- हेमंत पाल
कांग्रेस ने इन दिनों फिर करवट ली! उसे लग रहा है कि प्रदेश में भाजपा के प्रति लोगों में नाराजी बढ़ रही है। इसका फ़ायदा 2018 के चुनाव में मिल सकता है। यही कारण है कि ढाई साल से सुप्त पड़ी कांग्रेस अपनी सलवटें दूर करने में लगी है! पार्टी के जो तारणहार प्रदेश कांग्रेस से बेखबर थे, वे फिर सक्रिय लगने लगे! उनकी जय जयकार करने वाले भी कड़क खादी में नजर आ रहे हैं! कांग्रेस के जिन दिग्गजों के पास कांग्रेस की कमान समझी जाती है, उनके बयान फिर अख़बारों में दिखने लगे! संगठन के प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव खिलाफ फिर तलवारें भांजी जाने लगी है। पहले कमलनाथ को अरुण यादव जगह मुखिया बनाने की चर्चा सुनी जा रही थी, अब ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सुनाई देने लगा! फिलहाल दिग्विजय सिंह चर्चा बाहर हैं! सिंधिया ने तो पार्टी को चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा तक घोषित करने की सलाह दे डाली थी! लब्बोलुआब ये है कि सिंधिया ने भावी मुख्यमंत्री बनने का सपना पाल लिया है। जबकि, 2013 के विधानसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया ही चुनाव अभियान समिति के मुखिया थे और कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गई थी! इस बार भी सिंधिया वो संजीवनी नहीं खोज कर ला सके, जो कांग्रेस नैया पार लगा दे!
00000000
ग्वालियर-चंबल संभाग की कांग्रेस राजनीति सिंधिया घराने से काफी प्रभावित रही है। पहले माधवराव सिंधिया और उनके बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया! माधवराव पार्टी की रीति-नीति में इतना ढल गए थे, कि कार्यकर्ताओं ने उनमें राजशाही की ठसक कभी महसूस नहीं की! जबकि, ज्योतिरादित्य में अभी वह दंभ मौजूद है। उनके आचार-विचार से लगाकर व्यवहार तक में! उनकी भाव भंगिमाओं से लगाकर बोलचाल तक में राजशाही नजर आती है। सामान्य व्यवहार में तो ये स्वीकार्य है, पर राजनीति में इस तरह का दंभ स्वाभिमानी नेताओं को रास नहीं आता! 2013 के चुनाव में भी ऐसे कई प्रसंग आए, जब ज्योतिरादित्य को लेकर कई कांग्रेस उम्मीदवारों में नाराजी उभरी! इस चुनाव के दौरान ज्योतिरादित्य को पार्टी ने चुनाव अभियान समिति की जिम्मेदारी सौंपी थी! कई टिकट उनकी सलाह पर दिए गए! चुनाव रणनीति बनाने में उनका दखल रहा! लेकिन, नतीजा इसके अनुरूप नहीं रहा! कांग्रेस मात्र 58 सीटों पर सिमट गई! जबकि, प्रदेश का राजनीतिक माहौल कांग्रेस के लिए इतना ख़राब नहीं था कि इतनी कम सीटें आएं! पार्टी के इस तरह मात खाने का एक मात्र कारण यही था कि कांग्रेस ने भाजपा को अपना प्रतिद्वंदी नहीं मानकर उन्हें प्रतिद्वंदी माना था, जो 'सिंधिया गुट' के नहीं थे! दबे-छुपे सिंधिया पर कई उँगलियाँ उठी थी!
