Tuesday, June 26, 2018

तीसरी ताकत बनने का दम बसपा के पास नही!



  मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा विरोधी पार्टियों को लामबंद करने की कोशिशें तेज हो गई। भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में प्रभाव रखने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समेत सभी पार्टियों से समझौते के प्रयास बढ़ा दिए हैं। लेकिन, बसपा ने मध्यप्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का एलान करके इस लामबंदी की जड़ों में मट्ठा डाल दिया! 2013 के चुनाव में बसपा ने 4 सीटें जीती और करीब एक दर्जन सीटों पर वह दूसरे स्थान पर थी। उसे चुनाव में  6.29% वोट मिले थे और इसका सीधा नुकसान कांग्रेस को हुआ था। यही वजह है कि कांग्रेस ने बसपा की ताकत को देखते हुए वोटों का बिखराव रोकने का फैसला किया। लेकिन, शायद बसपा की ज्यादा सीटों की जिद ने फिलहाल इस संभावना को हाशिए पर ला दिया! बसपा ने प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति बनाना भी शुरू कर दी। उसे उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश की तरह वो मध्यप्रदेश में भी इतनी सीटें ले आएगी कि चुनाव के बाद सरकार बनाने में उसकी जरुरत को महसूस किया जाएगा! किंतु, राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का बसपा का ये उत्तरप्रदेश वाला शास्वत हथियार कितना कामयाब होगा, इस बारे में अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में जब भी राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनी है, बसपा ने उसका फायदा उठाया! बसपा यही राजनीतिक हालात मध्यप्रदेश में लाना चाहती है।    
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- हेमंत पाल
 
  मध्यप्रदेश के चंबल और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगने वाले इलाकों में बसपा की हमेशा अच्छी पकड़ रही है। इसलिए भी कि राज्य के दलितों की सबसे ज्यादा जनसंख्या (करीब 15%) इन्ही इलाकों में है। 2013 के चुनाव में पार्टी ने राज्य के 50 जिलों में से 22 जिलों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। पार्टी ने 2013 के विधानसभा चुनाव में मुरैना जिले के अंबाह, दिमनी सतना जिले की रैगांव और रीवा की मनगवां सीट पर जीत दर्ज की थी। रीवा की सीट पर बसपा उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थी। इसके अलावा प्रदेश में करीब दर्जनभर सीटें ऐसी थीं, जहां बसपा बहुत कम अंतर से पिछड़ी! सीधी, सिंगरौली, कोलारस, श्योपुर, अशोकनगर, भिंड, ग्वालियर (ग्रामीण), दतिया, रीवा, सतना, छतरपुर और टीकमगढ़ जिले की सीटों पर बसपा को मिले वोटों ने चुनाव नतीजों को प्रभावित किया था। इस बार कांग्रेस की कोशिश है कि वोटों का इस तरह का बिखराव रोका जाए, ताकि भाजपा को चौथी बार सत्ता में न आ सके! मध्‍यप्रदेश कांग्रेस ने कहा भी है कि कांग्रेस गैर-भाजपाई पार्टियों को एकजुट करके चुनाव लड़ेगी। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने भी कहा कि हम वोटों का बिखराव नहीं होने देंगे। ऐसे में यदि बसपा कांग्रेस से बिदकी, तो उसका कारण है कि उसने कांग्रेस से ज्यादा सीटें मांग की होगी!
    मध्य प्रदेश में बीएसपी 230 सीटों पर लड़ने की बात कर रही है, जो कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। हालांकि, बसपा के नीति-नियंता नेता इस मामले में अभी चुप हैं। समझा जा रहा है कि ये सब ज्यादा सीटें हांसिल करने के लिए दबाव की राजनीति है। बसपा चाहती है कि कांग्रेस से उसे कम से कम 30 सीटें मिलें। जबकि, कांग्रेस उसे 14-15 सीटें देने के मूड में है। क्योंकि, कांग्रेस समाजवादी पार्टी को भी अपने साथ लेना चाहती है, जिसे 10 सीटें देना पड़ सकती है। तीसरी पार्टी महाकौशल में अपना प्रभाव रखने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी है, उसके लिए भी कांग्रेस को कुछ सीटें छोड़ना होंगी! कांग्रेस की रणनीति है कि गैर-भाजपाई वोटों को एकजुट करके ही भाजपा को सत्ता से उखाड़ा जा सकता है। कांग्रेस की इस मुहिम में बसपा का साथ होना बहुत ज़रूरी है। यदि कांग्रेस और बसपा साथ चुनाव नहीं लड़ते, तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। लेकिन, बीते सालों में बसपा अपने गृहराज्य उत्तर प्रदेश में ही सिमट गई! 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीतने वाली बसपा के पास एक भी लोकसभा सदस्य नहीं है। लेकिन, मध्यप्रदेश में कांग्रेस को दबाने के लिए उसके पास पर्याप्त वोट बैंक है।
 मध्यप्रदेश की विंध्य, बुंदेलखंड, भिंड, मुरैना और ग्वालियर इलाके की सीटों पर प्रभाव रखने वाले सभी गैर-भाजपाई दलों को कांग्रेस ने एकजुट करने की कवायद की है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को इसके लिए दिल्ली से हरी झंडी भी मिली और वे इसी रणनीति पर काम भी कर रहे हैं। बसपा की सर्वेसर्वा मायावती से उनके राजनीतिक संबंधों के चलते वे इस गठबंधन की जमीन तैयार करने की तैयारी कर ही रहे थे कि बसपा छिटककर दूर खड़ी हो गई! लेकिन, अभी बसपा इतनी दूर नहीं गई, कि नजदीक आने में दिक्कत हो! किंतु, अपना प्रभाव दिखाने के लिए बसपा ऐसी सीटों पर ज्यादा फोकस कर रही है, जहां उसे अपना जनाधार नजर आ रहा है और जहाँ पिछली बार बहुत थोड़े अंतर से वो पिछड़ी थी। ऐसी सीटों पर हर तरह के राजनीतिक समीकरण खंगाले जा रहे हैं। ख़ास बात ये कि बसपा की नजर सिर्फ उत्तरप्रदेश से लगने वाली सीटें ही नहीं है, वो मालवा-निमाड़ जैसी सुदूर की सीटों पर भी अपनी संभावनाएं तलाश रही है। बसपा ने प्रदेश में अपनी चुनावी तैयारी के तहत प्रदेश को पाँच झोन में बांटा है। इसमें खरगोन को नया झोन बनाया गया है। जिसमें इसमें खरगोन के साथ खंडवा, बुरहानपुर, बड़वानी, धार, झाबुआ और आलीराजपुर जिले भी हैं। पार्टी इन जिलों में अपने वोट बैंक को तलाशकर अपना जनाधार मजबूत करना चाहती है, ताकि मध्यप्रदेश में तीसरा राजनीतिक विकल्प खड़ा किया जा सके!
    कांशीराम द्वारा 1984 में बनाई गई बसपा ने 1990 में पहली बार मध्यप्रदेश में अपने चुनावी सफर का आगाज किया था। अपने पहले चुनाव में बसपा ने 3.53% वोट पाए थे। इसके बाद से पार्टी लगातार सभी चुनावों में 6% से 8% के आँकड़े को छू रही है। मध्यप्रदेश में बसपा का अपना जनाधार अनुसूचित जाति वर्ग के जाटव और अहिरवार समाज में है। क्योंकि, यही उसका जनाधार बढ़ाने वाला मुख्य जातिगत वोट बैंक भी है और इसी में उसकी पैठ भी है। मुरैना, भिंड और विंध्य के कुछ जिलों में बसपा ने सवर्ण जातियों विशेष रूप से ब्राह्मणों और वैश्यों को अपने टिकट पर मैदान में उतारा। परशराम मुद्गल, बलवीर दंडोतिया और रीवा में केके गुप्ता इसके उदाहरण हैं। बसपा ने यह फार्मूला दूसरी जगह भी अपनाया। इसका फ़ायदा ये हुआ कि उसने क्षेत्रीय और जातिगत समीकरणों में सेंध लगा ली। इस बार भी बसपा उन लोगों पर भी नजर रखेगी, जिन्हें भाजपा या कांग्रेस का टिकट नहीं मिलेगा! ऐसे सवर्ण नेताओं की राजनीतिक पृष्ठभूमि से उसे स्थानीय वोट बैंक को प्रभावित करने का मौका मिलता है। ऐसी स्थिति में जातिगत वोट, बसपा के पारंपरिक वोट बैंक के अलावा इन बागी नेताओं के समर्थकों के वोट भी उसके खाते में जुड़ जाते हैं। इस बार भी बसपा बागी नेताओं के भरोसे 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की फिराक में है। 
  मध्‍यप्रदेश में बसपा के नेताओं का कहना है कि 2013 में हम डेढ़ दर्जन सीटों पर जीत के नजदीक थे। इस बार भी बसपा कई जिलों में उलटफेर करके चुनाव नतीजों से जनता को चौंकाएगी और अपना खाता खोलेगी। बसपा को तो इस बात का भी भरोसा है कि वो सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभा सकती है। सीधा सा गणित है कि यदि कांग्रेस कुल 230 सीटों में से 115 के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंची, तब बसपा उसे कठपुतली की तरह नचाएगी! बसपा के इस अतिविश्वास का कारण है 2013 में उसे मिले वोटों का प्रतिशत। पिछले चुनाव में भाजपा को 1,51,89,894 (44.85%) वोट, कांग्रेस को 1,23,14,196 (36.38%) वोट और बसपा को 21,27,959 (06.29%) वोट मिले थे। इस बार उसे 10% से ज्यादा वोट मिलने का अनुमान है। यदि वास्तव में बसपा का ये दांव चल गया तो किसी बड़े उलटफेर और मध्यप्रदेश में तीसरे विकल्प के उदय से इंकार नहीं किया जा सकता! लेकिन, इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि 2008 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 2013 में मध्यप्रदेश में बसपा का प्रभाव घटा था। बसपा को 2008 के चुनाव में 8.97% वोट मिले थे, जबकि 2013 में उसे 2.68% का नुकसान हुआ और 6.29% वोट मिले थे। बसपा की सीटें भी 7 से घटकर 4 रह गई! अभी कहा नहीं जा सकता कि इस बार चुनाव से पहले क्या हालात बनते हैं! लेकिन, बसपा ने अपनी दबाव की राजनीति की शुरुआत तो कर ही दी!   
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Saturday, June 23, 2018

अदाकारी से बनी पहचान, नाम बन गई!


