कमिश्नर संजय दुबे
* हेमंत पाल
हर व्यक्ति समाज को कुछ न कुछ लौटना चाहता है, पर उसे मौका नहीं मिलता! कोई समय निकालकर विद्यादान करना चाहता है! कोई गरीबों के लिए आहारदान करना चाहता है! कोई मरने के बाद अंगदान करने का इच्च्छुक है! अभी तक लोगों के सामने इसके लिए आसान रास्ता नहीं था! हमारी कोशिश है कि ऐसे व्यक्तियों को मौका दिया जाए! नियम, कायदों को सुगम बनाकर प्रशासन ऐसे दान करने वालों की भावनाओं का सम्मान करना चाहता है!
ये विचार है इंदौर कमिश्नर संजय दुबे के। उन्हें इंदौर में हो रहे अंगदान का प्रणेता माना जाता है! हाल ही में उन्हें नई दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में 'ऑर्गन डोनेशन' के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने सम्मानित किया। उन्होंने 14 महीने में 14 बार अंगदान के जरिए दूसरों जिंदगी देने का काम किया है। 'सुबह सवेरे' से बातचीत में संजय दुबे ने बताया कि समाज में दान की भावना नई नहीं है! लोग अपनी क्षमता से बहुत कुछ दान करना चाहते हैं, पर उन्हें आसान राह नहीं मिलती! यदि कोई घंटे-दो घंटे का समय निकालकर किसी स्कूल में बच्चों को पढ़ाना चाहता है, तो वो ऐसा नहीं कर पाता था! जब वो प्रिंसिपल के पास अपनी इच्छा बताने जाता, तो उसे जिला शिक्षा अधिकारी के पास भेज दिया जाता! वहाँ से बात भोपाल पहुँच जाती! कहने मतलब ये कि मामले के आसान निराकरण के बजाए वो फाइलों का हिस्सा बन जाता! ऐसा ही मामला अंगदान को लेकर भी था! जब मृत्यु प्रमाणपत्र तक मिलने में लोगों को महीनों लग जाते हैं, तो चंद घंटों में होने वाला अंगदान तो बेहद मुश्किल काम था!
अंगदान की प्रेरणा के बारे में उन्होंने बताया कि ये विचार मेरे मन में काफी पहले से था! व्यस्तता के कारण ये विचार आकार नहीं ले सका। दरअसल, कमिश्नर का काम समीक्षक का होता है। संभाग की प्रशासनिक व्यवस्थाओं की समीक्षा से मेरी जिम्मेदारी पूरी नहीं होती! इसलिए मैंने अंगदान, विद्यादान और आहारदान जैसे तीन काम हाथ में लिए! अब विद्यादान करने वाले व्यक्ति को ऑनलाइन आवेदन करना पड़ता है। औपचारिकता पूरी होने के बाद उसे परमिशन भी ऑनलाइन ही दी जाती है। ऐसा ही एक काम आहारदान है। यदि किसी के यहाँ पार्टी या शादी के खाने के बाद 10 से ज्यादा लोगों का खाना बच जाता है, तो एक एप्प पर सूचना दी जा सकती है! तत्काल एक वैन वहां से खाना लाकर जरूरतमंद गरीबों में बाटेंगी और उसके फोटो आहारदान करने वालों को भेजे जाते हैं! अब इस काम का दायरा इंदौर से बाहर तक बढ़ाए जाने की कोशिश है।
सबसे मुश्किल था अंगदान। क्योंकि, दुःख की घडी में परिजनों को मृतक के अंगदान के लिए राजी करना आसान नहीं होता! मृतक की आँखें, स्किन, किडनी या लीवर में कौनसा अंग काम का है, इसका फैसला भी तत्काल होता है! फिर समय सीमा में संबंधित हॉस्पिटल तक वो अंग पहुँचाना भी बड़ी चुनौती है। इस काम में एक्सपर्ट डॉक्टर्स, हॉस्पिटल, एम्स, संबंधित शहर के हॉस्पिटल, अंग प्रत्यारोपण के एक्सपर्ट्स, एयर ट्रैफिक, एम्बुलेंस और नेशनल ऑर्गन ट्रांसप्लांट एसोसिएशन (नोटा) समेत कई संस्थाओं को सक्रिय होना पड़ता हैं। ग्रीन कॉरिडोर के लिए प्रशासन और ट्रैफिक पुलिस का सहयोग होता है। एक पूरा सिस्टम इस काम में लग जाता है। ये मिशन तभी पूरा होता है, जब ये खबर मिलती है कि भेजा गया अंग प्रत्यारोपित कर दिया गया!
लोग अंगदान की तरफ क्यों प्रेरित हों? इस बारे में कमिश्नर का जवाब था कि ये बहुत बड़ी समाज सेवा है। मरने के कुछ घंटों बाद सारे अंग काम करना बंद कर देते हैं। लेकिन, यदि कोई अंग किसी मरीज को नया जीवन देने के काम आए, तो इससे बड़ा कोई काम नहीं है! सरकार भी ऐसे परिवारों की मदद करती है! जिस भी परिवार से अंगदान होता है, उस परिवार के दो सदस्यों को अभी 5 साल तक सरकार की तरफ से मेडिकल इंश्योरंस दिया जाता है। ये सुविधा जल्दी ही 10 साल के लिए की जा रही है। मृतक के मृत्यु प्रमाणपत्र में भी विलम्ब नहीं किया जाता। कमिश्नर संजय दुबे की कोशिश कि जल्दी ही इंदौर के हॉस्पिटल में अंग प्रत्यारोपण की सुविधा मिलने लगे! जिसका सबसे बड़ा फ़ायदा इंदौर को मिलेगा। उन्होंने कहा कि मुझे संतोष है कि समाज ने अंगदान जरुरत को बहुत जल्दी समझ लिया। अब लोग खुद अंगदान के लिए आगे आ रहे हैं। इंदौर से प्रेरित होकर अन्य शहरों में भी अंगदान का काम शुरू होने लगा है।
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