- हेमंत पाल
मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी दिख रही है। पार्टी हाईकमान ने हर बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपकर हालात संभलने का प्रयोग किया! लेकिन, कोई भी पार्टी को मजबूती नहीं दे सका! जो भी प्रदेश अध्यक्ष बना उसने सबको साथ लेकर चलने के बजाए गुटबाजी को ज्यादा बढ़ावा दिया। सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया और अरुण यादव कांग्रेस के पराभव काल में पार्टी प्रमुख बने, लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे सका! प्रदेश नेतृत्व ने हमेशा ही कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया! नतीजा ये हुआ कि अरुण यादव, अजय सिंह, सज्जन वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन जैसे बड़े नेता आज न तो लोकसभा में हैं न विधानसभा में! कांतिलाल भूरिया भी पहली बार हारे फिर उपचुनाव में जीतकर सांसद बने!
इसे कांग्रेस का दुर्भाग्य ही माना जाए कि जो भी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना, उसके मन में प्रदेश का मुखिया बनने की इच्छा प्रबल हो जाती है। 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी ने करीब 100 ब्राह्मणों को चुनाव मैदान में उतारने का घातक निर्णय लिया था। रणनीति के मुताबिक पचौरी की योजना थी कि यदि ये ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए तो कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा! उनके बाद कांतिलाल भूरिया कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने! लेकिन, उनके बहाने दिग्विजय की मंशा प्रदेश की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करना ही ज्यादा रही! कांग्रेस नेताओं के यही सपने हर चुनाव में पार्टी पर भारी पड़े!
इसके विपरीत बिखरे और प्रयोगधर्मी कांग्रेस के सामने भाजपा का ‘एक-नेतृत्व’ फार्मूला नेतृत्व विहीन कांग्रेस पर भारी पड़ रहा है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पार्टी के हर छोटे-बड़े फैसले लेने की आजादी है। वे भाजपा के अघोषित सर्वेसर्वा हैं। फिर चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का! मुख्यमंत्री की मर्जी के बिना संगठन भी कोई फैसला नहीं करता! पार्टी अध्यक्ष भी अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री के अधीन होकर काम करते हैं। शिवराज सिंह के इन 11 सालों के कार्यकाल में कई बार ऐसे प्रसंग आए, जब लगा कि पार्टी का फैसला शिवराज पर भारी पड़ सकता है! लेकिन, हमेशा ही वे ताकतवर होकर उभरे, क्योंकि पार्टी को उनपर भरोसा है। भाजपा का 'एक-नेतृत्व' फार्मूला ही है, जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता है।
शहडोल और नेपानगर उपचुनाव में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी करती जरूर दिखाई दे रही है। संगठन में बड़े फेरबदल को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर भी मंथन का दौर जारी है। लगातार तीन विधानसभा चुनावों में हार झेल चुकी पार्टी इस बार 2 साल पहले सक्रिय होना चाहती है। कुछ बड़े चेहरों को आगे करके पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है। तैयारियां देखकर लग रहा है कि प्रदेश की कमान कमलनाथ को सौंपी जा सकती है। वे छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से लगातार नौ बार जीतने सांसद हैं। एक बार छोड़कर उन्हें कोई टक्कर नहीं दे पाया! कांग्रेस 'मिशन-2018' की तैयारी में अभी से इसलिए भी जुट गई, कि इस बार वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती! इसीलिए बड़े नेताओं को आगे करने की योजना पर काम किया जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता लगातार बढ़ी है!इसलिए कि कांग्रेस में उन्हें टक्कर देने वाला कोई नेता नहीं है।
मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों की खाई हर चुनाव में चौड़ी होती रही! 2009 में भाजपा को 43.45 फीसदी वोट मिले थे! 2014 में इसमें 10.55 फीसदी की वृद्धि हुई! भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में 54 फीसदी मत मिले, जबकि कांग्रेस को 2009 में 40.14 फीसदी मत मिले थे जो 1.10 फीसदी घटकर 39.04 रह गया। बसपा, अन्य और निर्दलीय उम्मीदवारों को 6.06 फीसदी वोट मिले। नई बनी आम आदमी पार्टी को 'नोटा' से भी कम वोट मिले। प्रदेश में नोटा (नन ऑफ द अबव) में कुल 1.3 यानी 3, 91, 797 वोट पड़े, वहीं आप को 1.2 फीसदी यानी 3,49,472 वोट मिले। कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि भाजपा को मिले 10 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना उसके लिए नामुमकिन सा है। यदि मतदाताओं को फिर से रिझाना है तो कांग्रेस को अच्छे नेतृत्व, लंबे समय और संसाधनों की जरूरत होगी! लेकिन, अभी तक इस दिशा में गंभीरता दिखाई नहीं देती। यदि कांग्रेस इन कमजोरियों से नहीं उबर पाती तो वह गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश को भाजपा का अभेद्य किला बनने से नहीं रोक सकेगी!