- हेमंत पाल 

   फ़िल्मी दुनिया ज़माने के मुताबिक चलती है। एक पुराना जमाना और एक नया जमाना। इन्हीं दो जमानों में एक समानता है सितारों के नाम की! पहले भी कलाकारों को उनकी अदाकारी के हिसाब से नाम  तमगा मिलता था, आज भी वही होता है! आज यदि सिर्फ टाइगर कहा जाए तो लोग समझ जाएंगे, बात सलमान खान की हो रही है। 'बाबा' बोलते ही दिमाग में संजय दत्त की छवि उभरती है और 'खिलाड़ी' यानी अक्षय कुमार! ये चलन आजकल का नहीं, बल्कि दशकों पुराना है। ये नाम कब और कहां से आए, इसकी जानकारी कम ही मिलती है! लेकिन, दर्शकों या मीडिया जनित यह नाम इतने मशहूर हुए कि इनका जिक्र आते ही उस सितारे की छवि सामने आ जाती है। ‘झकास' कहते ही अनिल कपूर की झकास मुद्रा सामने आ जाती है और 'मिस्टर परफेक्टनिस्ट यानी आमिर खान! 
  फिल्मी सितारों को इस तरह के टाइटल दिए जाने का सिलसिला उतना ही पुराना है, जितना सितारों से जुड़ा उनका स्टारडम! याद कीजिए उस दौर को, जब देव आनंद दिलीप कुमार और राजकपूर की तिकड़ी बॉलीवुड पर राज किया करती थी। इन तीनों सितारों को एक एक नाम मिला था, जो इनके पर्दे वाले नाम से भले ही अलग था लेकिन इनकी छबि पर एकदम फिट बैठता था। दिलीप कुमार ने अपनी अदाकारी से पर्दे पर इतने आंसू उडेंले कि उन्हें 'ट्रेजेडी किंग' कहा जाने लगा। उन्हीं की तरह पर्दे पर हमेशा अपने आसूंओ से सैलाब लाने वाली मीना कुमारी को 'ट्रेजेडी क्वीन' कहा गया! ये बात अलग है कि जब भी दिलीप कुमार और मीना कुमारी साथ आए तो पर्दे पर ट्रेजेडी नहीं काॅमेडी का झरना बहा। कोहिनूर, आजाद और यहूदी में दोनों साथ थे, पर तीनों फिल्मों में एक बूंद आंसू तक नहीं बहा! मुस्कुराते चेहरे वाली मधुबाला को आज भी बाॅलीवुड की 'मोनालिसा' कहा जाता है। 
   देव आनंद ने आजीवन हीरो की भूमिका निभाई तो उनको 'एवरग्रीन' कहा गया! अपनी फिल्मों में भव्यता दिखाने वाले राज कपूर 'ग्रेट शोमैन' कहलाए! बाद में यह तमगा सुभाष घई ने जरूर लगाना चाहा, लेकिन वे 'शौमेन' तक ही सीमित रहे 'ग्रेट' नहीं बन पाए। इनसे पहले अशोक कुमार का जलवा था, उन्हें 'दादा मुनी' कहा जाता रहा। पृथ्वीराज कपूर तो अकबर का किरदार निभाने के बाद भी 'पापाजी' ही कहलाए! साठ के उत्तरार्ध में धर्मेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, मनोज कुमार  शम्मीकपूर, जीतेन्द्र आए। धर्मेन्द्र को 'पत्थर के फूल' के बाद 'ही-मैन' की उपाधि मिली! 
   राजेन्द्र कुमार एक के बाद एक हिट फिल्में देकर 'जुबली कुमार' बने। शम्मीकपूर को 'बागी' कहा गया तो जीतेन्द्र 'जम्पिग जैक' कहलाए। इन्हीं के समकालीन मनोज कुमार ने सेल्युलाइड को देशभक्ति की चासनी में इतना डुबोया कि उन्हें 'भारत कुमार' कहा जाने लगा। इसके बाद दौर आया राजेश खन्ना, अमिताभ, मिथुन चक्रवर्ती का। एक के बाद एक 16 गोल्डन जुबली फ़िल्में देने वाले राजेश खन्ना बॉलीवुड के पहले 'सुपर स्टार' बने। अमिताभ बच्चन को सलीम-जावेद की 'जंजीर' ने 'एंग्रीयंग मैन' का तमगा दिला दिया। डिस्को डांस करके 'डिस्को डांसर' की उपाधि पाने वाले मिथुन को दो नाम मिले। उन्हें गरीबों का अमिताभ बच्चन भी कहा जाता था। उनके साथ आए शत्रुघ्न को 'शाॅटगन' का नाम मिला तो विनोद खन्ना को 'डेशिंग' का! आज इमरान हाशमी को 'सीरियल किसर' कहा जाता है तो रणबीर कपूर को 'डेबोनियर।'
   खिताबों का सिलसिला केवल नायकों तक ही सीमित नहीं रहा। नूतन ने 'दिल्ली का ठग' में बिकनी पहनकर पहली 'बिकनी गर्ल' का दर्जा पाया तो अपने दमदार प्रदर्शन के कारण नादिया बनी हंटरवाली।' हेलन 'डांसिंग डाॅल' बनी तो नीलम 'बेबी डाॅल।' हेमा मालिनी आज भी 'ड्रीम गर्ल' ही कहलाती है तो श्रीदेवी को 'हवा हवाई' और विद्या बालन को 'एंटरटेनमेंट गर्ल' कहा जाता है। 'कश्मीर की कली' की नायिका शर्मिला 'डिम्पल गर्ल' कहलाई। परदे के पीछे रहने वालों में मोहम्मद रफी 'आवाज के शहंशाह' कहलाए तो तलत महमूद 'गजलों के बादशाह।' नामों का यह सिलसिला कल भी प्रचलित था, आज भी है और उम्मीद है कि आगे भी कलाकार नए-नए नामों से पुकारे जाते रहेंगे। 
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जनता की अदालत के कटघरे में सिर्फ भाजपा होगी!



