समिट में कोई एमओयू साइन नहीं किया गया। इंदौर समिट के लिए कैबिनेट की मंजूरी के बाद सीआईआई को शामिल किया गया! दो अन्य एजेंसियों का चयन ओपन टेंडर के आधार पर किया गया! इस राशि के खर्च के बाद भी प्रदेश में निवेश का रिजल्ट शून्य है। तीन सालों में यहां आने वाले किसी उद्योग के प्रतिनिधि ने एमओयू नहीं किया है।   
   इंदौर में हुई अंतिम 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' में अकेले इंदौर एकेवीएन और जिला उद्योग व्यापार केंद्र को लगभग 500 प्रस्ताव मिले थे। जिसमें से एकेवीएन को 79 और बाकी जिला उद्योग के खाते में आए थे। मगर इन्वेस्टर्स समिट के बाद भी बड़े निवेशकों ने रुचि नहीं दिखाई। 'ट्राइफेक' से लेकर 'एकेवीएन' ने निवेशकों से कई बार संपर्क की कोशिश की! ईमेल, मैसेज और फोन के जरिये संपर्क किया, मगर उन्होंने जवाब तक नहीं दिया। इस बार उद्योग मंत्री ने निर्देश दिए हैं कि पिछली ग्लोबल मीट का रिकॉर्ड निकाला जाए। इस बार ऐसे निवेशकों की लिस्ट बनाई गई है, जो हर ग्लोबल समिट में निवेश करने का वादा तो करते हैं, मगर निभाते नहीं! 
  इंदौर में होने वाली ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट के लिए सरकार ने एक बार फिर निवेशकों के लिए पलक पांवड़े बिछा रखे हैं। देश विदेश में मुख्यमंत्री समेत प्रदेश के मंत्री और अफसर दौरे कर चुके हैं। पर, इस समिट के पहले भाजपा के दो विधायक जो मंत्री रह चुके हैं, ने सरकार की कथित सफलता की पोल खोल दी। बाबूलाल गौर और कैलाश चावला ने 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' पर जो सवाल खड़े किए, उससे उद्योग विभाग के अफसर घेरे में हैं। इन दोनों विधायकों को उद्योग विभाग के अफसरों ने दो साल पहले हुई समिट के खर्च की जो जानकारी दी है, उस राशि में 8 करोड़ रुपए का फर्क है। गौर को दी जानकारी में 22 करोड़ रुपए और चावला को 14 करोड़ खर्च बताया गया। कैलाश चावला ने 2013 से अब तक हुए इन्वेस्टर्स समिट की जानकारी और खर्च के बारे में जानकारी मांगी तो सरकार ने उन्हें भी इंदौर समिट में आने वालों की संख्या 3500 ही बताई! कोई एमओयू नहीं होने की भी सूचना दी। समिट के खर्च का ब्यौरा भी 14.28 करोड़ रुपए बताया गया। यह भी बताया गया कि एक भी निवेशक ने न तो जमीन मांगी, न उद्योग लगाने के लिए आगे आए। 
 बाबूलाल गौर को दी जानकारी के मुताबिक इंदौर में 2014 में अक्टूबर में तीन दिनों तक हुई 'ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट' में 3500 से अधिक प्रतिनिधि शामिल हुए। समिट का खर्च उठाने का काम जिन कम्पनियों को दिया गया, उसमें भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने 16.91 करोड़, जेडब्ल्यूटी ने 2.37 करोड़ तथा अंसर्ट एंड यंग (ईएंडवाय) ने 2.25 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। समिट के प्रचार प्रसार पर अखबारों, न्यूज चैनलों पर 1 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। जोड़ लगाया जाए तो यह राशि 22.50 करोड़ रुपए से अधिक होती है। आखिर दोनों विधायकों को दी गई जानकारी में 8 करोड़ का अंतर कैसे आया? इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि इस आयोजन में पैसों की अफरा-तफरी किस हद तक होती होगी!  
    इस बात से इंकार नहीं कि इस पूरे इवेंट की कमान हमेशा अफसरों के हाथ में ही होती है। वही सब कुछ तय करते हैं कि मुख्यमंत्री को कैसे खुश करना है और अपने नंबर बढ़वाना है! उन्हें सब फार्मूले पता है। यही वजह है कि प्रदेश की सुस्त अफसरशाही 'ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट' के दौरान कुछ ज्यादा ही सक्रिय दिखाई देती है। उद्योगपतियों से मुख्यमंत्री की तारीफे करवाकर भी वे खुश हो लेते हैं। अधिकारी ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि यदि मध्यप्रदेश में उद्योग लगाना आसान हो गया तो उनको कौन पूछेगा! सारी गफलत और लेटलतीफी का कारण भी यही है। 
------------------------------------------------------------------------------

Tuesday, October 11, 2016

नए निवेशकों के लिए जाजम बिछी, पुराने गायब!


