Saturday, December 30, 2017

क्या 'दिग्गी राजा' अब ठाकुर राजनीति करेंगे?

- हेमंत पाल
  कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय सिंह की गिनती उन नेताओं में होती है, जिनकी कोई थाह नहीं पा सकता! उनके बयानों की धार भी काफी तेज होती है। इन दिनों वे नर्मदा परिक्रमा पर हैं और करीब आधी दूरी तय कर चुके हैं। मुद्दे की बात ये कि इस यात्रा में वे ठाकुरों से कुछ ज्यादा ही नजदीकी बढ़ा रहे हैं। अधिकांश जगह उनका खान-पान और विश्राम ठाकुरों के घरों में हुआ! रास्ते में पड़ने वाले गांवों में जो भी राजे-रजवाड़े मिले, दिग्विजय सिंह उनसे जरूर मिले! स्वागत के लिए लगने वाले मंचों में क्षत्रिय संगठनों के मंच ही लगे। इसका एक साफ़ इशारा ये भी है कि क्या वे ठाकुरों के नेता बनने की कोशिश में हैं? 

    उनकी इस यात्रा को अराजनीतिक कहा जा रहा है। इसलिए कि इस पूरी यात्रा के दौरान वे कोई राजनीतिक चर्चा नहीं कर रहे! उनकी यात्रा में कांग्रेस का झंडा भी दिखाई नहीं देता। रास्ते में भी वे मिलने-जुलने वालों से कोई राजनीतिक परहेज भी नहीं करते। कई जगह उनका स्वागत भाजपा के नेताओं ने भी किया। लेकिन, ये ज्यादातर नेता भी ठाकुर ही थे। कहने वालों का तो ये भी इशारा है कि कांग्रेस जिस सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ बढ़ रही है, ये यात्रा उसी संदर्भ में हैं। गुजरात में राहुल गाँधी का मंदिरों में जाना और दिग्विजय सिंह का नर्मदा परिक्रमा करना! रास्ते के हर मंदिर में माथा टेकना ये सब कांग्रेस की बदलती भविष्य की रणनीति का संकेत है। 
  राजनीति में ठाकुरों की एक बड़ी लॉबी रही है और अच्छा ख़ासा दबदबा भी! कांग्रेस और भाजपा के साथ ही हर राजनीतिक पार्टी में ठाकुर नेताओं का वर्चस्व रहा है। लेकिन, धीरे-धीरे ज्यादातर ठाकुर नेता परिदृश्य से गायब होते गए। जबकि, नए ठाकुर नेताओं के सामने न आने से ये लॉबी सिकुड़ती गई! मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह के बाद कोई बड़ा ठाकुर चेहरा उभरकर सामने नहीं आया! दिग्विजय सिंह ने भी कभी कोशिश नहीं की कि वे ठाकुर नेता की तरह पहचाने जाएं! अजय सिंह उर्फ़ राहुल भैया विंध्य से आगे नहीं निकल सके! उत्तरप्रदेश में विश्वनाथ प्रताप सिंह के बाद ठाकुरों के वोट बंटकर भाजपा के राजनाथ सिंह की तरफ खिसक गए। गुजरात में कांग्रेस के माधवसिंह सोलंकी के बाद से ह वहाँ शून्य है! राजस्थान में भाजपा के भैरोसिंह शेखावत के बाद भी किसी बड़े ठाकुर नेता का उदय नहीं हुआ! समाजवादी पार्टी में जब तक अमर सिंह रहे, ठाकुरों की राजनीति करते रहे! पर, अब वे भी हाशिये पर हैं। 
  ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि दिग्विजय सिंह धीरे-धीरे ठाकुरों को एक मंच पर लाने की कोशिश में हैं। अपनी नर्मदा परिक्रमा के दौरान उनका ठाकुर घरानों से मेलजोल भी ज्यादा बढ़ा दिखाई दिया! दरअसल, दिग्विजय सिंह को राजनीति का बड़ा खिलाड़ी माना जाता है जो दर्शाते कुछ हैं और करते कुछ हैं। उनकी नर्मदा परिक्रमा को भले ही धार्मिक यात्रा कहा गया हो, पर इस बात को कोई भी हल्के में नहीं ले रहा! कैरम के खेल में जिस तरह स्ट्राइगर से रिबाउंड मारकर गोट ली जाती है, दिग्विजय सिंह की राजनीति का अंदाज कुछ उसी तरह का है। वे इन-डाइरेक्ट शॉट ज्यादा मारते हैं।
  दिग्विजय सिंह पर अकसर अल्पसंख्यकों की राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं। वे इससे इंकार भी नही करते! ऐसे कई मौके आए जब उन्होंने खुलकर मुस्लिमों का पक्ष लिया और भाजपा पर हमले किए! लेकिन, अब लगता है कि वे अपना राजनीतिक अंदाज बदल रहे हैं! उनकी इस नर्मदा परिक्रमा के बाद जो राजनीतिक निष्कर्ष बाहर आएगा, वो दिग्विजय सिंह का राजनीतिक भविष्य तय करेगा। ये भी हो सकता है कि वे कांग्रेस में ठाकुर राजनीति को आगे बढ़ाएं और खुद उसके अगुआ बन जाएं! इसमें कोई बुराई भी नहीं है। वे खुद भी ठाकुर हैं और राजघराने से आते हैं, तो ठाकुर राजनीति करें भी तो क्या है!   