- हेमंत पाल

 
  इस बार का विधानसभा चुनाव कई मामलों में पिछले तीन चुनाव से अलग होगा! सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा भारतीय जनता पार्टी के लिए होगी, जिसे मतदाताओं के सामने साबित करना होगा कि उसकी सरकार हर मोर्चे पर खरी उतरी है। क्योंकि, ये चुनाव न तो चुनावी हथकंडों से जीता जा सकेगा और न वादों और रंगीन सपने दिखाकर! बरसों बाद प्रदेश में ये ऐसा चुनाव होगा, जिसमें 15 साल से सत्ता में बैठी भाजपा की लोकप्रियता, मतदाताओं में उसकी पकड़ और उसकी नीतियों का मूल्यांकन होगा। लगातार तीन चुनाव जीतकर भाजपा ने जो किया वो सही था, लोगों ने उसे कितना सही समझा? क्या फिर भाजपा को मौका दिया जाना चाहिए? अगला चुनाव इन सारे सवालों का सही मूल्यांकन होगा। जब चुनाव में भाजपा वोट मांगने खड़ी होगी, तब उसके पास मतदाताओं से आँख चुराने का कोई बहाना नहीं होगा! उसे अपने तीनों कार्यकाल का पूरा हिसाब जनता के सामने रखना होगा। पार्टी के पास बचने, आँख चुराने या विपक्ष के असहयोग का कोई बहाना नहीं होगा। जबकि, कांग्रेस के पास सरकार के खिलाफ आरोपों की लम्बी फेहरिस्त होगी। सीधा सा मतलब है कि कटघरे में खड़ी भाजपा बचाव की मुद्रा में होगी!  
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   किसी भी सत्ताधारी पार्टी के सामने सबसे बड़ा राजनीतिक संकट तब आता है, जब उसे मतदाताओं से अपने काम के दम पर वोट मांगना पड़ते हैं। मध्यप्रदेश में लगातार तीन बार चुनाव जीतकर भाजपा ने अपनी जड़ें तो गहरे तक तो जमा ली, पर क्या मतदाता उसके कामकाज से खुश है? इसलिए कहा जा सकता है कि इस बार असली चुनाव होगा! भाजपा को लगातार दो बार कांग्रेस की दिग्विजय सरकार की नाकामियों, कांग्रेस की आपसी सिर फुटव्वल और जीत के अतिआत्मविश्वास ने जीत दिलाई। जबकि, भाजपा को तीसरी जीत मोदी-लहर कारण मिली थी। लेकिन, इस बार ऐसा कोई फैक्टर नजर नहीं आ रहा, जो भाजपा को आसान जीत दिला सके। चौथी बार सरकार बनाने के लिए भाजपा को कड़ी चुनौती से जूझना है। क्योंकि, ऐसे कई कारण है जो भाजपा की राह में रोड़े अटकाएंगे। सबसे बड़ा रोड़ा है, भाजपा नेताओं की छवि! लोगों ने जिस भरोसे जनता ने कांग्रेस के बदले भाजपा को चुना था, वो कई मायनों ध्वस्त हुआ है। बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार की नई-नई कहानियों और भाई-भतीजावाद के अलावा मतदाताओं को भाजपा नेताओं के व्यवहार से सबसे ज्यादा आपत्ति है! जनता के वोट से जीते नेताओं ने जनता से जिस तरह दूरी बनाई, वो लोगों को सबसे ज्यादा खटक रहा है! राजनीतिक तानाशाही को भी लोग सहन नहीं कर पा रहे हैं। अफसरशाही ने भी लोगों को सबसे ज्यादा निराश किया। 
     जो शुचिता भाजपा नेताओं की पहचान थी, उस छवि का ग्राफ पिछले सालों में सबसे ज्यादा नीचे आया है! ईमानदारी, मतदाताओं के प्रति जिम्मेदारी, पक्षपात, लोगों के प्रति व्यवहार और सामाजिक छवि के मामले में भाजपा नेताओं की छवि गिरी है। आज कोई भी इस बात को स्वीकार नहीं करता कि भाजपा के विधायक, नेता और मंत्री ईमानदार, व्यावहारिक, गैर-पक्षपाती हैं। देखा जाए तो लोगों को आज राजनीति की सारी खामियाँ भाजपा नेताओं में ही नजर आती हैं। ये खामी इसलिए ज्यादा नजर आती है, क्योंकि पार्टी के बड़े नेता और संघ के पैरोकार सुचिता के दंभ में चूर हैं। वे इस बात का दावा करने का मौका भी नहीं चूकते कि वे ही जनता के सही प्रतिनिधि हैं। इन सारी बुराइयों से कांग्रेस भी अलहदा नहीं है! लेकिन, न तो उनके पास सत्ता है कथित बेईमानी करने के मौके! इसलिए चुनाव में मतदाताओं की नाराजी उन पर कम ही उतरेगी। कहने का तात्पर्य ये कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा नेताओं की छवि ज्यादा दागदार है। ऐसे में पार्टी को उन चेहरों को किनारे करना होगा, जो पार्टी की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं। क्योंकि, पार्टी की छवि उन्हीं लोगों से बनती है, जो उसका प्रतिनिधित्व करते हैं।         
  इस बात से भाजपा भी अच्छी तरह वाकिफ है कि उसके लिए अगला विधानसभा चुनाव बेहद मुश्किल है। चुनाव के भाषणों में सिर्फ आश्वासन से काम नहीं चलने वाला, मतदाता सारे वादों का हिसाब मांगेंगे! पिछले चुनाव में मोदी-लहर ने विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत में बड़ी भूमिका अदा की थी। इस बार ऐसी कोई उम्मीद नहीं कि केंद्र सरकार का कामकाज प्रदेश में जीत का मददगार बनेगा। क्योंकि, 'अच्छे दिन आएंगे' जैसे लोक लुभावन नारे, नोटबंदी और जीएसटी की नाराजी का खामियाजा भी प्रदेश में भाजपा को भुगतना पड़ सकता है। ऐसे में सरकार बचाने का यही उपाय है कि अच्छी छवि वाले चेहरों को चुनाव के मैदान में उतारा जाए। पार्टी ने भी इस आशंका को भांप लिया है। अतः जिन विधायकों की छवि अच्छी नही है, उनका टिकट कटना लगभग तय है। पिछली बार मोदी-लहर में कई ऐसे लोग जिनकी छवि अच्छी नहीं थी, फिर भी वे विधायक बनने में कामयाब हो गए थे। लेकिन, इस बार ऐसा नहीं होगा। ऐसे विधायकों पर गाज गिरनी तय है, जिनकी छवि दागदार है। इसकी संख्या कितनी होगी, अभी यह कह पाना अभी मुश्किल है। लेकिन, ये दो अंकों से आगे भी बढ़ सकती है। पार्टी आलाकमान के इशारे पर प्रदेश के ऐसे विधायकों की सूची बनना शुरू हो गया है, जिनकी जनता के बीच नकारात्मक छवि बनी है।
  मध्यप्रदेश के बारे में संघ को भी जो रिपोर्ट मिली है, उसके मुताबिक सरकार के हालात ठीक नहीं हैं। इसमें समय रहते बड़ा सुधार नहीं किया गया, तो भाजपा के लिए 'मिशन-2018' मुश्किल हो जाएगा। जनता निचले स्तर के भ्रष्टाचार से परेशान है। योजनाओं का क्रियान्वयन ठीक से नहीं हो रहा! घोषणाओं के बाद भी योजनाओं का फायदा वंचितों तक नहीं पहुंच रहा! अफसरों की मनमानी से लोग परेशान हैं। मंत्री और संगठन के पदाधिकारी जनता के प्रति गंभीर नहीं हैं। संघ की स्पष्ट हिदायत है कि लोगों की नाराजी के जो भी कारण हैं, उनपर काबू पाया जाए! फिर भी कोई सुधार नजर नहीं आ रहा। क्योंकि, निरंकुश अफसरशाही और खुद को खुदा समझने वाले मंत्रियों और विधायकों के तेवर अब लोगों को रास नहीं आ रहे! उनमें बदलाव आता है, तो लोग ये समझेंगे कि ये सिर्फ दिखावा और चुनाव जीतने का हथकंडा है! हाल ही में देवास और छिंदवाड़ा जिले के भाजपा विधायकों ने पुलिस थाने में घुसकर जिस तरह की गुंडागर्दी की, ऐसी घटनाओं से बचाव के लिए भाजपा के पास शायद कोई जवाब नहीं होगा! 
  भाजपा नेताओं के बेलगाम बोल और तेवर अब जनता के निशाने पर हैं। भाजपा के इन नेताओं पर न तो पार्टी कोई कार्रवाई करती है और न सत्ता के भय से प्रशासन ही कार्रवाई करने की हिम्मत जुटा पाता है। अब इस सबका मूल्यांकन आने वाले चुनाव में होगा। कई ऐसे सबूत हैं, जो पार्टी की नीयत और सरकार की मंशा पर भी सवाल खड़े करते हैं! संगठन पदाधिकारियों की वाचालता इसलिए भी ध्यान देने वाली हैं, क्योंकि संघ की समन्वय बैठक में इन नेताओं ने ही भ्रष्टाचार को लेकर अफसरों पर हमला बोला था! किसी भी नजरिए से देखा जाए तो इस बार विधानसभा का चुनाव भाजपा के लिए आसान चुनौती नहीं है। उसे चौथी बार चुनाव जीतने के लिए एड़ी से चोटी तक का जोर लगाना होगा। जबकि, मुकाबले में खड़ी कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है। कांग्रेस के उम्मीदवारों की छवि पर कोई उंगली भी नहीं उठाई जा सकेगी! ऐसे में छवि बचाने का सबसे बड़ा संकट भाजपा के सामने ही है। लेकिन, अभी भी भाजपा के नेता अपनी छवि को ईमानदारी के चोले में छुपाने की कोशिश से नहीं चूक रहे!
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Saturday, June 16, 2018

आज फिर जीने की तमन्ना है!



- हेमंत पाल 

  जब भी और जहाँ भी कोई आत्महत्या होती है, अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती है। क्योंकि, आत्महत्या का फैसला सिर्फ अभाव की कोख से ही नहीं उपजता। समृद्ध और वैभवशाली लोग भी इस त्वरित मानसिकता के वशीभूत होकर दुनिया से विरक्त होने का बहाना खोज लेते हैं। लेकिन, ऐसा क्यों होता है? परेशानी के सामने पलायनवाद क्यों हावी हो जाता है? इस सवाल का जवाब मनोवैज्ञानिकों के साथ फिल्मकार भी बरसों से खोजते आ रहे हैं। दुनिया के कई बड़े कलाकारों ने प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचकर आत्महत्या जैसा कायराना फैसला किया है। देश-विदेश में इस विषय पर कई फिल्में भी बनी है। दुनियाभर के कई चर्चित अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को याद किया जा सकता हैं, जिन्होंने असमय मौत को गले लगाया!  
    अजीब बात यह भी है कि विकसित और आधुनिक माने जाने वाले पश्चिमी समाज के कई फिल्म कलाकारों की आत्महत्या के प्रसंग हमारे यहां से ज्यादा हैं। अपने सौंदर्य के लिए पहचानी जाने वाली मर्लिन मुनरो ने मात्र 36 साल की उम्र में नशीली दवाइयों का ओवर डोज लेकर अपनी जान दे दी थी। ये वही मर्लिन मुनरो थी, जिसकी उड़ती स्कर्ट वाली अदा ने कई लोगों की रातों की नींद उड़ा दी थी। फिल्म 'मिसेज डाउटफायर' (जिस पर चाची 420 बनी) के नायक राबिन विलियम ने भी लोकप्रिय रहते मौत को गले लगाने का फैसला किया था। इस क्रम में जाॅनी लेविस, हर्वे विलिचाइज, शाइनी एडम्स सहित कई सितारों का नाम भी जोड़ा जा सकता है। 
   हमारे यहां दक्षिण भारत की अभिनेत्रियों ने आत्महत्या की परम्परा को कुछ ज्यादा ही पसंद किया। सिल्क स्मिता ने जिस समय मौत को गले लगाया वे लोकप्रियता के शिखर पर थी। इसी तरह विजयश्री, शोभा, नफीसा जोसेफ, फटाफट जयलक्ष्मी, मंजुला, मयूरी ने भी सब कुछ होते हुए जिंदगी को अलविदा करने का फैसला किया था। हिन्दी फिल्मों और टीवी से जुड़ी नायिकाओं में प्रत्युषा बैनर्जी, जिया खान, कुलजीत रंधावा के नाम अभी दर्शकों की स्मृति से लुप्त नहीं हुए हैं। बहुत जल्दी दर्शकों के दिल में उतरने वाली दिव्या भारती की मौत को भी कुछ लोग आत्महत्या ही बताते हैं। हिन्दी सिनेमा के विवेकानंद कहे जाने वाले गुरूदत्त ने 1964 में उस समय शराब के साथ नींद की गोलियां खा ली थी, जब उनकी फिल्म 'चौदहवीं का चांद'  ने बाॅक्स ऑफिस पर सफलता का डंका पीट रही थी। गुरूदत्त की मौत उनकी फिल्म 'प्यासा' के उस गीत को चरितार्थ करती है जिसमें साहिर ने लिखा था 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' 
  आत्महत्या का सिलसिला फिल्मकारों तक ही सीमित नहीं रहा! हमारे यहां आत्महत्या पर कुछ अच्छी फ़िल्में भी बनी है। हिन्दी फिल्मों में आत्महत्या को बलिदान का माध्यम बताकर दर्शकों की सहानुभूति भी बटोरी गई! प्रेम त्रिकोण वाली फिल्मों में यह मसाला कुछ ज्यादा ही काम आया है। इस तरह की फिल्मों ने दर्शकों से आंसू भी बटोरे और पैसे भी। 'चौदहवीं का चांद' में गुरूदत्त और वहीदा रहमान के बीच आए रहमान हीरा चाटकर अपनी जान दे देता है, तो 'मेरे हुजूर' में जीतेन्द्र और माला सिन्हा के बीच राजकुमार शान से अपनी जान गंवाकर वाहवाही बटोर ले जाते हैं। 'प्रेम कहानी' में मुमताज और शशिकपूर के बीच राजेश खन्ना यही करिश्मा दिखाते हैं। 
  इस विषय पर बनी सबसे लोकप्रिय और चर्चित फिल्म थी राजकपूर की 'संगम' जिसमें राजेन्द्र कुमार ‘जिए तो यार के कंधे पर, जाएं तो यार के कंधे पर' कहते हुए खुद को गोली मार लेते है। प्रेम में असफल होने पर प्रेमी-प्रेमिका की संग-संग आत्महत्या वाली फ़िल्में भी खूब पसंद की गई! ये हताश प्रेमियों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का माध्यम भी बनी। 'एक दूजे के लिए' के प्रदर्शन के बाद यह चर्चा जोरों पर थी कि देशभर में कई प्रेमी जोड़ों ने रति अग्निहोत्री और कमल हासन का अनुकरण करते हुए आत्महत्याएं की! हिन्दी फिल्मों ने बलिदान से लेकर असफलता और निराशा के समाधान के रूप में भले ही आत्महत्या को महिमा मंडित किया हो, लेकिन लोकप्रिय सितारों की वास्तविक आत्महत्या ने हमेशा यह अनुत्तरित सवाल छोड़ा है 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?' 
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Tuesday, June 12, 2018

सरकार जीतकर भी हार गई, किसान हारकर भी जीत गए!