- हेमंत पाल 

 ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट के लिए इंदौर में लाल जाजम बिछने लगी है। पीले चांवल बंट गए। अफसरों की जमात निवेशकों और बड़े औद्योगिक घरानों के स्वागत के लिए तैयार हो रही है! यहाँ तक तो सब ठीक है, पर पुराने निवेशक भाग रहे हैं, इस तरफ किसी का ध्यान नहीं! बीते दो साल में मध्यप्रदेश के हाथ से हजारों करोड़ का निवेश निकल गया। उद्योग मंडल एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया (एसोचैम) के मुताबिक उद्योग लगने में देरी के कारण निवेश परियोजनाओं की लागत में 97 हजार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी हो गई! 
  मध्यप्रदेश में प्लानिंग के दौर से गुजरती 399 निवेश परियोजनाओं में 224 परियोजनाएं निर्धारित अवधि में पूरी नहीं हो सकी हैं या उनकी लागत बढ़ गई। इन 224 निवेश परियोजनाओं में से 134 की लागत में ज्यादा बढ़ोत्तरी हो गई। जबकि, शेष को पूरा होने में एक से लेकर चार साल तक की देर हुई! शासन की लेटलतीफी से कई बड़ी कंपनियों ने अपनी निवेश योजनाएं रद्द कर दी! 2012 की ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में 'सहारा' के सुब्रत राय ने मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान सामने मंच से प्रदेश में 18 हजार करोड़ के निवेश से दुग्ध परियोजना स्थापित करने की घोषणा की थी। लेकिन, बाद में सरकारी ढीलपोल के चलते 'सहारा' ने इस परियोजना को रद्द कर दिया। दुनिया में इसे ऐसी पहली परियोजना कहा गया था, जिसमें 5 मिलियन टन दूध का उत्पादन होना था। इससे करीब 35 हजार लोगों को स्थायी रोजगार मिलता! लेकिन, ये वादा भी धरातल पर नहीं उतरा! अब 'सहारा' खुद बेसहारा नजर आ रहा है, पर वो अपनी निवेश योजना को पहले ही रद्द कर चुका है। 
   बड़े रिटेल उद्योग समूह 'फ्यूचर ग्रुप' ने 25 हजार करोड़ रुपए के निवेश से फूड पार्क स्थापित करने के लिए एमओयू पर दस्तखत किए थे। इसमें 20 हजार से ज्यादा लोगों को रोजगार देने का वादा था! लेकिन, दो साल बाद भी यह परियोजना कागजों पर ही है। जानकारी के मुताबिक 'फ्यूचर ग्रुप' ने इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया! योजना के तहत विभिन्न शहरों में कौशल विकास केंद्र भी स्थापित करने की बात कही गई थी। देश के बड़े वाहन निर्माता 'महिंद्रा' ने भोपाल के पास बगोदा में 500 एकड़ जमीन पर ऑटोमोबाइल प्लांट लगाने का वादा किया था। कंपनी यहां 3 हज़ार करोड़ रुपए का निवेश करने वाली थी! लेकिन, सरकारी सुस्ती के कारण महेंद्रा ने निवेश का प्लान रद्द कर दिया। मार्च 2013 में इसी कंपनी ने पीथमपुर के पास बेटमा में भी जमीन की तलाश की थी। 
  इसराइल की दवा कंपनी 'टेवा' ने पीथमपुर के एसईज़ेड में 872 करोड़ रुपए के निवेश का करार किया था। एकेवीएन ने 2013 में 2.72 लाख वर्गमीटर जमीन का आवंटन भी कर दिया गया था। लेकिन, सरकारी दफ्तरों में लालफीताशाही के कारण कंपनी ने भी अपना इरादा बदल दिया। इसी तरह तीसरी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में जी-ग्रुप  सहयोगी कंपनी 'एस्सेल' ने चंबल के बीहड़ों में सर्विस सिटी बनाने का एलान किया था। इन बीहड़ों में 15 हजार हेक्टेयर में 35 हजार करोड़ की इस परियोजना से एक लाख लोगों को रोजगार देने की बात कही थी। लेकिन, आज तक इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया। 
तीन समिट, नतीजा सिफर 
  निवेश बढ़ाने के लिए मध्यप्रदेश में अब तक तीन बड़ी ग्लोबल इंवेस्टर समिट हुई हैं। 2010 में खजुराहो में, 2012 व 2014 में इंदौर में! 2010 और 2012 की ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में निवेश को लेकर कई एमओयू हुए! लेकिन, इसमें से 10 फीसदी एमओयू भी जमीन पर नहीं उतरे! हर साल हो रही समिट से प्रदेश में निवेश का माहौल तो बना है। बड़े निवेशक रूचि भी दिखाने लगे हैं। लेकिन, उतना प्रतिफल दिखाई नहीं दे रहा! देश के औद्योगिक घरानों अंबानी, अडानी, जेपी ग्रुप, टाटा समूह, सहारा बार पतंजलि ने प्रदेश में निवेश की इच्छा जताई! टीसीएस और विप्रो के आने को इसी समिट की सफलताओं से जोडा जा रहा है। जबकि, कई संस्थान तो अपनी प्राथमिकताओं के कारण प्रदेश में आए! सरकार के बुलावे या 'समिट' से उनका कोई सरोकार नहीं है। 
 इंदौर में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट के लिए मुख्यमंत्री, मंत्रियों और अफसरों ने दुनियाभर की यात्राएं की और इंवेस्टर्स को लुभाया! लेकिन, अभी तक हुई तीन समिट में निवेश के जो वादे उद्योगपतियों ने किए थे, उनका हश्र अच्छा नहीं रहा! इस बार की समिट से निवेश का दावा किस हद तक जमीन पर उतरेगा, यह कहा नहीं जा सकता! ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट का फायदा न मिलने का बड़ा कारण रोडमैप और समयबद्ध तैयारी का अभाव कहा जा सकता है। निवेश करने वाले उद्योगों को अपने प्रोजेक्ट की मंजूरी के लिए कई टेबलों के चक्कर लगाने को मजबूर होना पड़ता है। समिट से पहले पलक पांवड़े बिछाने वाली सरकार की असलियत बाद में अफसरशाही के रवैये से उजागर हो जाती है। यही कारण है कि निवेशक प्रदेश में रूचि दिखाने के बाद माहौल देखकर लौट जाते हैं। औद्योगिक समूहों ने सिंगल विंडो सिस्टम नहीं होने और सही जमीन नहीं मिलने से होने वाली अड़चनों के चलते दूसरे प्रदेशों की तरफ रूख कर लिया। इसके अलावा प्रदेश की नीतियां भी लचीली नहीं है। उद्योगों को मंजूरी के लिए काफी परेशानी आती है। लेकिन, जब सरकार ने निवेशकों को उनके घर जाकर आमंत्रित किया है, तो उनका स्वागत तो करना ही पड़ेगा! वही हो भी रहा है! 
--------------------------------------------------------

