Sunday, September 1, 2019

बच्चों का सिनेमा अभी खुद ही बच्चा!

हेमंत पाल

   ज़ादी के बाद लगभग हर दशक में सिनेमा के जरिए ये कोशिश की जाती रही, कि समाज को कुछ नया दिया जा सके। इसी कोशिश में बच्चों पर केंद्रित सिनेमा की शुरुआत की गई। इसका उद्देश्य बच्चों के अपने मुद्दे, उनसे जुड़ी सामाजिक चुनौतियाँ और उनके अंतर्मन की स्थिति को पर्दे पर दिखाना था। लेकिन, अभी तक इस दिशा में कारगर काम नहीं हुआ! बच्चों पर अभी तक जो भी फिल्में बनी हैं, उनमें सिर्फ संदेश दिए जाते रहे! क्योंकि, हिंदी सिनेमा में ज्ञान देने वाली फिल्मों की बाढ़ है। अधिकांश बाल फिल्मों की कहानी में उपदेश ही ज्यादा दिखाई दिए, बालमन को कुरेदने की कोशिश किसी ने नहीं की!
    बच्चों के लिए सत्यजित राय ने कुछ बेहतर बंगाली फिल्में बनाने की कोशिश जरूर की थी। लेकिन, ताजा संदर्भों में देखा जाए तो किसी ने वास्तव में बालमन को खंगालकर फ़िल्में बनाने की कोशिश की है, तो वे हैं गुलजार! 'परिचय' और 'किताब' जैसी फ़िल्में बनाकर उन्होंने बच्चों की मानसिकता पढ़ने का काम किया था! 1972 में आई 'परिचय' ऐसे परिवार की कहानी थी जहाँ बच्चों की मनःस्थिति को बिना परखने की कोशिश की गई थी! गुलजार की ही 1977 आई 'किताब' भी बच्चों की मनोवृत्ति को समझाने वाली फिल्म मानी जाती है। 
 मेहबूब खान ने भी बच्चों के लिए 1962 में एक फिल्म 'सन ऑफ इंडिया' बनाई थी। फिल्म तो नहीं चली, पर इसका एक गीत 'नन्हा मुन्ना राही हूँ मैं देश का सिपाही हूँ' को लोग भूले नहीं हैं। 
   सत्येन बोस के निर्देशन में 1964 में बनी फिल्म 'दोस्ती' को सिर्फ बच्चों की फिल्म तो नहीं कहा जा सकता, पर ये फिल्म बच्चों को प्रेरणा जरूर देती है। शेखर कपूर ने 1983 में 'मासूम' बनाई थी! वास्तव में तो ये विवाहेत्तर संबंधों से जन्में बच्चे के कारण होने वाले पारिवारिक संघर्ष पर आधारित थी। गोपी देसाई निर्देशित 1992 में बनी फिल्म 'मुझसे दोस्ती करोगे' का विषय भी एक बच्चे के सपनों की दुनिया का चित्रण था। इसी थीम पर 1994 में अन्नु कपूर ने 'अभय' बनाई थी। आशय यह कि बच्चों पर फ़िल्में तो बनी, पर बड़े दर्शकों को ध्यान में रखते हुए!
  फिल्म 'नन्हें मुन्ने' भी याद करने लायक फिल्म है, जिसमें एक लड़की के अनाथ होने के बाद अपने तीन भाइयों के पालन पोषण के संघर्ष का चित्रण था! ऐसी ही एक फिल्म 'मुन्ना' थी जो ऐसे बच्चे की कहानी है, जिसकी विधवा माँ ख़ुदकुशी कर लेती है। बाद में चेतन आनंद ने इसी को आधार बनाकर 'आखिरी खत' फिल्म बनाई थी। बच्चों की फिल्म 'जागृति' भी आई थी, जिसका एक गीत 'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के' आज भी सुनाई देता है। 1954 में बनी फिल्म 'बूट पॉलिश' भी बाल मनोविज्ञान को स्पष्ट करती है। एक सन्यासी और एक अनाथ बालिका के बीच स्नेह संबंध दर्शाने वाली वी शांताराम की फिल्म 'तूफ़ान और दिया' भी सराहनीय फिल्म थी! 1960 में बच्चों पर केंद्रित फिल्म 'मासूम' ने बच्चों से जुड़े कई सवाल उठाए थे। इस फिल्म का गीत 'नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए' अभी भी सुना जाता है। 
   फिल्म में बच्चे को कहानी का आधार बनाकर तो कई फ़िल्में बनी, पर वास्तव में इन फिल्मों को बच्चों की फिल्म नहीं कहा जा सकता! बतौर बाल कलाकार नीतू सिंह की फिल्म 'दो कलियाँ' को बच्चों की फिल्म कहा जरूर गया, पर ये बच्चों के लिए नहीं थी! 2005 में विशाल भारद्वाज ने बच्चों के लिए 'ब्लू अम्ब्रेला' बनाई, पर वो चली नहीं! बीआर चोपड़ा' ने संयुक्त परिवारों के टूटने पर भूतनाथ' और 'भूतनाथ रिटर्न' बनाई! लेकिन, विशाल भारद्वाज की 'मकड़ी' ने बाल फिल्मों को लेकर चली आ रही धारणा को तोड़ा! 2007 में आमिर खान ने बाल मानसिकता वाली फिल्म 'तारे जमीं पर' बनाकर दर्शकों को झकझोर दिया था। परिवार में उपेक्षित और मंदबुद्धि बच्चे की ये कहानी ने कई बड़ों-बड़ों को रुला दिया था। 
   अमोल गुप्ते की फिल्म 'स्टैनली का डिब्बा' को भी बच्चों को बेहतरीन फिल्म कहा जा सकता है! गरीब राजस्थानी लड़के के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिलने की कोशिश पर बनी 'आई एम कलाम' भी अच्छा प्रयास था। लेकिन, 1956 में अल्बर्ट लैमोरीसे निर्देशित फ्रेंच फिल्म 'रेड बैलून' और 1995 में ईरानी फ़िल्मकार निर्देशित 'व्हाइट बैलून' आज भी सिनेमा के लिए मील का पत्थर है। लेकिन, क्या कारण है कि हम बच्चों के लिए अभी तक 'चिंड्रेन ऑफ हैवन' जैसी एक भी फिल्म नहीं बना पाए? 
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