मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा विरोधी पार्टियों को लामबंद करने की कोशिशें तेज हो गई। भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंदी कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में प्रभाव रखने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समेत सभी पार्टियों से समझौते के प्रयास बढ़ा दिए हैं। लेकिन, बसपा ने मध्यप्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का एलान करके इस लामबंदी की जड़ों में मट्ठा डाल दिया! 2013 के चुनाव में बसपा ने 4 सीटें जीती और करीब एक दर्जन सीटों पर वह दूसरे स्थान पर थी। उसे चुनाव में 6.29% वोट मिले थे और इसका सीधा नुकसान कांग्रेस को हुआ था। यही वजह है कि कांग्रेस ने बसपा की ताकत को देखते हुए वोटों का बिखराव रोकने का फैसला किया। लेकिन, शायद बसपा की ज्यादा सीटों की जिद ने फिलहाल इस संभावना को हाशिए पर ला दिया! बसपा ने प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की रणनीति बनाना भी शुरू कर दी। उसे उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश की तरह वो मध्यप्रदेश में भी इतनी सीटें ले आएगी कि चुनाव के बाद सरकार बनाने में उसकी जरुरत को महसूस किया जाएगा! किंतु, राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का बसपा का ये उत्तरप्रदेश वाला शास्वत हथियार कितना कामयाब होगा, इस बारे में अभी कयास ही लगाए जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में जब भी राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति बनी है, बसपा ने उसका फायदा उठाया! बसपा यही राजनीतिक हालात मध्यप्रदेश में लाना चाहती है।
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- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश के चंबल और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगने वाले इलाकों में बसपा की हमेशा अच्छी पकड़ रही है। इसलिए भी कि राज्य के दलितों की सबसे ज्यादा जनसंख्या (करीब 15%) इन्ही इलाकों में है। 2013 के चुनाव में पार्टी ने राज्य के 50 जिलों में से 22 जिलों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। पार्टी ने 2013 के विधानसभा चुनाव में मुरैना जिले के अंबाह, दिमनी सतना जिले की रैगांव और रीवा की मनगवां सीट पर जीत दर्ज की थी। रीवा की सीट पर बसपा उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थी। इसके अलावा प्रदेश में करीब दर्जनभर सीटें ऐसी थीं, जहां बसपा बहुत कम अंतर से पिछड़ी! सीधी, सिंगरौली, कोलारस, श्योपुर, अशोकनगर, भिंड, ग्वालियर (ग्रामीण), दतिया, रीवा, सतना, छतरपुर और टीकमगढ़ जिले की सीटों पर बसपा को मिले वोटों ने चुनाव नतीजों को प्रभावित किया था। इस बार कांग्रेस की कोशिश है कि वोटों का इस तरह का बिखराव रोका जाए, ताकि भाजपा को चौथी बार सत्ता में न आ सके! मध्यप्रदेश कांग्रेस ने कहा भी है कि कांग्रेस गैर-भाजपाई पार्टियों को एकजुट करके चुनाव लड़ेगी। प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने भी कहा कि हम वोटों का बिखराव नहीं होने देंगे। ऐसे में यदि बसपा कांग्रेस से बिदकी, तो उसका कारण है कि उसने कांग्रेस से ज्यादा सीटें मांग की होगी!
मध्य प्रदेश में बीएसपी 230 सीटों पर लड़ने की बात कर रही है, जो कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। हालांकि, बसपा के नीति-नियंता नेता इस मामले में अभी चुप हैं। समझा जा रहा है कि ये सब ज्यादा सीटें हांसिल करने के लिए दबाव की राजनीति है। बसपा चाहती है कि कांग्रेस से उसे कम से कम 30 सीटें मिलें। जबकि, कांग्रेस उसे 14-15 सीटें देने के मूड में है। क्योंकि, कांग्रेस समाजवादी पार्टी को भी अपने साथ लेना चाहती है, जिसे 10 सीटें देना पड़ सकती है। तीसरी पार्टी महाकौशल में अपना प्रभाव रखने वाली गोंडवाना गणतंत्र पार्टी है, उसके लिए भी कांग्रेस को कुछ सीटें छोड़ना होंगी! कांग्रेस की रणनीति है कि गैर-भाजपाई वोटों को एकजुट करके ही भाजपा को सत्ता से उखाड़ा जा सकता है। कांग्रेस की इस मुहिम में बसपा का साथ होना बहुत ज़रूरी है। यदि कांग्रेस और बसपा साथ चुनाव नहीं लड़ते, तो इसका सीधा फायदा भाजपा को मिलेगा। लेकिन, बीते सालों में बसपा अपने गृहराज्य उत्तर प्रदेश में ही सिमट गई! 2017 के विधानसभा चुनाव में 19 सीटें जीतने वाली बसपा के पास एक भी लोकसभा सदस्य नहीं है। लेकिन, मध्यप्रदेश में कांग्रेस को दबाने के लिए उसके पास पर्याप्त वोट बैंक है।
मध्यप्रदेश की विंध्य, बुंदेलखंड, भिंड, मुरैना और ग्वालियर इलाके की सीटों पर प्रभाव रखने वाले सभी गैर-भाजपाई दलों को कांग्रेस ने एकजुट करने की कवायद की है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को इसके लिए दिल्ली से हरी झंडी भी मिली और वे इसी रणनीति पर काम भी कर रहे हैं। बसपा की सर्वेसर्वा मायावती से उनके राजनीतिक संबंधों के चलते वे इस गठबंधन की जमीन तैयार करने की तैयारी कर ही रहे थे कि बसपा छिटककर दूर खड़ी हो गई! लेकिन, अभी बसपा इतनी दूर नहीं गई, कि नजदीक आने में दिक्कत हो! किंतु, अपना प्रभाव दिखाने के लिए बसपा ऐसी सीटों पर ज्यादा फोकस कर रही है, जहां उसे अपना जनाधार नजर आ रहा है और जहाँ पिछली बार बहुत थोड़े अंतर से वो पिछड़ी थी। ऐसी सीटों पर हर तरह के राजनीतिक समीकरण खंगाले जा रहे हैं। ख़ास बात ये कि बसपा की नजर सिर्फ उत्तरप्रदेश से लगने वाली सीटें ही नहीं है, वो मालवा-निमाड़ जैसी सुदूर की सीटों पर भी अपनी संभावनाएं तलाश रही है। बसपा ने प्रदेश में अपनी चुनावी तैयारी के तहत प्रदेश को पाँच झोन में बांटा है। इसमें खरगोन को नया झोन बनाया गया है। जिसमें इसमें खरगोन के साथ खंडवा, बुरहानपुर, बड़वानी, धार, झाबुआ और आलीराजपुर जिले भी हैं। पार्टी इन जिलों में अपने वोट बैंक को तलाशकर अपना जनाधार मजबूत करना चाहती है, ताकि मध्यप्रदेश में तीसरा राजनीतिक विकल्प खड़ा किया जा सके!