फिल्म संगीत में लोकगीतों की हिस्सेदारी


हेमंत पाल 

  दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की पहचान का एक बड़ा कारण उसका संगीत भी है। गीत और संगीत का संयोजन फिल्मों का अभिन्न अंग होता है। कहानी के बीच में गीतों को इस तरह पिरोया जाता है कि सब एकाकार लगता है। कुछ साल पहले ऑस्कर पुरस्कार समारोह के दौरान श्रेष्ठ विदेशी फिल्म की घोषणा से पहले ‘एमेली’ और ‘नो मेन्स लैंड’ के साथ आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ की भी झलक दिखलाई गई थी! अन्य नामित फिल्मों की झलक के रूप में उनके कुछ दृश्य दिखाए गए वहीं ‘लगान’ के नाम की घोषणा के साथ 'ओ रे छोरे मान भी ले ...' गीत दिखाया गया था, ये दरअसल लोकगीत है।
   हिंदी सिनेमा ने सिर्फ तुकबंदी वाले गीतों को ही फिल्म की कहानी में नहीं पिरोया, लोकगीतों को भी उसी शिद्दत से अपनाया! लोक संगीत यानी हमारी लोक संस्कृति का एक सुरीला हिस्सा! पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-रिवाजों में गाये, बजाये जाने वाले लोक संगीत को जब फिल्मों ने अपनाया तो वो अपनी सीमाओं से निकलकर पूरी दुनिया में छा गया। गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण व पूर्वी भारत के लोक संगीत को देश के कोने-कोने तक पहुँचने का मौका मिला।इसका श्रेय दिया जा सकता है, हमारे संगीतकारों को, जो अलग-अलग प्रांत और पृष्ठभूमि से आए हैं। याद किया जाए तो फिल्मों में कई बरसों से अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत बज रहा है। जिस संगीतकार को मौका मिला, उसने अपने इलाके के लोक संगीत को भुनाया! लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पंजाब, उत्तर भारत और गुजरात के लोक संगीत को! ओपी नैयर, रवि, जीएस कोहली और इसके बाद में पंजाब की पृष्ठभूमि से आए संगीतकारों ने वहाँ के लोक गीतों को फ़िल्मी कलेवर में पिरोया! 
  इधर, कल्याणजी-आनंदजी, इस्माइल दरबार और संजय लीला भंसाली ने गुजरात के लोक संगीत की मिठास घोली! गरबा और डांडिया इसी गुजराती लोक संगीत का हिस्सा है। फिल्मों में गुजराती लोकसंगीत की शुरुआत का श्रेय कल्याणजी-आनंदजी को दिया जा सकता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ में लोकधुन पर बना गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस' फिल्म की जान बन गया था। उन्हें इस गीत की रचना पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गुजराती लोक धुन पर ही उन्होंने ‘जौहर महमूद इन हाँगकाँग’ में ‘‘हो आयो-आयो नवरात्रि त्यौहार हो अंबे मैया तेरी जय-जयकार’’ गीत बनाया, जो आज भी सुनाई देता है। गुजरात के संगीत की लोकप्रियता ने इसे सिनेमा संगीत में ऊँचा स्थान दिलाया! 
   उत्तर भारत की लोकधुनों का भी फिल्मों में जमकर उपयोग हुआ! शिव-हरी ने कुछ साल पहले ऐसी ही लोकधुनों पर दो गीत बनाए थे! दोनों ही बेहद पसंद किए गए! 'सिलसिला' का होली गीत ‘रँग बरसे भीगे चुनरवाली रँग बरसे‘ और 'लम्हे' का ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’ अपने माधुर्य के कारण दिल के अंदर तक उतर जाता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी 'दिल्ली-6' में लोकगीत शामिल किया था 'सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे' जिसे काफी पसंद किया गया था! 
  लोकगीतों ने ही कुछ लोकगायकों को भी प्रसिद्धि दिलाई है। इनमें शारदा शर्मा, रेखा भारद्वाज, रेशमा और सुखविंदर सिंह जैसे नाम हैं। लोकगीत अच्छे होते हैं, यही कारण है कि वे बरसों से गाये जा रहे हैं। किसने इनकी धुन बनाई, किसने लिखा और किसने गाया ये भी पता नहीं! पीढ़ी दर पीढ़ी ये आगे बढ़ते रहे। हमेशा उनको बस नए कलेवर में परोसा जाता। लोकसंगीत इस तरह का संगीत है, जो हाथ दर हाथ आगे बढ़ता रहा है। वह कभी किसी की मिल्कियत नहीं होता! नदी के पत्थर की तरह लोक संगीत लुढ़कता रहा, बहता रहा और खूबसूरत आकार में ढलता रहा। यही तो है लोकसंगीत की खासियत! फिल्मों ने इनकी पहचान को स्थाई जरूर बना दिया! इसलिए जब तक हिंदी फिल्मों में संगीत रहेगा, लोक संगीत को उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता!  
-------------------------------------------------

Friday, October 7, 2016

सीमा लांघने लगी पुलिस की ज्यादती और अभद्रता!

- हेमंत पाल 

     मध्यप्रदेश के भाजपा संगठन और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के बीच पिछले दिनों समन्यवय बैठक हुई थी! इस बैठक में अफसरशाही की ज्यादतियों को लेकर भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय ने जो टिप्पणी थी, वो सही साबित हुई! पुलिस वास्तव में ज्यादती करती है, ये बात छुपी नहीं रही! बात चाहे बालाघाट जिले में संघ प्रचारक के साथ पुलिस की मारपीट की हो या फिर खुद कैलाश विजयवर्गीय के निजी सचिव के साथ अभद्रता की! सिर्फ यही वे घटनाएं नहीं हैं जो पुलिसिया अंदाज बताती है! पुलिस जब रसूखदार लोगों के साथ इस तरह पेश आती है, तो आम लोगों के साथ उसका व्यवहार कैसा होगा? पुलिस की खाकी वर्दी समाज में ख़ौफ़ का पर्याय बनती जा रही है! लोग तो अपनी सही शिकायत लेकर भी थाने जाने से घबराते हैं! आखिर समाज में पुलिस के प्रति बने इस भय वाले माहौल में सुधार कैसे आएगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है! क्योंकि, ऊपर से लेकर नीचे तक पुलिस का चरित्र एक जैसा है! नेशनल क्राइम ब्यूरो के नजरिये से देखा जाए तो 2015 में ही मध्यप्रदेश पुलिस के खिलाफ देश में सर्वाधिक 10089 शिकायतें सामने आई। लेकिन, सिर्फ 84 पुलिसवालों के खिलाफ ही मामले दर्ज किए गए और 88 पुलिसवालों की गिरफ़्तारी हुई!  
0000000  