- हेमंत पाल


    मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन की पूर्णाहुति हो गई! 10 दिन चले इस आंदोलन में बहुत कुछ हुआ! किसान और शिवराज सरकार के बीच चली रस्साकशी में जमकर राजनीति हुई! कांग्रेस और सरकार विरोधियों ने किसानों के साथ खड़े होकर सरकार को कटघरे में खड़ा करने में कसर नहीं छोड़ी! उधर, सरकार ने भी अपनी सारी ताकत इस बात के लिए झोंक दी, कि किसान आंदोलन उस रूप में सफल न हो सके, जो सरकार के लिए चुनौती बने! आंदोलन के पूरा होने पर सरकार ने चैन की सांस ली। इस आंदोलन में न तो कोई हिंसा हुई, न अराजकता फैली! तात्कालिक रूप से सरकार इसे अपनी सफलता मान सकती है, पर यदि किसान हारे हैं तो इसका प्रतिफल भी सरकार को ही भोगना है। आंदोलन खत्म हो गया, पर किसानों की नाराजी बरक़रार है। जिस तरह से आंदोलन को दबाने और उसे असफल करने की कोशिशें की गई, उसका असर सरकार के साथ भाजपा पर भी पड़ेगा! ये आंदोलन था, कोई क्रिकेट मैच नहीं जिसकी जीत का जश्न मनाया जाए! सच तो ये है कि सरकार जीतकर भी हार गई और किसान हारकर भी जीत गए! क्योंकि, इस आंदोलन के जरिए विपक्ष और सरकार से नाराज लोगों को जिस तरह अपनी भड़ास निकालने का मौका मिला, वो कहीं न कहीं सरकार के लिए नुकसान देगा! फिर किसान तो पहले भी नाराज थे, अब और ज्यादा हो गए। सरकार के लिए उन्हें पहले मनाना आसान था, पर अब शायद उतना आसान नहीं है!        
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  मध्यप्रदेश के किसानों की अपनी मांगें हैं। उनमें क्या जायज है और क्या नाजायज, इस पर लम्बी बहस हो सकती है। लेकिन, इस बात को सभी मानते हैं कि किसानों के प्रति शिवराज-सरकार का रवैया हमेशा चलताऊ ही रहा! प्रदेश सरकार ने किसानों को भरमाने का काम ही ज्यादा किया। कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर, कभी भावांतर के नाम पर तो कभी किसी और बहाने! राजनीति करने के ये सरकार के अपने हथकंडे हैं। उसे किसानों के प्रति, उनकी माली हालत के प्रति और उनके भविष्य के प्रति कितनी सहानुभूति है ये कई बार सामने आ चुका है। यही कारण है कि किसानों को सरकार के खिलाफ आंदोलन के लिए मजबूर होना पड़ा! सरकार ने इस आंदोलन को बजाए सहानुभूति पूर्वक निपटाने या किसानों की समस्याएं हल करने की पहल करने के बजाए इसे दबाकर अपनी सफलता का ढिंढोरा पीटना चाहा है। ये कोई असामाजिक लोगों का अराजक आंदोलन नहीं था, जिसे दबाने के लिए सरकार को पूरा प्रशासन लगाना पड़ता, पर ये किया गया! सब्जी और दूध की आपूर्ति के लिए जिस तरह का दबाव बनाया गया उससे कहीं न कहीं किसान और ज्यादा नाराज है! यदि इसे सरकार अपनी सफलता समझती है, तो भविष्य में इसका खामियाजा भी उसे ही भुगतना होगा!     
   बीते साल की तुलना में इस बार किसान गाँव से बाहर आकर अपना सामान बेचने जाने को तैयार नहीं थे। क्योंकि, सरकार की नीतियों से किसान इतने परेशान हैं कि वे आर्थिक नुकसान झेलकर भी आंदोलन के समर्थन में थे। लेकिन, पुलिस और प्रशासन के दबाव में उन्हें सब्जी और दूध की सप्लाई जारी रखना पड़ी! सरकार ने इस आंदोलन को कांग्रेसी आंदोलन बताकर प्रचारित किया, ये भी एक कारण है कि किसान नाराज हैं। देखा जाए तो आंदोलन से पहले और उसके दौरान भी सरकार ने यही भ्रम फैलाया कि ये किसानों का नहीं, कांग्रेस का आंदोलन है। समझा जा सकता है कि किसानों की ये नाराजी कब, कहाँ और कैसे असर दिखा सकती है! सरकार ने किसानों की बात न करके आंदोलन को लेकर हमेशा नकारात्मकता रखी! मुद्दा ये नहीं कि ये आंदोलन किसका है, सवाल यह कि किसानों की क्या किसानों की मांगें नाजायज हैं जो सरकार उसे नहीं मान रही? किसानों पर सरकार ने जिस तरह का दबाव बनाया ग्रामीण इलाकों से शहर में आने वाले दूध और सब्जी विक्रेताओं पर नजर रखी, वो गुस्सा आंदोलन खत्म होने  बरक़रार है। जगह-जगह पुलिस बल की तैनाती, अर्ध सैनिक बलों की कंपनियों को सुरक्षा के लिए बुलाया जाना और मंदसौर समेत कई जिलों में निषेधाज्ञा लागू की जाना वास्तव में सरकार की असफलता और आंदोलन की सफलता मानी जाएगी। पिछले साल मंदसौर में हुई गोलीबारी में मारे गए अभिषेक पाटीदार के परिवार ने आरोप लगे कि एसडीएम ने उनसे फोन कर राहुल गांधी की रैली में जाने से मना किया। सरकार के इस तरह के दबाव वाले हथकंडे रणनीतिक रूप से नुकसानदेह होते हैं।  
   आंदोलन कहीं सफल न हो, इसके लिए मंदसौर सहित प्रदेशभर के किसानों से बांड भरवाने गए कि वे आंदोलन के दौरान कोई अराजकता नहीं करेंगे! सरकार की रणनीति का असर ये हुआ कि किसानों ने न तो प्रदर्शन किया न धरना दिया। प्रशासन के दबाव में भारतीय राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ को भी अपनी रणनीति बदलना पड़ी! क्योंकि, महासंघ अपने आपको इस आरोप से अलग रखना चाहता था कि वो कांग्रेस के साथ या उनके कहने से आंदोलन कर रहा है। पहले महासंघ ने मंदसौर में जो 6 जून को जो श्रद्धांजलि सभा की तैयारी की थी,उसे प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी। महासंघ ने राहुल गांधी और कांग्रेस से भले ही दूरी बनाई हो, पर वो पूरे आंदोलन को भाजपा विरोधी राजनीति से अलग नहीं रख सका! विहिप के पूर्व नेता प्रवीण तोगड़िया और शत्रुघ्न सिन्हा ने जिस तरह मंदसौर आकर आग उगली वो इस आंदोलन से हटकर भी सरकार को नुकसान तो देगा। क्योंकि, शत्रुघ्न सिन्हा और प्रवीण तोगडिया को नरेंद्र मोदी का विरोधी समझा जाता है। किसान आंदोलन के बहाने इन्होने नरेंद्र मोदी पर अपना निशाना तो साध ही दिया। यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा पहले भी नरसिंहपुर के किसान आंदोलन में आ चुके थे। गुजरात के फायर ब्रांड पाटीदार नेता हार्दिक पटेल तो 10 जून को किसान आंदोलन ख़त्म होने के बाद हार्दिक 11 जून को मंदसौर गए। 
  इस किसान आंदोलन से शिवराज सरकार और भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान ये हुआ कि कांग्रेस को अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका मिला! कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने मंदसौर आकर चुनाव से पहले ही चुनावी अंदाज में जिस तरह घोषणा की कि कांग्रेस की सरकार आने पर दस दिन में किसानों का कर्जा माफ़ कर दिया जाएगा, उससे सरकार की नींद उड़ गई! उन्होंने उन लोगों के खिलाफ भी दस दिन में कार्रवाई का आश्वासन दिया, जो पिछले साल हुए गोलीकांड के दोषी हैं। ये ऐसी दो घोषणाएं हैं, जिनकी सरकार के पास कोई काट नहीं! भले ही ये कांग्रेस की राजनीति हो, पर दस दिन में कर्जा माफ़ी के मोह में किसान क्यों नहीं फंसेगा? साथ ही सालभर बाद भी सरकार गोली चलवाने वालों का पता नहीं लगा सकी, ये भी तो सरकार की खामी ही है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पिछले साल पुलिस गोली में मारे गए उन सात किसानों के परिवारों के दुखों पर भी मरहम लगाया, जहाँ अभी तक मुख्यमंत्री नहीं पहुंचे हैं। राहुल ने कहा कि इससे पहले भी यूपीए सरकार किसानों का 70 हज़ार करोड़ का कर्जा माफ कर चुकी है। उनकी इस बात में भी लोगों को दम दिखा कि देश के 15 बड़े उद्योगपतियों का ढाई लाख करोड़ रुपए माफ किए जा सकते हैं, तो करोड़ों किसानों का एक रुपया भी माफ क्यों नहीं किया जा सकता? 
   प्रदेश में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होना है। कांंग्रेस 15 साल से सत्ता से बाहर है। इस बार कांग्रेस किसानों को मुद्दा बनाकर सत्ता में वापसी की कोशिश रही है। ऐसे में सरकार को कांग्रेस के हाथ में किसानों का ये मुद्दा नहीं आने देना था। लेकिन, यहाँ सरकार अपनी रणनीति बनाने में चूक गई! उसका पूरा ध्यान दूध और सब्जी की आपूर्ति सुगम बनाए रखकर किसान आंदोलन को फेल करने में लगा रहा! इसके लिए जिस तरह से प्रशासनिक दबाव बनाया गया वो सरकार के गले में फांस बन गया है। किसी भी आंदोलन को असफल करने का तरीका ये नहीं होता, जो सरकार ने इस बार अपनाया! क्योंकि, इसके साथ राजनीति भी जुड़ गई और उसने सरकार कटघरे में खड़ा कर दिया। अभी तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि किसान हितैषी नेता की रही है। पिछले साल मंदसौर में पुलिस फायरिंग की घटना ने उनकी इस छवि को नुकसान पहुंचाया था! इस बार इसे सुधारा जाना था, पर सरकार ने जो कुछ किया उससे उसे बजाए फ़ायदा होने के नुकसान ही ज्यादा हुआ! अब सरकार ये प्रचारित करके खुश हो सकती है कि हमने किसानों को आंदोलन में मात दे दी, पर असल में तब भी हार तो सरकार की ही हुई! लेकिन, जीत में छुपी हुई हार से भाजपा ने क्या खोया, इसका मूल्यांकन करने में थोड़ा वक़्त लगेगा! 
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Sunday, June 10, 2018

आज का नायक 50 के दशक में जन्मा!



