- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश में किसान आंदोलन की पूर्णाहुति हो गई! 10 दिन चले इस आंदोलन में बहुत कुछ हुआ! किसान और शिवराज सरकार के बीच चली रस्साकशी में जमकर राजनीति हुई! कांग्रेस और सरकार विरोधियों ने किसानों के साथ खड़े होकर सरकार को कटघरे में खड़ा करने में कसर नहीं छोड़ी! उधर, सरकार ने भी अपनी सारी ताकत इस बात के लिए झोंक दी, कि किसान आंदोलन उस रूप में सफल न हो सके, जो सरकार के लिए चुनौती बने! आंदोलन के पूरा होने पर सरकार ने चैन की सांस ली। इस आंदोलन में न तो कोई हिंसा हुई, न अराजकता फैली! तात्कालिक रूप से सरकार इसे अपनी सफलता मान सकती है, पर यदि किसान हारे हैं तो इसका प्रतिफल भी सरकार को ही भोगना है। आंदोलन खत्म हो गया, पर किसानों की नाराजी बरक़रार है। जिस तरह से आंदोलन को दबाने और उसे असफल करने की कोशिशें की गई, उसका असर सरकार के साथ भाजपा पर भी पड़ेगा! ये आंदोलन था, कोई क्रिकेट मैच नहीं जिसकी जीत का जश्न मनाया जाए! सच तो ये है कि सरकार जीतकर भी हार गई और किसान हारकर भी जीत गए! क्योंकि, इस आंदोलन के जरिए विपक्ष और सरकार से नाराज लोगों को जिस तरह अपनी भड़ास निकालने का मौका मिला, वो कहीं न कहीं सरकार के लिए नुकसान देगा! फिर किसान तो पहले भी नाराज थे, अब और ज्यादा हो गए। सरकार के लिए उन्हें पहले मनाना आसान था, पर अब शायद उतना आसान नहीं है!
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मध्यप्रदेश के किसानों की अपनी मांगें हैं। उनमें क्या जायज है और क्या नाजायज, इस पर लम्बी बहस हो सकती है। लेकिन, इस बात को सभी मानते हैं कि किसानों के प्रति शिवराज-सरकार का रवैया हमेशा चलताऊ ही रहा! प्रदेश सरकार ने किसानों को भरमाने का काम ही ज्यादा किया। कभी न्यूनतम समर्थन मूल्य के नाम पर, कभी भावांतर के नाम पर तो कभी किसी और बहाने! राजनीति करने के ये सरकार के अपने हथकंडे हैं। उसे किसानों के प्रति, उनकी माली हालत के प्रति और उनके भविष्य के प्रति कितनी सहानुभूति है ये कई बार सामने आ चुका है। यही कारण है कि किसानों को सरकार के खिलाफ आंदोलन के लिए मजबूर होना पड़ा! सरकार ने इस आंदोलन को बजाए सहानुभूति पूर्वक निपटाने या किसानों की समस्याएं हल करने की पहल करने के बजाए इसे दबाकर अपनी सफलता का ढिंढोरा पीटना चाहा है। ये कोई असामाजिक लोगों का अराजक आंदोलन नहीं था, जिसे दबाने के लिए सरकार को पूरा प्रशासन लगाना पड़ता, पर ये किया गया! सब्जी और दूध की आपूर्ति के लिए जिस तरह का दबाव बनाया गया उससे कहीं न कहीं किसान और ज्यादा नाराज है! यदि इसे सरकार अपनी सफलता समझती है, तो भविष्य में इसका खामियाजा भी उसे ही भुगतना होगा!
बीते साल की तुलना में इस बार किसान गाँव से बाहर आकर अपना सामान बेचने जाने को तैयार नहीं थे। क्योंकि, सरकार की नीतियों से किसान इतने परेशान हैं कि वे आर्थिक नुकसान झेलकर भी आंदोलन के समर्थन में थे। लेकिन, पुलिस और प्रशासन के दबाव में उन्हें सब्जी और दूध की सप्लाई जारी रखना पड़ी! सरकार ने इस आंदोलन को कांग्रेसी आंदोलन बताकर प्रचारित किया, ये भी एक कारण है कि किसान नाराज हैं। देखा जाए तो आंदोलन से पहले और उसके दौरान भी सरकार ने यही भ्रम फैलाया कि ये किसानों का नहीं, कांग्रेस का आंदोलन है। समझा जा सकता है कि किसानों की ये नाराजी कब, कहाँ और कैसे असर दिखा सकती है! सरकार ने किसानों की बात न करके आंदोलन को लेकर हमेशा नकारात्मकता रखी! मुद्दा ये नहीं कि ये आंदोलन किसका है, सवाल यह कि किसानों की क्या किसानों की मांगें नाजायज हैं जो सरकार उसे नहीं मान रही? किसानों पर सरकार ने जिस तरह का दबाव बनाया ग्रामीण इलाकों से शहर में आने वाले दूध और सब्जी विक्रेताओं पर नजर रखी, वो गुस्सा आंदोलन खत्म होने बरक़रार है। जगह-जगह पुलिस बल की तैनाती, अर्ध सैनिक बलों की कंपनियों को सुरक्षा के लिए बुलाया जाना और मंदसौर समेत कई जिलों में निषेधाज्ञा लागू की जाना वास्तव में सरकार की असफलता और आंदोलन की सफलता मानी जाएगी। पिछले साल मंदसौर में हुई गोलीबारी में मारे गए अभिषेक पाटीदार के परिवार ने आरोप लगे कि एसडीएम ने उनसे फोन कर राहुल गांधी की रैली में जाने से मना किया। सरकार के इस तरह के दबाव वाले हथकंडे रणनीतिक रूप से नुकसानदेह होते हैं।