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Thursday, December 28, 2017

मठाधीशों पर लगाम लगाकर ही मध्यप्रदेश में कांग्रेस का उद्धार संभव!


    गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस का उत्साह बल्लियों उछल रहा है। सत्ता पाने को आतुर कांग्रेस को लग रहा है कि उसने गुजरात में भाजपा को सिर्फ टक्कर देकर गढ़ जीत लिया! जबकि, सभी जानते हैं कि वहाँ कांग्रेस जीती नहीं है, पर भाजपा को जोर जरूर करवा दिया। अब कांग्रेस इन नतीजों को साल के अंत में अन्य राज्यों के साथ मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव के नजरिए से देख रही है। उसे लग रहा है कि गुजरात में तो 'मोदी फैक्टर' का असर था, मध्यप्रदेश में तो भाजपा के पास ऐसा कोई जादू नहीं है! लेकिन, कांग्रेस के लिए ये सबकुछ उतना आसान भी नहीं है, जैसे कयास लगाएं जा रहे हैं। भाजपा से मुकाबले से पहले कांग्रेस को अपने घर को संवारना होगा, तभी वो मुकाबले के लायक खुद को तैयार का पाएगी! गुजरात के नतीजों ने सिर्फ कांग्रेस में ही उत्साह नहीं भरा, भाजपा को सँभलने का मौका भी दिया है। लेकिन, कांग्रेस तभी भाजपा से सही मुकाबला कर पाएगी, जब उसके मठाधीश अपने अहम् के मठों से बाहर निकलकर पार्टी के झंडे नीचे आकर खड़े होंगे! ऐसे में कांग्रेस के लिए सबसे जरुरी है अपने मठाधीशों की घरफोड़ राजनीति पर अंकुश लगाना!
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- हेमंत पाल
   मध्यप्रदेश में भाजपा पिछले तीन चुनाव से सत्ता पर काबिज है। इन डेढ़ दशकों में उसने गहरी पैठ बना ली है। जबकि, बरसों तक सत्ता में बनी रही कांग्रेस सत्ता का रास्ता भटक गई! उसने अपनी लगातार तीन हार से कोई सबक नहीं सीखा और न कार्यकर्ताओं में उत्साह भरने की कोशिश की। इस दौरान कांग्रेस का जनता से जुड़ाव भी कमजोर हुआ! जबकि, अगला विधानसभा चुनाव ज्यादा दूर नहीं है। लगता नहीं कि पार्टी किसी सोच और लक्ष्य के फिर चुनाव में उतरने जा रही है। जब भी चुनाव की बात होती है, तो मुद्दा इस बात पर आकर ठहर जाता है कि पार्टी की तरफ से चेहरा कौन होगा? इसके अलावा कोई चर्चा सामने नहीं पाती कि भाजपा से मुकाबले के लिए कांग्रेस के तरकश में कौन-कौन से तीर हैं!  उधर, भाजपा ने कई महीनों पहले से ही 'मिशन-2018' की तैयारियां शुरू कर दी है। चुनाव के लिए चेहरा, जिम्मेदारियां, मुद्दे सब कुछ तय हो चुका हैं।
  मध्यप्रदेश में तो कांग्रेस के आधा दर्जन क्षत्रप अपना अलग-अलग राग आलापते नजर आ रहे हैं। पता नहीं कि चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा और प्रतिद्वंदी को चक्रव्यूह में कैसे घेरा जाएगा! बिना सत्ता के इतने सालों में पार्टी कार्यकर्ता भी पूरी तरह से दिशाहीन हो गए। कांग्रेस हाईकमान की प्राथमिकताओं से भी तो मध्यप्रदेश जैसे गायब ही हो गया! जबकि, कांग्रेस की सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में पहली बार भाजपा सरकार के खिलाफ एंटी-इनकम्बैंसी के लक्षण स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। लेकिन, जब तक नेतृत्व