Tuesday, September 3, 2019

सिंधिया के नाम पर सहमत होने में किसे विरोध और क्यों?

 इन दिनों मध्यप्रदेश की कांग्रेस में घमासान मचा है। प्रदेश में पार्टी के नए मुखिया का नाम तय होना है, जो आसान नहीं लग रहा! प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर है! ऐसी स्थिति में एक सर्वमान्य पार्टी अध्यक्ष कैसे चुना जाएगा, इसका जवाब किसी के पास नहीं है! कमलनाथ जब पार्टी अध्यक्ष चुने गए थे, तब हालात अलग थे! प्रदेश में 15 साल से भाजपा का राज था और कांग्रेस किसी भी स्थिति इससे मुक्ति चाहती थी! जबकि, अब हालात अलग हैं! प्रदेश में कमलनाथ सरकार है और कांग्रेस सारे नेता विपक्ष को भूलकर घर की जंग व्यस्त हैं! पार्टी में कमलनाथ को समन्वय में पारंगत माना जाता है! उन्होंने अपनी इसी कला से चुनाव जीता, सरकार बनाई और बिना कोई समझौता किए चला भी रहे हैं! लेकिन, पार्टी प्रदेश अध्यक्ष को लेकर पेंच फँसा हुआ लग रहा है! यही कारण है कि इस पद के लिए ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम सामने आते ही कई नेता कुलबुलाने लगे! उनके नाम पर विरोध का कारण समझ से परे है। क्या कारण है कि किसी भी पद के लिए सिंधिया का नाम आने पर कांग्रेस के नेताओं के पेट में दर्द क्यों होने लगता है? 
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- हेमंत पाल

  मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष के पद को लेकर दिल्ली से लेकर भोपाल तक खींचतान जारी है। अभी तक दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया को अध्यक्ष पद का दावेदार माना जा रहा था, लेकिन दिग्विजय सिंह ने अध्यक्ष बनने से इनकार कर दिया! उन्होंने खुद को इस पद की दौड़ से ही अलग बताया। कहा कि मेरे प्रदेश अध्यक्ष बनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। एक तरफ दिग्विजय सिंह ने अध्यक्ष पद की दावेदारी को नकारा तो दूसरी तरफ सिंधिया समर्थकों ने दुगने जोश से दावेदारी का दावा किया! देखा जाए तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की त्रिमूर्ति में वे भी एक मूर्ति हैं और समर्थकों का उनके पक्ष में आवाज उठाना बनता भी है! जब सामने वाले गुट से भी किसी एक नेता का नाम बढ़ाने की कवायद की जा रही है,तो सिंधिया समर्थक भी उससे अलग क्या कर रहे हैं! 
   कहा तो ये भी जा रहा है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश की राजनीति में पिछड़ते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में वे प्रदेश अध्यक्ष बनकर अपनी पकड़ मजबूत करना चाहते हैं! मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ अध्यक्ष पद छोड़ने की पेशकश पहले ही कर चुके हैं! लेकिन, फिर भी वे संगठन पर अपने समर्थक को ही देखना चाहते हैं! यही कारण है कि उनके करीबी बाला बच्चन को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए नाम उछाला जा रहा है। कमलनाथ अभी अध्यक्ष पद पर हैं, इसलिए ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ दोनों ही नेताओं ने कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर अपनी-अपनी बात भी रखी हैं। लेकिन, सुनते हैं कि कमलनाथ ने सोनिया गांधी को अध्यक्ष पद के लिए किसी नए नेता के चुनाव का सुझाव भी दिया है। लेकिन, लगता नहीं कि गुटों के दबाव में  फैसला होगा! कांग्रेस आलाकमान भी नहीं चाहता कि प्रदेश में दो पावर सेंटर बन जाएं जिनमें खींचतान हो और नुकसान पार्टी को उठाना पड़े! क्योंकि, ऐसी स्थिति में सत्ता और संगठन में तालमेल गड़बड़ा सकता है! संभव है कि किसी ऐसे नेता को प्रदेश की कमान सौंपी जाए, जिसका नाम अभी सामने नहीं आया हो!
   ज्योतिरादित्य सिंधिया के पक्ष में नकारात्मक बात ये रही कि वे खुद अपनी परंपरागत गुना सीट से लोकसभा का चुनाव हार गए! पार्टी ने सिंधिया को उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से का प्रभार सौंपा था, वहाँ भी कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा! अब उन्हें महाराष्ट्र चुनाव के लिए स्क्रीनिंग कमेटी का चेयरमैन बनाकर संतुष्ट करने की कोशिश की गई! किंतु, उन्हें जहां की भी जिम्मेदारी दी गई, वहां नतीजे संतोषजनक नहीं रहे! मध्यप्रदेश में लोकसभा चुनाव में पार्टी को मिली सबसे करारी हार के बाद से पार्टी के अंदर का माहौल बहुत अच्छा नहीं है। अध्यक्ष पद के लिए ही कई नाम सामने आ गए! पर, कोई भी पार्टी को इस बात के लिए आश्वस्त नहीं कर सका कि उसके अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी में सबकुछ सामान्य हो जाएगा! अभी तो इस कुर्सी के लिए  ज्योतिरादित्य सिंधिया और बाला बच्चन के नाम हवा में हैं। लेकिन, इससे पहले जीतू पटवारी और उमंग सिंघार के नाम भी उछले थे। प्रदेश सरकार में मंत्री प्रद्युम्न सिंह और इमरती देवी तो खुलेआम सिंधिया को प्रदेश में पार्टी की कमान सौंपे जाने की मांग कर चुके हैं। जबकि, दिग्विजय सिंह के भाई और विधायक लक्ष्मण सिंह ने खुलकर सिंधिया को अध्यक्ष बनाए जाने का विरोध किया है। उनका मानना है कि सिंधिया के पास समय की कमी है, इसलिए उन्हें यह जिम्मेदारी नहीं दी जानी चाहिए। ये कोई तार्किक कारण नहीं है, पर उन्हें विरोध करना था तो इसी बात को आधार बनाया!
  आलाकमान कहीं सिंधिया के प्रति नरमी न दिखा दे, यही सोचकर अब किसी आदिवासी नेता को संगठन की कमान सौंपे जाने की मांग उठी है। लेकिन, ऐसा क्यों, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। अकेले बाला बच्चन का ही नाम उछाला जा रहा है! बेहतर होता कि विकल्प के रूप में एक-दो और भी नेताओं के नाम सामने आना थे। तर्क दिया जा रहा है कि प्रदेश में 22% आबादी जनजातीय वर्ग से है और प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनाने में इस वर्ग का बड़ा योगदान है। जबकि, कांतिलाल भूरिया के रूप में ये प्रयोग पहले हो चुका है, जो पूरी तरह फ्लॉप साबित हुआ था! सिंधिया के पक्ष में आवाज उठाने वालों का यह भी मानना है कि पार्टी में उनकी हमेशा उपेक्षा हुई! 2018 के विधानसभा चुनाव में वे पार्टी के स्टार केंपेनर रहे! उन्हें बतौर मुख्यमंत्री देखा जा रहा था, लेकिन चुनाव जीतने के बाद कमलनाथ को मुख्यमंत्री बना दिया गया! राहुल गांधी उन्हें अपना दोस्त बताते रहे हैं, पर उन्हें सत्ता की कुर्सी नहीं दिला सके! सत्ता का संतुलन बना रहे, इसलिए लोकसभा चुनाव से पहले सिंधिया को आधे उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर प्रदेश से दूर कर दिया!
   ये प्रहसन अभी पूरे क्लाइमेक्स पर है! इसका पटाक्षेप तब तक ख़त्म नहीं होगा, जब तक अध्यक्ष के नाम की घोषणा नहीं हो जाती! लेकिन, पार्टी आलाकमान भी प्रदेश की राजनीति में असंतुलन बनाए रखना नहीं चाहेगा! यदि प्रदेश में दोनों प्रमुख पद एक ही खेमे के हिस्से में आ गए तो राजनीतिक अराजकता की स्थिति निर्मित होना तय है, जो पार्टी के लिए नुकसानदेह होगी! इसलिए जरुरी है कि सत्ता और संगठन में संतुलन के नजरिए से फैसला किया जाए। अभी कोई बड़े चुनाव नहीं होना है, कि आदिवासी अध्यक्ष का कार्ड खेला जाए! लेकिन, किसी ऐसे नेता को जरूर खोजा जाए जो पार्टी के तीनों बड़े नेताओं के बीच संतुलन बनाकर सरकार और संगठन को मजबूती देने में कामयाब रहे! क्योंकि, हाशिए पर बहुमत से टिकी सरकार की नींव को मजबूती मिले, इसके लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि घर में एकता कायम रहे! यदि घर में फूट पड़ी तो कोई भी बाहर से पत्थर मारकर घर गिरा सकता है! पर, ये बात कांग्रेस के उन नेताओं को भी समझना चाहिए जो घर की कलह को सड़क पर लाकर जगहंसाई करवा रहे हैं!
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