Sunday, October 20, 2019

कुछ नया सोचो, तभी फिल्म चलेगी!


- हेमंत पाल 

  नए सोच के हिंदी सिनेमा में औरत की शख्सियत की वापसी होती दिखाई देती है। नायिका की वापसी और उसके जुझारूपन को दर्शकों ने भी हाथों हाथ लिया। क्योंकि, आज का दर्शक नायिका को शिफॉन साड़ियों की फंतासी से बाहर लाकर यथार्थ की खरोंचों के बीच महसूस करना चाहता है। इस आईने में वह अपने आपको देखना और जानना चाहता है। इन फिल्मों ने लैंगिक बहसों को भी नया मोड़ दिया। समाज और परदे पर पुरुष, स्त्री का शत्रु या उसका प्रतिद्वंद्वी नहीं, बल्कि उसका साथी है। वह अपने पुरुष अहंकार और वर्चस्ववाद से मुक्त होकर, स्त्री के मर्म और उसके अधिकारों को समझते हुए नए तरीके से अपना विकास कर रहा है। फिल्मों के इन स्त्री पात्रों के साथ-साथ पुरुषों की सामंती छवियां भी खंडित हुई हैं और अब ये पूरी तरह स्वीकार्य भी हैं।
  याद किया जाए तो कंगना रनौत की फिल्म ‘क्वीन’ ने सबसे पहले स्त्री स्वातंत्र्य और स्त्री अस्मिता से जुड़े पहलुओं को आधारभूत और जरूरी स्तर पर समझने की कोशिश की थी! ये एक आम लड़की के कमजोर होने, बिखरने और फिर संभलने की अनूठी कहानी थी। इसमें फिल्मकार ने रानी के माध्यम से स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बेहतरीन चित्रण किया था। बधाई हो, बरेली की बरफी और 'शुभमंगल सावधान' जैसी विशुद्ध मनोरंजन, सामाजिक और परिस्थिजन्य स्थितियों से उपजे हास्य की फिल्म है। ख़ास बात ये कि नए दौर की इन फिल्मों में स्त्री पात्रों को बहुत अहमियत दी है। 'तुम्हारी सुलू' का विषय भी बिल्कुल नया है और 'सीक्रेट सुपरस्टार' ने तो स्त्री पात्र को सम्पूर्णता दे दी! 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' तो इन सबसे चार कदम आगे है। 
  बदले दौर की फिल्मों में स्त्री पात्र शर्म और संकोच की कैद से निकलने लगी हैं। वे कथित सभ्रांत समाज से बेपरवाह होकर ठहाके लगाती हैं, चीखती हैं, जोर-जोर से गाती और नाचती हैं! जब तक कि उनका मन नहीं भर जाता। पीकू, पिंक, नीरजा, नील बटे सन्नाटा, डियर ज़िंदगी जैसी फ़िल्में पूरी तरह अभिनेत्रियों के कंधे पर टिकी थी। आमिर ख़ान के अभिनय से सजी फ़िल्म 'दंगल' भी एक तरह से महिला प्रधान फ़िल्म ही थी। श्री देवी ने भी परदे पर अपनी वापसी के साथ 'इंग्लिश विंग्लिश' और 'मॉम' जैसी फिल्मों में काम किया था। इससे पहले भी कई महिला प्रधान फ़िल्में बनी जिन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अच्छा बिजनेस किया।
  अब हिंदी सिनेमा ने दर्शकों की बेचैनी को ठीक से समझा और उसे आवाज दी है। अनुराग कश्यप, दिवाकर बनर्जी, इम्तियाज अली जैसे युवा निर्देशकों और जोया अख्तर, रीमा कागती, किरण राव जैसी सशक्त महिला फिल्मकारों ने हिंदी सिनेमा को तीखे तेवर दिए हैं। उसके रंग-ढंग बदले हैं। इनकी स्त्रियां जीने के नए रास्ते और उड़ने को नया आसमान ढूंढ़ रही हैं। दर्शक भी रोते-बिसूरते, हर वक्त अपने दुखड़े सुनाते चरित्रों पर कुछ खास मुग्ध नहीं हो रहा। उसे भी पात्रों के सशक्त व्यक्तित्व की खोज थी, जो अब पूरी हुई लगती है।
  इस वजह से मनोरंजन के अर्थ और पैमाने बदले हैं। सिनेमा ने समझ लिया कि बदला हुआ नया दर्शक केवल लटकों-झटकों से संतुष्ट नहीं होगा! उसे कुछ नया और ठोस देना होगा जो उसे अपने आसपास का वास्तविक सा लगे! यही कुछ वजह है कि आमिर खान जैसे एक्टर और सिनेमा के असली व्यवसायी फिल्मकार को भी अपने किले से बाहर निकलकर 'दंगल'  के बाद 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी फिल्में बनाने को मजबूर होना पड़ा। अब मारधाड़, गुंडागर्दी, साजिशों और उलझी हुई कहानियों के दिन लद गए! आज के दर्शकों को चाहिए शुद्ध मनोरंजन जो उन्हें तीन घंटे तक सारे तनाव से मुक्त रखे और फिल्म की कहानी उसे अपनी या अपने आसपास की लगे! दर्शकों ने भी सिनेमा के इस बदले और समृद्ध रूप को स्वीकार किया। कुछ ऐसी फिल्में भी बन रही हैं, जिन्होंने सिनेमा और समाज के बने-बनाए ढांचों को बदला है। अब परदे पर वही चल रहा है, जिसमें कुछ नयापन है! प्रेम कहानियां, बदला और पारिवारिक विवाद तो हाशिए पर चले गए!
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