Sunday, October 16, 2016

नारी देह ही बेचती है हर प्रोडक्ट


- हेमंत पाल 

  बरसों पहले विज्ञापनों को एक तुकबंदी सुनी थी! 'विज्ञापन कम्बल का दर्शनीय टाँगे, दुकानदार से जाकर हम क्या मांगे?' ये वो वक़्त था, जब इस तुकबंदी को सुनना और सुनाना भी अश्लीलता की श्रेणी में आता था! जबकि, आज दुनिया बहुत आगे निकल गई! अब टांगे दिखाकर कंबल बेचना अश्लील नहीं रहा! कब किस प्रोडक्ट के विज्ञापन नारी देह का इस्तेमाल हो जाए, कहा नहीं जा सकता! जिस प्रोडक्ट का नारी से कोई वास्ता नहीं, उसे भी देह दर्शन के बहाने बेचने की कोशिश की जाती है। सच तो ये है कि इलेक्ट्रॉनिक, प्रिंट मीडिया और सिनेमाघरों में दिखाए जा रहे तमाम विज्ञापनों में ज्यादातर उपभोक्ता को उत्पाद की जानकारी देने के अलावा बाकी सब बताया और दिखाया जाता है। 

  चाहे जूतों का विज्ञापन हो या फिर अंडरगारमेंट, शेविंग क्रीम बनियान का! सभी पुरुष प्रोडक्ट में महिला मॉडल ही कामुकता परोसती दिखाई देंगी! सेक्स परोसे बिना क्या कोई विज्ञापन पूरा नहीं होता? ब्लेड से लेकर कार और यहाँ तक कि ट्रक तक के विज्ञापन में नारी देह का इस्तेमाल हो रहा है, पर कहीं कोई हरकत नहीं! एक बड़े ब्रांड के जूतों के विज्ञापन में एक न्यूड मॉडल को एक जोड़ी जूतों के अलावा कुछ भी नहीं पहने नहीं दिखाया गया! अश्लीलता से भरे इस विज्ञापन में शायद ही किसी की नजर जूतों पर गई हो! 
  एक समय वो भी था जब 1991 में 'डेबोनियर' में छपे मार्क रॉबिंसन और पूजा बेदी के अश्लील विज्ञापन पर देशभर में हंगामा हुआ था! उससे पहले मिलिंद सोमण और मधु सप्रे पर फिल्माया गया एक जूते का विज्ञापन भी इसीलिए चर्चित हुआ था, कि इसमें अश्लीलता की सारी सीमाएं लांघ ली गई थी! एक अजगर दोनों के नग्न शरीर से लिपटा दिखाया गया था! एक परफ्यूम के विज्ञापन में एक महिला खुशबू से इतनी बहक जाती है कि अपने पति को छोड़कर परफ्यूम लगाए पुरुष की तरफ आकर्षित होने लगती है। कंडोम के विज्ञापन में कॉफी, स्ट्राबेरी के फ्लेवर की बात होना तो आम बात हो गई! किस्मत चमकाने वाले सिद्धि यन्त्र और भगवानों के लॉकेट फ़िल्मी कलाकारों के जरिए बेचना तो सामान्य बात हो गई है। 
  सिनेमाघरों में फिल्म से पहले जो विज्ञापन दिखाए जाते हैं, उनके साथ सेंसर सर्टिफिकेट दिखाई देता हैं। लेकिन, दिनभर टीवी पर चलने वाले अश्लील विज्ञापनों के साथ इस तरह की व्यवस्था क्यों नहीं? आश्चर्य है कि सेंसर की कैंची फिल्मों के सामाजिक दुष्प्रभाव वाले कंटेंट तो कतर देती है! लेकिन, विज्ञापनों की अनदेखी कर दी जाती है। सभी तरह के अनसेंसर्ड विज्ञापन समाज में कैसा अंधविश्वास और दुष्प्रभाव फैला हैं, इस बात की चिंता सरकार क्यों नहीं करती? उसके लिए भी दर्शकों से ही जागरूक होने की उम्मीद की जाती है। कुछ साल पहले एक दर्शक की शिकायत पर सेंसर बोर्ड ने अंडरगारमेंट के दो अश्लील विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाया था। एक डियोड्रेंट के विज्ञापन में भी उत्तेजना की सीमा लांगी गई थी! ये सभी बैन लोगों की शिकायत के बाद लगाए गए! क्या बोर्ड को अपने तई सुध नहीं लेना थी?
  टीवी पर अब ऐसे सैकड़ों विज्ञापन दिखाए जाते हैं जिनसे हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा मिल रहा है और सेंसर चुप है। जागरूक दर्शकों की शिकायत पर ही सेंसर की नींद टूटती है। 'उड़ता पंजाब' को लेकर पिछले दिनों जो विवाद हुआ, ऐसा कुछ किसी विज्ञापन के लिए क्यों नहीं हुआ? सेंसर बोर्ड को सारे कानून और सांस्कृतिक मूल्य तभी याद आते हैं, जब निर्माता छोटा हो! बड़े निर्माताओं की फिल्मों में कला दृष्टि या स्टोरी की डिमांड बताकर कुछ भी दिखाने का रास्ता खोज लिया जाता है। यही कारण है कि लोग सेंसर बोर्ड की प्रमाणिकता पर उंगली उठाने लगे हैं। 
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