  समाज में पुलिस ज्यादती के किस्सों की कमी नहीं है। जब भी कहीं ये जिक्र छिड़ता है, हर व्यक्ति के पास पुलिस के व्यवहार के खिलाफ बोलने के लिए बहुत कुछ होता है। क्योंकि, पुलिस का अशिष्ट व्यवहार उसके चरित्र में समा गया है। जब कोई पुलिसकर्मी अपनी पहचान से अलग हटकर सामान्य व्यवहार करता है, तो लोग आश्चर्य करने लगते हैं! लेकिन, आजतक ये बात समझ से परे है कि वर्दी में आते ही पुलिसकर्मी असभ्य और अत्याचारी की भूमिका में क्यों आ जाते हैं? उनकी भाषा में अशिष्टता क्यों आ जाती है? प्रदेश में पुलिस इन दिनों फिर अपनी कार्यशैली को लेकर विवादों में है। उसके कार्य और व्यवहार पर जिस तरह से अंगुलियां उठ रही हैं, उससे लगता है कि छोटे पुलिसकर्मियों और बड़े अफसरों के बीच संवादहीनता की स्थिति निर्मित हुई है। ये भी हो सकता है कि मातहतों पर उनकी पकड़ कमजोर हुई! क्योंकि, पुलिस का चुस्त-दुरुस्त होने के साथ उसका आदर्श चेहरा दिखाई देना भी जरुरी है!
 पुलिस ज्यादती का सबसे चर्चित और ताजा मामला संघ के बालाघाट जिला प्रचारक सुरेश यादव के साथ पुलिस मारपीट का रहा! यादव ने मुस्लिम नेता असदउद्दीन ओवैसी के खिलाफ सोशल मीडिया में टिप्पणी की थी! पुलिस को यादव द्वारा औवेसी के खिलाफ पोस्ट करने की शिकायत मिली! इस बात पर पुलिसकर्मियों ने यादव के साथ जमकर मारपीट करके उन्हें गंभीर रूप से घायल कर दिया। उन्हें इतना पीटा गया कि यादव को गंभीर चोटें आर्इं और जबलपुर के एक निजी अस्पताल में भर्ती हैं। इस घटना के बाद बालाघाट जिले में रोष उभरा और सभी बड़े पुलिस अफसरों को हटा दिया गया। इस घटना को संघ ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था! अफसरों के खिलाफ की गई कार्रवाई का विरोध भी हुआ! कांग्रेस ने इसे गलत परंपरा करार दिया, पर आखिर पुलिस को अपने कर्त्तव्य का बोध कौन कराएगा? पुलिस के बिगड़े चरित्र को सुधारने की कोशिश कहीं से तो शुरू होना ही चाहिए!
  अभी इस घटना का हल्ला थमा भी नहीं था कि इंदौर में कैलाश विजयवर्गीय के निजी सचिव रवि विजयवर्गीय के साथ भी एक पुलिसकर्मी ने अपना रोब झाड़ा! मारपीट के दौरान सचिव के कपड़े फट गए और वे घायल हो गए। घटना के मुताबिक रवि कार में ड्राइवर के साथ कैलाश विजयवर्गीय को लेने एयरपोर्ट जा रहे थे। तभी चेकिंग पॉइंट पर पुलिसकर्मियों ने उनकी गाड़ी रोकी और गाड़ी के कागज़ मांगे! इस मुद्दे पर दोनों के बीच बोलचाल हो गई! पुलिसकर्मी ने गाड़ी नहीं जाने दी तो दोनों में विवाद बढ़ गया। इस बीच झूमाझटकी में रवि की शर्ट के बटन टूट गए! गलती किसकी थी, सवाल ये नहीं है! असल बात ये है कि पुलिस को व्यवस्था के साथ संयम बरतने की भी शिक्षा दी जाती है। यदि निजी सचिव ने सीमा लांघी भी थी, तो उस पुलिसकर्मी को अपने पद की गरिमा का ध्यान रखना था!  
   प्रदेश में पुलिस वालों के अपने अक्खड़ अंदाज में कभी कोई कमी आई हो, ऐसा नहीं लगा! इंदौर में 6 महीने से लापता पति और 5 बच्चों के पिता की खोज की गुहार लगाती पत्नी और बच्चों की जब थाने में हंसी उड़ाई गई तो पूरा परिवार रेल की पटरी पर बैठ गया! जीआरपी ने बड़ी मुश्किल से समझाकर परिवार को पटरी से उठाया! पुलिस का कहना है कि उक्त महिला  कई लोगों से पैसा ठगकर भागा है! इस बात में कितनी सच्चाई है, ये तो साफ़ नहीं हुआ! लेकिन, पुलिस को उस व्यक्ति को खोजने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, न कि परेशान परिवार को उलाहना देने और उनकी हंसी उड़ाने की! इसी दिन इंदौर के ही डीआईजी दफ्तर में एक एनआरआई महिला द्वारा वीजा की अवधि बढ़ाने संबंधी जानकारी मांगने पर उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया! महिला को कमरे से निकल जाने तक का कह दिया गया। सिर्फ इसलिए कि वह एनआरआई महिला जो जानकारी मांग रही थी, वो देने की फुर्सत उस पुलिसकर्मी के पास नहीं थी!
  पुलिस के बारे में कहा जाता है कि वो सबकुछ कर सकती है। बिना अपराध किए पुलिस किसी को भी आरोपों के कटघरे में खड़ा कर सकती है। इस कहर से पत्रकार भी सुरक्षित नहीं हैं। पिछले दिनों भोपाल में पुलिस ने दो पत्रकारों के साथ ज्यादती करके उन्हें सिमी का आतंकवादी तक बनाने की कोशिश की गई! यदि वे पत्रकार नहीं होते, तो शायद पुलिस ये कर भी डालती! क्योंकि, उन्हें एनकाउंटर तक की धमकी दी गई थी! देर रात इन दोनों पत्रकारों को दफ्तर से आते हुए रोका और आरोप लगाया कि तुम लोग एटीएम लूटने जा रहे हो। पुलिसवाले उन्हें जबरन थाने ले गए और सुबह पांच बजे तक बैठाए रखा। इस दौरान उनकी पिटाई भी की गई, जिसके चलते दोनों पत्रकारों को चोट आई! इस मामले की जांच में क्या सामने आया? दोषी कौन निकला और उसे क्या सजा मिली, ये सवाल गौण हैं! मुद्दा ये है कि पुलिस ये सब क्यों किया? किस संदेह के चलते उन पत्रकारों के साथ ज्यादती की गई?  
 आखिर पुलिस ऐसी क्यों है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए थोड़ा सा पुलिस का इतिहास जानना भी जरुरी है। पहले राजा, महाराजा और उसके बाद ब्रिटिश राज में पुलिस का एक ही उद्देश्य था साम, दाम, दंड, भेद या चाहे जैसे भी हो जनता के पर शासन करना और शासक का दबदबा बनाए रखना! पुलिस का काम केवल शासक के हितों का ख्याल रखना! इस मकसद का इस्तेमाल अंग्रेजों के शासनकाल के अंतिम दिनों में जब भारतीय आजादी के लिए लड़ रहे थे, उस दौरान सबसे ज्यादा हुआ! अंग्रेजों ने उनकी वफादारी की सराहना भी की! तब से ही पुलिस के शासक की रक्षा भ्रम घर कर गया है! धीरे-धीरे ये पुलिस की संस्कृति और व्यवहार का हिस्सा बन गया।
  पुलिस के अमर्यादित आचरण का एक कारण मनोवैज्ञानिक भी हो सकता है। इसमें शक नहीं कि राजनीतिक दखलंदाजी की वजह से वर्दी की खनक में लगातार गिरावट आ रही है। पुलिस की कार्यप्रणाली पर राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ने से उनकी कार्यप्रणाली भी प्रभावित होने लगी! राजनीति और आपराधिक तत्वों के गठजोड़ से भी पुलिस दबाव में है। न चाहते हुए भी पुलिस को राजनीतिक दखल के आगे झुकने पर मजबूर होना पड़ता है। समाज में वर्दी का रुतबा कम होने का सबसे बड़ा कारण यही माना जा रहा है। इस दौर में एक काम यह भी हुआ कि पुलिस-राजनीतिक गठजोड़ पनपा और इसकी वजह से पुलिस कामकाज के साथ उनकी तैनाती में नेताओं का हस्तक्षेप होने लगा। यह सिलसिला लगातार बढ़ रहा है। इस वजह से पुलिस में भ्रष्टाचार की प्रवृत्ति बढ़ी है। आज छोटे पुलिस कर्मचारियों की हैसियत बड़े पुलिस अफसरों से ज्यादा होने के किस्से चर्चा में छाए रहते हैं।
---------------------------------------------------------------

