- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में कभी ऐसे राजनीतिक हालात नहीं बने कि दोनों प्रमुख पार्टियों को एक-एक सीट के लाले पड़े हों! सरकार बनाने वाली कांग्रेस भी बहुमत के किनारे पर है! ऐसे में झाबुआ सीट के लिए होने वाला उपचुनाव दोनों के लिए प्रतिष्ठा सवाल बन गया। कांग्रेस ये उपचुनाव जीतकर अपनी ताकत बढ़ाना चाहती है! भाजपा अपनी इस सीट को दोबारा जीतकर ये साबित करना चाहती है कि कांग्रेस की कमलनाथ सरकार से प्रदेश की जनता का मोह भंग हो चुका है। सरकार बनने के बाद यह पहली खुली राजनीतिक जंग होगी जो दोनों पार्टियों की रणनीतिक ताकत और भविष्य की तैयारी बताएगी! लेकिन, झाबुआ में बागियों का इतिहास काफी लम्बा रहा है! इस बार भी क्या बागी उम्मीदवार अपनी मौजूदगी का असर दिखाएंगे, चुनाव के नतीजे इस पर भी निर्भर करते हैं। प्रदेश में सरकार के चलने और गिरने में झाबुआ उपचुनाव के नतीजे अहम भूमिका होगी! क्योंकि, यह सीट जीतकर कांग्रेस पूर्ण बहुमत में आ सकती है। यदि इसका उल्टा हुआ तो फिर सरकार के भविष्य पर संकट मंडराएगा!
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झाबुआ-रतलाम लोकसभा सीट से सांसद चुने जाने के बाद भाजपा के जीएस डामोर ने झाबुआ विधानसभा सीट खाली कर दी थी! अब इस सीट पर उपचुनाव होने के साथ ही राजनीतिक शक्ति परीक्षण होगा! ऐसी स्थिति में कांग्रेस की कोशिश है कि भाजपा से झाबुआ सीट छीनकर विधानसभा में अपनी सीटों की संख्या 115 कर ली जाए, ताकि बहुमत के मामले में पार्टी की स्थिति संतोषजनक हो! वैसे तो यहाँ मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में ही होना है! पर, सबसे बड़ी आशंका बागी उम्मीदवारों की है, जिनकी दोनों पार्टियों में कमी नहीं! 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की हार में टिकट न मिलने पर बागी जेवियर मेढा ने करीब 35 हज़ार वोट काटकर अपना जादू दिखाया था! अब फिर वही हालात बन रहे हैं। लेकिन, हलचल बताती है कि इस बार कांग्रेस ने ऐसी स्थिति न बनने की तैयारी कर ली है! प्रदेश में सरकार की उसी की है इसलिए उसके लिए बागी रोकना आसान भी है!
झाबुआ सीट पर कांग्रेस इस बार पार्टी के नेताओं की गुटबाजी थाम ले, पर 'जय आदिवासी युवा संगठन' (जयस) उसे शह दे सकता है। वैसे तो 'जयस' में भी फूट है, पर यदि उनका कोई उम्मीदवार चुनाव लड़ता है, तो इसका कांग्रेस को नुकसान होगा। झाबुआ में हुई 'जयस' की महापंचायत में भी घोषणा की गई थी, कि यदि सरकार ने उनकी मांगे नहीं मानी तो झाबुआ उपचुनाव में वे अपना उम्मीदवार खड़ा कर सकते हैं। लेकिन, झाबुआ जिले में 'जयस' भी बिखरी नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव में यहाँ से कांग्रेस के बड़े नेता कांतिलाल भूरिया के बेटे डॉ विक्रम भूरिया को भाजपा के अफसर से नेता बने जीएम डामोर ने हराया था। अपनी इस परंपरागत सीट से कांग्रेस करीब 10 हजार वोटों से इसलिए हारी थी कि जेवियर मेढा ने करीब 35 हज़ार वोट की चोट दी थी! स्पष्ट है कि यदि जेवियर निर्दलीय चुनाव नहीं लड़ते तो कांग्रेस उम्मीदवार आसानी से चुनाव जीत जाता! जीएम डामोर ने विधानसभा चुनाव में डॉ विक्रांत भूरिया हराया और लोकसभा चुनाव में उनके पिता और कांग्रेस के बड़े आदिवासी नेता माने जाने वाले कांतिलाल भूरिया को!
पहले चाहे कांग्रेस किसी भी हालात से गुजरी हो, पर अब वो कोई रिस्क लेने के मूड में नहीं लगती! ऐसा होने भी नहीं देना चाहिए! क्योंकि, झाबुआ सीट की हार-जीत दोनों के लिए कुछ ख़ास मायने रखती है! कांग्रेस जीती तो प्रदेश में उसका ये दावा मजबूत होगा कि कमलनाथ सरकार के प्रति लोगों का भरोसा मजबूत हुआ है! लेकिन, यदि कांग्रेस ने फिर मात खाई तो उसकी सरकार को विपक्ष से नई चुनौती का मुकाबला करना पड़ सकता है! भाजपा तो कांग्रेस को हराने के लिए अपने तरकश में रखे सारे तीर आजमाएगी! कांग्रेस के विधानसभा चुनाव में किए गए वादों को वो झाबुआ उपचुनाव में हथियार की तरह इस्तेमाल करेगी! अब देखना है कि कांग्रेस इससे कैसे निपटती है! वैसे लोकसभा चुनाव में कांग्रेस झाबुआ विधानसभा क्षेत्र से करीब 8 हज़ार से वोट से आगे रही थी! ये इस बात का प्रमाण है कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार पार्टी में हुए विद्रोह का नतीजा थी!