कांशीराम द्वारा 1984 में बनाई गई बसपा ने 1990 में पहली बार मध्यप्रदेश में अपने चुनावी सफर का आगाज किया था। अपने पहले चुनाव में बसपा ने 3.53% वोट पाए थे। इसके बाद से पार्टी लगातार सभी चुनावों में 6% से 8% के आँकड़े को छू रही है। मध्यप्रदेश में बसपा का अपना जनाधार अनुसूचित जाति वर्ग के जाटव और अहिरवार समाज में है। क्योंकि, यही उसका जनाधार बढ़ाने वाला मुख्य जातिगत वोट बैंक भी है और इसी में उसकी पैठ भी है। मुरैना, भिंड और विंध्य के कुछ जिलों में बसपा ने सवर्ण जातियों विशेष रूप से ब्राह्मणों और वैश्यों को अपने टिकट पर मैदान में उतारा। परशराम मुद्गल, बलवीर दंडोतिया और रीवा में केके गुप्ता इसके उदाहरण हैं। बसपा ने यह फार्मूला दूसरी जगह भी अपनाया। इसका फ़ायदा ये हुआ कि उसने क्षेत्रीय और जातिगत समीकरणों में सेंध लगा ली। इस बार भी बसपा उन लोगों पर भी नजर रखेगी, जिन्हें भाजपा या कांग्रेस का टिकट नहीं मिलेगा! ऐसे सवर्ण नेताओं की राजनीतिक पृष्ठभूमि से उसे स्थानीय वोट बैंक को प्रभावित करने का मौका मिलता है। ऐसी स्थिति में जातिगत वोट, बसपा के पारंपरिक वोट बैंक के अलावा इन बागी नेताओं के समर्थकों के वोट भी उसके खाते में जुड़ जाते हैं। इस बार भी बसपा बागी नेताओं के भरोसे 230 सीटों पर चुनाव लड़ने की फिराक में है।
मध्यप्रदेश में बसपा के नेताओं का कहना है कि 2013 में हम डेढ़ दर्जन सीटों पर जीत के नजदीक थे। इस बार भी बसपा कई जिलों में उलटफेर करके चुनाव नतीजों से जनता को चौंकाएगी और अपना खाता खोलेगी। बसपा को तो इस बात का भी भरोसा है कि वो सरकार बनाने में निर्णायक भूमिका निभा सकती है। सीधा सा गणित है कि यदि कांग्रेस कुल 230 सीटों में से 115 के जादुई आंकड़े तक नहीं पहुंची, तब बसपा उसे कठपुतली की तरह नचाएगी! बसपा के इस अतिविश्वास का कारण है 2013 में उसे मिले वोटों का प्रतिशत। पिछले चुनाव में भाजपा को 1,51,89,894 (44.85%) वोट, कांग्रेस को 1,23,14,196 (36.38%) वोट और बसपा को 21,27,959 (06.29%) वोट मिले थे। इस बार उसे 10% से ज्यादा वोट मिलने का अनुमान है। यदि वास्तव में बसपा का ये दांव चल गया तो किसी बड़े उलटफेर और मध्यप्रदेश में तीसरे विकल्प के उदय से इंकार नहीं किया जा सकता! लेकिन, इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए कि 2008 के विधानसभा चुनाव के मुकाबले 2013 में मध्यप्रदेश में बसपा का प्रभाव घटा था। बसपा को 2008 के चुनाव में 8.97% वोट मिले थे, जबकि 2013 में उसे 2.68% का नुकसान हुआ और 6.29% वोट मिले थे। बसपा की सीटें भी 7 से घटकर 4 रह गई! अभी कहा नहीं जा सकता कि इस बार चुनाव से पहले क्या हालात बनते हैं! लेकिन, बसपा ने अपनी दबाव की राजनीति की शुरुआत तो कर ही दी!
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