तय नहीं होगा, फैसले भी नहीं लिए जा सकेंगे। यदि वास्तव में सत्ता के लिए छटपटाती कांग्रेस को अपना लक्ष्य पाना है तो उसे भाजपा के बूथ मैनेजमेंट की पकड़ को चुनौती देने के लिए बड़े बदलाव करना होंगे! लेकिन, उससे पहले मध्यप्रदेश में तीन मोर्चों में बंटी पार्टी की कमान एक क्षत्रप के हाथ में देना होगी। जब तक पार्टी हाईकमान ये मोर्चा फतह नहीं कर लेता, इस बात की उम्मीद कम ही है कि वो भाजपा को चौथी बार सरकार बनाने से रोक सकेगा!
   अभी तक दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया हर चुनाव में अलग-अलग किले लड़ाते रहे हैं। यही कारण है कि भाजपा को सरकार बनाने के मौके मिलते रहे! भाजपा ने अपने तीन कार्यकाल में सबकुछ अच्छा किया, ये बात भी नहीं है! लेकिन, उसके गलत फैसलों और गड़बड़ियों को जिस तरह मुद्दा बनाकर जनता के सामने रखा जाना था, उसमे कांग्रेस फेल हो गई! 15 सालों में ऐसे कई मुद्दे हैं, जिनपर कांग्रेस सरकार को घेर सकती थी, पर ऐसा नहीं हुआ! बल्कि, कई बार कांग्रेस के नेताओं की अधूरी कोशिशों ने भाजपा को सँभलने के मौके ही ज्यादा दिए हैं। फिलहाल कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम हवा में हैं। जबकि, त्रिकोण के तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण कोण दिग्विजय सिंह अभी नर्मदा परिक्रमा पर हैं। लेकिन, चुनाव में उनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता! वे कुछ न करते और कुछ न बोलते हुए भी बहुत कुछ कर जाते हैं। इसलिए हाईकमान को उन्हें काबू में रखना होगा, तभी अच्छे नतीजों की उम्मीद की जा सकती है। 
  पार्टी कई दिनों से ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा बनाना चाहती है, पर घोषणा नहीं कर पा रही! इसके पीछे क्या मज़बूरी होगी, ये सब जानते हैं। कमलनाथ ने तो अपनी सहमति दे दी है, पर अभी तक दिग्विजय सिंह की तरफ से सकारात्मक इशारा दिखाई नहीं दिया! लेकिन, नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह खेल में टंगड़ी अड़ाते जरूर नजर आ रहे हैं। हाल ही में उनका बयान सामने आया कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री घोषित करने की परम्परा नहीं है! जबकि, वे ये भूल रहे हैं कि पंजाब में कांग्रेस ने कैप्टन अमरेंद्र सिंह को चुनाव से पहले ही मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया था। मध्यप्रदेश में कांग्रेस जब तक अपने मुख्यमंत्री का चेहरा सामने नहीं लाएगी, मुकाबले जीत मिलना आसान नहीं है। 2013 के चुनाव से पहले इन्हीं टंगड़ीबाज अजय सिंह ने 'परिवर्तन यात्रा' के जरिए मध्यप्रदेश की जमीन नापने की कवायद की थी। तब भी गुटबाजी के चलते न तो उनकी यात्रा पूरी हो सकी और न सत्ता हांसिल करने की प्रक्रिया में पार्टी को सफलता मिली। उलटे 2008 के मुकाबले कांग्रेस की सीटें 71 से घटकर 58 पर आ गईं। 2003 में तो मात्र 38 सीटों पर ही कांग्रेस जीत सकी थी। 
