Thursday, October 31, 2019

झाबुआ उपचुनाव में हार से भाजपा ने क्या सबक सीखा!

- हेमंत पाल 

भारतीय जनता पार्टी के साथ सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि उसे चुनावी हार बर्दाश्त नहीं होती! पार्टी के नेताओं में इतना ज्यादा आत्मविश्वास घर कर गया है, कि उन्हें चुनाव की रणनीति बनाते समय इस बात का अहसास ही नहीं होता कि पांसा पलट भी सकता है! इसे अतिआत्मविश्वास के बजाए घमंड कहना ज्यादा ठीक होगा! क्योंकि, पार्टी के नेता कभी रणनीति को मतदाताओं के नजरिए से देखने की कोशिश नहीं करते! बल्कि, मतदाताओं को अपनी रणनीति के मुताबिक ढालने की कोशिश में रहते हैं! झाबुआ विधानसभा क्षेत्र का उपचुनाव इसका सबसे सटीक उदाहरण है! अब, जबकि नतीजा उल्टा पड़ा तो पार्टी बिफर गई! चारों तरफ हार के गुनहगारों की खोज होने लगी और उंगली उठने लगी! जबकि, ये महज  भाजपा उम्मीदवार की नहीं, पार्टी की नीतिगत हार है! पार्टी को पूरे प्रदेश के चुनाव और उपचुनाव के फर्क को भाजपा समझना होगा! ऐसे बहुत से कारण हैं, जिन पर पार्टी को नए सिरे से सोचना होगा!        
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   झाबुआ उपचुनाव में भाजपा को मिली करारी हार के बाद पार्टी में इन दिनों घमासान मचा है! भाजपा ने जिस तरह ये उपचुनाव लड़ा, वो रणनीति ही गलत थी! मुद्दे की बात ये कि भाजपा ने स्थानीयता को पूरी तरह भुला दिया! झाबुआ वो इलाका है, जहाँ कि आबादी का 80% हिस्सा आदिवासी है! लेकिन, भाजपा के नेता कश्मीर, पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक जैसी भारी भरकम बात करते दिखाई दिए! इसके अलावा उन्होंने कमलनाथ सरकार पर किसानों की कर्ज माफ़ी के लिए कोसने में कमी नहीं की! ये पूरी रणनीति भाजपा पर भारी पड़ गई! क्योंकि, कांग्रेस ने भाजपा उम्मीदवार भानु भूरिया के परिजनों की कर्ज माफ़ी के दस्तावेज सार्वजनिक कर दिए! भाजपा नेताओं की बयानबाजी भी उनके गले पड़ गई! विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता गोपाल भार्गव के उस बयान की खासी प्रतिक्रिया हुई जब उन्होंने कहा था कि यदि कांग्रेस जीती तो पाकिस्तान के प्रतिनिधि की जीत मानी जाएगी! नतीजे आने के बाद उनके पास अब क्या जवाब होगा? इस हार के लिए अब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, संभागीय संगठन मंत्री जयपाल सिंह चावड़ा के साथ चुनाव संचालक कृष्णमुरारी मोघे को जिम्मेदार माना जा रहा है! देखा जाए तो इसमें कुछ गलत नहीं है! कहीं न कहीं ये सभी इस हार के लिए जिम्मेदार तो हैं!       
   भाजपा की हार के बाद वरिष्ठ नेता रघुनंदन शर्मा ने कहा कि पार्टी में आतंरिक संवाद की कमी है। संगठन को इस हार के लिए आत्मनिरीक्षण करना चाहिए! सरकार से हटने के बाद के हालत को अभी पार्टी आत्मसात नहीं कर पाई है। सीधी से भाजपा के विधायक केदारनाथ शुक्ल ने भी झाबुआ के नतीजे आने के बाद इसे पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की असफलता बताते हुए उन्हें हटाने की मांग की! रघुनंदन शर्मा ने कहा कि प्रदेश भाजपा में संवाद की कमी है। झाबुआ उपचुनाव के बारे में वरिष्ठ नेताओं से सलाह-मशविरा नहीं किया गया। संवाद के अंतर को कम किया जाना चाहिए। संवाद में कमी, संगठन की सबसे बड़ी कमजोरी है। विधायक केदारनाथ शुक्ल ने कहा कि मुझे लगता है पार्टी के प्रबंधन में भी कमी आई है। खराब चुनाव परिणाम पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह की विफलता और खराब प्रदर्शन है। केद्रीय नेतृत्व को उन्हें तुरंत पद से हटा देना चाहिए। अब पार्टी शुक्ल से उनके बयान पर पूछताछ करेगी, पर जो मूल समस्या है, उस पर शायद कान न धरे! 