Monday, October 3, 2016

संघ के तेवर से सहमी सरकार

हेमंत पाल 

    मध्यप्रदेश की राजनीति की अपनी अलग ही शैली है! यहाँ किसी पार्टी को सफलता अपनी ताकत पर नहीं मिलती! बल्कि, प्रतिद्वंदी पार्टी की कमजोरी उसे ताकतवर बनाती है! क्योंकि, प्रदेश की राजनीति दो पार्टियों पर केंद्रित है। प्रदेश में भाजपा को सत्ता इसलिए मिली थी, कि लोग दिग्विजयसिंह के एटीट्यूट से परेशान थे! 2003 में उनके इस बयान ने आग में घी का काम किया था कि चुनाव तो मैनेजमेंट से जीते जाते हैं! इसके बाद सत्ता में आई भाजपा! उमा भारती ने भाजपा को अच्छा स्टार्ट दिया, लेकिन उनका बड़बोलापन उनके ही गले पड़ गया! फिर तदर्थ मुख्यमंत्री बने बाबूलाल गौर, जिनकी अपनी कामचलाऊ कार्यशैली थी! पार्टी उनको ज्यादा नहीं झेल सकी और भी किनारे हो गए!  
  इसके बाद धूमकेतु की तरह शिवराज सिंह चौहान आए, जो तीसरे कार्यकाल में भी बने हुए हैं। मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री पद संभालने से पहले वे ऐसे किसी पद पर नहीं रहे! अभी तक के अपने 13 साल के कार्यकाल में शिवराज सिंह ने कई अच्छे काम किए! खासकर लड़कियों और महिलाओं के नई योजनाएं शुरू की, जिसका फ़ायदा भी उन तक भी पहुंचा और पार्टी का भी भला हुआ! लेकिन, प्रकृति का नियम है कि एक निर्धारित ऊंचाई के बाद व्यक्ति को नीचे उतारना पड़ता है। वही अब शिवराज सिंह के साथ हो रहा है! उनकी गाडी उतार पर है। लेकिन, उनके बिगड़ते ग्राफ का कारण वे खुद तो हैं ही! इसके अलावा और भी कई फैक्टर हैं! निरंकुश अफसरशाही, अकड़ते मंत्री, उद्दंड कार्यकर्ता और सरकारी दफ्तरों में बढ़ता भ्रष्टाचार शिवराज सिंह के लिए संकट बन गया है।    
  यही कारण है कि शिवराज-सरकार का चढ़ता ग्राफ अब लगातार नीचे खिसकने लगा! इसका सीधा फ़ायदा कांग्रेस को मिलता दिखाई दे रहा है। अभी तक छोटे बड़े सभी चुनावों में जीत से कोसों दूर रही कांग्रेस ने नगरीय निकाय चुनावों में जीत का स्वाद चखना शुरू कर दिया है। ये स्थिति किसी भी सरकार के लिए अच्छी नहीं होती! छोटे चुनाव से ही राजनीति की तासीर को समझ जाता है और यहाँ भाजपा का पिछड़ना उसके संभलने की चेतावनी है! भाजपा संगठन और सरकार पर नकेल डालकर रखने वाली आरएसएस ने पिछले दिनों चार भाजपा शासित राज्यों में अपना आंतरिक सर्वे करवाया था! ये राज्य थे महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश! इसमें सिर्फ राजस्थान ही एक राज्य है जहाँ भाजपा की स्थिति बेहतर है! बाकी तीनों राज्यों में पार्टी के हाथ से सत्ता दरकती दिखाई दी! बाकी तीन राज्य की चिंता छोड़, सिर्फ मध्यप्रदेश की बात की जाए तो भले ही सतह पर हालात सामान्य लग रहे हों, पर अंदर लावा खदबदा रहा है!   
   मध्यप्रदेश के बारे में जो आंतरिक रिपोर्ट संघ को मिली है, उसके मुताबिक फील्ड में सरकार के हालात ठीक नहीं हैं। यदि इसमें बड़ा सुधार नहीं किया गया तो 'मिशन-2018' फतह करना मुश्किल हो जाएगा। सर्वे का निष्कर्ष है कि जनता निचले स्तर के भ्रष्टाचार से परेशान है। सरकारी योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन नहीं हो रहा! घोषणाओं के बावजूद योजनाओं का फायदा वंचितों तक नहीं पहुंच रहा! बड़े अफसरों की मनमानी साफ नजर आ रही है। मंत्री और संगठन के लोग भी जनता की बातों को गंभीरता से नहीं लेते! सर्वे में सामने आया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून व्यवस्था के बिगडे हालात लोगों को सबसे ज्यादा परेशान कर रहे हैं। संघ की हिदायत है कि लोगों की नाराजी के जो भी कारण हैं, उनपर काबू करने के प्रयास किए जाएँ! महात्मा गांधी, दलितों पर अत्याचार और गौरक्षा के मुद्दे को लेकर भी जनता नाखुश है। लेकिन, कोई सुधर हो सकेगा, इसमें संदेह है! इसलिए कि निरंकुश अफसरशाही और खुद को खुदा समझने वाले मंत्रियों के तेवर लोग देख रहे हैं! यदि उनमें बदलाव आता है, तो लोग समझ जाएंगे कि जो हो रहा है, वो सिर्फ नाटक है! ... और किसी भी नाटक का परदा गिरने में देर नहीं होती! आखिर पटाक्षेप तो होना ही है, फिर वो नाटक हो या राजनीति!    