   कांग्रेस को इस बात का भी भली-भाँति अहसास हो चुका है कि पुरानी रणनीतियों से चुनाव नहीं जीता जा सकता! यदि मैदान में मुकाबले में उतरना है तो भाजपा की ही तरह आक्रामक रणनीति बनाना होगी और सेबोटेज की रिसन को रोकना होगा। प्रदेश के नए प्रभारी दीपक बावरिया भी इन दिनों डैमेज कंट्रोल में लगे हैं। वे समझ गए हैं कि प्रदेश में सभी क्षत्रपों को समेटना बहुत कठिन काम है। इसलिए वे संगठन स्तर पर कुछ ऐसे बदलाव करने की कोशिश में हैं, जिनका तात्कालिक असर दिखाई दे। ऐसे लोगों को फिर से सक्रिय किया जाए, जो कांग्रेस की मूल विचारधारा से जुड़े हों! बावरिया ने तय कर लिया है की बूथ मैनेजमेंट के लिए कार्यकर्ताओं को तैयार करना पहला काम है, इसे मजबूती दिए बिना भाजपा से मुकाबला संभव नहीं है। भाजपा बूथ मैनेजमेंट और जमीनी स्तर पर वोट कन्वर्ट करने में खासी माहिर है। यही कारण है कि नए प्रभारी बूथ मैनेजमेंट के साथ वार्ड में कार्यकर्ता बनाने में लगे हैं। चुनाव के नजरिए से वे मजबूत कार्यकर्ताओं की टीम भी बना रहे हैं। क्योंकि, उन्हें पता है की यदि नेताओं की आपसी गुटबाजी सुलझाने में समय गंवा दिया तो बचे किलों के ढहने को भी रोकना मुश्किल हो जाएगा।  
   कांग्रेस को अब लग रहा है कि उसके अच्छे दिन आने वाले हैं। पिछले कुछ दिनों से प्रदेश सरकार के प्रति जनता में नकारात्मक प्रतिक्रियाएं और किसानों की नाराजगी जैसे मु्द्दों ने भी कांग्रेस में नया जोश भरने का काम किया है। गुजरात चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस के उत्साह को दोगुना कर दिया। अब ये माना जाने लगा है कि जिस तरह से पार्टी हाईकमान ने गुजरात चुनाव लड़ा, यदि उसी आक्रामक तरीके से मध्यप्रदेश में भी विधानसभा चुनाव लड़ा जाए, तो मध्यप्रदेश में कांग्रेस की वापसी को कोई रोक नहीं सकता! गुजरात और मध्यप्रदेश दोनों जगह कांग्रेस के हालात कुछ-कुछ समान ही हैं। कांग्रेस को वहां भी सत्ता पाने की छटपटाहट ने आक्रामक होने को मजबूर किया, वही स्थिति मध्यप्रदेश में है। 
  पिछले तीन चुनाव में किसी न किसी कारण कांग्रेस को झटके लगते रहे हैं। ये भी माना जाता है कि 2013 में भाजपा की वापसी का बड़ा कारण मोदी-फैक्टर था। लेकिन, अब अच्छे दिनों का भ्रम खंडित हो गया। गुजरात चुनाव के बाद तो ये भी स्पष्ट हो गया कि मोदी-लहर भी किनारे से टकराकर ठंडी पड़ चुकी है। यदि राहुल गांधी यदि 2018 के विधानसभा चुनावों में गुजरात जैसा तेवर दिखाते हैं, तो मध्यप्रदेश में उलटफेर की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। राहुल गांधी गुजरात की तरह जिम्मेदारी लेकर कंधों पर लेकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो चुनाव में कांग्रेस मजबूत होकर सामने आएगी। लेकिन, उससे पहले कांग्रेस को अपने अंदर जोश भरना होगा। हवाबाज और बयानवीर नेताओं से निजात पाना होगी और जमीनी कार्यकर्ताओं की पहचान करना होगी! क्योंकि, किसी भी पार्टी के सत्ता तक पहुँचने का सफर कार्यकर्ताओं के कंधों पर चढ़कर ही पूरा होता है। उससे पहले मठाधीशों पर नकेल डालना भी जरुरी होगा कि वे अपने समर्थकों को जागीर न समझे और पार्टी कार्यकर्ता की तरह मैदान में सक्रिय करें, फिर चाहे इस युद्ध में सेनापति कोई भी हो!  