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मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने अपने कार्यकाल के 11 साल पूरे कर लिए! कुल मिलाकर भाजपा को प्रदेश की सत्ता में 13 साल गए! इसी संदर्भ को पलटकर देखा जाए तो कांग्रेस को सत्ता से बाहर हुए भी 13 साल हो गए! प्रदेश में भाजपा सरकार के 13 साल पूरे होने के बाद भी एंटी-इनकंबेंसी जैसा कोई माहौल नहीं लग रहा! लोगों में नाराजी तो है, पर वो इतनी प्रबल नहीं कि सरकार बदल दे! जबकि, कांग्रेस विपक्ष की भूमिका में इतनी लचर कि अगले विधानसभा चुनाव में एंटी-इनकंबेंसी का खतरा उसे ज्यादा है। कांग्रेस के पास जनता के दिल में जगह बनाने के लिए कोई कार्यक्रम नहीं है। नकारात्मक राजनीति से पीड़ित कांग्रेस सिर्फ भाजपा पर आरोपों की बौछार करने के अलावा और कुछ नहीं कर रही! जिन सेनापतियों के भरोसे कांग्रेस को उद्धार उम्मीद है, वही आपस में उलझे हैं! ऐसे में लगता नहीं कि कांग्रेस के लिए 'मिशन-2018' का कोई मतलब रह गया है। जो पार्टी विपक्ष की भूमिका भी ईमानदारी से नहीं निभा पा रही हो, उसमें सत्ता पाने की चाह जगना बेहद मुश्किल है।
कांग्रेस के राजनीतिक खाते के पन्ने पलते जाएं, तो वो पराजय की इंट्रियों से भरा पड़ा है। चंद जीत के अलावा कांग्रेस के खाते में ऐसी कोई बड़ी उपलब्धि दर्ज नहीं है, जो पार्टी के सुखद भविष्य की उम्मीद जगाए! 2003 के विधानसभा चुनाव से अभी तक कांग्रेस प्रदेश में सिमटी पड़ी है। इस बीच पार्टी ने तीन प्रदेश अध्यक्ष बदले, पर कोई भी कांग्रेस को सहारा देकर खड़ा नहीं कर सका! पलटकर देखा जाए तो तीन विधानसभा और लोकसभा चुनाव में मध्य प्रदेश में कांग्रेस की पराजय अचानक नहीं हुई! इसकी पटकथा एक दशक पहले से लिखी जा रही थी! भाजपा ने कांग्रेस की उन सारी कमजोरियों को भांप लिया और वहीं चोट की! इबारत बताती है कि यदि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की 29 में 12 और फिर सिर्फ 2 सीटों पर सिमट गई, तो इसके पीछे ‘मोदी लहर’ से भी कई बड़ी वजहें हैं। कांग्रेस के नजरिए से कहें तो ये उसकी 'कमजोरियां' हैं! वो इस हद तक पार्टी पर हावी हैं कि भविष्य में पार्टी के लिए उनसे निजात पाना आसान नहीं! आखिर वे क्या वजह हैं और कैसे वे कांग्रेस की विलुप्ति का सबब बनी? प्रदेश में कांग्रेस का दुर्भाग्य है कि उसके कई सेनापति मैदान में हैं। लेकिन, वे प्रतिद्वंदी के बजाए आपस में ज्यादा लड़ रहे हैं। इनकी आपसी खींचतान और खुद को ऊपर रखने की होड़ ने कांग्रेस के ताबूत में कील ठोंकने का ही काम किया! दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और अजय सिंह की आपसी खींचतान ने पार्टी को मरणासन स्थिति तक पहुंचा दिया। क्योंकि, इन सारे दिग्गज नेताओं ने अपने अहम की पूर्ति के आगे पार्टी हितों को बौना कर दिया!मध्य प्रदेश में कांग्रेस के पास बरसों से मजबूत नेतृत्व की कमी दिख रही है। पार्टी हाईकमान ने हर बार नए गुट को प्रदेश की कमान सौंपकर हालात संभलने का प्रयोग किया! लेकिन, कोई भी पार्टी को मजबूती नहीं दे सका! जो भी प्रदेश अध्यक्ष बना उसने सबको साथ लेकर चलने के बजाए गुटबाजी को ज्यादा बढ़ावा दिया। सुरेश पचौरी, कांतिलाल भूरिया और अरुण यादव कांग्रेस के पराभव काल में पार्टी प्रमुख बने, लेकिन कोई भी कांग्रेस को संजीवनी नहीं दे सका! प्रदेश नेतृत्व ने हमेशा ही कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ाने का ही काम किया! नतीजा ये हुआ कि अरुण यादव, अजय सिंह, सज्जन वर्मा, प्रेमचंद गुड्डू, मीनाक्षी नटराजन जैसे बड़े नेता आज न तो लोकसभा में हैं न विधानसभा में! कांतिलाल भूरिया भी पहली बार हारे फिर उपचुनाव में जीतकर सांसद बने!