कांग्रेस झाबुआ विधानसभा उपचुनाव में जेवियर मेड़ा को उम्मीदवार बना सकती है, इस बात के आसार ज्यादा हैं। जबकि, कांग्रेस की तरफ से कांतिलाल भूरिया और डॉ विक्रांत भूरिया दोनों मुँह धोकर उम्मीदवारी का भरोसा पालकर बैठे हैं! संभव है कि पार्टी भूरिया बाप-बेटे को कोई आश्वासन देकर जेवियर के लिए मना ले! लेकिन, सिर्फ मनाने से बात नहीं बनेगी! दोनों भूरियाओं को ईमानदारी से कांग्रेस को जिताने के लिए पूरा जोर लगाना पड़ेगा! क्योंकि, यदि ऐसा नहीं हुआ तो विधानसभा चुनाव की कहानी फिर दोहराई जा सकती है। कांग्रेस के लिए एक खतरा ये भी है कि यदि जेवियर मेढा को उम्मीदवार नहीं बनाया तो पार्टी के तीनों क्षत्रपों के बीच खींचतान हो सकती है! क्योंकि, जेवियर ने ज्योतिरादित्य सिंधिया का पल्ला पकड़ लिया है, जबकि भूरिया को दिग्विजय सिंह खेमे का माना जाता है।
झाबुआ में पिछले दो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बग़ावतियों के कारण ही हार मुँह देखना पड़ रहा है। 2008 के चुनाव में कांग्रेस के जेवियर मेढा भाजपा के पवेसिंह पारगी को हराकर चुनाव जीते और विधायक बने थे। लेकिन, 2013 के चुनाव में कांग्रेस की गुटबाजी के कारण कलावती भूरिया ने बगावत कर मैदान में आ गई और जेवियर चुनाव हार गए थे। 2016 में झाबुआ में हुए लोकसभा उपचुनाव में डॉ विक्रांत भूरिया की रणनीति और प्रबंध कौशल से प्रभावित होकर कांग्रेस ने उन्हें 2018 के विधानसभा चुनाव में उम्मीदवार बनाया। वक़्त ने फिर करवट ली और अब चुनाव मैदान में बागी उम्मीदवार बनकर जेवियर मेढा आ गए और जीती हुई सीट कांग्रेस के हाथ से निकल गई। बताते हैं कि जेवियर ने पार्टी को स्पष्ट बता दिया है कि यदि उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया तो वे फिर बगावत कर सकते हैं! ये संभावना भी है कि जेवियर को भाजपा अपने पाले में ले आए और कांग्रेस को उसी के हथियार से चुनौती दे! भाजपा ने इसके लिए कुछ कदम बढ़ाए भी हैं! इसलिए कांग्रेस को हर हालात पर नजर रखना होगी।
भाजपा ने भी उपचुनाव के लिए अपनी तैयारी शुरू कर दी है। कांग्रेस की तरह भाजपा में भी उम्मीदवारी को लेकर खींचतान है, पर टिकट की आस करने वालों की कमी भी नहीं है। पूर्व विधायक शांतिलाल बिलवाल का टिकट जीएस डामोर के कारण कट गया था! लेकिन, इस बार भी उनकी उम्मीदवारी पर संदेह है। इसके अलावा झाबुआ नगर पालिका के पूर्व अध्यक्ष पर्वत मकवाना का नाम भी चल रहा है! लेकिन, उनके कार्यकाल की बदनामी उनका पीछा नहीं छोड़ रही! राणापुर नगर पंचायत अध्यक्ष सुनीता अजनार भी एक दावेदार है। किंतु, अभी के हालात इनमे से किसी के पक्ष में नहीं लग रहे! स्थिति चाहे जो हो, दोनों ही पार्टियाँ इस चुनाव को जीतने में कोई कसर शायद ही छोड़े! क्योंकि, विधानसभा में संख्या बल के हिसाब से 229 के सदन में अब भाजपा के 108 विधायक हैं और कांग्रेस के पास 114 विधायक! एक निर्दलीय प्रदीप जायसवाल को कांग्रेस ने मंत्री बनाया है, जो कांग्रेस के साथ हैं। कांग्रेस की तैयारी है कि झाबुआ सीट जीतकर अपनी ताकत को 115 तक बढ़ाकर बहुमत के और करीब आया जाए। पर, सारा दारोमदार झाबुआ के मूड पर टिका है!
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