आंदोलन कहीं सफल न हो, इसके लिए मंदसौर सहित प्रदेशभर के किसानों से बांड भरवाने गए कि वे आंदोलन के दौरान कोई अराजकता नहीं करेंगे! सरकार की रणनीति का असर ये हुआ कि किसानों ने न तो प्रदर्शन किया न धरना दिया। प्रशासन के दबाव में भारतीय राष्ट्रीय किसान मजदूर महासंघ को भी अपनी रणनीति बदलना पड़ी! क्योंकि, महासंघ अपने आपको इस आरोप से अलग रखना चाहता था कि वो कांग्रेस के साथ या उनके कहने से आंदोलन कर रहा है। पहले महासंघ ने मंदसौर में जो 6 जून को जो श्रद्धांजलि सभा की तैयारी की थी,उसे प्रशासन ने मंजूरी नहीं दी। महासंघ ने राहुल गांधी और कांग्रेस से भले ही दूरी बनाई हो, पर वो पूरे आंदोलन को भाजपा विरोधी राजनीति से अलग नहीं रख सका! विहिप के पूर्व नेता प्रवीण तोगड़िया और शत्रुघ्न सिन्हा ने जिस तरह मंदसौर आकर आग उगली वो इस आंदोलन से हटकर भी सरकार को नुकसान तो देगा। क्योंकि, शत्रुघ्न सिन्हा और प्रवीण तोगडिया को नरेंद्र मोदी का विरोधी समझा जाता है। किसान आंदोलन के बहाने इन्होने नरेंद्र मोदी पर अपना निशाना तो साध ही दिया। यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा पहले भी नरसिंहपुर के किसान आंदोलन में आ चुके थे। गुजरात के फायर ब्रांड पाटीदार नेता हार्दिक पटेल तो 10 जून को किसान आंदोलन ख़त्म होने के बाद हार्दिक 11 जून को मंदसौर गए।
इस किसान आंदोलन से शिवराज सरकार और भाजपा को सबसे ज्यादा नुकसान ये हुआ कि कांग्रेस को अपनी जड़ें मजबूत करने का मौका मिला! कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने मंदसौर आकर चुनाव से पहले ही चुनावी अंदाज में जिस तरह घोषणा की कि कांग्रेस की सरकार आने पर दस दिन में किसानों का कर्जा माफ़ कर दिया जाएगा, उससे सरकार की नींद उड़ गई! उन्होंने उन लोगों के खिलाफ भी दस दिन में कार्रवाई का आश्वासन दिया, जो पिछले साल हुए गोलीकांड के दोषी हैं। ये ऐसी दो घोषणाएं हैं, जिनकी सरकार के पास कोई काट नहीं! भले ही ये कांग्रेस की राजनीति हो, पर दस दिन में कर्जा माफ़ी के मोह में किसान क्यों नहीं फंसेगा? साथ ही सालभर बाद भी सरकार गोली चलवाने वालों का पता नहीं लगा सकी, ये भी तो सरकार की खामी ही है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने पिछले साल पुलिस गोली में मारे गए उन सात किसानों के परिवारों के दुखों पर भी मरहम लगाया, जहाँ अभी तक मुख्यमंत्री नहीं पहुंचे हैं। राहुल ने कहा कि इससे पहले भी यूपीए सरकार किसानों का 70 हज़ार करोड़ का कर्जा माफ कर चुकी है। उनकी इस बात में भी लोगों को दम दिखा कि देश के 15 बड़े उद्योगपतियों का ढाई लाख करोड़ रुपए माफ किए जा सकते हैं, तो करोड़ों किसानों का एक रुपया भी माफ क्यों नहीं किया जा सकता?
प्रदेश में साल के अंत में विधानसभा चुनाव होना है। कांंग्रेस 15 साल से सत्ता से बाहर है। इस बार कांग्रेस किसानों को मुद्दा बनाकर सत्ता में वापसी की कोशिश रही है। ऐसे में सरकार को कांग्रेस के हाथ में किसानों का ये मुद्दा नहीं आने देना था। लेकिन, यहाँ सरकार अपनी रणनीति बनाने में चूक गई! उसका पूरा ध्यान दूध और सब्जी की आपूर्ति सुगम बनाए रखकर किसान आंदोलन को फेल करने में लगा रहा! इसके लिए जिस तरह से प्रशासनिक दबाव बनाया गया वो सरकार के गले में फांस बन गया है। किसी भी आंदोलन को असफल करने का तरीका ये नहीं होता, जो सरकार ने इस बार अपनाया! क्योंकि, इसके साथ राजनीति भी जुड़ गई और उसने सरकार कटघरे में खड़ा कर दिया। अभी तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि किसान हितैषी नेता की रही है। पिछले साल मंदसौर में पुलिस फायरिंग की घटना ने उनकी इस छवि को नुकसान पहुंचाया था! इस बार इसे सुधारा जाना था, पर सरकार ने जो कुछ किया उससे उसे बजाए फ़ायदा होने के नुकसान ही ज्यादा हुआ! अब सरकार ये प्रचारित करके खुश हो सकती है कि हमने किसानों को आंदोलन में मात दे दी, पर असल में तब भी हार तो सरकार की ही हुई! लेकिन, जीत में छुपी हुई हार से भाजपा ने क्या खोया, इसका मूल्यांकन करने में थोड़ा वक़्त लगेगा!
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