-------------------------------------------------

जैसा वक़्त और माहौल वैसा फिल्म संगीत

हेमंत पाल


   संगीत के बगैर हिंदी फिल्मों की कहानी पूरी नहीं होती! ख़ुशी हो या गम, हर माहौल के लिए फिल्मों में संगीत को तरजीह दी जाती रही है। जब फ़िल्में बैरंग थी, तब भी और आज जब परदा रंगों से सराबोर है! कथानक को आगे बढ़ाने या नया ट्विस्ट देने के लिए संगीत को ही सबसे अच्छा फैक्टर माना जाता है। लेकिन, फिल्म संगीत की भी अपनी अलग कहानी है! समयकाल और दर्शकों की मनःस्थिति को देखते हुए इसमें बदलाव होते रहे हैं! जबकि, फिल्मों का शुरुआती लंबा दौर खामोश बना रहा! फिल्मी संगीत की शुरुआत का समय 40 का दशक था! तब विश्व युद्ध और उसके बाद आजादी के बाद बंटवारे से घिरे देश के माहौल ने संगीत को भी प्रभावित किया! इस समयकाल में दो तरह के गाने सुनाई दिए! एक वे गीत जिनमे रोमांस का सुख था या विरह की पीड़ा! दूसरी तरह के गीत देश प्रेम और बंटवारे के दर्द से उभरी भावनाएं लिए थे! 
  माना जाता है कि 40 से 50 का दशक फिल्म संगीत के लिए स्वर्णिम काल था। इस काल में फिल्म संगीत की तकनीक में सुधार आना शुरू हुआ! परंपरागत हिंदुस्तानी संगीत वाद्यों के साथ विदेशी वाद्य भी सुनाई देने लगे! ढोलक की थाप को गिटार की जुगलबंदी के साथ जोड़ा गया। संगीत को नई शक्ल देने वालों में नौशाद, सचिनदेव बर्मन और शंकर जयकिशन का नाम लिया जा सकता है! इस दौर में देव आनंद की फिल्मों के कई गीत मशहूर हुए! गुरुदत्त की फिल्म 'प्यासा' के गीत ‘दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' हो या ‘वक्त ने किया क्या हंसी सितम' जैसे गीतों में अलग ही माधुर्य सुनाई दिया! 'मुगले आजम' जिस तरह की भव्य फिल्म थी, उसके संगीत में भी नौशाद ने उसी भव्यता का अहसास कराया! 'तेरी महफ़िल में किस्मत आजमाकर हम भी देखेंगे' जैसे गीत सुनकर ही लग जाता है, कि इनका फिल्मांकन किस भव्यता से किया गया होगा! 
  जैसे-जैसे वक़्त गुजरता गया, फिल्मों का संगीत बजाए ऊपर उठने के ढलान पर आने लगा! चालीस के दशक के गीतों में शायरी और संगीत का जो तालमेल था, वो गायब होने लगा! 50 और 60 के दशक के बाद वाले गीतों में रुमानियत ज्यादा थी! लेकिन, इसके बाद इस संगीत पर आरडी बर्मन का प्रभाव हावी हो गया! उन्होंने योरपीय संगीत साथ नए प्रयोग जो शुरू किए। लेकिन, 80 के दशक के शुरुआत से फ़िल्मी गीतों से माधुर्य गायब हो गया! माधुरी के ठुमकों ने गीतों को गिनती में ढाल दिया और एक, दो, तीन ... जैसे घटिया गीतों ने जन्म लिया! 'जुम्मा चुम्मा दे दे' के बाद 'चोली के पीछे क्या है ...' और उसके बाद गोविंदा स्टाइल के गीत 'एक चुम्मा तू मुझको उधार दई दे ...' ने मीठे सुकून के लिए सुने जाने वाले फिल्म संगीत को एक तरह से ख़त्म ही कर दिया! 
  फिर 90 का दशक ऐसा आया, जिसमें फिल्म संगीत का भटकाव और द्वंद साफ़ नजर आने लगा! इसलिए भी कि ये पीढ़ी के बदलाव का भी वक़्त था! गीतों में माधुर्य चाहने वाले लोग भी थे और डिस्को के दीवाने भी! इस दौर में सबसे ज्यादा प्रयोग किए गए! भप्पी लाहिरी ने मिथुन चक्रवर्ती स्टाइल के गीतों की रचना के लिए मैलोडी को हाशिए पर पटक दिया! फिर लंबे इंतजार के बाद 'रोजा' के गीत संगीत समझने वालों के कान में पड़े! इसके साथ ही जन्म हुआ एआर रहमान का! जैज जैसी योरपीय संगीत शैली को रहमान ने फिल्म संगीत में चतुराई से पिरोया! स्वर के साथ वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल करने में रहमान को महारथ हांसिल है। इसके बाद याद रखने योग्य संगीतकार हैं अमित त्रिवेदी, जिसे लीक से हटकर संगीत रचना के लिए जाना जाने लगा है। बदलते समाज के साथ कोई चीज तेजी से बदलती है, तो वो है फिल्म संगीत! क्योंकि, जब सोच बदलता है तो संगीत सुनने की पसंद भी बदल जाती है। इस समय दुनिया भर के संगीत को सुनने तक हर किसी की पहुंच है, तकनीक ने आसमान की ऊंचाइयां छू रखी हैं और लोग प्रयोगों के लिए, कुछ नया सुनने के लिए तैयार हैं. ऐसे में यह भारतीय फिल्म संगीत का सबसे रोचक दौर है। 
---------------------------------------------------

