- हेमंत पाल
मध्यप्रदेश की राजनीति में कैलाश विजयवर्गीय के होने का अपना एक मतलब है। उनकी राजनीतिक शैली से कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है, पर उनको पसंद करने वाले उससे कहीं ज्यादा है। प्रदेश की राजनीति से अलग होकर भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बने उनको डेढ़ साल हो गए! इन डेढ़ सालों में प्रदेश की राजनीति तो अपनी गति से चल रही है, पर इंदौर में भाजपा की राजनीति ठंडी पड़ गई! शहर की राजनीति पूरी तरह टुकड़ों में बंटकर रह गई! माना कि इंदौर में कांग्रेस का अस्तित्व नहीं बचा, पर भाजपा भी तो लावारिस जैसी हो गई! शहर की छह विधानसभा सीटों में से पांच पर भाजपा विधायक हैं, पर सभी ने अपने आसपास लक्ष्मण रेखा खींच ली! सब मुख्यमंत्री से अपने चुनाव क्षेत्र को लेकर बात करते हैं! इंदौर की बात करने वाला कोई नहीं बचा! आज प्रदेश के इस सबसे बड़े शहर में कोई एक भी भाजपा नेता ऐसा नहीं है, जिसकी बात राजधानी में गंभीरता से सुनी जाती हो! इसका असर ये हो रहा कि इंदौर में नौकरशाही हावी हो गई! नेता दुबक गए, अफसर हावी हो गए। लेकिन, कैलाश विजयवर्गीय की एक खासियत है कि उन्हें शहर में अपनी पकड़ का प्रदर्शन करना भी आता है! नोटबंदी के मुद्दे पर उन्होंने इंदौर में जो रैली निकाली और अपना दम दिखाया उसने एक बार फिर शहर में उनकी पकड़ अंदाजा करा दिया!
इंदौर की अपनी अलग ही राजनीतिक शैली है। उपनगरों में बसते जा रहे इस शहर के नेता भी उपनगरीय हो गए! विधायकों की भी उतनी चलती है, जितना उनका इलाका है! आज एक भी भाजपा नेता ऐसा नहीं है जिसमें सभी को साथ लेकर चलने का सामर्थ्य हो! जिसकी आवाज में दम हो और जो सिर्फ इंदौर की बात करे! जब प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता थी, तब भी यहाँ हमेशा एक नेता ऐसा रहा जो मुखिया होता था! बाकी नेता उसके सहयोगी होते थे! मतभेद उनमें भी थे, पर शहर के लिए सब एकजुट होते थे! दिग्विजय सिंह के कार्यकाल में महेश जोशी की स्थिति इसी तरह की थी! उससे पहले कृपाशंकर शुक्ला ने अपना ख़म ठोंक रखा था! भाजपा के सत्ता में आने के बाद कैलाश विजयवर्गीय ने भी वही भूमिका निभाई! पिछले डेढ़ साल छोड़ दिए जाएं, तो एक दशक तक तो शहर में कैलाश का सिक्का खनकता रहा! उससे पहले वे इंदौर के महापौर थे, तब कांग्रेस की सत्ता होते हुए भी राजनीति का रिमोट उनके हाथ में ही था! लेकिन, उनके पार्टी के राष्ट्रीय संगठन में जाने के बाद इंदौर में भाजपा भटकाव के मोड़ पर है! विजयवर्गीय के साथी और क्षेत्र क्रमांक 2 के विधायक रमेश मेंदोला को छोड़ दिया जाए, तो बाकी के चारों विधायक के रास्ते अलग-अलग हैं! सभी के पास अपनी शिकायतें हैं और एक-दूसरे से मुँह फेरकर राजनीति करने के अपने कारण!
प्रदेश की सत्ता पर तीसरी बार भाजपा के काबिज होने के बाद ताकतवर मंत्री रहे कैलाश विजयवर्गीय ने सत्ता छोड़कर केंद्रीय संगठन में काम करने की राह चुनी! वे डेढ़ साल से प्रदेश और इंदौर की सक्रिय राजनीति से बाहर हैं। लेकिन, मौके-बेमौके वे अपनी मौजूदगी दिखाते रहते हैं। कई मौकों पर उन्होंने सरकार और अफसरों की कार्यप्रणाली को लेकर भी सार्वजनिक रूप से नाराजी दर्शाई! जबकि, ये भी जगजाहिर है कि इंदौर में विजयवर्गीय-मेंदोला खेमा जिला प्रशासन और नगर निगम के अफसरों की उपेक्षा का शिकार है। विजयवर्गीय से जुड़े पार्टी कार्यकर्ताओं और निगम पार्षदों की उपेक्षा किसी से छुपी नहीं है। इसी का नतीजा था कि इस खेमे के एक पार्षद के साथी कार्यकर्ता ने निगम अधिकारी के साथ मारपीट की थी! इस मामले ने इतना तूल पकड़ लिया था कि अफसर की पिटाई और पार्षद की गिरफ्तारी वाला मुद्दा किनारे हो गया और महापौर मालिनी गौड़ और विधायक रमेश मेंदोला में सीधी जंग छिड़ गई! इसी के बाद रमेश मेंदोला ने महापौर चिट्ठी लिखी थी!