मध्यप्रदेश कांग्रेस की एकता हमेशा ही संदिग्ध रही है। आपातकाल के बाद 1981 में जब अर्जुन सिंह को मुख्यमंत्री पद सौंपा गया था, तब भी विरोध हुआ था! पर, इस विरोध दबा दिया गया, क्योंकि पार्टी बड़ी मुश्किल से सत्ता में वापस लौटी थी! लेकिन, बाद में आदिवासी फैक्टर का ध्यान रखते हुए शिवभानुसिंह सोलंकी को उपमुख्यमंत्री बनाना ही पड़ा! यही स्थिति बाद में दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में जमुनादेवी के मामले में आई थी! उन्हें भी उपमुख्यमंत्री बनाकर संतुष्ट किया गया था! अब कांग्रेस दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के आसपास चक्कर लगाती नजर आती है। अरुण यादव प्रदेश अध्यक्ष जरूर हैं, पर उनके पास अपनी कोई लॉबी नहीं है! वे अपने खंडवा और खरगोन क्षेत्र के चंद छोटे नेताओं से ही घिरे रहते हैं! अजय सिंह और सुरेश पचौरी तो इस दौड़ में बहुत पीछे छूट गए। इसके अलावा कई ऐसे क्षत्रप भी हैं, जिनकी कोई आवाज नहीं, पर उन्हें लगता है कि कांग्रेस उनके दम पर जिंदा है।
अगले विधानसभा चुनाव लेकर पार्टी में फिर हलचल होने लगी है। क्योंकि, प्रदेश अध्यक्ष बदला जाना तय माना जा रहा है! अरुण यादव के बाद जिसे प्रदेश कांग्रेस का मुखिया बनाया जाएगा, वही नेता चुनाव भी कराएगा! यही भांपकर कांग्रेस के नेता रणनीति बनाने में लग गए हैं! दिग्विजय सिंह इस सबके बीच खामोश हैं! क्योंकि, उन्हें पता है कि मतदाताओं के बीच उनकी छवि अभी चुनाव जिताने वाली नहीं है। लेकिन, प्रदेश में सबसे बड़ी कांग्रेस लॉबी उन्हीं के पास है। प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए सबसे ताकतवर नाम कमलनाथ का उभरा है! दिग्विजय सिंह की तरफ से इस नाम की काट करने की कोशिश नहीं की गई, तो माना गया कि इसमें कहीं न कहीं उनकी सहमति है। यही कारण है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने नाम का पत्ता फैंककर कमलनाथ काटने की कोशिश की! ज्योतिरादित्य मुख्यमंत्री बनने का सपना जहन में रखकर पार्टी में प्राण फूंकने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, असलियत ये है कि पार्टी के इन्हीं नेताओं की कूटनीति के कारण प्रदेश में कांग्रेस की यह दुर्गति हुई है।
सिंधिया आज खुद को कांग्रेस का सर्वमान्य नेता बताने कोशिश कर रहे हों, पर 2013 के चुनाव में उन्हीं पर कांग्रेस के कई नेताओं को हरवाने के आरोप लग चुके हैं। सेंवढ़ा विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े घनश्याम सिंह ने सिंधिया पर सीधा आरोप लगाया था कि उन्होंने अपने निजी सचिव को भेजकर उन्हें हरवाया! इसलिए कि घनश्याम सिंह ने सिंधिया का पाला छोड़कर दिग्विजय सिंह का दामन पकड़ लिया था। घनश्याम सिंह भी राजघराने से आते हैं पर उनमें दंभ नहीं है। अपने व्यवहार के कारण वे लोकप्रिय हैं! लेकिन, सिंधिया की कूटनीति का शिकार होकर चुनाव हार गए! कुछ ऐसी ही कहानी धार से कांग्रेस के उम्मीदवार रहे बालमुकुंद गौतम के साथ भी रही! समाजसेवा कारण क्षेत्र में लोकप्रिय गौतम को हराने के लिए कांग्रेस की सिंधिया लॉबी सक्रिय थी! बदनावर से अपने ख़ास राजवर्धनसिंह 'दत्तीगांव' को जिताने और गौतम को हरवाने के लिए सिंधिया गुट ने हर तरफ से पूरा जोर लगा दिया था! हश्र ये हुआ कि दत्तीगांव भी जीत नहीं सके! लहार से विधायक रहे गोविंद सिंह और ज्योतिरादित्य के बीच तनातनी के किस्से कांग्रेस की राजनीति में चटखारे ले लेकर सुनाए जाते हैं! सिंधिया के सलाहकार गोविंद सिंह पर कई तरह के आरोप लगा रहे हैं और उन्हें पार्टी से बाहर करने की मांग तक कर रहे हैं। मुद्दे की बात ये है कि सिंधिया घराने की ठाकुरों से कभी नहीं बनी! ये परंपरागत दुश्मनी बरसों पुरानी है, जिसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं! लेकिन, ये अब राजनीति में हथियार इस्तेमाल होने लगी!
ये प्रसंग इसलिए उठा कि ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश में कांग्रेस के तारणहार बनना चाहते हैं। मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पालकर वे प्रदेश अध्यक्ष बनने कोशिश में हैं। लेकिन, क्या सिंधिया प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में इतने लोकप्रिय हैं कि मतदाता उनपर भरोसा करेंगे? न तो उनके पास दिग्विजय सिंह की तरह कार्यकर्ताओं और समर्थकों की लॉबी है और न वो सहजता, जिसकी राजनीति में जरुरत महसूस की जाती है! ठाकुरों से दूरी बनाने की आदत और 'महाराज' कहलाने की उनकी ठसक उनके रास्ते की सबसे बड़ी अड़चन है। 2013 में उनको आगे करके चुनाव लड़कर कांग्रेस ने देख भी लिया कि मतदाताओं की नजर में उनकी हैसियत क्या है? दोबारा यदि पार्टी ने ये गलती की, तो फिर कांग्रेस बिखरने से कोई रोक नहीं पाएगा!
------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment