Monday, October 7, 2019

खुद भी 'प्यासा' रहे गुरुदत्त!

- हेमंत पाल

  जिस तरह साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है, वैसे ही फ़िल्में भी समकालीन परिस्थितियों से प्रभावित होती हैं। 1950 का दशक सिनेमा के प्रसंग में काव्यात्मक और कलात्मक फ़िल्मों के व्यावसायिक चलन को विकसित करने के लिए प्रसिद्ध हैं। उनमें भी सबसे ज्यादा ख्याति गुरुदत्त की फिल्मों को मिली। गुरुदत ने 50 और 60 के दशक में भारतीय सिनेमा को 'कलात्मक एवं गंभीर विषय' की दिशा देने की सफल कोशिश की। यही उनकी उपलब्धि है, और इसीलिए उन्हें आज भी याद किया जाता है। गुरुदत्त की 1957 में आई फ़िल्म 'प्यासा' भी तात्कालिक प्रभावों से अछूती नहीं थी। फिल्म इतिहास में इस फिल्म को क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। समाज के छल-कपट से आक्रोशित नायक अपने मौलिक अस्तित्व को अस्वीकार देता है। हताशा की इस चरम सीमा को गुरुदत्त ने बेहतरीन तरीके से फिल्माया था। एक संघर्षशील कवि और सेक्स वर्कर से उसकी दोस्ती को ख़ूबसूरत अंदाज़ में पेश किया गया था। 'प्यासा' में आजादी से पहले के भारत के हालात दर्शाए गए हैं। दरअसल, 'प्यासा' को फिल्म कला का व्याकरण भी कहा जाता है। गुरुदत्त ने इस फिल्म की पटकथा 1947 से 1950 के दौर में लिखी थी, जब वे अंग्रेजी मैग्ज़ीन 'इलेस्ट्रेटेड वीकली' में लघुकथाएं लिखा करते थे।
   'प्यासा' में गुरुदत्त के साथ माला सिन्हा, वहीदा रहमान और रहमान मुख्य भूमिका मे थे। गुरुदत्त माला सिन्हा से प्रेम करते हैं, लेकिन माला सिन्हा की शादी रहमान से हो जाती है। वहीदा रहमान एक वेश्या के रोल में हैं। यह वहीदा रहमान की प्रारंभिक फिल्मों में सै एक है। 'प्यासा' के बाद 1959 में गुरुदत्त ने 'कागज के फूल' फिल्म बनाई। यह उनकी बेहद कलात्मक फिल्मों में से एक है। इस फिल्म के लिए उन्होंने अपना सब कुछ बेच दिया था। लेकिन, उस समय फिल्म सफल नहीं हुई। इन फिल्मों के वह निर्देशक भी थे। इसके बाद 1960 में उनकी फिल्म 'चौदहवीं का चाँद' और 1962 में 'साहिब, बीबी और गुलाम'आई। ये भी उनकी चर्चित फिल्में हैं।
  प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रिका 'टाइम' की वेबसाइट ने 10 सर्वश्रेष्ठ रोमांटिक फ़िल्मों की एक सूची पेश की थी। इसमें भी ‘प्यासा’ को श्रेष्ठ पांच फ़िल्मों में स्थान मिला था। 'टाइम' की सूची में पहले स्थान पर 'सन ऑफ द शेख' (1926), दूसरे पर 'डॉड्सवर्थ' (1939), तीसरे पर 'कैमिली' (1939), चौथे पर 'एन एफे़यर टू रिमेम्बर' (1957) और पांचवे स्थान पर 'प्यासा' (1957) को रखा गया है। इससे पहले 'टाइम' ने 2005 में भी ‘प्यासा’ को सर्वश्रेष्ठ 100 फ़िल्मों में शामिल किया था। 'टाइम' के मुताबिक भारतीय फ़िल्मों में आज भी परिवार के प्रति निष्ठा और सभी का प्यार से दिल जीतने की भावना देखने को मिलती है। 2002 में 'साइट एंड साउंड' द्वारा 'ऑल टाइम ग्रेट फिल्म' के लिए कराए गए क्रिटिक्स एंड डायरेक्टर्स पोल में भी 'प्यासा’ को 160वीं रैंक हांसिल हुई थी। 'इंडिया टाइम्स मूवीज' ने ‘प्यासा’ को बॉलीवुड की श्रेष्ठ 25 फिल्मों में जगह दी और 2011 में 'टाइम' ने वैलेंटाइन-डे पर ‘प्यासा’ को 10 बेस्ट रोमांटिक फिल्मों में शामिल किया था। 'प्यासा' गुरुदत्त द्वारा निर्देशित, निर्मित एवं अभिनीत हिंदी सिनेमा की सदाबहार रोमांटिक फ़िल्मों में से एक है। गुरुदत्त को 'भारत का ऑर्सन वेल्स' भी कहा जाता है। 2010 में, उनका नाम सीएनएन के श्रेष्ठ 25 एशियाई अभिनेताओं की सूची में शामिल किया गया। 
  गुरुदत्त वो शख्स थे, जिनके लिए शायद ये दुनिया बनी ही नहीं थी! जिसके नसीब में बहुत कुछ था, मगर जो वह चाहता, वो नहीं था! इस निर्देशक ने सिनेमा को 'प्यासा' जैसी अद्भुत फिल्म दी, लेकिन, अपने लिए कुछ भी न रख पाया! गुरुदत्त का पूरा नाम था वसन्त कुमार शिवशंकर पादुकोणे! शुरूआती शिक्षा कलकत्ता (अब कोलकाता) में करने के बाद उन्होंने अल्मोड़ा में नृत्य कला केंद्र में एडमिशन लिया था। उसके बाद कलकत्ता में ही टेलीफ़ोन ऑपरेटर का काम किया। बाद में वे पुणे चले गए और प्रभात स्टूडियो से जुड़ गए। यहाँ उन्होंने पहले अभिनेता और फिर नृत्य-निर्देशक के रूप में काम किया। 
    उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म ‘बाज़ी’ (1951) देवानंद की ‘नवकेतन फ़िल्म्स’ के बैनर तले बनी थी। इसके बाद उनकी दूसरी सफल फ़िल्म थी ‘जाल’ (1952) जिसमें देवानंद और गीता बाली ही थे। इसके बाद गुरुदत्त ने ‘बाज़’ (1953) के निर्माण के लिए अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू की। हालांकि उन्होंने अपने पेशेवर जीवन में कई शैलियों में प्रयोग किया, लेकिन उनकी प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ रूप उत्कट भावुकतापूर्ण फ़िल्मों में प्रदर्शित हुआ। गुरुदत्त बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे हर फिल्म को बारीकी से अलग-अलग तरह से बनाया करते थे। गुरुदत्त के बारे में ये बात प्रसिद्ध था कि वे एक एक शॉट के तीन-तीन रिटेक लिया करते थे। कभी कभी तो जब तक सभी उस सीन से सहमत न हों, जब तक उस सीन को फिल्माते रहते! उनकी इस तरह की लगन को देखकर ही गुरुदत्त के अद्भुत निर्देशक होने में कोई शक रह नहीं जाता! 
1964 में 39 वर्ष की उम्र में ही उनकी मृत्यु हो गई। वह 10 अक्टूबर 1964 की सुबह अपने पेढ़र रोड मुम्बई स्थित बंगले के बैडरूम में मृत पाए गए। बताया जाता है कि उन्होंने शराब के साथ नींद की गोलियाँ ज्यादा मात्रा में खा ली थींं। उनकी ज्यादातर फिल्मों में वहीदा रहमान रहती थीं। अपुष्ट रूप से यह कहा जाता है कि वह वहीदा रहमान से प्यार करने लगे थे। लेकिन, वे शादीशुदा थे इसलिए वहीदा के साथ आगे नहीं बढ़ सकते थे। यही वजह उनकी मौत का कारण बनी। इसके पहले भी वे दो बार आत्महत्या की कोशिश कर चुके थे। ज़्यादातर वक़्त गंभीर रहने वाले गुरुदत्त का निधन एक पहेली बन कर रह गया! कोई इसे आत्महत्या कहता है तो कोई मौत! क्योंकि, जिस वक़्त उनका निधन हुआ, तब वे बिलकुल अकेले थे। उनके चले जाने से कई ऐसी चीज़ें थी जो शायद हमेशा के लिए ही रह गई। 
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