Tuesday, October 11, 2016

फिल्म संगीत में लोकगीतों की हिस्सेदारी


हेमंत पाल 

  दुनियाभर में हिंदी फिल्मों की पहचान का एक बड़ा कारण उसका संगीत भी है। गीत और संगीत का संयोजन फिल्मों का अभिन्न अंग होता है। कहानी के बीच में गीतों को इस तरह पिरोया जाता है कि सब एकाकार लगता है। कुछ साल पहले ऑस्कर पुरस्कार समारोह के दौरान श्रेष्ठ विदेशी फिल्म की घोषणा से पहले ‘एमेली’ और ‘नो मेन्स लैंड’ के साथ आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ की भी झलक दिखलाई गई थी! अन्य नामित फिल्मों की झलक के रूप में उनके कुछ दृश्य दिखाए गए वहीं ‘लगान’ के नाम की घोषणा के साथ 'ओ रे छोरे मान भी ले ...' गीत दिखाया गया था, ये दरअसल लोकगीत है।
   हिंदी सिनेमा ने सिर्फ तुकबंदी वाले गीतों को ही फिल्म की कहानी में नहीं पिरोया, लोकगीतों को भी उसी शिद्दत से अपनाया! लोक संगीत यानी हमारी लोक संस्कृति का एक सुरीला हिस्सा! पर्व, तीज, त्यौहार और रस्मों-रिवाजों में गाये, बजाये जाने वाले लोक संगीत को जब फिल्मों ने अपनाया तो वो अपनी सीमाओं से निकलकर पूरी दुनिया में छा गया। गुजरात, पंजाब, महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण व पूर्वी भारत के लोक संगीत को देश के कोने-कोने तक पहुँचने का मौका मिला।इसका श्रेय दिया जा सकता है, हमारे संगीतकारों को, जो अलग-अलग प्रांत और पृष्ठभूमि से आए हैं। याद किया जाए तो फिल्मों में कई बरसों से अलग-अलग प्रांतों का लोक संगीत बज रहा है। जिस संगीतकार को मौका मिला, उसने अपने इलाके के लोक संगीत को भुनाया! लेकिन, सबसे ज्यादा लोकप्रियता मिली पंजाब, उत्तर भारत और गुजरात के लोक संगीत को! ओपी नैयर, रवि, जीएस कोहली और इसके बाद में पंजाब की पृष्ठभूमि से आए संगीतकारों ने वहाँ के लोक गीतों को फ़िल्मी कलेवर में पिरोया! 
  इधर, कल्याणजी-आनंदजी, इस्माइल दरबार और संजय लीला भंसाली ने गुजरात के लोक संगीत की मिठास घोली! गरबा और डांडिया इसी गुजराती लोक संगीत का हिस्सा है। फिल्मों में गुजराती लोकसंगीत की शुरुआत का श्रेय कल्याणजी-आनंदजी को दिया जा सकता है। ‘सरस्वतीचंद्र’ में लोकधुन पर बना गीत ‘मैं तो भूल चली बाबुल का देस' फिल्म की जान बन गया था। उन्हें इस गीत की रचना पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। गुजराती लोक धुन पर ही उन्होंने ‘जौहर महमूद इन हाँगकाँग’ में ‘‘हो आयो-आयो नवरात्रि त्यौहार हो अंबे मैया तेरी जय-जयकार’’ गीत बनाया, जो आज भी सुनाई देता है। गुजरात के संगीत की लोकप्रियता ने इसे सिनेमा संगीत में ऊँचा स्थान दिलाया! 
   उत्तर भारत की लोकधुनों का भी फिल्मों में जमकर उपयोग हुआ! शिव-हरी ने कुछ साल पहले ऐसी ही लोकधुनों पर दो गीत बनाए थे! दोनों ही बेहद पसंद किए गए! 'सिलसिला' का होली गीत ‘रँग बरसे भीगे चुनरवाली रँग बरसे‘ और 'लम्हे' का ‘मोरनी बागा में बोले आधी रात को’ अपने माधुर्य के कारण दिल के अंदर तक उतर जाता है। राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने भी 'दिल्ली-6' में लोकगीत शामिल किया था 'सैंया छेड़ देवे, ननंद चुटकी लेवे' जिसे काफी पसंद किया गया था! 
  लोकगीतों ने ही कुछ लोकगायकों को भी प्रसिद्धि दिलाई है। इनमें शारदा शर्मा, रेखा भारद्वाज, रेशमा और सुखविंदर सिंह जैसे नाम हैं। लोकगीत अच्छे होते हैं, यही कारण है कि वे बरसों से गाये जा रहे हैं। किसने इनकी धुन बनाई, किसने लिखा और किसने गाया ये भी पता नहीं! पीढ़ी दर पीढ़ी ये आगे बढ़ते रहे। हमेशा उनको बस नए कलेवर में परोसा जाता। लोकसंगीत इस तरह का संगीत है, जो हाथ दर हाथ आगे बढ़ता रहा है। वह कभी किसी की मिल्कियत नहीं होता! नदी के पत्थर की तरह लोक संगीत लुढ़कता रहा, बहता रहा और खूबसूरत आकार में ढलता रहा। यही तो है लोकसंगीत की खासियत! फिल्मों ने इनकी पहचान को स्थाई जरूर बना दिया! इसलिए जब तक हिंदी फिल्मों में संगीत रहेगा, लोक संगीत को उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता!  
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