असंतोष की आंच पर बयानों के बुलबुले

हेमंत पाल 


  मध्यप्रदेश की राजनीति में इन दिनों कुछ अलग तरह की गरमाहट है। सत्ता और विपक्ष दोनों में ही असंतोष का लावा खदबदा रहा है। भाजपा सरकार और संगठन दोनों पर असंतुष्ट नेताओं के हमले जारी है! कभी अफसरशाही की आड़ लेकर गोले बरसाए जाते हैं, तो कभी ट्वीट से तलवारें भांजी जा रही है! उधर, कांग्रेस में भी सब कुछ सामान्य नहीं है। 13 साल से विपक्ष में बैठी कांग्रेस के भाजपा पर हमले थम गए! आजकल हमलों की तोप का मुँह अपनी ही पार्टी की तरफ है! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव के खिलाफ अभी तक जो छापामार लड़ाई चल रही थी, वो खुलकर सामने आ गई! विधायक जीतू पटवारी ने कमलनाथ को पार्टी कमान सौंपने की आवाज उठा दी! इसी बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अगले विधानसभा चुनाव के पहले सीएम उम्मीदवार प्रोजेक्ट करने मांग उठाकर पार्टी की नीति पर सवाल उठा दिया!     
00000 

   प्रदेश में सत्ता पर काबिज भाजपा के भीतर जो मतभेद अभी तक सतह के नीचे थे, वो अब धीरे-धीरे खुलकर सामने आ रहे हैं! पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के बीच चली बयानबाजी के बाद भी सबकुछ शांत नहीं है! पार्टी के लिए इस अंतर्कलह को रोकना चुनौती बन गया! पार्टी भले इसे सामान्य बात बता रही हो, पर सब कुछ ठीक नहीं है। पार्टी भी समझ रही है कि अफसरशाही के मुद्दे पर विजयवर्गीय के तेवर सरकार के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं। क्योंकि, ये ऐसा मामला है, जिस पर सरकार को बचने के लिए आड़ नहीं मिल रही! संघ प्रचारक पर पुलिस ज्यादती को लेकर भी विजयवर्गीय ने सरकार को घेरकर अपने तीखे तेवर जाहिर किए! इसका जवाब गृह मंत्री को देने के लिए मजबूर होना पड़ा!
  इस बात से इंकार नहीं कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भाजपा और संघ दोनों में लोकप्रिय हैं। लेकिन, संघ का ताजा आंतरिक सर्वेक्षण नई चिंता कारण बन गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर्वेक्षण में प्रदेश में भाजपा की सीटें सौ से भी नीचे जाने की आशंका जताई गई है। मतलब ये कि मध्य प्रदेश का अगला विधानसभा चुनाव भाजपा के लिए गंभीर चुनौती बनेगा! 230 सीटों वाले प्रदेश में भाजपा के पास 165 सीटें है। लेकिन, संघ के पास जो फीडबेक आया, वो खतरे की घंटी है। इस सर्वेक्षण के बाद यह जताने की कोशिश की जा रही है कि प्रदेश में जो स्थितियाँ बनी हैं, उसके लिए अफसरशाही जिम्मेदार है। इस बात में दम भी है। क्योंकि, सरकार ने विकास योजनाओं की घोषणाएं तो कर दी! लेकिन, कहीं न कहीं उनका क्रियान्वयन जिस तरह होना था, वो नहीं हो पा रहा! अफसरशाही के दम्भ से हर व्यक्ति परेशान है!  
  असंतुष्टों का एक गुट उन नेताओं का भी है, जिन्हें मंत्रिमंडल से हटाया गया था! नाराज पूर्व मंत्री और विधायक सरताज सिंह ने सरकार को ग्लोबल इनवेस्टर्स समिट मामले में घेरा है। उन्होंने इस मुद्दे पर श्वेत पत्र जारी करने की बात कही डाली! उनका कहना है कि इन्वेस्टर्स समिट में कई निवेशकों ने रूचि तो दिखाई, लेकिन अफसरशाही के अड़ंगों के चलते निवेशकों का मन बदलने लगा है। अफसरशाही और तंत्र की उदासीनता के कारण निवेशकों को कई कठिनाइयां आती हैं। उन्होंने कई सवाल उठाकर सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश भी की! क्योंकि, अभी तक जितने भी ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट हुए, उनमें उम्मीद के मुताबिक निवेश नहीं हो पाया। सरताज सिंह ने कहा कि श्वेत पत्र में बताया जाए कि अब तक समिट के जरिए कितना निवेश हुआ? कितने उद्योग स्थापित हुए? कितने बेरोजगारों को रोजगार मिला और कितने एमओयू साइन किए गए। 