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Sunday, December 24, 2017

ब्लैक एंड व्हाइट के दौर का वो रंगीन जमाना!

- हेमंत पाल 


  हिंदी फिल्म इंडस्ट्री सौ साल से ज्यादा पुरानी हो गई। इस इंडस्ट्री ने आजादी से पहले और बाद मनोरंजन की बदलती दुनिया का लम्बा दौर देखा है। समय के साथ फिल्मों ने भी अपने आपको बदलने में देर नहीं की। आज ये इंडस्ट्री जिस स्थिति में है, वहां तक आने में इसने कई उतार-चढ़ाओ देखे! बेआवाज और ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों से लगाकर बोलती और रंगीन फिल्मों तक का सफर काफी लम्बा और संघर्ष से भरा रहा! 1913 में दादा साहेब फाल्के ने पहली ब्लैक एंड वाइट फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' बनाई थी। ये सफर 1968 तक इसी तरह चलता रहा। 'सरस्वतीचन्द्र' को हिन्दी सिनेमा जगत की अंतिम ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म माना जाता है।फिल्म का एक गीत 'चंदन सा बदन, चंचल चितवन' आज भी लोकप्रिय है। 
  ब्लैक एंड व्हाइट के ज़माने में ऐसा भी समय आया जब कुछ फिल्मकारों ने विदेशों से तकनीक उधार लेकर फिल्मों को रंगीन करने के प्रयोग भी किए। इस नजरिए से 'किसान कन्या' पहली रंगीन फिल्म मानी जाती है, जो 1937 में बनी थी। अर्देशर ईरानी की इस फिल्म को निर्देशित किया था मोती डी गिडवानी ने। ये वही ईरानी थे, जिन्होंने 1931 में बेआवाज किरदारों को आवाज देकर पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' बनाई थी। जबकि, वी शांताराम ने हिंदी से पहले मराठी फिल्म 'सैरंध्री' 1933 में ही बना दी थी। ये बात अलग है कि 'सैरंध्री' के प्रिंट जर्मनी में बनवाए गए थे। जबकि 'किसान कन्या' देश में बनी पहली ऐसी फिल्म थी, जो पूरी तरह भारत में ही प्रोसेस की गई थी। लेकिन, उस दौर में रंगीन फिल्म को दर्शकों ने मान्यता नहीं दी। 1950 के दशक में हिंदी फिल्में श्वेत-श्याम से रंगीन हुईं। इसके पहले हिंदी सिनेमा जगत रंगों से अछूता था, लेकिन सिनेमा की ब्लैक एंड व्हाइट दुनिया भी सिने प्रेमियों के दिलों पर छाई रहीं। सोहराब मोदी की 1953 में रिलीज फ़िल्म ‘झांसी की रानी’ टेक्नीकलर में बनाई थी। 
  इसके बाद एक दौर 'क्लासिक कलर' का भी आया जब पुरानी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों को रंगीन करने की पहल हुई! 1960 में रिलीज हुई के आसिफ की ऐतिहासिक फिल्म 'मुगले-ए-आजम'  का एक गाना रंगीन था। फिल्म की कालजई लोकप्रियता को देखते हुए 44 साल बाद इसे 2004 में रंगीन बनाकर फिर से प्रदर्शित किया गया। इसके बाद कुछ और फिल्मों को भी रंगीन बनाकर प्रदर्शित किया गया। देव आनंद की प्रोडक्शन कंपनी 'नवकेतन' की आखिरी ब्लैक एंड व्हाइट फिल्म 'हम दोनों' थी, जिसे भी इसी तकनीक से रंगीन किया गया था।
  ब्लैक एंड व्हाइट का जादू कुछ ऐसा था कि आज के रंगीन दौर में भी एक फिल्म को पूरी तरह ब्लैक एंड व्हाइट बनाया गया। मनीषा कोइराला की कमबैक फिल्म 'चेहरे' में हिंदी फिल्मों का वो चेहरा दिखाया गया था, जब यह सिनेमा गूंगा और ब्लैक एंड व्हाइट हुआ करता था। इस फिल्म में परदे के रंगीन होने तक का सफर भी दिखाया था। रोहित कौशिक द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में जैकी श्रॉफ, मनीषा कोइराला, हृषिता भट्ट और गुलशन ग्रोवर थे। पुराने दौर को दिखाने के लिए 'चेहरे' का काफ़ी हिस्सा ब्लैक एंड व्हाइट में ही शूट किया गया है। शाहिद कपूर और आलिया भट्ट की फिल्म 'शानदार' में भी बॉलरूम डांस ब्लैक एंड व्हाइट रखा  गया था। फिल्म का गीत 'नजदीकियां' बीते जमाने के आकर्षण वाला नए जमाने का गीत था। लेकिन, ऐसा कोई भी प्रयोग सफल नहीं हुआ। बीते ज़माने की ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों की बात और थी, वे भी कालजई है और इन फिल्मों के चाहने वाले भी आज मौजूद हैं।  
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Friday, December 22, 2017

गुजरात के चुनाव नतीजों के चश्मे से मध्यप्रदेश को देखिए!