* हेमंत पाल 

  हिंदी फिल्मों का इतिहास आजादी से काफी पहले का है। लेकिन, गुलामी के उस दौर में भी फ़िल्में बनी और देखी जाती रहीं! मूक और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से बोलती और रंगीन फिल्मों तक का दौर आया! समय बदला, माहौल बदला, सोच बदला! नहीं बदला, तो वो रहा नायक का आदर्श चरित्र! ऐसा नायक जो सामाजिक व्यवस्था का सबसे सही चेहरा था। जबकि, फिल्मों के शुरुआती दौर में नायक का चरित्र इतना आदर्शवादी नहीं था! आदर्श व्यक्ति के रूप में नायक की पहचान आजादी के बाद बनी फिल्मों से बदली! 1950 के दशक में ही परदे के नायक को बदलने का दौर आया! क्योंकि, उस वक़्त फिल्मकारों के मन में आजाद देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। यही कारण है कि देश के जिम्मेदार नागरिक का किरदार सभी अपने-अपने ढंग से निभाया! आजादी पहले जो नायक क्रांति का झंडा लेकर घूमता था, वो आदर्शवाद का प्रतीक बन गया! 
    राजकपूर की ‘श्री 420’ में नायक अमीर होने के लिए गलत रास्ता चुन लेता है! लेकिन, नायिका अड़ी रहती है और फिल्म के अंत तक नायक को भी सही रास्ते पर ले आती है। आदर्श की जीत और बेईमानी की हार इस दौर में सामान्य बात थी। इस दौर में नायक आदर्श और समाजवादी मूल्यों का समर्थक था। लेकिन, उसे मोहब्बत करना नहीं आता था। इस कारण इस दौर में प्यार की अनुभूति ठीक से आकार नहीं ले सकी। ये समाज 'अरेंज्ड मैरेज’ वाला था, जैसी परिवार की इच्छा होती थी, युवा वैसा ही करते थे। दिल पर पत्थर रखकर प्यार की बलि चढ़ा देते थे! पारिवारिक दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा और सामाजिक प्रतिबद्धता के आगे वो अपने प्यार को कुर्बान कर देता था। बिमल राय ने इसी दौर में ‘देवदास’ का निर्माण किया। फिल्म का नायक ऐसा व्यक्ति था, नायक जो न ठीक से प्यार कर सका, न ठीक से प्यार पा सका। गुरुदत्त की ‘प्यासा’ में भी यही हुआ। शायद यह प्रगतिशीलता का आह्वान था कि देश और समाज के सामने प्यार की कोई हैसियत नहीं! उसमें साहस का अभाव था। प्यार की तुलना में देश, समाज और परिवार उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था। 
  1950 का दशक हिंदी फ़िल्मों का आदर्शवादी दौर था। आवारा, मदर इंडिया, जागते रहो, श्री 420, झाँसी की रानी, परीणिता, बिराज बहू, यहूदी, बैजू बावरा और जागृति जैसी फिल्में इसी दौर की देन थी। यह दौर गुरुदत्त, बिमल राय, राज कपूर, महबूब खान, दिलीप कुमार, चेतन आनंद, देव आनंद और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे विचारक फिल्मकारों का था। यह वह समय था, जब हिंदी सिनेमा के नायक को सशक्त किया जा रहा था। हिंदुस्तानी समाज का आदर्शवाद इस दशक के केंद्र में था। सामाजिक भेदभाव, जातिवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, फासीवाद और सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं को लेकर इसी दौर में फ़िल्में बनाई गईं। आज़ादी को लेकर जो सपने और जिन आदर्शों की कल्पना समाज ने की थी, वह फिल्मों में भी नज़र आ रहा था। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' इस दौर की महत्वपूर्ण फ़िल्म है। राजकपूर अभिनय के साथ फिल्मों के निर्माण और निर्देशन का भी कार्य कर रहे थे। 
  पचास के दशक के उसी फिल्मी नायक का प्रभाव आज तक बना हुआ है! क्योंकि, माना जाता है कि हिंदी सिनेमा का वही सबसे प्रभावी नायक था, उसका वही रूप आज भी परदे पर मौजूद है। इसी दशक का नायक भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाया! पं. नेहरू की तरह राजकपूर भी दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय थे! पं. नेहरू राजनीति में समाजवादी थे, तो सिनेमा के परदे पर राजकपूर का नायकत्व भी समाजवाद का दृष्टिकोण लिए था! आजादी के बाद की सरकार नैतिकता के साथ सामाजिक समरसता और संपन्नता के सपने संजो रही थी, यही काम फिल्मों में भी हो रहा था! जब भी हिंदी फिल्मों के नायक पर से दर्शकों का विश्वास डिगेगा, उसे 50 के दशक के नायक से सीख लेना पड़ेगी! क्योंकि, इस दशक के नायक को सीखने के लिए बहुत कुछ है। 
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Tuesday, June 5, 2018

भाजपा के सामने इस बार कांग्रेस की साझा विपक्ष वाली रणनीति!


