Tuesday, June 5, 2018

क्या किसान आंदोलन फिर अराजक रूप में सामने आएगा?


- हेमंत पाल

   मध्यप्रदेश में पिछले साल हुए किसान आंदोलन ने ऐसा दर्द दिया है, जिसका सही इलाज करने में बरसों लग जाएंगे! इस आंदोलन का दोतरफा असर हुआ था। सरकार पर आरोप लगा कि उसने आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाई जिससे 7 किसानों की मौत हो गई! जबकि, आंदोलनकारी किसानों पर आरोप लगा कि उन्होंने रोजमर्रा के सामान की आपूर्ति बाधित करके लोगों को परेशान किया था। इस बार उन यादों से ही लोग सिहर रहे हैं। मुद्दा ये है कि क्या वो अराजकता करने वाले किसान ही थे? जो दूध, सब्जी लाकर बेचने की कोशिश कर रहे थे, वे किसान थे या वो सामग्री छीनकर सड़क पर फैंकने वाले किसान थे? केशरिया दुपट्टे डालकर सड़कों पर अराजकता फैलाने वाले कथित आंदोलनकारी क्या भाजपा के लोग थे? यदि आंदोलनकारी भाजपाई थे, तो किसानों के संगठन कहाँ थे? क्या कारण है कि किसान ही किसान खिलाफ क्यों खड़े हो गए? क्या इस बार भी ऐसा होगा? यदि ये किसानों का आंदोलन था, तो बाजार में दूध और सब्जी लाने की कोशिश कौन कर रहा था? जो ला रहे हैं क्या वे किसान नहीं थे? क्या किसानों के दो धड़े क्यों बन गए? किसानों का नुकसान करने वाले आंदोलनकारी क्या वास्तव में किसान थे? ये सवाल इसलिए उठा, क्योंकि किसान ही किसान का नुकसान तो नहीं करेंगे! लेकिन, जो आंदोलनकारी सड़क पर उत्पात मचा रहे थे, उनके गले में पड़े केशरिया दुपट्टे कुछ और ही इशारा कर रहे थे! 
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    पिछले साल किसान आंदोलन ने करीब आधे प्रदेश को प्रभावित किया था। लेकिन, सालभर बाद भी इस सवाल का जवाब नहीं मिला कि प्रदेश के किसान आंदोलन के लिए मजबूर क्यों होने लगे? पांच बार 'कृषि कर्मण' अवॉर्ड जीतने वाले प्रदेश के किसानों को अपनी फसल का उचित मूल्य तक नहीं मिल रहा! उन्हें न्यूनतम खरीदी मूल्य, भावान्तर जैसे राजनीतिक जुगाली वाले प्रपंचो में उलझाया जा रहा है! किसानों के इस आंदोलन का जो असली चेहरा सामने आया वो, राजनीतिक नजरिए से भाजपा के लिए फायदेमंद नहीं है। सरकार ने पिछले साल इस आंदोलन को लेकर कई गलतियां की थी। सालभर बाद भी उसपर कान नहीं धरे, इसी का नतीजा था कि किसानों को फिर आंदोलन की राह पर उतरना पड़ा! पिछली बार सरकार ने अपात्र किसान संगठनों से बात करके आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश भी की! मंदसौर में गोली चलाए जाने की घटना से पुलिस को बचाने की कोशिश की! किसानों को असामाजिक तत्व कहा गया। आंदोलन को कांग्रेस समर्थित बताया गया, जिसका नतीजा ये रहा कि कांग्रेस ने इस आंदोलन का श्रेय लूट लिया और राजनीतिक फ़ायदा उठाने में देर नहीं की। सालभर पहले किसान आंदोलन से सरकार और भाजपा को जो  नुकसान हुआ था, उसे अभी तक संभालने की ईमानदार कोशिश नहीं की गई! 
