- हेमंत पाल
विधानसभा चुनाव की बिसात बिछते ही, उस पर नए-नए दांव चलने की जुगत लगाई जाने लगी है। हर राजनीतिक पार्टी चाहती है कि उसकी कोशिशें कामयाब हो! लगातार तीन चुनाव से सत्ता पर काबिज भारतीय जनता पार्टी भी चुनाव में जीत का चौका लगाने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती! जबकि, कांग्रेस इस बार पूरा दम लगाकर भाजपा को सत्ता से बेदखल करने में लगी है। ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों ने भी चुनावी जीत में अपनी हिस्सेदारी के लिए रणनीति बनाना शुरू कर दी! लेकिन, हाल ही में देशभर में हुए उपचुनावों में जिस तरह भाजपा के खिलाफ साझा विपक्ष को कामयाबी मिली है, मध्यप्रदेश में भी नए चुनावी समीकरण बनने की संभावनाएं नजर आने लगी है। सभी पार्टियों को लगने लगा है कि भाजपा को उसकी जीत का परचम लहराने से रोकना है, तो विपक्ष को साझा रणनीति बनाना होगी! सभी को एकसाथ खड़े होना होगा और वोटों का बंटवारा रोकना होगा! उत्तरप्रदेश और बिहार में साझा विपक्ष की जीत से निकले मिले संदेश को मध्यप्रदेश में भी लागू करने की कोशिशें शुरू हो। कांग्रेस ने इस दिशा में प्रयास भी शुरू कर दिए। यदि कांग्रेस समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी को अपने साथ लाने में कामयाब हो जाती है, तो तय है कि भाजपा को चुनाव में कड़ी चुनौती मिलेगी।
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मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष कमलनाथ के सामने पार्टी को सत्ता में लाने की स्थितियां निर्मित करने की बड़ी चुनौती है। इसके लिए उन्हें फ्री-हैंड भी दिया गया। अपनी इन्हीं कोशिशों के चलते कांग्रेस ने भाजपा विरोधी पार्टियों को एक साथ लाने की कोशिश शुरू कर दी है। पार्टी की पहली कोशिश 'बहुजन समाज पार्टी' के साथ गठबंधन की है, ताकि 2013 के विधानसभा चुनाव की तरह वोट नहीं बंटे! बसपा को भी मध्यप्रदेश में अपनी जड़ें ज़माने के लिए एक सहारे की जरुरत है और उसके लिए कांग्रेस से बेहतर सहारा कोई हो नहीं सकता! बसपा के पास मध्यप्रदेश में कांग्रेस को प्रभावित करने के लिए इसके पास पर्याप्त वोट बैंक भी है। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में बसपा ने लगातार उन सीटों पर असर डाला जहाँ कांग्रेस को जीत का पूरा भरोसा था। वोटों के बंटवारे ने कांग्रेस को भी जीतने नहीं दिया और न बसपा के मंसूबे पूरे हुए। इस बार कांग्रेस ने पहले से इस खतरे को भाँपते हुए चुनाव से पहले ही बसपा के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है। खुद कमलनाथ ने भी स्वीकार किया कि हम प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए समान विचारधारा वाली पार्टियों से बात करेंगे।
कांशीराम द्वारा स्थापित बसपा ने मध्यप्रदेश में पहली बार 1990 में अपने चुनावी सफर की शुरुआत की थी। बसपा ने अपने पहले चुनाव में ही 3.53% वोट लेकर भाजपा और कांग्रेस को अपने जमीनी आधार का अंदाजा करा दिया था। इसके बाद हुए सभी विधानसभा चुनाव में बसपा ने लगातार 6% से 8% तक वोटों का आंकड़ा पार किया है। 2003, 2008 और 2013 में हुए चुनाव में बसपा ने भी क्रमशः दो, सात और चार सीटों पर अपनी जीत दर्ज की! जबकि, भाजपा और कांग्रेस बीच सिर्फ 2% वोटों का अंतर है। यदि कांग्रेस और बसपा एक साथ आ जाते हैं, तो इसका सीधा असर भाजपा पर पड़ेगा! मध्यप्रदेश में बसपा को मिलने वाले वोट यदि कांग्रेस से जुड़ जाएँ, तो कांग्रेस की जीत की संभावनाएं प्रबल होती है।
2003 में एंटी-इंकम्बेंसी के कारण कांग्रेस को प्रदेश में 230 सीटों में से केवल 38 सीट मिली थी। इस चुनाव में बसपा ने भी 2 सीटें जीती थी, इस चुनाव में कांग्रेस ने 25 सीटें इसलिए खोई, क्योंकि बसपा उम्मीदवारों ने इतने वोट हांसिल कर लिए थे कि कांग्रेस वहाँ हार गई! ऐसा ही कुछ बसपा के साथ भी हुआ! जिन 14 सीटों पर बसपा की जीत की संभावना थी, वहां कांग्रेस ने वोटों का विभाजन कर दिया। 2008 में कांग्रेस ने भाजपा की 143 सीटों की तुलना में 71 सीटें जीती थी। लेकिन, बसपा ने कांग्रेस की 39 सीटों पर जीत को प्रभावित किया। जबकि, इस चुनाव में भी बसपा ने 7 सीटें जीती थीं। 2013 के चुनाव में वोटों के विभाजन के बिना कांग्रेस 58 सीटें जीती, जबकि बसपा 4 सीटों से आगे बढ़कर 11 सीटें जीत सकती थी। वोटों के प्रतिशत को आधार बनाकर मूल्यांकन किया जाए तो पिछले विधानसभा में कांग्रेस और बसपा यदि साथ में चुनाव लड़ती, तो 103 सीटों पर इनकी जीत होती। चंबल तथा उत्तरप्रदेश की सीमा से लगने वाले इलाकों में बसपा की अच्छी पकड़ रही है। क्योंकि, प्रदेश के दलितों की सर्वाधिक करीब 15% आबादी इसी इलाके में है। 2013 के चुनाव में बसपा ने प्रदेश के 50 में से 22 जिलों में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई थी।