हेमंत पाल
   गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव की पूर्णाहुति हो गई! नतीजे भी सामने आ गए और उनकी सियासी चीरफाड़ भी शुरू हो गई। हिमाचल के मतदाता तो हर बार नया फैसला देते हैं, इस बार भी उन्होंने कांग्रेस को हराकर सत्ता की चाभी भाजपा को सौंपी है। जबकि, गुजरात में भाजपा ने भले ही सत्ता में वापसी कर ली हो, पर घटी सीटों ने भाजपा की चिंता बढ़ा दी! यदि इसे मतदाताओं का इशारा समझा जाए, तो ग्यारह महीने बाद मध्यप्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी मतदाताओं की इस मनःस्थिति का प्रभाव पड़ना तय है। अनुमान है कि मध्यप्रदेश से सटे गुजरात के ये नतीजे यहाँ भी दूरगामी असर डाल सकते हैं। गुजरात के नतीजे मध्यप्रदेश में चौथी बार सत्ता पाने की तैयारी में लगी भाजपा के लिए चेताने और खबरदार करने वाले हैं। इस इशारे को समझते हुए भाजपा संगठन और सरकार को इस भ्रम से बाहर निकल आना चाहिए कि मतदाताओं के सामने उनके अलावा कोई विकल्प नहीं है! गुजरात के नतीजे इसी गलतफहमी का जवाब हैं। असल बात तो ये है कि देश के मतदाता किसी पार्टी हराने के लिए ज्यादा और जिताने के लिए कम ही वोट देते हैं। गुजरात की तरह मध्यप्रदेश में भी कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है, इसलिए भी भाजपा को चिंता करने की जरुरत ज्यादा है।    
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   गुजरात में विधानसभा चुनाव हो गए और नतीजे भी सामने हैं। सत्ता पर भाजपा का कब्ज़ा बरक़रार रहा, पर कांग्रेस ने भी जो पाया वो उम्मीद से कम नहीं है। इन चुनाव नतीजों को दोनों ही पार्टियों (कांग्रेस और भाजपा) ने अपने-अपने नजरिए से विश्लेषित किया है। भाजपा इसलिए खुश है कि उसके 22 साल के कार्यकाल को गुजरात की जनता ने एक बार फिर स्वीकार लिया! जबकि, कांग्रेस की ख़ुशी का कारण ये है कि इन चुनाव नतीजों ने एक मरती हुई पार्टी को जीवनदान दिया है। गुजरात की सत्ता पर फिर से कब्ज़ा जमाए रखना भाजपा के लिए प्रतिष्ठा का सवाल था। क्योंकि, देश के प्रधानमंत्री इसी राज्य से आते हैं और ये गुजरात की अस्मिता से जुड़ा मामला था। लेकिन, यदि गुजरात विधानसभा के चुनाव नतीजों को मध्यप्रदेश के संदर्भ में परखा जाए, तो निष्कर्ष भाजपा के पक्ष में जाता दिखाई नहीं देता! इसलिए मध्यप्रदेश के भाजपा संगठन के लिए ये नतीजे सँभलने की एक चेतावनी हैं।  
  मध्यप्रदेश की सीमा से लगे गुजरात में भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले 16 सीटें खोई है, जो वहां के लोगों की नाराजी का स्पष्ट संकेत हैं। मन समझाने को भाजपा संगठन ने 1.5% वोटो की बढ़ोतरी की बात कही हो, पर सच्चाई को कौन नकारेगा कि इसके मुकाबले कांग्रेस की 19 सीटें और वोटों का प्रतिशत भी 2.5 बढ़ गया। भाजपा को ज्यादातर समर्थन शहरी क्षेत्र से मिला है, जबकि ग्रामीण इलाकों में उसे मतदाताओं ने नकार दिया! गुजरात में शहरी क्षेत्र ज्यादा है और व्यापारी वर्ग उसके साथ है। जबकि, मध्यप्रदेश में ग्रामीण मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। अहमदाबाद में भाजपा ने 21 में 16 सीटें जीतीं, सूरत की 16 सीटों में 15, वडोदरा की 10 में से 9 और राजकोट में 8 में से 6 सीटें भाजपा ने जीती। यानी गुजरात के चार बड़े शहरों की 55 सीटों में 46 भाजपा को मिली। बाक कि 127 सीटों में से भाजपा को 53 और कांग्रेस को 71 सीटें मिली। 