Tuesday, December 20, 2016

सौ करोड़ की दौड़ में पीछे छूटे गाँव



हेमंत पाल 

   याद कीजिए, बीते कुछ सालों में आपने कोई ऐसी नई फिल्म देखी है जिसमें ठेठ गाँव नजर आया हो? 'लगान' के बाद तो शायद ऐसी कोई फिल्म आई भी नहीं, जिसकी पूरी कहानी गाँव पर केंद्रित हो! 'पीपली लाइव' जरूर आई, पर उसमें किसानों के लिए बनी योजनाओं को बाबुओं और अफसरों द्वारा हड़पने का जिक्र ज्यादा था! अभी जो फ़िल्में आ रही हैं, वो हाई-फाई सोसायटी के आसपास घूमती हैं। उसमें कारपोरेट कल्चर होता है, कंपनियों को टेकओवर करने की चालें होती हैं, पर कहानी मेट्रो शहरों से बाहर नहीं जाती! 
  अब तो गाँव की जिंदगी और परंपराओं पर फ़िल्में बनाने के लिए पहचाने जाने वाले 'राजश्री' भी बड़े परिवारों की कहानियों पर मल्टीस्टारर फ़िल्में बनाने लगे हैं! नदिया के पार, बालिका वधु और गीत गाता चल जैसी कालजयी फ़िल्में बनाने वाली ये फिल्म निर्माण कंपनी भी गाँवों से शहर पहुँच गई! सारा मामला व्यावसायिक है। सौ करोड़ के क्लब में शामिल होने की अंधी दौड़ से कौन पिछड़ना चाहेगा? इस नजरिए से देखा जाए तो सिनेमा के परदे से गाँव की मिट्टी की सौंधी महक और लोकगीत तो गायब हो गए! ये दौर आज-कल में नहीं आया! 80 के दशक के बाद से ही फिल्मकारों ने धीरे-धीरे गाँवों की धूलभरी पगडंडी को छोड़ दिया था!
  हिंदी फ़िल्मी दुनिया की सर्वाधिक सफल मानी जाने वाली रमेश सिप्पी की 'शोले' रामगढ़ नाम के गाँव की ही कहानी थी! लेकिन, वास्तव में इस फिल्म से भी गाँव नदारद था। जो गाँव था वो डाकू गब्बर सिंह और बदले पर उतारू ठाकुर साहब के बीच कहीं गुम था। यहाँ तक कि फिल्म के गीतों में भी गाँव नहीं झलका! फिल्म में कोई लोकधुन सुनाई नहीं दी! गब्बर सिंह भी अपने अड्डे पर अरबी धुन वाला 'महबूबा ओ महबूबा' गाना सुनता है। याद किया जाए कि 'शोले' की सफलता ने फ़िल्मी गाँव की जिंदगी को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया! इससे पहले जो फ़िल्में गाँव के जीवन पर बनी, उनमें एक अलग सी महक होती थी! गाँव हमारा-शहर तुम्हारा, दो बीघा जमीन, आक्रोश को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। 
  1980 में गोविन्द निहलानी ने गाँव पर केंद्रित फिल्म 'आक्रोश' आई थी। यह फिल्म एक लोमहर्षक सच्ची घटना पर बनी थी। कहानी लहनिया भीकू नाम के एक किसान की है, जो ज़मींदार के अत्याचारों से त्रस्त है। उसकी पत्नी के साथ ये लोग गैंगरेप करते हैं, लेकिन जेल होती है लहनिया को! पत्नी लक्ष्मी शर्म से ख़ुदकुशी कर लेती है। जेल नई निकालकर उसे पत्नी के अंतिम संस्कार के लिए लाया जाता है। वहाँ गैंगरेप करने वाले उसकी बहन को ही ललचाई नज़रों से देखते हैं। वह पास पड़ी कुल्हाड़ी उठा लेता है और उन गुंडों को काट डालता है। ये था गाँव और वहाँ का दर्द! इसी दौर में डाकुओं पर भी फ़िल्में बनी उनमें भी गाँव था, अत्याचार था और डाकू बनने की एक संवेदनशील कहानी थी! 
 आज का दर्शक तो परदे पर देश कम, विदेश ज्यादा देखता है। परदे से गाँव नदारद होने का सबसे ज्यादा असर ये हुआ कि अपनत्व की भावना गायब हो गई! आज की कहानियों में तो काल्पनिक प्रेम और मौज मस्ती ही ज्यादा होती है। जबकि, सिनेमा का मकसद सिर्फ मनोरंजन नहीं है। सिनेमा समाज का आईना भी है। दर्शकों को सामाजिक समस्याओं और उनके निवारण की राह भी दिखाई जाना चाहिए। हमारे देश की 60 फीसदी आबादी गाँवों में रहती है। ऐसे में परदे पर गाँव का प्रतिनिधित्व घटता जा रहा है! इसके साथ ही आज तो सिनेमा हॉल में किसी सीन पर दर्शकों की आँखें तक नहीं भीगती! क्योंकि, ऐसे दृश्यों में आज के  फिल्मकार भावनाएं नहीं डाल पाते! अब तो सिनेमा हॉल में सिक्के भी उछलते नहीं दिखते! शायद ही बरसों से किसी ने सिनेमा हॉल में किसी दर्शक को गाने पर डांस करते देखा हो! इसलिए कि अब न तो फ़िल्मी कथानकों में भावनात्मकता है और मिट्टी की वो महक जिससे हिंदी का फिल्मलोक रोशन था! 
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