इस बार कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ इस कोशिश में हैं कि बसपा के साथ चुनावी गठबंधन करके भाजपा को मात दी जाए। कांग्रेस का प्रयास है कि बसपा के साथ 15 सीटों पर गठबंधन किया जाए। बसपा द्वारा 2013 में जीती गई 4 सीटें उसे दी जाएं और जिन 11 सीटों पर बसपा दूसरे स्थान पर रही थी, वो भी बसपा को दी जाएँ। लेकिन, अभी ये सिर्फ कयास हैं। यदि कांग्रेस और बसपा में ऐसा कुछ गठबंधन होता है, तो कांग्रेस को करीब 40 सीटों का फ़ायदा मिलने की उम्मीद है। कांग्रेस और बसपा के बीच सीटों का समझौता इसलिए लगभग तय लग रहा है कि उत्तरप्रदेश में अपनी घोर विरोधी समाजवादी पार्टी के साथ समझौता करने से बसपा को जो फ़ायदा मिला है, वो मध्यप्रदेश में भी भाजपा के संदर्भ में दोहराया जा सकता है। बसपा के कांग्रेस अलावा गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) को भी साथ लाने की कोशिश है। मध्यप्रदेश में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की महाकौशल इलाके में पकड़ है और ये पार्टी कांग्रेस की कुछ सीटों को प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जबकि, समाजवादी पार्टी का प्रभाव क्षेत्र भी सीमावर्ती मध्यप्रदेश में है, पर पिछड़ा वर्ग और पुराने समाजवादियों का इस पार्टी से जुड़ाव है।
अभी ये तय नहीं है कि मध्यप्रदेश में सपा और बसपा साथ आने को तैयार होंगे या नहीं! क्योंकि, अभी ऐसे कोई संकेत नहीं मिले हैं। अलबत्ता सपा के अखिलेश यादव ने मध्यप्रदेश की सभी 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की बात जरूर की है। इसके लिए सपा का संगठन अपने आपको चुस्त-दुरुस्त करने में भी लगा है। कुछ दिनों पहले पार्टी ने चुनावी संभावना तलाशने के लिए सभी बड़े जिलों में अपने ऑब्जर्वर भी भेजे थे। वैसे प्रदेश में सपा का खास जनाधार नहीं है, इसलिए यहाँ उसके पास खोने को भी कुछ नहीं है। लेकिन, उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती जिलों के मुद्दे उभारकर समाजवादी पार्टी लाभ ले सकती है। यही कारण है कि अखिलेश यादव ने बुंदेलखंड के अपने पड़ोसी जिलों पर ध्यान केंद्रित किया है। अखिलेश ने विंध्य और बुंदेलखंड के सीधी, रीवां, सतना, पन्ना, छतरपुर व खजुराहो में किसानों के बीच जाकर सभाएं भी की हैं। दोनों राज्यों में फैले बुंदेलखंड की समस्याएं एक सी है इसलिए सपा की जिला इकाइयों को कर्ज कारण आत्महत्या करने वाले किसानों का पता लगाने के निर्देश भी दिए गए हैैं। सपा ने बुंदेलखंड के लिए उन्होंने नारा दिया है 'जवानी, किसानी और पानी।' बुंदेलखंड क्षेत्र की मुख्य समस्या भी यही है। युवा बेरोजगार हैं, किसान परेशान है और भाजपा सरकार पानी का संकट हल करने में असफल हो गई!
मध्यप्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस में कोई साझा रणनीति बनती है या नहीं, इस बारे में अभी स्पष्ट रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता! लेकिन, अखिलेश यादव का प्रदेश का दौरा करके सभी सीटों पर चुनाव लडऩे का निर्देश देना, कुछ अलग संकेत देता है। दरअसल, उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती जिलों पर सपा की नजर है। वो वहां एकाधिकार बनाने की कोशिश में है। इसके चलते सपा और बसपा दोनों मध्यप्रदेश के चुनाव में कांग्रेस के साथ दिखाई देंगी, अभी ये यक्ष प्रश्न है। लेकिन, राजनीतिक मज़बूरी के चलते यदि साथ आती हैं तो आश्चर्य भी नहीं किया जाना चाहिए।
प्रदेश में गोंडवाना गणतंत्र पार्टी (गोंगपा) भी भाजपा के लिए चुनौती है। 2013 के विधानसभा चुनाव में गोंगपा ने 6 लाख से ज्यादा वोट लेकर अपनी जड़ें मजबूत की है। भले ही राजनीति के जानकारों को गोंगपा का असर समझ नहीं आया हो, पर 1.5% वोट लेना और 70 सीटों पर चुनाव लड़कर अपनी मौजूदगी दर्ज कराना आसान नहीं होता। प्रदेश की 26 सीटों पर 30 हजार से अधिक वोट पाने वाले गोंगपा के उम्मीदवार राजनीतिक समीकरण बिगाड़ सकते हैं। समझा जाए तो गोंगपा से प्रदेश की करीब 60 सीटों पर भाजपा को सीधा नुकसान हो सकता है। विध्य और महाकौशल में गोंगपा का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है। गोंड आदिवासी समाज में पिछले 2 सालों से चल रहा हल्दी-चावल का तिलक लगाकर 'गोंडवाना' को आगे लाने का संकल्प ले रहे हैं। मध्यप्रदेश की 34% आदिवासी गोंड आबादी आखिर चुनाव में कहीं न कहीं तो असर डालेगी ही!
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