- हेमंत पाल 


  विधानसभा चुनाव की बिसात बिछते ही, उस पर नए-नए दांव चलने की जुगत लगाई जाने लगी है। हर राजनीतिक पार्टी चाहती है कि उसकी कोशिशें कामयाब हो! लगातार तीन चुनाव से सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी भी चुनाव में जीत का चौका लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती! जबकि, कांग्रेस इस बार पूरा दम लगाकर भाजपा को सत्ता से बेदखल करने में लगी है। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों ने भी चुनावी जीत में अपनी हिस्सेदारी के लिए रणनीति बनाना शुरू कर दी! लेकिन, हाल ही में देशभर में हुए उपचुनावों में जिस तरह भाजपा के खिलाफ साझा विपक्ष को कामयाबी मिली है, मध्यप्रदेश में भी नए चुनावी समीकरण बनने की संभावनाएं नजर आने लगी है। सभी पार्टियों को लगने लगा है कि भाजपा को उसकी जीत का परचम लहराने से रोकना है, तो विपक्ष को साझा रणनीति बनाना होगी! सभी को एकसाथ खड़े होना होगा और वोटों का बंटवारा रोकना होगा! उत्तरप्रदेश और बिहार में साझा विपक्ष की जीत से निकले मिले संदेश को मध्यप्रदेश में भी लागू करने की कोशिशें शुरू हो। कांग्रेस ने इस दिशा में प्रयास भी शुरू कर दिए। यदि कांग्रेस समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को अपने साथ लाने में कामयाब हो जाती है, तो तय है कि भाजपा को चुनाव में कड़ी चुनौती मिलेगी। 
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 मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ के सामने पार्टी को सत्ता में लाने की स्थितियां निर्मित करने की बड़ी चुनौती है। इसके लिए उन्हें फ्री-हैंड भी दिया गया। अपनी इन्हीं कोशिशों के चलते कांग्रेस ने भाजपा विरोधी पार्टियों को एक साथ लाने की कोशिश शुरू कर दी है। पार्टी की पहली कोशिश 'बहुजन समाज पार्टी' के साथ गठबंधन की है, ताकि 2013 के विधानसभा चुनाव की तरह वोट नहीं बंटे! बसपा को भी मध्यप्रदेश में अपनी जड़ें ज़माने के लिए एक सहारे की जरुरत है और उसके लिए कांग्रेस से बेहतर सहारा कोई हो नहीं सकता! बसपा के पास मध्यप्रदेश में कांग्रेस को प्रभावित करने के लिए इसके पास पर्याप्त वोट बैंक भी है। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बसपा ने लगातार उन सीटों पर असर डाला जहाँ कांग्रेस को जीत का पूरा भरोसा था। वोटों के बंटवारे ने कांग्रेस को भी जीतने नहीं दिया और न बसपा के मंसूबे पूरे हुए। इस बार कांग्रेस ने पहले से इस खतरे को भाँपते हुए चुनाव से पहले ही बसपा के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। खुद कमलनाथ ने भी स्वीकार किया कि हम प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए समान विचारधारा वाली पार्टियों से बात करेंगे।
   कांशीराम द्वारा स्थापित बसपा ने मध्यप्रदेश में पहली बार 1990 में अपने चुनावी सफर की शुरुआत की थी। बसपा ने अपने पहले चुनाव में ही 3.53% वोट लेकर भाजपा और कांग्रेस को अपने जमीनी आधार का अंदाजा करा दिया था। इसके बाद हुए सभी विधानसभा चुनाव में बसपा ने लगातार 6% से 8% तक वोटों का आंकड़ा पार किया है। 2003, 2008 और 2013 में हुए चुनाव में बसपा ने भी क्रमशः दो, सात और चार सीटों पर अपनी जीत दर्ज की! जबकि, भाजपा और कांग्रेस बीच सिर्फ 2% वोटों का अंतर है। यदि कांग्रेस और बसपा एक साथ आ जाते हैं, तो इसका सीधा असर भाजपा पर पड़ेगा! मध्यप्रदेश में बसपा को मिलने वाले वोट यदि कांग्रेस से जुड़ जाएँ, तो कांग्रेस की जीत की संभावनाएं प्रबल होती है।
   2003 में एंटी-इंकम्बेंसी के कारण कांग्रेस को प्रदेश में 230 सीटों में से केवल 38 सीट मिली थी। इस चुनाव में बसपा ने भी 2 सीटें जीती थी, इस चुनाव में कांग्रेस ने 25 सीटें इसलिए खोई, क्योंकि बसपा उम्मीदवारों ने इतने वोट हांसिल कर लिए थे कि कांग्रेस वहाँ हार गई! ऐसा ही कुछ बसपा के साथ भी हुआ!  जिन 14 सीटों पर बसपा की जीत की संभावना थी, वहां कांग्रेस ने वोटों का विभाजन कर दिया। 2008 में कांग्रेस ने भाजपा की 143 सीटों की तुलना में 71 सीटें जीती थी। लेकिन, बसपा ने कांग्रेस की 39 सीटों पर जीत को प्रभावित किया। जबकि, इस चुनाव में भी बसपा ने 7 सीटें जीती थीं। 2013 के चुनाव में वोटों के विभाजन के बिना कांग्रेस 58 सीटें जीती, जबकि बसपा 4 सीटों से आगे बढ़कर 11 सीटें जीत सकती थी। वोटों के प्रतिशत को आधार बनाकर मूल्यांकन किया जाए तो पिछले विधानसभा में कांग्रेस और बसपा यदि साथ में चुनाव लड़ती, तो 103 सीटों पर इनकी जीत होती। चंबल तथा उत्तरप्रदेश की सीमा से लगने वाले इलाकों में बसपा की अच्छी पकड़ रही है। क्योंकि, प्रदेश के दलितों की सर्वाधिक करीब 15% आबादी इसी इलाके में है। 2013 के चुनाव में बसपा ने प्रदेश के 50 में से 22 जिलों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी।
   इस बार कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ इस कोशिश में  हैं कि बसपा के साथ चुनावी गठबंधन करके भाजपा को मात दी जाए। कांग्रेस का प्रयास है कि बसपा के साथ 15 सीटों पर गठबंधन किया जाए। बसपा द्वारा 2013 में जीती गई 4 सीटें उसे दी जाएं और जिन 11 सीटों पर बसपा दूसरे स्थान पर रही थी, वो भी बसपा को दी जाएँ। लेकिन, अभी ये सिर्फ कयास हैं। यदि कांग्रेस और बसपा में ऐसा कुछ गठबंधन होता है, तो कांग्रेस को करीब 40 सीटों का फ़ायदा मिलने की उम्मीद है। कांग्रेस और बसपा के बीच सीटों का समझौता इसलिए लगभग तय लग रहा है कि उत्तरप्रदेश में अपनी घोर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ समझौता करने से बसपा को जो फ़ायदा मिला है, वो मध्यप्रदेश में भी भाजपा के संदर्भ में दोहराया जा सकता है। बसपा के कांग्रेस अलावा गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) को भी साथ लाने की कोशिश है। मध्यप्रदेश में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की महाकौशल इलाके में पकड़ है और ये पार्टी कांग्रेस की कुछ सीटों को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जबकि, समाजवादी पार्टी का प्रभाव क्षेत्र भी सीमावर्ती मध्यप्रदेश में है, पर पिछड़ा वर्ग और पुराने समाजवादियों का इस पार्टी से जुड़ाव है। 
  अभी ये तय नहीं है कि मध्यप्रदेश में सपा और बसपा साथ आने को तैयार होंगे या नहीं! क्योंकि, अभी ऐसे कोई संकेत नहीं मिले हैं। अलबत्ता सपा के अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात जरूर की है। इसके लिए सपा का संगठन अपने आपको चुस्त-दुरुस्त करने में भी लगा है। कुछ दिनों पहले पार्टी ने चुनावी संभावना तलाशने के लिए सभी बड़े जिलों में अपने ऑब्जर्वर भी भेजे थे। वैसे प्रदेश में सपा का खास जनाधार नहीं है, इसलिए यहाँ उसके पास खोने को भी कुछ नहीं है। लेकिन, उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती जिलों के मुद्दे उभारकर समाजवादी पार्टी लाभ ले सकती है। यही कारण है कि अखिलेश यादव ने बुंदेलखंड के अपने पड़ोसी जिलों पर ध्यान केंद्रित किया है। अखिलेश ने विंध्य और बुंदेलखंड के सीधी, रीवां, सतना, पन्ना, छतरपुर व खजुराहो में किसानों के बीच जाकर सभाएं भी की हैं। दोनों राज्यों में फैले बुंदेलखंड की समस्याएं एक सी है इसलिए सपा की जिला इकाइयों को कर्ज कारण आत्महत्या करने वाले किसानों का पता लगाने के निर्देश भी दिए गए हैैं। सपा ने बुंदेलखंड के लिए उन्होंने नारा दिया है 'जवानी, किसानी और पानी।' बुंदेलखंड क्षेत्र की मुख्य समस्या भी यही है। युवा बेरोजगार हैं, किसान परेशान है और भाजपा सरकार पानी का संकट हल करने में असफल हो गई!
  मध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में कोई साझा रणनीति बनती है या नहीं, इस बारे में अभी स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता! लेकिन, अखिलेश यादव का प्रदेश का दौरा करके सभी सीटों पर चुनाव लडऩे का निर्देश देना, कुछ अलग संकेत देता है। दरअसल, उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती जिलों पर सपा की नजर है। वो वहां एकाधिकार बनाने की कोशिश में है। इसके चलते सपा और बसपा दोनों मध्यप्रदेश के चुनाव में कांग्रेस के साथ दिखाई देंगी, अभी ये यक्ष प्रश्न है। लेकिन, राजनीतिक मज़बूरी के चलते यदि साथ आती हैं तो आश्चर्य भी नहीं किया जाना चाहिए।
  प्रदेश में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) भी भाजपा के लिए चुनौती है। 2013 के विधानसभा चुनाव में गोंगपा ने 6 लाख से ज्यादा वोट लेकर अपनी जड़ें मजबूत की है। भले ही राजनीति के जानकारों को गोंगपा का असर समझ नहीं आया हो, पर 1.5% वोट लेना और 70 सीटों पर चुनाव लड़कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराना आसान नहीं होता। प्रदेश की 26 सीटों पर 30 हजार से अधिक वोट पाने वाले गोंगपा के उम्मीदवार राजनीतिक समीकरण बिगाड़ सकते हैं। समझा जाए तो गोंगपा से प्रदेश की करीब 60 सीटों पर भाजपा को सीधा नुकसान हो सकता है। विध्य और महाकौशल में गोंगपा का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। गोंड आदिवासी समाज में पिछले 2 सालों से चल रहा हल्दी-चावल का तिलक लगाकर 'गोंडवाना' को आगे लाने का संकल्प ले रहे हैं। मध्यप्रदेश की 34% आदिवासी गोंड आबादी आखिर चुनाव में कहीं न कहीं तो असर डालेगी ही!
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अपने समय से बहुत आगे थीं शुरूआती फ़िल्में!


- हेमंत पाल 

    हिंदी फिल्मों के शुरूआती दौर में कुछ फिल्में बनी जो अपने कथ्य, विषय और प्रस्तुतिकरण में अपने समयकाल से बहुत आगे थीं। इन फिल्मों ने नए सामाजिक मूल्यों, कुरीतियों पर चोट, नए विषयों व शिल्प प्रयोगों की नींव रखी। 1940 के बाद का सिनेमा जिन नई चुनौतियों को स्वीकार करता है, उनका आधार इन्हीं फिल्मों ने तैयार किया था। हिंदी फिल्मों का ये शुरूआती इतिहास दर्शाता है, कि बॉलीवुड हमेशा ही नई चुनौतियों को साथ लेकर चला है। यहाँ मसाला फिल्मों से लेकर नए प्रतिमान गढ़ने तक की ऐसी फ़िल्में बनीं, जिन्होंने समाज को बदलते मूल्य दिए! नए कथानक, प्रस्तुतिकरण के नए अंदाज, नया शिल्प,संगीत, गीत  व समाज के बदलते आयामों को दर्शाती ये फ़िल्में सदा अविस्मरणीय रहेंगी!
  1917 में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत में सेंसरशिप कानून एक्ट लागू किया था, उस समय इस कानून में सिर्फ ये प्रावधान था कि देशभक्ति का प्रचार करने वाली फ़िल्में न बनें! नग्नता के खिलाफ इस कानून में कोई प्रावधान नहीं था। उस समय बनने वाली मूक फिल्मों में अधिकतर धार्मिक और पौराणिक कथानक लिए जाते थे। इन फिल्मों में भी दो फिल्में ऐसी थीं जिनमें बहुत खुलापन था। उस समय का समाज इतना खुलापन स्वीकार नहीं कर पाता था। इसके बाद भी ये फिल्में बनीं। इनमें से एक थी 'सती अनुसूया' (1921)  इस फ़िल्म में नग्न दृश्य दिखाया गया था। ये सीन फिल्म में कुछ ही क्षणों के लिए था और धुंधला था। दूसरी फिल्म थी 'पति भक्ति' जो 1922 में बनी थी। 'पति भक्ति' पहली ऐसी फिल्म थी, जिस पर ब्रिटिश सरकार के मद्रास सेंसर बोर्ड ने अपनी आपत्ति जताई थी। सेंसर विवाद में फंसने वाली भारत की पहली फिल्म थी। फिल्म में एक डांस की सेंसरशिप को लेकर काफी बवाल हुआ था!
 1930 के दशक में अछूत कन्या, धूप-छांव, महल, चंडीदास, पुकार,अमर ज्योति आदि फिल्मों ने उस समय के समाज की कुरीतियों व देशभक्ति की भावना को पूरी ताकत से प्रस्तुत किया था। 'अछूत कन्या' में ब्राह्मण नायक व हरिजन नायिका की कहानी उस समय के मुताबिक बहुत क्रांतिकारी थी। 'चंडीदास' में भी उच्च जाति के नायक व निम्न जाति की लड़की की कहानी थी। दोनों फिल्मों में समस्या को उठाया गया, पर अंत दोनों का दुखांत था। पुकार, पोरस और सिकंदर ऐतिहासिक कथानक के माध्यम से देशभक्ति को बल देने वाली फिल्म थी। 'धूप-छांव' फिल्म में पहली बार प्लेबैक गायन का प्रयोग हुआ था।
  1935 की फ़िल्म 'दुनिया न माने' भी बहुत प्रगतिशील फ़िल्म थी, जिसमें शीला आप्टे ने काम किया था। ये वो दौर था, जब बाल विवाह, कम उम्र की कन्या का दुगनी आयु के विधुर से विवाह सामान्य बात थी। इस विषय को लेकर विद्रोह के स्वर नायिका ही उठा सकती थी, तब ये उस वक़्त सोच से परे की बात थी। इस फ़िल्म में यही विषय था। फिल्म के एक सीन में टूटे हुए आईने के माध्यम से बूढ़े नायक की नपुंसकता का दृश्य बहुत प्रभावी था। ये फ़िल्म 'वेनिस फिल्म फेस्टिवल' में भी दिखाई गई थी। इस दौर में आगे की और फिल्म थी 'किस्मत' जिसका नायक अशोक कुमार अपराधी था। उस दौर में नायक की छवि बहुत भले इंसान, त्यागवान सज्जन पुरुष की होती थी। एक चोर को नायक दिखाना समय से आगे की बात थी। 1935 की एक फ़िल्म 'आदमी' में एक पुलिस वाले और वेश्या की कहानी थी, जो उस समय के हिसाब से बोल्ड फिल्म थी। 'एक ही रास्ता' फिल्म में युद्ध से लौटे एक वृद्ध फौजी की कहानी दिखाई गई थी। उसका व्यवस्था से उसका संघर्ष दिखाया जाता है कि युद्ध लड़ना आसान है। समाज के अंदर रहकर व्यवस्था से लड़ना कितना मुश्किल है। 1939 की फिल्म 'अछूत' भी बहुत महत्वपूर्ण थी। इसी दशक में फिल्म 'जिंदगी' आई, जिसमें एक क्रूर पति से त्रस्त महिला का किसी अन्य पुरुष से प्रेम दिखाया गया। उस दौर में यह चित्रण ही साहस की बात थी |
   1940 के दशक में सिकंदर,रामराज्य, अंदाज़, डॉ कोटनिस की अमर कहानी आदि फ़िल्में अपने नए कथ्य व शिल्प के कारण बेहतरीन थीं। 'रामराज्य' इकलौती फिल्म थी, जिसे महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में देखा था। हॉलीवुड में टेन कमांडमेंट्स बनाने वाले सिसिल ने इस फिल्म की बेहद प्रशंसा की थी। 1946 में बनी 'नीचा नगर' देश की पहली फिल्म थी, जिसे अंतराष्ट्रीय कान फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार मिला था। फिल्म के निर्देशक चेतन आनंद थे। सही मायनों में ये फिल्म उस दौर की बेहद यथार्थवादी फिल्म थी। फिल्म की कहानी एक शहर के दो हिस्सों की कहानी थी! एक हिस्सा जिसमें शहर के अमीर रहते हैं और दूसरा हिस्सा जो नीचे बसा है जहां गरीब तबका रहता है।
  मेहबूब खान की रोटी, औरत भी वो फ़िल्में थीं जो समय को पीछे छोड़ती थीं। 'रोटी' में शेख  मुख़्तार हीरो थे और कथक नृत्यांगना सितारा देवी का एक महत्वपूर्ण रोल था। 'औरत' की कहानी पर ही बाद में ‘मदर इंडिया' बनी थी! अभी तक मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान यही तीन हिंदी फिल्में हैं, जो आस्कर के लिए फाइनल राउंड तक पहुंची! 1950 के दशक की समाधि,जोगन,संग्राम, बाबुल, दास्तान आदि फ़िल्में भी नया कथ्य सामने लेकर सामने आईं। आशय यह कि उस दौर में भी समयकाल से आगे की कई फ़िल्में बनी जिन्होंने समाज की चेतना को जागृत किया था।
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क्या किसान आंदोलन फिर अराजक रूप में सामने आएगा?


- हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश में पिछले साल हुए किसान आंदोलन ने ऐसा दर्द दिया है, जिसका सही इलाज करने में बरसों लग जाएंगे! इस आंदोलन का दोतरफा असर हुआ था। सरकार पर आरोप लगा कि उसने आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाई जिससे 7 किसानों की मौत हो गई! जबकि, आंदोलनकारी किसानों पर आरोप लगा कि उन्होंने रोजमर्रा के सामान की आपूर्ति बाधित करके लोगों को परेशान किया था। इस बार उन यादों से ही लोग सिहर रहे हैं। मुद्दा ये है कि क्या वो अराजकता करने वाले किसान ही थे? जो दूध, सब्जी लाकर बेचने की कोशिश कर रहे थे, वे किसान थे या वो सामग्री छीनकर सड़क पर फैंकने वाले किसान थे? केशरिया दुपट्टे डालकर सड़कों पर अराजकता फैलाने वाले कथित आंदोलनकारी क्या भाजपा के लोग थे? यदि आंदोलनकारी भाजपाई थे, तो किसानों के संगठन कहाँ थे? क्या कारण है कि किसान ही किसान खिलाफ क्यों खड़े हो गए? क्या इस बार भी ऐसा होगा? यदि ये किसानों का आंदोलन था, तो बाजार में दूध और सब्जी लाने की कोशिश कौन कर रहा था? जो ला रहे हैं क्या वे किसान नहीं थे? क्या किसानों के दो धड़े क्यों बन गए? किसानों का नुकसान करने वाले आंदोलनकारी क्या वास्तव में किसान थे? ये सवाल इसलिए उठा, क्योंकि किसान ही किसान का नुकसान तो नहीं करेंगे! लेकिन, जो आंदोलनकारी सड़क पर उत्पात मचा रहे थे, उनके गले में पड़े केशरिया दुपट्टे कुछ और ही इशारा कर रहे थे! 
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    पिछले साल किसान आंदोलन ने करीब आधे प्रदेश को प्रभावित किया था। लेकिन, सालभर बाद भी इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि प्रदेश के किसान आंदोलन के लिए मजबूर क्यों होने लगे? पांच बार 'कृषि कर्मण' अवॉर्ड जीतने वाले प्रदेश के किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य तक नहीं मिल रहा! उन्हें न्यूनतम खरीदी मूल्य, भावान्तर जैसे राजनीतिक जुगाली वाले प्रपंचो में उलझाया जा रहा है! किसानों के इस आंदोलन का जो असली चेहरा सामने आया वो, राजनीतिक नजरिए से भाजपा के लिए फायदेमंद नहीं है। सरकार ने पिछले साल इस आंदोलन को लेकर कई गलतियां की थी। सालभर बाद भी उसपर कान नहीं धरे, इसी का नतीजा था कि किसानों को फिर आंदोलन की राह पर उतरना पड़ा! पिछली बार सरकार ने अपात्र किसान संगठनों से बात करके आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश भी की! मंदसौर में गोली चलाए जाने की घटना से पुलिस को बचाने की कोशिश की! किसानों को असामाजिक तत्व कहा गया। आंदोलन को कांग्रेस समर्थित बताया गया, जिसका नतीजा ये रहा कि कांग्रेस ने इस आंदोलन का श्रेय लूट लिया और राजनीतिक फ़ायदा उठाने में देर नहीं की। सालभर पहले किसान आंदोलन से सरकार और भाजपा को जो  नुकसान हुआ था, उसे अभी तक संभालने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई! 
    पिछले साल इन्हीं दिनों हुए किसान आंदोलन से भाजपा को बड़ा राजनीतिक नुकसान हुआ! बाद मैं इस गलती को समेटने की कोशिश भी हुई, लेकिन, भरपाई नहीं की जा सकी! किसानों में ये संदेश गया कि सरकार किसानों के हित में कदम नहीं उठा रही, इसलिए उन्हें सड़क पर आना पड़ा! जिन किसानों ने दूध और सब्जी शहरों तक लाने की कोशिश की उनका नुकसान किया गया, मारा पीटा गया। ये सब करने वाले क्या किसान थे? सड़क पर दंगाइयों जैसा व्यवहार करने वाले कथित किसानों के गले में केशरिया दुपट्टों से लोगों ने समझा कि किसानों को रोकने वाले और उनका नुकसान करने वाले भाजपा के लोग थे! हर नजरिए से ये आंदोलन भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ? पश्चिमी मध्यप्रदेश में जहाँ-जहाँ किसान आंदोलन उग्र हुआ, वहां माहौल भाजपा के खिलाफ बन गया! इसे भाजपा आसानी से स्वीकार नहीं करेगी, पर सच यही है। 
  जब किसी राजनीतिक पार्टी की कोई इकाई आंदोलन करती है, तो पार्टी के नफा-नुकसान का अंदाजा भी लगाया जाता है। लेकिन, किसानों के आंदोलन को देखकर लगा नहीं था कि भाजपा समर्थित किसान संगठन या भाजपा नेताओं ने ऐसी कोई रणनीति बनाई होगी! इस आंदोलन से न तो किसान संतुष्ट हुए न आम जनता! मंदसौर में जिस तरह किसानों पर गोली चलाई गई, उसने इस आंदोलन से निपटने के प्रति सरकार के रवैये को स्पष्ट कर दिया। सबसे दुखद पहलू ये रहा कि आंदोलन कर रहे किसानों के सीने पर गोलियां दागी गईं! उस पर भी शुरूआती बयान में गृह मंत्री का ये कहना कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई, इस बयान ने आग में घी का काम कर गया। बाद में ये बात गलत साबित हुई और सरकार को भी मानना पड़ा कि किसानों को जो गोली लगी वो सरकारी थी। 
   इस पूरी घटना का सबसे दुखद पहलू ये भी रहा कि मुआवजा की घोषणा करने में सरकार बहुत ज्यादा जल्दबाजी दिखाई। मंदसौर गोलीकांड में मारे गए किसानों को पहले 5 लाख के मुआवजे की घोषणा की गई, फिर 10 लाख की और बाद में एक करोड़ की! मुआवजे को लेकर ऐसा पहले भी हुआ है। किसी भी घटना में दर्ज एफआईआर की स्याही सूख भी नहीं पाती और सरकार मुआवजे का एलान कर देती है। इससे एक गलत संदेश ये भी जाता है कि सरकार की नजर में हर मौत कीमत सिर्फ मुआवजा है! सरकार का ये मरहम ही दर्द बनकर उभरा! बेहतर होता कि ये काम थोड़ा रूककर किया जाता। 
   सरकार से दूसरी गलती ये हुई कि आंदोलन के पीछे किसका दिमाग है, ये पता नहीं लगा पाई। स्पष्ट था कि ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त नहीं है। इसके पीछे कोई न कोई सुनियोजित रणनीति है। जब भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने मुख्यमंत्री के साथ बातचीत के बाद आंदोलन ख़त्म करने का फैसला कर लिया था तो आंदोलन के अगुआ भारतीय किसान यूनियन और राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ ने इसे स्वीकार क्यों नहीं किया? जबकि, इस बातचीत के बाद सरकार ने किसानों के पक्ष में कुछ घोषणाएं भी कर दी थी! सवाल खड़ा होता है कि क्या सरकार को इस बात का अंदाजा नहीं था कि बातचीत के लिए पात्र संगठन या नेता कौन है, जिससे बातचीत करके समस्या का निराकरण किया जाए? इसे साफ़-साफ़ नौकरशाही की असफलता ही माना जाएगा कि उन्होंने मुख्यमंत्री से बातचीत के लिए अपात्र संगठन को चुना! 
  मध्यप्रदेश को पांच बार सर्वाधिक उत्पादन के लिए 'कृषि कर्मण' अवॉर्ड मिल चुका है। लेकिन, कर्जे में डूबे यहाँ के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। आज किसान परेशानियों से जूझ रहे हैं। उन्हें अपनी फसल का सही मूल्य नहीं मिल रहा। बाजार में मिलने वाले बीज घटिया हैं, जो पर्याप्त उपज नहीं देते! फसल पर कीटों का हमला हो तो किसान जो कीटनाशक इस्तेमाल करता है, वो भी नकली होता है। कृषि विभाग ने घटिया बीज और नकली दवाओं की धरपकड़ के लिए दस्ते तो बना दिए, पर वे चौथ वसूली में ही ज्यादा व्यस्त नजर आते हैं। कर्ज़ लेने के बाद जब किसान उपज लेकर मंडी पहुंचता हैं तो वहां मंडीकर्मियों और व्यापारियों का काकस उसका शोषण करने से बाज नहीं आता! ऐसे में किसानों को औने-पोने दाम पर अपनी फसल बेचने पर विवश होना पड़ता है। कड़ी मेहनत के बाद भी किसान को हमेशा कर्ज़ का बोझ सताता है, तो उसके सामने आत्महत्या का ही रास्ता बचता है! कहीं न कहीं ये वो कारण हैं जिन्होंने किसानों को सड़क पर आने के लिए मजबूर किया!
   किसान आंदोलन का सबसे अहम राजनीतिक पहलू ये है कि इसने मरणासन्न कांग्रेस को फिर जिंदा कर दिया। तीन दिन बाद किसानों ने आंदोलन को उग्र किया तो सरकार सकते में आ गई! वो समझ नहीं पाई कि नेतृत्वहीन लग रहा आंदोलन इतना प्रभावी कैसे हो गया? बस यहीं सरकार से गलती हुई और आंदोलन के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का दावा कर दिया गया! किसानों का जो आंदोलन पहली जून से शुरु हुआ था और इसमें राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ मुख्य रूप से शामिल था। बाद में किसानों के अन्य संगठन भी जुड़ गए। तीन दिन बाद जब आंदोलन का असर दिखने लगा, तो सरकार की भी नींद टूटी! मुख्यमंत्री ने चौथे दिन भारतीय किसान संघ को समझा-बुझाकर आंदोलन खत्म करवा दिया। तब तक कांग्रेस कहीं नहीं थी। लेकिन, जब उज्जैन-वार्ता फेल हो गई और आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया तो सारा दोष कांग्रेस पर जड़ दिया गया! 
  यहाँ सरकार की राजनीतिक सोच फेल हो गई! क्योंकि, जिस आंदोलन से कांग्रेस का कोई सरोकार ही नहीं था, वो बैठे-ठाले कांग्रेस के हाथ आ गया। रातों-रात कांग्रेस ने अपने मोहरे जमाए और सूत्र अपने हाथ ले लिए। मंदसौर घटना के बाद तो जहाँ भी आंदोलन हुआ कांग्रेस का तिरंगा लहराता दिखा। जबकि, इससे पहले सड़कों पर किसानों की सब्जियाँ फैंकने, कुचलने और दूध उंडेलने वालों में केशरिया दुपट्टाधारी ही नजर आए! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बयान सामने आ गए। राहुल गांधी की मंदसौर आने की राजनीति ने तो मानों इस बात पर मोहर ही लगा दी कि ये आंदोलन उनका ही खड़ा किया है।   
  अपनी उपज की सही कीमत न मिलने पर मध्यप्रदेश में चल रहे किसानों के विरोध से सबसे ज्यादा पश्चिमी मध्यप्रदेश प्रभावित हुआ है। यही वो इलाका है जिसे भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है! इस आंदोलन के दौरान इंदौर, उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, खंडवा, मंदसौर और धार जिले भारी उत्पात हुआ। मंदसौर में जो कुछ घटा उसे सारा देश जान गया! धार जिले के सरदारपुर में तोड़फोड़, मारपीट और आगजनी की घटनाएं हुईं! उज्जैन और इंदौर में सडकों पर दूध उंडेला गया और सब्जियां कुचल डाली। धार के सरदारपुर में व्यापारियों और किसान हिंसक संघर्ष हो गया। कई वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। कई लोग घायल भी हो गए। इंदौर-भोपाल रोड अराजकता की भेंट चढ़ गया। करीब 200 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। मुद्दा ये है कि यह सब क्यों घटा? इसका जवाब कहीं न कहीं सरकार की रणनीतिक असफलता में ही छुपा है। क्योंकि, जब बातचीत के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का सबसे सही तरीका यही है जो किसानों ने अपनाया। क्या यही कहानी फिर दोहराई जाएगी? यदि नहीं तो सरकार ने किसानों की कथित अराजकता से निपटने के लिए क्या पुख्ता इतंजाम किए हैं, ये भी सामने आना चाहिए! 


