Monday, October 24, 2016

खलनायक नहीं तो कैसा नायक?

- हेमंत पाल 

   कभी किसी ने सोचा था कि एक दिन हिंदी फ़िल्मी दुनिया के दुर्दांत खलनायक प्राण को सिनेमा के प्रतिष्ठित सम्मान 'दादा साहेब फाल्के पुरस्कार' मिलेगा? ये बात अलग है कि उन्हें ये सम्मान चरित्र अभिनेता तौर पर दिया गया था। उल्लेखनीय बात ये है कि किसी कलाकार की कला को उसकी जिंदगी के 93वें साल इस सम्मान के लायक समझा गया! दरअसल, यहाँ प्राण का जिक्र इसलिए कि आखिर सिनेमा के परदे पर नायक का जन्म क्यों हुआ? क्यों नायक आदर्शवाद का प्रतीक होता है! सद्चरित्रता, अच्छाई, आत्मविश्वास, और पुरुषत्व उसमें कूट कूटकर भरा होता है। वो हर मुश्किल से जूझना और जीतना जानता है! कथानक में जो इन सभी गुणों के विपरीत होता है, वो है खलनायक! बरसों से हिंदी फिल्मों का कथानक इसी ताने-बाने के आसपास बुना जाता रहा है।
  खलनायक का चरित्र समय के साथ-साथ बदलता रहा! जैसा समय, वैसा खलनायक! फिल्मों में खलनायकी का इतिहास वर्ग संघर्ष से भी जुड़ा है। हिन्दी सिनेमा का शुरुआती वक़्त धार्मिक कथाओं का रहा! तब देवताओं और दानवों बीच अच्छाई और बुराई का संघर्ष होता था! लंबे समय तक दर्शक रामकथा, महाभारत और देवी-देवताओं से जुडी कथाओं का फ़िल्मी चित्रण देखते रहे! फिर परदे पर आया सामंतों, जमींदारों और साहूकारों से गरीब किसानों, मजदूरों और कर्जदारों की टकराहट का दौर! जिसमें नायक उभरकर सामने आया। उसके सामने खड़े थे क्रूर सामंत, जमींदार और साहूकार! नायक जितना सत्यवादी और आदर्श का प्रतीक था, खलनायक उतना ही जुल्मी, अय्याश और झूठा! कहने का आशय यह कि खलनायक  क्रूरता के सामने ही नायक को उभरने का मौका मिला! यदि खलनायक नहीं होता तो नायक की तुलना का कोई पैमाना भी नहीं होता!
    खलनायक वास्तव में समाज की शोषक शक्तियों का प्रतीक है। ये शक्तियां अलग-अलग समय में अपने रूप, रंग और तरीके बदलती आई! ग्रामीण पृष्ठभूमि में ये ताकतें सामंत और साहूकार थीं, तो शहरों में इनका रूप गुंडे, मवाली, चोर, बदमाश से लेकर तस्कर, माफिया, डॉन बन गया! पचास और साठ के दशक में जहाँ जमींदार और साहूकार की क्रूरता थी! वहीं सत्तर और अस्सी के दशक में उद्योगपतियों और कारोबारी खलनायक बने! अस्सी के दशक में जहाँ खलनायक चेहरे पर डॉन और माफिया सरगना का मुख़ौटा लगा था! वहीं नब्बे और उसके बाद के दशक में सुपर हीरो की तरह सुपर विलेन सामने आया!
  फिल्मकारों ने शायद नायक को आदर्श और सच्चा बताने के लिए उतने प्रयोग नहीं किए, जितना खलनायक झूठा और क्रूर दर्शाने के लिए! उसे विध्वंसक, बर्बादी के अड्डे का बादशाह, हिंसक और ख़ौफ़नाक बताने के लिए कई तरह के स्वांग रचे गए! 'शान' का कुलभूषण खरबंदा हो, 'मिस्टर इंडिया' का मोगाम्बो हो या फिर सर्वकालीन सुपर खलनायक 'शोले' का गब्बर सिंह! जब कम्प्यूटर का भी जमाना नहीं था, तब भी 'शान' में समंदर के बीच उसका आधुनिक अड्डा था! मोगाम्बो का तो अपना अलग ही अंदाज था! उसका चर्चित डायलॉग 'मोगाम्बो खुश हुआ' आज भी बोलचाल  शामिल है। जबकि, गब्बर की लोकप्रियता फिल्म नायकों से कहीं ज्यादा रही! अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र और संजीव कुमार जैसे कलाकारों के होते हुए गब्बर सब पर भारी था! 'यहाँ से पचास-पचास कोस दूर तक, जब कोई बच्चा सोता नहीं है, तो माँ कहती है बेटा सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा!' इस एक डायलॉग में बहुत कुछ ऐसा था, जो तीन नायकों को बहुत पीछे छोड़ देता है। ये हिन्दी के मेनस्ट्रीम सिनेमा के भविष्य के खलनायकों के लिए भी इशारा था! खलनायक की बर्बरता में भी और शैतानी फितरतों में भी!
  फिल्मों में जिस तरह नायक का किरदार बदला, उसी तरह कथाकारों ने खलनायक में भी बदलाव किए! कई बार तो नायक ही खलनायक बन बैठा! कभी वो 'डर' का मनोरोगी बना! कभी 'रमन राघव' में सायकोपैथ किलर! 'धूम' सिरीज में तो खलनायक बनने को बड़े-बड़े नायक तरसते हैं। क्योंकि, जब नायकों को लगा कि खलनायकी में ज्यादा स्कोप है तो उन्होंने यही करने में बेहतरी समझी! ये वही दौर है, जिसकी शुरुआत में फिल्मों के दिग्गज नायकों में खलनायक बनने की हसरत बढ़ी! अमिताभ से शाहरुख खान और जॉन अब्राहम तक ने यही किया! शायद इसलिए कहा जाता है कि तीन घंटे की फिल्म में ढाई घंटे खलनायक के होते हैं!
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