अभी तक इंदौर के दूसरे भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय के प्रभाव की वजह से अपनी ताकत नहीं दिखा पाते थे! उन्हें लगता था कि विजयवर्गीय के कारण उन्हें मौका नहीं मिलता! अब जबकि, वे इंदौर में नहीं है और सबके लिए मैदान खुला है! फिर भी कोई और नेता आगे बढ़कर नहीं आ पाया! सभी विधायक अपने-अपने इलाके तक सीमित होकर रह गए! क्षेत्र क्रमांक 4 की विधायक मालिनी गौड़ शहर की महापौर हैं, उनके पास ये जगह लेने का मौका और संसाधन दोनों हैं! पर, वे भी निगम के कामकाज में बंधकर रह गईं! उनके पास कार्यकर्ताओं की वो टीम भी नहीं है, जो किसी नेता को बड़ा बनाती है। वे अपने परिवारवाद के मोह से ही मुक्त नहीं हो पाई। जहाँ तक निगम की सक्रियता का मामला है तो निगम कमिश्नर ने सारे सूत्र अपने हाथ में ही रखे हैं!
इंदौर के अफसरों से कैलाश विजयवर्गीय और उनके खेमे का शीत युद्ध अभी खत्म नहीं हुआ है! लेकिन, इसी बहाने विजयवर्गीय प्रदेश सरकार पर भी अपरोक्ष हमले करने से नहीं चूकते! पिछले दिनों उनके दो ट्वीट ने प्रदेश के राजनीतिक माहौल को अच्छा खासा गरमा दिया था! विजयवर्गीय ने 'मेट्रो' के बहाने पहले सरकार और बाद में अफसरों पर निशाना साध दिया था! उधर, मेंदोला ने शहर में विकास नहीं होने के आरोपों के मामले में चिट्ठी लिखकर महापौर को कटघरे में खड़ा किया था। डेढ़-दो साल की राजनीतिक उपेक्षा के बाद इस खेमे के अचानक मुखर होने के अपने कारण थे! लेकिन, इन दो घटनाओं ने शहर की राजनीति को झकझोर दिया! इसका असर ये हुआ कि हावी होती नौकरशाही पर नियंत्रण करने की संगठन के स्तर पर बातचीत का मुद्दा उठा! लेकिन, कुछ हुआ भी होगा, ये बात सामने नहीं आई!
एक गौर करने वाली बात ये भी है कि इंदौर में भाजपा नेताओं ने बीते सालों में एकजुट होकर कभी अपनी ताकत दिखाई हो, ऐसा नहीं हुआ! कैलाश विजयवर्गीय को हाशिए पर रखकर ऐसा करना तो शायद उनके लिए संभव भी नहीं है! लेकिन, विजयवर्गीय खुद अकेले ये सब करने में समर्थ हैं! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैसले के समर्थन और कालेधन के खिलाफ कैलाश विजयवर्गीय ने पिछले दिनों सड़क पर प्रभावी प्रदर्शन किया। भाजपा के इस प्रदर्शन में केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल भी शामिल हुए। राजनीतिक पर्यवेक्षकों के मुताबिक नोटबंदी के विरोध को बेअसर करने के लिए पहली बार देश में इतनी बड़ी रैली हुई! इस रैली से विजयवर्गीय ने पार्टी नेतृत्व को सड़क पर अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास भी करा दिया है। भाजपा के इस प्रभावी आयोजन के सूत्रधार रमेश मेंदोला ही थे। इस तरह की रैली इंदौर का कोई और विधायक कर सकता है, ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता!
कैलाश विजयवर्गीय के जितने समर्थक हैं, उससे ज्यादा उनके विरोधी! लेकिन, आजतक कोई ये नहीं समझ सका कि पिछले दो दशकों से ज्यादा समय से वे इंदौर के एक छत्र नेता कैसे बने हुए हैं? जबकि, उनके बारे में प्रचारित किया जाता है कि वे नकारात्मक राजनीति ज्यादा करते हैं! फिर भी उनके इलाके में कोई और नेता सिर नहीं उठा सका! उन्होंने अपनी राजनीतिक विरासत भी रमेश मेंदोला को सौंपी, जिन्हें उनका हनुमान कहा जाता है! मेंदोला के लिए सीट सुरक्षित करने बाद ही वे महू से चुनाव लड़े! इसमें भी शक़ नहीं कि विजयवर्गीय की राजनीतिक पकड़ के अपने अलग ही मायने हैं! जमीन से जुड़कर और कार्यकर्ताओं के सुख-दुःख में शरीक होकर कैसे लोगों का दिल जीता जाता है, ये उनसे सीखने वाली बात है! वे जब इंदौर में होते हैं, जीवंतता दिखाई दे जाती है। कभी वे किसी गली में क्रिकेट खेलते नजर आते हैं! कभी किसी के स्कूटर के पीछे बैठकर दिखाई देते हैं! विवाह के हर निमंत्रण को भी वे बहुत संजीदगी से लेते हैं! उनके इंदौर में होते हुए, शायद ही कोई निमंत्रण होगा जहाँ वे नहीं गए हों! कई बार तो वे रात 2 या 3 बजे भी विवाह वाले परिवार में पहुंचे! यही स्थिति शोक वाले परिवारों को लेकर भी उनकी रही है। एक बहुत छोटी सी, पर ध्यान देने वाली बात है कि हर साल धनतेरस पर परम्परा का निर्वाह करते हुए वे अपनी पुश्तैनी किराने की दुकान पर बैठते हैं! ग्राहकों को बाकायदा सामान भी देते हैं। 'केशव किराना स्टोर' नाम की इस दुकान को वे अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत का पहला ठिकाना मानते हैं। आशय यही कि आज उनके न होने से यदि इंदौर में भाजपा नेतृत्व विहीन है, तो उसके पीछे सिर्फ राजनीतिक कारण नहीं है! इलाके पर कैसे पकड़ बनाकर रखी जाती है और कैसे नौकरशाही पर नकेल डाली जाती है, ये उनसे मतभेद होते हुए भी सीखने वाली बात तो है!
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