इसे कांग्रेस का दुर्भाग्य ही माना जाए कि जो भी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना, उसके मन में प्रदेश का मुखिया बनने की इच्छा प्रबल हो जाती है। 2008 के विधानसभा चुनाव में सुरेश पचौरी ने करीब 100 ब्राह्मणों को चुनाव मैदान में उतारने का घातक निर्णय लिया था। रणनीति के मुताबिक पचौरी की योजना थी कि यदि ये ब्राह्मण उम्मीदवार जीत गए तो कांग्रेस की सरकार बनने की स्थिति में उन्हें मुख्यमंत्री बनने से कोई नहीं रोक पाएगा! उनके बाद कांतिलाल भूरिया कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बने! लेकिन, उनके बहाने दिग्विजय की मंशा प्रदेश की राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत करना ही ज्यादा रही! कांग्रेस नेताओं के यही सपने हर चुनाव में पार्टी पर भारी पड़े!
इसके विपरीत बिखरे और प्रयोगधर्मी कांग्रेस के सामने भाजपा का ‘एक-नेतृत्व’ फार्मूला नेतृत्व विहीन कांग्रेस पर भारी पड़ रहा है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को पार्टी के हर छोटे-बड़े फैसले लेने की आजादी है। वे भाजपा के अघोषित सर्वेसर्वा हैं। फिर चाहे टिकट वितरण का मामला हो या सत्ता और संगठन में नियुक्तियों का! मुख्यमंत्री की मर्जी के बिना संगठन भी कोई फैसला नहीं करता! पार्टी अध्यक्ष भी अप्रत्यक्ष रूप से मुख्यमंत्री के अधीन होकर काम करते हैं। शिवराज सिंह के इन 11 सालों के कार्यकाल में कई बार ऐसे प्रसंग आए, जब लगा कि पार्टी का फैसला शिवराज पर भारी पड़ सकता है! लेकिन, हमेशा ही वे ताकतवर होकर उभरे, क्योंकि पार्टी को उनपर भरोसा है। भाजपा का 'एक-नेतृत्व' फार्मूला ही है, जो पूरी पार्टी को एक सूत्र में बांधने का काम करता है।
शहडोल और नेपानगर उपचुनाव में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी करती जरूर दिखाई दे रही है। संगठन में बड़े फेरबदल को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर भी मंथन का दौर जारी है। लगातार तीन विधानसभा चुनावों में हार झेल चुकी पार्टी इस बार 2 साल पहले सक्रिय होना चाहती है। कुछ बड़े चेहरों को आगे करके पार्टी अपना जनाधार बढ़ाने की रणनीति पर काम कर रही है। तैयारियां देखकर लग रहा है कि प्रदेश की कमान कमलनाथ को सौंपी जा सकती है। वे छिंदवाड़ा लोकसभा सीट से लगातार नौ बार जीतने सांसद हैं। एक बार छोड़कर उन्हें कोई टक्कर नहीं दे पाया! कांग्रेस 'मिशन-2018' की तैयारी में अभी से इसलिए भी जुट गई, कि इस बार वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती! इसीलिए बड़े नेताओं को आगे करने की योजना पर काम किया जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता लगातार बढ़ी है!इसलिए कि कांग्रेस में उन्हें टक्कर देने वाला कोई नेता नहीं है।
मध्य प्रदेश में भाजपा और कांग्रेस के बीच वोटों की खाई हर चुनाव में चौड़ी होती रही! 2009 में भाजपा को 43.45 फीसदी वोट मिले थे! 2014 में इसमें 10.55 फीसदी की वृद्धि हुई! भाजपा को इस लोकसभा चुनाव में 54 फीसदी मत मिले, जबकि कांग्रेस को 2009 में 40.14 फीसदी मत मिले थे जो 1.10 फीसदी घटकर 39.04 रह गया। बसपा, अन्य और निर्दलीय उम्मीदवारों को 6.06 फीसदी वोट मिले। नई बनी आम आदमी पार्टी को 'नोटा' से भी कम वोट मिले। प्रदेश में नोटा (नन ऑफ द अबव) में कुल 1.3 यानी 3, 91, 797 वोट पड़े, वहीं आप को 1.2 फीसदी यानी 3,49,472 वोट मिले। कांग्रेस अच्छी तरह जानती है कि भाजपा को मिले 10 फीसदी वोटों के अंतर को पाटना उसके लिए नामुमकिन सा है। यदि मतदाताओं को फिर से रिझाना है तो कांग्रेस को अच्छे नेतृत्व, लंबे समय और संसाधनों की जरूरत होगी! लेकिन, अभी तक इस दिशा में गंभीरता दिखाई नहीं देती। यदि कांग्रेस इन कमजोरियों से नहीं उबर पाती तो वह गुजरात की तरह ही मध्य प्रदेश को भाजपा का अभेद्य किला बनने से नहीं रोक सकेगी!
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