   दरअसल, पार्टी के नेताओं के अतिआत्मविश्वास का इलाज सिर्फ पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष को बदलने से नहीं होगा! इलाज तो उन सारे नेताओं का किया जाना चाहिए, जिनके दिमाग से अभी डेढ़ दशक की सत्ता की खुमारी नहीं गई है! उन्हें बदमिजाजी, उटपटांग बयानबाजी और मतदाताओं को कमअक्ल समझने की गलती से उबरना होगा! इस पूरे उपचुनाव में भाजपा के प्रचार अभियान और रणनीति का आकलन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि पार्टी ने कब, कहाँ और क्या गलतियां की है! झाबुआ आदिवासी क्षेत्र जरूर है, पर राजनीतिक जागरूकता के मामले में इसे किसी बड़े शहर के क्षेत्र से कमतर नहीं आँका जा सकता! भाजपा को अपनी हार के आकलन में सिर्फ रणनीति की बात नहीं करना चाहिए, बल्कि नेताओं के भाषण और बाहर से गए नेताओं और  कार्यकर्ताओं की भूमिका को भी परखना चाहिए! इस बात का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए कि क्या उपचुनाव में बाहरी नेताओं और कार्यकर्ताओं को उस क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में हाईजैक करने भेजा जाना चाहिए? क्योंकि, झाबुआ में दो बार हुए उपचुनाव में ये प्रयोग असफल हो चुका है!   
   इस उपचुनाव में हार के बाद भाजपा में बड़े नेताओं का विरोध कुछ ज्यादा ही दिखाई दिया! मुखरता से संगठन की संवादहीनता और सटीक प्रचार में कमी की बात कही जा रही है। राकेश सिंह के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान समेत कई नेताओं पर निशाना साधा जा रहा है। बताते हैं कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने भी इन बातों को गंभीरता से लिया है। ये स्वाभाविक भी है! करीब 28 हजार वोटों की हार कम नहीं होती। शिवराज सिंह के बारे में कहा जा रहा है कि वे अपने आपको 'मामा' कहते हैं। उनका खुद का ये मानना है कि झाबुआ में उनको ख़ास सम्मान की नजर से देखा जाता है। लेकिन, उनका जादू भी झाबुआ में नहीं चला। अब उन्हें भी अपनी अंतरात्मा में झांकने और समझने की जरूरत है कि उनका जादू अब उतर गया! उन्हें अपने भाषणों में अब भांजों, भांजियों की बात नहीं करना चाहिए! उन्हें समझना होगा कि अब वे मुख्यमंत्री नहीं हैं, उनकी बातों में अब वजन भी नहीं रहा!
  भाजपा के लिए झाबुआ सीट को जीतना जरुरी था! क्योंकि, 230 सदस्यों की विधानसभा में सत्ता संतुलन के लिहाज से यह सीट महत्वपूर्ण थी। कमलनाथ के नेतृत्व में प्रदेश में सरकार चला रही कांग्रेस के पास सदन में 114 विधायक थे। कांग्रेस बहुमत के आंकड़े (116) से दो सीट दूर थी! झाबुआ की जीत से वो कुल सीटों के आधे पर आ गई! 4 निर्दलीय, 2 बहुजन समाज पार्टी और एक समाजवादी पार्टी के विधायक की मदद से वह गठबंधन की सरकार चला रही है। ये बात अलग है कि सरकार पर असुरक्षाबोध का साया था! जब से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी, भाजपा के नेताओं ने कई बार सरकार के तख्तापलट के दावे किए! ये बातें झाबुआ में भी सुनी गई! भाजपा नेता गोपाल भार्गव ने ये तक कहा गया कि चुनाव के बाद कमलनाथ सरकार गिरा दी जाएगी और शिवराज सिंह फिर मुख्यमंत्री बनेंगे! लेकिन, अब सभी नेताओं की जुबान पर लगाम लग गई! हार के बाद पूरी पार्टी में नीम सन्नाटा है! वास्तव में झाबुआ सिर्फ एक उपचुनाव नहीं था! इस जीत ने कांग्रेस के आत्मविश्वास को दोगुना कर दिया और भाजपा के पैरों के नीचे से संभावनाओं की जमीन खींच ली!
  आम तौर पर उपचुनाव पार्टियों की साख के सवाल पर लड़े जाते हैं! लेकिन, झाबुआ का उपचुनाव सत्ता का था! इसीलिए इस उपचुनाव का महत्व ज्यादा था। दोनों पार्टियों ने ताकत लगाने में कोई कमी नहीं छोड़ी! भाजपा के लिए इस एक सीट का महत्व इतना था कि इसे जीतने के लिए उसने आदिवासी इलाके में भी अपने चिर-परिचित राष्ट्रवाद के हथकंडे तक को आजमाने में कसर नहीं छोड़ी! कमलनाथ ने भी कई बार झाबुआ का दौरा किया और क्षेत्रीय विकास के लिए अरबों की योजनाओं की घोषणाएं की। विधानसभा में कांग्रेस के मुकाबले भाजपा सिर्फ 5 सीट पीछे थी! उसके नेताओं को उम्मीद थी कि वे सरकार को समर्थन दे रहे 7 गैरकांग्रेसी और एकाध किसी कांग्रेसी विधायक को तोड़कर भविष्य में कमलनाथ सरकार को गिरा सकते हैं! संभव है कि ऐसी कोई रणनीति बनी भी होगी! यही कारण था कि उपचुनाव के बाद भाजपा सरकार बनने के शिगूफे छोड़े गए! लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! न नौ मन तेल हुआ, न राधा नाची! 
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