    पिछले साल इन्हीं दिनों हुए किसान आंदोलन से भाजपा को बड़ा राजनीतिक नुकसान हुआ! बाद मैं इस गलती को समेटने की कोशिश भी हुई, लेकिन, भरपाई नहीं की जा सकी! किसानों में ये संदेश गया कि सरकार किसानों के हित में कदम नहीं उठा रही, इसलिए उन्हें सड़क पर आना पड़ा! जिन किसानों ने दूध और सब्जी शहरों तक लाने की कोशिश की उनका नुकसान किया गया, मारा पीटा गया। ये सब करने वाले क्या किसान थे? सड़क पर दंगाइयों जैसा व्यवहार करने वाले कथित किसानों के गले में केशरिया दुपट्टों से लोगों ने समझा कि किसानों को रोकने वाले और उनका नुकसान करने वाले भाजपा के लोग थे! हर नजरिए से ये आंदोलन भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हुआ? पश्चिमी मध्यप्रदेश में जहाँ-जहाँ किसान आंदोलन उग्र हुआ, वहां माहौल भाजपा के खिलाफ बन गया! इसे भाजपा आसानी से स्वीकार नहीं करेगी, पर सच यही है। 
  जब किसी राजनीतिक पार्टी की कोई इकाई आंदोलन करती है, तो पार्टी के नफा-नुकसान का अंदाजा भी लगाया जाता है। लेकिन, किसानों के आंदोलन को देखकर लगा नहीं था कि भाजपा समर्थित किसान संगठन या भाजपा नेताओं ने ऐसी कोई रणनीति बनाई होगी! इस आंदोलन से न तो किसान संतुष्ट हुए न आम जनता! मंदसौर में जिस तरह किसानों पर गोली चलाई गई, उसने इस आंदोलन से निपटने के प्रति सरकार के रवैये को स्पष्ट कर दिया। सबसे दुखद पहलू ये रहा कि आंदोलन कर रहे किसानों के सीने पर गोलियां दागी गईं! उस पर भी शुरूआती बयान में गृह मंत्री का ये कहना कि गोली पुलिस ने नहीं चलाई, इस बयान ने आग में घी का काम कर गया। बाद में ये बात गलत साबित हुई और सरकार को भी मानना पड़ा कि किसानों को जो गोली लगी वो सरकारी थी। 
   इस पूरी घटना का सबसे दुखद पहलू ये भी रहा कि मुआवजा की घोषणा करने में सरकार बहुत ज्यादा जल्दबाजी दिखाई। मंदसौर गोलीकांड में मारे गए किसानों को पहले 5 लाख के मुआवजे की घोषणा की गई, फिर 10 लाख की और बाद में एक करोड़ की! मुआवजे को लेकर ऐसा पहले भी हुआ है। किसी भी घटना में दर्ज एफआईआर की स्याही सूख भी नहीं पाती और सरकार मुआवजे का एलान कर देती है। इससे एक गलत संदेश ये भी जाता है कि सरकार की नजर में हर मौत कीमत सिर्फ मुआवजा है! सरकार का ये मरहम ही दर्द बनकर उभरा! बेहतर होता कि ये काम थोड़ा रूककर किया जाता। 
   सरकार से दूसरी गलती ये हुई कि आंदोलन के पीछे किसका दिमाग है, ये पता नहीं लगा पाई। स्पष्ट था कि ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त नहीं है। इसके पीछे कोई न कोई सुनियोजित रणनीति है। जब भारतीय किसान संघ (बीकेएस) ने मुख्यमंत्री के साथ बातचीत के बाद आंदोलन ख़त्म करने का फैसला कर लिया था तो आंदोलन के अगुआ भारतीय किसान यूनियन और राष्ट्रीय किसान मज़दूर संघ ने इसे स्वीकार क्यों नहीं किया? जबकि, इस बातचीत के बाद सरकार ने किसानों के पक्ष में कुछ घोषणाएं भी कर दी थी! सवाल खड़ा होता है कि क्या सरकार को इस बात का अंदाजा नहीं था कि बातचीत के लिए पात्र संगठन या नेता कौन है, जिससे बातचीत करके समस्या का निराकरण किया जाए? इसे साफ़-साफ़ नौकरशाही की असफलता ही माना जाएगा कि उन्होंने मुख्यमंत्री से बातचीत के लिए अपात्र संगठन को चुना! 