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अब सार्थक हुई, समानांतर सिनेमा की अवधारणा

- हेमंत  पाल 

    सिनेमा और समाज के बीच एक अदृश्य सा संबंध है, जो समय-समय पर उजागर और लुप्त होता रहा है। यही कारण है कि हर पाँच-दस साल में सिनेमा की मुख्यधारा में एक नई धारा जुड़ती जाती है, जिसे कभी आधुनिक सिनेमा, कभी आर्ट या कला फिल्म या कभी समानांतर सिनेमा का नाम दिया जाता रहा है। सत्तर के दशक में सिनेमा की एक नई धारा पैदा हुई थी जिसे मृणाल सेन, बासु भट्टाचार्य, बासु चटर्जी और गोविंद निहलानी जैसे फिल्मकारों ने पोषित किया। इसे कला फिल्म या समानांतर सिनेमा का नाम दिया गया। लेकिन, यदि गौर किया जाए तो इन फिल्मों में ऐसा कुछ कलात्मक नहीं था, जिसे कला फिल्म माना जा सके। न ये मुख्यधारा के समानांतर चलने वाला उसकी बराबरी कर सकने वाला सिनेमा था जिसे समानांतर सिनेमा का खिताब दिया जा सके। दरअसल, यह एक कम बजट में बनने वाली क्षेत्रीय भाषाओं, क्षेत्रीय समाज सा सीमित और शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाला सिनेमा था, जिसे समानांतर सिनेमा कहकर प्रचारित किया गया।
   उस दौर के सिनेमा ने भले ही समानांतर सिनेमा की योग्यता हांसिल न की हो, लेकिन हाल के दिनों हमारे यहां जिस तरह की फिल्में बनने लगी है, वह निश्चित ही इसे समानांतर फिल्मों का ओहदा दिलवाने में इसलिए कामयाब है। क्योंकि, यह मुख्यधारा की फिल्मों से हटकर होते हुए भी किसी भी पैमाने में उससे कमतर नहीं है! इन फिल्मों का बजट से लेकर सितारे मुख्यधारा की फिल्मों की तरह होते हैं। उतने ही भव्य पैमाने पर ये बाॅक्स आफिस पर पैसा कूटने वाली दूसरी मुख्यधारा की फिल्मों के समानांतर चलते हुए उन्हें टक्कर देती है। इस लिहाज से यह बकायदा समानांतर सिनेमा होने की काबिलियत भी रखती है।
   सत्तर की दशक के तथाकथित समानांतर सिनेमा के प्रवर्तकों में कुछ गिने चुने नाम थे, जो पापुलर सिनेमा को नापसंद कर उसे कुछ अजीब सा सिनेमा बनाते थे !जो केवल समीक्षकों तक ही सीमित रहता था। आम जनता तक इस दर्जे की फिल्में पहुँच ही नहीं पाती थी। यदि उन्हें सिनेमाघर नसीब भी होता, तो इनकी दौड़ मैटनी शो से आगे नहीं लग पाती थी। हालांकि, इस दौर मे बासु चटर्जी जैसे फिल्मकारों ने हास्य का पुट देकर कुछ सफल फिल्में जरूर बनाई, फिर भी यह लोकप्रिय सिनेमा के समानांतर न होकर सीमित दायरे मेे कैद होकर ही रह गईं। 
  जाॅन अब्राहम की फिल्म 'परमाणु' ऐसी ही फिल्म है, जो बड़े बजट के साथ भव्य कैनवस पर उतारी गई मुख्यधारा की फिल्मों के विषय से हटकर अनछुए विषय पर निर्मित फिल्म है। ये मुख्यधारा के सिनेमा के समानांतर चलते हुए दर्शकों की भीड और बाॅक्स ऑफिस दोनों पर पैसा बटोर रही है। आज कमर्शियल फिल्मों के कलाकार इसी तरह की फिल्मों से जुड़ने लगे है। अनुष्का शर्मा ने 'एनएच-10' जैसी फिल्म दी, तो आलिया भटट ने 'राजी' जैसी फिल्मों में भूमिका कर मुख्यधारा से हटकर समानांतर सिनेमा को एक नई दिशा दी। इन फिल्मों की खासियत यह है कि यह किसी शोषित वर्ग का प्रतिनिधित्व न कर सभी वर्ग के दर्शकों का प्रतिनिधित्व करती है। यही कारण है कि बेबी, सुल्तान, रूस्तम, अब तक छप्पन, ए वेडनेस-डे , नीरजा, एयरलिफ्ट, स्पेशल-26 , पैडमेन और दंगल जैसी फिल्में बनाने का साहस करने वाले फिल्मकार बाॅक्स आफिस पर घुटने नहीं टेकते!
इन फिल्मों में उन विषयों को शामिल किया जाता रहा है जो हमारे आसपास की घटनाओं से पैदा होता है चाहे फिर वह तलवार दम्पत्ति की जेल यंत्रणा पर आधारित तलवार या मनमोहन सिंह जैसे नेता पर आधारित एक्सीडेंटल पीएम ही क्यों न हो । आज इस सिनेमा का कैमरा राजनेताओं के आफिसों में ताकझाक कर राजनीति चालबाजियों को पर्दे पर उतारने मे कोताही नही बरतता है। भले ही प्रदर्शन से पहले उन्हें सेेंसर बोर्ड की कुर्सी पर बैठे चमचों से जुझना पड़े। लेकिन, दर्शकों से समर्थन और न्यायप्रणाली के समर्थन और सहयोग से इस तरह की फिल्में सिनेमाघरों तक पहुँचने और वहाँ से दर्शकों के दिलों तक पहुँचकर समानांतर सिनेमा की अवधारणा को सार्थक कर रही हैं।
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