Tuesday, June 5, 2018

अपने समय से बहुत आगे थीं शुरूआती फ़िल्में!


- हेमंत पाल 

    हिंदी फिल्मों के शुरूआती दौर में कुछ फिल्में बनी जो अपने कथ्य, विषय और प्रस्तुतिकरण में अपने समयकाल से बहुत आगे थीं। इन फिल्मों ने नए सामाजिक मूल्यों, कुरीतियों पर चोट, नए विषयों व शिल्प प्रयोगों की नींव रखी। 1940 के बाद का सिनेमा जिन नई चुनौतियों को स्वीकार करता है, उनका आधार इन्हीं फिल्मों ने तैयार किया था। हिंदी फिल्मों का ये शुरूआती इतिहास दर्शाता है, कि बॉलीवुड हमेशा ही नई चुनौतियों को साथ लेकर चला है। यहाँ मसाला फिल्मों से लेकर नए प्रतिमान गढ़ने तक की ऐसी फ़िल्में बनीं, जिन्होंने समाज को बदलते मूल्य दिए! नए कथानक, प्रस्तुतिकरण के नए अंदाज, नया शिल्प,संगीत, गीत  व समाज के बदलते आयामों को दर्शाती ये फ़िल्में सदा अविस्मरणीय रहेंगी!
  1917 में जब ब्रिटिश सरकार ने भारत में सेंसरशिप कानून एक्ट लागू किया था, उस समय इस कानून में सिर्फ ये प्रावधान था कि देशभक्ति का प्रचार करने वाली फ़िल्में न बनें! नग्नता के खिलाफ इस कानून में कोई प्रावधान नहीं था। उस समय बनने वाली मूक फिल्मों में अधिकतर धार्मिक और पौराणिक कथानक लिए जाते थे। इन फिल्मों में भी दो फिल्में ऐसी थीं जिनमें बहुत खुलापन था। उस समय का समाज इतना खुलापन स्वीकार नहीं कर पाता था। इसके बाद भी ये फिल्में बनीं। इनमें से एक थी 'सती अनुसूया' (1921)  इस फ़िल्म में नग्न दृश्य दिखाया गया था। ये सीन फिल्म में कुछ ही क्षणों के लिए था और धुंधला था। दूसरी फिल्म थी 'पति भक्ति' जो 1922 में बनी थी। 'पति भक्ति' पहली ऐसी फिल्म थी, जिस पर ब्रिटिश सरकार के मद्रास सेंसर बोर्ड ने अपनी आपत्ति जताई थी। सेंसर विवाद में फंसने वाली भारत की पहली फिल्म थी। फिल्म में एक डांस की सेंसरशिप को लेकर काफी बवाल हुआ था!
 1930 के दशक में अछूत कन्या, धूप-छांव, महल, चंडीदास, पुकार,अमर ज्योति आदि फिल्मों ने उस समय के समाज की कुरीतियों व देशभक्ति की भावना को पूरी ताकत से प्रस्तुत किया था। 'अछूत कन्या' में ब्राह्मण नायक व हरिजन नायिका की कहानी उस समय के मुताबिक बहुत क्रांतिकारी थी। 'चंडीदास' में भी उच्च जाति के नायक व निम्न जाति की लड़की की कहानी थी। दोनों फिल्मों में समस्या को उठाया गया, पर अंत दोनों का दुखांत था। पुकार, पोरस और सिकंदर ऐतिहासिक कथानक के माध्यम से देशभक्ति को बल देने वाली फिल्म थी। 'धूप-छांव' फिल्म में पहली बार प्लेबैक गायन का प्रयोग हुआ था।
  1935 की फ़िल्म 'दुनिया न माने' भी बहुत प्रगतिशील फ़िल्म थी, जिसमें शीला आप्टे ने काम किया था। ये वो दौर था, जब बाल विवाह, कम उम्र की कन्या का दुगनी आयु के विधुर से विवाह सामान्य बात थी। इस विषय को लेकर विद्रोह के स्वर नायिका ही उठा सकती थी, तब ये उस वक़्त सोच से परे की बात थी। इस फ़िल्म में यही विषय था। फिल्म के एक सीन में टूटे हुए आईने के माध्यम से बूढ़े नायक की नपुंसकता का दृश्य बहुत प्रभावी था। ये फ़िल्म 'वेनिस फिल्म फेस्टिवल' में भी दिखाई गई थी। इस दौर में आगे की और फिल्म थी 'किस्मत' जिसका नायक अशोक कुमार अपराधी था। उस दौर में नायक की छवि बहुत भले इंसान, त्यागवान सज्जन पुरुष की होती थी। एक चोर को नायक दिखाना समय से आगे की बात थी। 1935 की एक फ़िल्म 'आदमी' में एक पुलिस वाले और वेश्या की कहानी थी, जो उस समय के हिसाब से बोल्ड फिल्म थी। 'एक ही रास्ता' फिल्म में युद्ध से लौटे एक वृद्ध फौजी की कहानी दिखाई गई थी। उसका व्यवस्था से उसका संघर्ष दिखाया जाता है कि युद्ध लड़ना आसान है। समाज के अंदर रहकर व्यवस्था से लड़ना कितना मुश्किल है। 1939 की फिल्म 'अछूत' भी बहुत महत्वपूर्ण थी। इसी दशक में फिल्म 'जिंदगी' आई, जिसमें एक क्रूर पति से त्रस्त महिला का किसी अन्य पुरुष से प्रेम दिखाया गया। उस दौर में यह चित्रण ही साहस की बात थी |
   1940 के दशक में सिकंदर,रामराज्य, अंदाज़, डॉ कोटनिस की अमर कहानी आदि फ़िल्में अपने नए कथ्य व शिल्प के कारण बेहतरीन थीं। 'रामराज्य' इकलौती फिल्म थी, जिसे महात्मा गाँधी ने अपने जीवनकाल में देखा था। हॉलीवुड में टेन कमांडमेंट्स बनाने वाले सिसिल ने इस फिल्म की बेहद प्रशंसा की थी। 1946 में बनी 'नीचा नगर' देश की पहली फिल्म थी, जिसे अंतराष्ट्रीय कान फिल्म फेस्टिवल में पुरस्कार मिला था। फिल्म के निर्देशक चेतन आनंद थे। सही मायनों में ये फिल्म उस दौर की बेहद यथार्थवादी फिल्म थी। फिल्म की कहानी एक शहर के दो हिस्सों की कहानी थी! एक हिस्सा जिसमें शहर के अमीर रहते हैं और दूसरा हिस्सा जो नीचे बसा है जहां गरीब तबका रहता है।
  मेहबूब खान की रोटी, औरत भी वो फ़िल्में थीं जो समय को पीछे छोड़ती थीं। 'रोटी' में शेख  मुख़्तार हीरो थे और कथक नृत्यांगना सितारा देवी का एक महत्वपूर्ण रोल था। 'औरत' की कहानी पर ही बाद में ‘मदर इंडिया' बनी थी! अभी तक मदर इंडिया, सलाम बॉम्बे और लगान यही तीन हिंदी फिल्में हैं, जो आस्कर के लिए फाइनल राउंड तक पहुंची! 1950 के दशक की समाधि,जोगन,संग्राम, बाबुल, दास्तान आदि फ़िल्में भी नया कथ्य सामने लेकर सामने आईं। आशय यह कि उस दौर में भी समयकाल से आगे की कई फ़िल्में बनी जिन्होंने समाज की चेतना को जागृत किया था।
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