  मध्यप्रदेश को पांच बार सर्वाधिक उत्पादन के लिए 'कृषि कर्मण' अवॉर्ड मिल चुका है। लेकिन, कर्जे में डूबे यहाँ के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। आज किसान परेशानियों से जूझ रहे हैं। उन्हें अपनी फसल का सही मूल्य नहीं मिल रहा। बाजार में मिलने वाले बीज घटिया हैं, जो पर्याप्त उपज नहीं देते! फसल पर कीटों का हमला हो तो किसान जो कीटनाशक इस्तेमाल करता है, वो भी नकली होता है। कृषि विभाग ने घटिया बीज और नकली दवाओं की धरपकड़ के लिए दस्ते तो बना दिए, पर वे चौथ वसूली में ही ज्यादा व्यस्त नजर आते हैं। कर्ज़ लेने के बाद जब किसान उपज लेकर मंडी पहुंचता हैं तो वहां मंडीकर्मियों और व्यापारियों का काकस उसका शोषण करने से बाज नहीं आता! ऐसे में किसानों को औने-पोने दाम पर अपनी फसल बेचने पर विवश होना पड़ता है। कड़ी मेहनत के बाद भी किसान को हमेशा कर्ज़ का बोझ सताता है, तो उसके सामने आत्महत्या का ही रास्ता बचता है! कहीं न कहीं ये वो कारण हैं जिन्होंने किसानों को सड़क पर आने के लिए मजबूर किया!
   किसान आंदोलन का सबसे अहम राजनीतिक पहलू ये है कि इसने मरणासन्न कांग्रेस को फिर जिंदा कर दिया। तीन दिन बाद किसानों ने आंदोलन को उग्र किया तो सरकार सकते में आ गई! वो समझ नहीं पाई कि नेतृत्वहीन लग रहा आंदोलन इतना प्रभावी कैसे हो गया? बस यहीं सरकार से गलती हुई और आंदोलन के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का दावा कर दिया गया! किसानों का जो आंदोलन पहली जून से शुरु हुआ था और इसमें राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ मुख्य रूप से शामिल था। बाद में किसानों के अन्य संगठन भी जुड़ गए। तीन दिन बाद जब आंदोलन का असर दिखने लगा, तो सरकार की भी नींद टूटी! मुख्यमंत्री ने चौथे दिन भारतीय किसान संघ को समझा-बुझाकर आंदोलन खत्म करवा दिया। तब तक कांग्रेस कहीं नहीं थी। लेकिन, जब उज्जैन-वार्ता फेल हो गई और आंदोलन ने उग्र रूप ले लिया तो सारा दोष कांग्रेस पर जड़ दिया गया! 
  यहाँ सरकार की राजनीतिक सोच फेल हो गई! क्योंकि, जिस आंदोलन से कांग्रेस का कोई सरोकार ही नहीं था, वो बैठे-ठाले कांग्रेस के हाथ आ गया। रातों-रात कांग्रेस ने अपने मोहरे जमाए और सूत्र अपने हाथ ले लिए। मंदसौर घटना के बाद तो जहाँ भी आंदोलन हुआ कांग्रेस का तिरंगा लहराता दिखा। जबकि, इससे पहले सड़कों पर किसानों की सब्जियाँ फैंकने, कुचलने और दूध उंडेलने वालों में केशरिया दुपट्टाधारी ही नजर आए! कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के बयान सामने आ गए। राहुल गांधी की मंदसौर आने की राजनीति ने तो मानों इस बात पर मोहर ही लगा दी कि ये आंदोलन उनका ही खड़ा किया है।   
  अपनी उपज की सही कीमत न मिलने पर मध्यप्रदेश में चल रहे किसानों के विरोध से सबसे ज्यादा पश्चिमी मध्यप्रदेश प्रभावित हुआ है। यही वो इलाका है जिसे भाजपा का गढ़ माना जाता रहा है! इस आंदोलन के दौरान इंदौर, उज्जैन, शाजापुर, आगर मालवा, खंडवा, मंदसौर और धार जिले भारी उत्पात हुआ। मंदसौर में जो कुछ घटा उसे सारा देश जान गया! धार जिले के सरदारपुर में तोड़फोड़, मारपीट और आगजनी की घटनाएं हुईं! उज्जैन और इंदौर में सडकों पर दूध उंडेला गया और सब्जियां कुचल डाली। धार के सरदारपुर में व्यापारियों और किसान हिंसक संघर्ष हो गया। कई वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। कई लोग घायल भी हो गए। इंदौर-भोपाल रोड अराजकता की भेंट चढ़ गया। करीब 200 वाहनों को आग के हवाले कर दिया गया। मुद्दा ये है कि यह सब क्यों घटा? इसका जवाब कहीं न कहीं सरकार की रणनीतिक असफलता में ही छुपा है। क्योंकि, जब बातचीत के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का सबसे सही तरीका यही है जो किसानों ने अपनाया। क्या यही कहानी फिर दोहराई जाएगी? यदि नहीं तो सरकार ने किसानों की कथित अराजकता से निपटने के लिए क्या पुख्ता इतंजाम किए हैं, ये भी सामने आना चाहिए! 


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