- हेमंत पाल
जब कोई व्यक्ति दर्शक के रूप में फिल्म देखता है, तो वह समय, समाज, यथार्थ और परिस्थितियों से भी कट सा जाता है। परदे के सामने वह ऐसे संसार में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसकी मानसिक चेतना फिल्म के नायक पर केंद्रित हो जाती है! वो खुद में नायकत्व महसूस करने लगता है। उसे लगता है कि वही वो नायक है, वही शत्रुओं का संहारक है। यही दर्शक जब फिल्म देखकर बाहर निकलता है, तो उसे चारों तरफ बदलाव सा महसूस होता है! उसका मन जोश, साहस, वीरता, प्रेम, दयालुता, करुणा, दोस्ती जैसी मानवीय अच्छाइयों से भर जाता है। कभी वो अपने अंदर 'मुग़ले आज़म' के दिलीप कुमार को महसूस करता है, तो कभी 'दीवार' के गुस्सैल अमिताभ बच्चन को! नायकत्व का ये अहसास आना किसी ख़ास वर्ग और समाज के दर्शक की बात नहीं है! कोई भी हो, उसमें नायकत्व आ ही जाता है। ये चंद पलों की वो स्थिति है, जो उसे अपने असल जीवन में कभी नसीब नहीं होती! नायकत्व का यही सोच दर्शक को सबसे ज्यादा भाता है। लेकिन, ये भावना फिल्मों के कथानक पर निर्भर है कि दर्शक ने कौनसी फिल्म देखी!
देखा गया है कि हर फ़िल्म किसी न किसी मनुष्य के जीवन की प्रतिनिधि होती है। यही कारण है कि हर दर्शक परदे पर खुद को महसूस करता है। अलग है कि किसी के जीवन में ये कुछ कम तो किसी में ज्यादा! क्योंकि, फिल्म वो माध्यम है, जिसमें पूरा समाज समाया हुआ है। कोई ऐसा समाज, धर्म, कार्य या ज्ञान नहीं है, जिसे कभी न कभी किसी न किसी रूप में फ़िल्मों में दिखाया गया हो! ख़ास बात ये कि पटकथा में समाज का प्रतिनिधित्व दर्शाने के लिए एक सद्चरित्र व्यक्ति को चुना जाता है! यही होता है फिल्म का नायक और दर्शक का प्रतिनिधि! यही नायक समाज के सामने एक उदाहरण बनता है।
दर्शक अपने जीवन की हार, कमज़ोरियों, समस्याओं और परिस्थितियों से हारा हुआ है। सिनेमा के परदे की नकली कहानियों में वो अपने जीवन की सफलता तलाशने जाता है। ऐसे में उसे सिनेमा उसे एक असीम संतुष्टि देता है, कि परदे पर ही सही जीत तो नायक की ही होती है। परदे पर नायक उस दर्शक का प्रतिनिधि है, जो कठिन परिस्थितियों में भी संघर्ष से नहीं हारता! सिनेमा देखते समय दर्शक वास्तव में दर्शक नहीं रहता, बल्कि नायक बन जाता है। सिनेमा के परदे पर चमत्कार करता है और खलनायक को हराकर नायक बन जाता है। सिनेमा का यह संघर्ष ही दर्शक का सबसे बड़ा आकर्षण होता है जो उसे सिनेमा देखने के लिए प्रेरित करता है।
असल बात ये कि सिनेमा आम आदमी को कुछ पलों का नायकत्व प्रदान करने का माध्यम है। यही कारण है कि समाज के हर वर्ग में सिनेमा की लोकप्रियता असीमित है। सिनेमा ही वह माध्यम भी है, जो किसी आम इंसान को नायक बना देता है। इतिहास इस बात का प्रमाण है कि फिल्मों ने न जाने कितने आम इंसान को नायक बनाया! सामान्यतः ऐसा होता नहीं है, पर फिल्मों में वही सब होता है, जो वास्तविक जीवन में नहीं होता! यही कारण है कि जो जीवन में नहीं होता, वो सब फ़िल्मों में होता है।
मनुष्य प्रवृत्ति संघर्षशील होती हैं। कोई परिस्थितियों से लड़ता है, कोई अपने अतीत से! कुछ लोग सत्य के तो कुछ असत्य के पीछे भागते हैं। बस यहीं से आरंभ होती है नायक की सत्य और असत्य के संघर्ष की यात्रा। इसी से नायक और खलनायक की प्राथमिकताएं निर्धारित होती है। जो सत्य का अनुयायी है, वो नायक और जो इसका विरोधी है, वो खलनायक! ऐसी स्थिति में नायक का कद बड़ा होता है! हमारे धर्मग्रंथ और मिथक इस बात के प्रमाण हैं कि हर समयकाल में प्रतिनायक के संहार के लिए नायक की जरुरत पड़ती है। इतिहास के नायक और खलनायक सदा इस बात की याद दिलाते हैं कि संघर्ष चाहे जैसा भी हो, अंततः जीत नायक की ही होती है।
फिल्म का अधिकांश हिस्सा खलनायक यानी प्रतिनायकत्व को स्थापित करने में लगता है! लेकिन, नायक को स्थापित नहीं करना पड़ता! जब भी नायक सामने आता है, अपने वाकचातुर्य और रणनीति से वह खलनायक को मात जरूर देता है! समय इस बात का गवाह है कि चाहे जो हो, बुरे व्यक्ति को अंत में जाना ही पड़ता है। यही खलनायक के साथ भी होता है! ये सिनेमा का वो दर्शन है, जो परदे पर भी और उसके बाहर भी सबको समझ आता है। सिनेमा में नायक की कभी हार नहीं होती! ये सामाजिक रूप से जरुरी है और फिल्म कारोबार की दृष्टि से भी! क्योंकि, यदि नायक ही हार गया, संघर्ष का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा! यही कारण है कि नायक कभी हारता नहीं!
------------------------------ ---------------------------------------
No comments:
Post a Comment