 एक ताजा मामला राज्यसभा चुनाव में स्थानीय नेताओं की उपेक्षा को लेकर खदबदाया है। प्रदेश में नजमा हेपपुल्‍ला को राज्‍यपाल बनाए जाने से खाली हुई एक सीट से कई भाजपा नेताओं की उम्‍मीदें जागी थी! लेकिन, मध्यप्रदेश के खाते से दक्षिण के नेता इला गणेशन के नाम की घोषणा कर दी गई! भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने जैसे ही राज्यसभा के लिए इला गणेशन के नाम की घोषणा की, प्रदेश के नेता मायूस हो गए! गणेशन का नाम घोषित होने के बाद अब राज्यसभा में मध्यप्रदेश से तीन बाहरी सांसद हो जाएगें। गणेशन से पहले एमजे अकबर और प्रकाश जावड़ेकर यहीं से राज्यसभा में पहुंचे हैं। 
  भाजपा की तरह कांग्रेस में भी नेताओं में कड़वाहट बढ़ रही है। सभी को लग रहा है कि 2018 में सत्ता का छींका टूटकर उनकी ही झोली में गिरने वाला है। यही कारण है कि सभी नेताओं ने नए सिरे से समीकरण गढ़ने शुरू कर दिए! प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव के खिलाफ अभी तक जो छापामार लड़ाई चल रही थी, वो खुले संघर्ष में बदलने लगी! अरुण यादव के खिलाफ छोटे-छोटे नेता तक तलवार भांजने दिखाई दे रहे हैं! इंदौर की राऊ विधानसभा से पहली बार विधायक बने जीतू पटवारी ने यह कहकर अंन्तर्कलह को हवा दी, कि कांग्रेस संगठन में कई कमियां हैं। प्रदेश में कांग्रेस धारदार विपक्ष की भूमिका नही निभा पा रही! जीतू ने ये भी उगल दिया कि उन्होंने राहुल गांधी को प्रदेश कांग्रेस की बदहाल स्थिति की जानकारी दी है। उन्होने राहुल गांधी को कांग्रेस की हार के कारण भी बताए और कांग्रेस की कमियों की भी जानकारी दी! उन्होंने अरुण यादव बजाय कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाने की मांग उठाई है। जीतू ने यह भी कहा कि यदि कमलनाथ के हाथ में आगामी चुनाव की कमान रहती है तो कांग्रेस की सरकार बनने से कोई नही रोक सकता।
   जीतू पटवारी युवक कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तब से ही बयानबाजी के सरताज रहे हैं! वे विधायक हैं, पर प्रदेश की राजनीति में जबरन अपनी सक्रियता दिखाने से बाज नहीं आते! वे पिछले एक साल से प्रदेश अध्यक्ष बनने की दौड़ लगा रहे हैं। लेकिन, किसी ने उनकी सक्रियता को गंभीरता से नहीं लिया! अब उन्होंने नया पांसा फैंका और प्रदेश अध्यक्ष के लिए कमलनाथ का नाम लेकर खुद को चर्चा में लाने की कोशिश की है। प्रदेश कांग्रेस वैसे तो कई गुटों में बंटी है, पर अभी इसमें दो फाड़ साफ़ नजर आ रहे हैं। एक गुट पार्टी अध्यक्ष अरुण यादव का है, दूसरा उनके विरोधियों का! ये सच है कि प्रदेश में कांग्रेस धारदार तरीके से विपक्ष की भूमिका भी नहीं निभा पा रही! विपक्ष की भूमिका मात्र प्रतिक्रिया और बयानों तक सीमित होकर रह गई है! 
   अभी अरुण यादव की जगह कमलनाथ को लाने का तूफ़ान थमा भी नहीं है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने एक नया पत्थर उछाल दिया! उन्होंने बयान दिया कि चुनाव चाहे जनपद का हो या पंचायत का, नगर पालिका का हो या नगर निगम का, विधान सभा का चुनाव हो या लोकसभा का चुनाव! सामने चेहरा होना अनिवार्य है! अगर चेहरा सामने होता है, तो चुनाव में इसका फायदा देखने को मिलता है। उनका ये बयान अप्रत्यक्ष रूप से 2018 के विधानसभा चुनाव के संदर्भ में है! जबकि, कांग्रेस की यह परंपरा रही है कि चुनाव नतीजे आने से पहले मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया जाता! कांग्रेस की इस परंपरा को तोड़कर सिंधिया ने चेहरा प्रोजेक्ट करने सुझाव दिया! मुद्दा ये कि यह सुझाव उस वक़्त आया, जब प्रदेश पार्टी नेतृत्व को लेकर सवाल खड़े हो रहे हैं! सिर फुटव्वल का ये माहौल दोनों ही पार्टियों में नजर आने लगा है! कांग्रेस में सामने आकर वार किए जा रहे हैं, भाजपा में छुपकर!  हालात दोनों ही पार्टियों के लिए अच्छे नहीं कहे जा सकते! 
--------------------------------------------------------------