- हेमंत पाल
जब भी और जहाँ भी कोई आत्महत्या होती है, अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती है। क्योंकि, आत्महत्या का फैसला सिर्फ अभाव की कोख से ही नहीं उपजता। समृद्ध और वैभवशाली लोग भी इस त्वरित मानसिकता के वशीभूत होकर दुनिया से विरक्त होने का बहाना खोज लेते हैं। लेकिन, ऐसा क्यों होता है? परेशानी के सामने पलायनवाद क्यों हावी हो जाता है? इस सवाल का जवाब मनोवैज्ञानिकों के साथ फिल्मकार भी बरसों से खोजते आ रहे हैं। दुनिया के कई बड़े कलाकारों ने प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंचकर आत्महत्या जैसा कायराना फैसला किया है। देश-विदेश में इस विषय पर कई फिल्में भी बनी है। दुनियाभर के कई चर्चित अभिनेताओं और अभिनेत्रियों को याद किया जा सकता हैं, जिन्होंने असमय मौत को गले लगाया!
अजीब बात यह भी है कि विकसित और आधुनिक माने जाने वाले पश्चिमी समाज के कई फिल्म कलाकारों की आत्महत्या के प्रसंग हमारे यहां से ज्यादा हैं। अपने सौंदर्य के लिए पहचानी जाने वाली मर्लिन मुनरो ने मात्र 36 साल की उम्र में नशीली दवाइयों का ओवर डोज लेकर अपनी जान दे दी थी। ये वही मर्लिन मुनरो थी, जिसकी उड़ती स्कर्ट वाली अदा ने कई लोगों की रातों की नींद उड़ा दी थी। फिल्म 'मिसेज डाउटफायर' (जिस पर चाची 420 बनी) के नायक राबिन विलियम ने भी लोकप्रिय रहते मौत को गले लगाने का फैसला किया था। इस क्रम में जाॅनी लेविस, हर्वे विलिचाइज, शाइनी एडम्स सहित कई सितारों का नाम भी जोड़ा जा सकता है।
हमारे यहां दक्षिण भारत की अभिनेत्रियों ने आत्महत्या की परम्परा को कुछ ज्यादा ही पसंद किया। सिल्क स्मिता ने जिस समय मौत को गले लगाया वे लोकप्रियता के शिखर पर थी। इसी तरह विजयश्री, शोभा, नफीसा जोसेफ, फटाफट जयलक्ष्मी, मंजुला, मयूरी ने भी सब कुछ होते हुए जिंदगी को अलविदा करने का फैसला किया था। हिन्दी फिल्मों और टीवी से जुड़ी नायिकाओं में प्रत्युषा बैनर्जी, जिया खान, कुलजीत रंधावा के नाम अभी दर्शकों की स्मृति से लुप्त नहीं हुए हैं। बहुत जल्दी दर्शकों के दिल में उतरने वाली दिव्या भारती की मौत को भी कुछ लोग आत्महत्या ही बताते हैं। हिन्दी सिनेमा के विवेकानंद कहे जाने वाले गुरूदत्त ने 1964 में उस समय शराब के साथ नींद की गोलियां खा ली थी, जब उनकी फिल्म 'चौदहवीं का चांद' ने बाॅक्स ऑफिस पर सफलता का डंका पीट रही थी। गुरूदत्त की मौत उनकी फिल्म 'प्यासा' के उस गीत को चरितार्थ करती है जिसमें साहिर ने लिखा था 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?'
आत्महत्या का सिलसिला फिल्मकारों तक ही सीमित नहीं रहा! हमारे यहां आत्महत्या पर कुछ अच्छी फ़िल्में भी बनी है। हिन्दी फिल्मों में आत्महत्या को बलिदान का माध्यम बताकर दर्शकों की सहानुभूति भी बटोरी गई! प्रेम त्रिकोण वाली फिल्मों में यह मसाला कुछ ज्यादा ही काम आया है। इस तरह की फिल्मों ने दर्शकों से आंसू भी बटोरे और पैसे भी। 'चौदहवीं का चांद' में गुरूदत्त और वहीदा रहमान के बीच आए रहमान हीरा चाटकर अपनी जान दे देता है, तो 'मेरे हुजूर' में जीतेन्द्र और माला सिन्हा के बीच राजकुमार शान से अपनी जान गंवाकर वाहवाही बटोर ले जाते हैं। 'प्रेम कहानी' में मुमताज और शशिकपूर के बीच राजेश खन्ना यही करिश्मा दिखाते हैं।
इस विषय पर बनी सबसे लोकप्रिय और चर्चित फिल्म थी राजकपूर की 'संगम' जिसमें राजेन्द्र कुमार ‘जिए तो यार के कंधे पर, जाएं तो यार के कंधे पर' कहते हुए खुद को गोली मार लेते है। प्रेम में असफल होने पर प्रेमी-प्रेमिका की संग-संग आत्महत्या वाली फ़िल्में भी खूब पसंद की गई! ये हताश प्रेमियों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने का माध्यम भी बनी। 'एक दूजे के लिए' के प्रदर्शन के बाद यह चर्चा जोरों पर थी कि देशभर में कई प्रेमी जोड़ों ने रति अग्निहोत्री और कमल हासन का अनुकरण करते हुए आत्महत्याएं की! हिन्दी फिल्मों ने बलिदान से लेकर असफलता और निराशा के समाधान के रूप में भले ही आत्महत्या को महिमा मंडित किया हो, लेकिन लोकप्रिय सितारों की वास्तविक आत्महत्या ने हमेशा यह अनुत्तरित सवाल छोड़ा है 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?'
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