Sunday, June 10, 2018

आज का नायक 50 के दशक में जन्मा!



* हेमंत पाल 

  हिंदी फिल्मों का इतिहास आजादी से काफी पहले का है। लेकिन, गुलामी के उस दौर में भी फ़िल्में बनी और देखी जाती रहीं! मूक और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से बोलती और रंगीन फिल्मों तक का दौर आया! समय बदला, माहौल बदला, सोच बदला! नहीं बदला, तो वो रहा नायक का आदर्श चरित्र! ऐसा नायक जो सामाजिक व्यवस्था का सबसे सही चेहरा था। जबकि, फिल्मों के शुरुआती दौर में नायक का चरित्र इतना आदर्शवादी नहीं था! आदर्श व्यक्ति के रूप में नायक की पहचान आजादी के बाद बनी फिल्मों से बदली! 1950 के दशक में ही परदे के नायक को बदलने का दौर आया! क्योंकि, उस वक़्त फिल्मकारों के मन में आजाद देश और समाज के प्रति चिंतन हावी था। यही कारण है कि देश के जिम्मेदार नागरिक का किरदार सभी अपने-अपने ढंग से निभाया! आजादी पहले जो नायक क्रांति का झंडा लेकर घूमता था, वो आदर्शवाद का प्रतीक बन गया! 
    राजकपूर की ‘श्री 420’ में नायक अमीर होने के लिए गलत रास्ता चुन लेता है! लेकिन, नायिका अड़ी रहती है और फिल्म के अंत तक नायक को भी सही रास्ते पर ले आती है। आदर्श की जीत और बेईमानी की हार इस दौर में सामान्य बात थी। इस दौर में नायक आदर्श और समाजवादी मूल्यों का समर्थक था। लेकिन, उसे मोहब्बत करना नहीं आता था। इस कारण इस दौर में प्यार की अनुभूति ठीक से आकार नहीं ले सकी। ये समाज 'अरेंज्ड मैरेज’ वाला था, जैसी परिवार की इच्छा होती थी, युवा वैसा ही करते थे। दिल पर पत्थर रखकर प्यार की बलि चढ़ा देते थे! पारिवारिक दबाव, सामाजिक प्रतिष्ठा और सामाजिक प्रतिबद्धता के आगे वो अपने प्यार को कुर्बान कर देता था। बिमल राय ने इसी दौर में ‘देवदास’ का निर्माण किया। फिल्म का नायक ऐसा व्यक्ति था, नायक जो न ठीक से प्यार कर सका, न ठीक से प्यार पा सका। गुरुदत्त की ‘प्यासा’ में भी यही हुआ। शायद यह प्रगतिशीलता का आह्वान था कि देश और समाज के सामने प्यार की कोई हैसियत नहीं! उसमें साहस का अभाव था। प्यार की तुलना में देश, समाज और परिवार उसके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण था। 
  1950 का दशक हिंदी फ़िल्मों का आदर्शवादी दौर था। आवारा, मदर इंडिया, जागते रहो, श्री 420, झाँसी की रानी, परीणिता, बिराज बहू, यहूदी, बैजू बावरा और जागृति जैसी फिल्में इसी दौर की देन थी। यह दौर गुरुदत्त, बिमल राय, राज कपूर, महबूब खान, दिलीप कुमार, चेतन आनंद, देव आनंद और ख्वाजा अहमद अब्बास जैसे विचारक फिल्मकारों का था। यह वह समय था, जब हिंदी सिनेमा के नायक को सशक्त किया जा रहा था। हिंदुस्तानी समाज का आदर्शवाद इस दशक के केंद्र में था। सामाजिक भेदभाव, जातिवाद, भ्रष्टाचार, गरीबी, फासीवाद और सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं को लेकर इसी दौर में फ़िल्में बनाई गईं। आज़ादी को लेकर जो सपने और जिन आदर्शों की कल्पना समाज ने की थी, वह फिल्मों में भी नज़र आ रहा था। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' इस दौर की महत्वपूर्ण फ़िल्म है। राजकपूर अभिनय के साथ फिल्मों के निर्माण और निर्देशन का भी कार्य कर रहे थे। 
  पचास के दशक के उसी फिल्मी नायक का प्रभाव आज तक बना हुआ है! क्योंकि, माना जाता है कि हिंदी सिनेमा का वही सबसे प्रभावी नायक था, उसका वही रूप आज भी परदे पर मौजूद है। इसी दशक का नायक भारतीय सिनेमा को विश्व पटल पर लाया! पं. नेहरू की तरह राजकपूर भी दुनिया के कई देशों में लोकप्रिय थे! पं. नेहरू राजनीति में समाजवादी थे, तो सिनेमा के परदे पर राजकपूर का नायकत्व भी समाजवाद का दृष्टिकोण लिए था! आजादी के बाद की सरकार नैतिकता के साथ सामाजिक समरसता और संपन्नता के सपने संजो रही थी, यही काम फिल्मों में भी हो रहा था! जब भी हिंदी फिल्मों के नायक पर से दर्शकों का विश्वास डिगेगा, उसे 50 के दशक के नायक से सीख लेना पड़ेगी! क्योंकि, इस दशक के नायक को सीखने के लिए बहुत कुछ है। 
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