3 सीटें अन्य उम्मीदवारों के पास गईं। 
  इस नजरिए से समझा जा सकता है कि यदि गुजरात और मध्यप्रदेश के मतदाताओं की मनःस्थिति एक सी रही तो 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे क्या होंगे? ज़ाहिर है कि भाजपा ग्रामीण इलाकों में कमजोर हुई है। यहाँ तक कि जिस ऊँझा विधानसभा सीट के तहत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गाँव वडनगर आता है, वहाँ भी भाजपा 19 हज़ार वोटों से हारी! गोधरा सीट तो भाजपा ने मात्रा 96 वोट से जीती। जबकि, 12 सीटों पर हार-जीत का अंतर 250 वोटों से भी कम रहा। 18 सीटों पर उम्मीदवार 500 से कम वोटों से जीते। जबकि, 14 सीटों पर हार-जीत का फैसला 1500 से कम के अंतर से हुआ। गुजरात के नतीजों में विधानसभा की 14 सीटें ऐसी भी हैं, जहाँ हार-जीत के अंतर से ज्यादा वोट मतदाताओं ने 'नोटा' में दिए! वहाँ सत्ता में कांग्रेस तो थी नहीं, इसलिए समझा जा सकता है कि मतदाताओं ने 'नोटा' का विकल्प भाजपा उम्मीदवारों के लिए ही चुना होगा! मुद्दा ये कि मध्यप्रदेश में भाजपा को उम्मीदवार चुनने में भी सावधानी बरतना होगी!    
  दरअसल, अगले साल होने वाले तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के लिए गुजरात के नतीजे एक सबक हैं। क्योंकि, इन तीनों राज्यों में भाजपा की ही सरकार है। समझने की बात है कि राज्यसभा चुनाव के समय गुजरात में जो कांग्रेस 42 विधायक लेकर अहमद पटेल को जिताने के लिए संघर्ष कर रही थी, उसे मतदाताओं ने 80 और 3 अन्य सीटों के साथ बाहुबली बना दिया। भाजपा के लिए चिंता का सबसे बड़ा कारण ये है कि तीन साल पहले जब लोकसभा चुनाव हुए थे, भाजपा ने 60% वोट पाकर सभी 26 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था। इन नतीजों को विधानसभा के हिसाब से आंकलित किया जाए तो उस समय भाजपा ने गुजरात की 161 विधानसभा सीटों पर बढ़त ली थी। जबकि, कांग्रेस को 33% वोट मिले थे। इस बार के विधानसभा चुनावों भाजपा को जहां 49.1% वोट मिले, वहीं कांग्रेस का वोट प्रतिशत 33 से बढ़कर 41.9% हो गया। तीन साल पहले हुए लोकसभा चुनाव के मुकाबले 11% वोटों की गिरावट ने निश्चित रूप से भाजपा को झटका तो दिया है। 
   गुजरात के मतदाताओं ने जो फैसला किया उसमें वहां के स्थानीय मुद्दे भी शामिल होंगे, इस बात को नाकारा नहीं जा सकता! लेकिन, वहाँ 22 साल से भाजपा की सरकार है और देश का नेतृत्व करने वाला नेता भी उसी राज्य से आता है। इसलिए गुजरात के शहरी मतदाताओं के लिए गुजरात की अस्मिता को बचाना भी एक सवाल था। जबकि, मध्यप्रदेश में ऐसा कोई फैक्टर नहीं है। यहाँ शहरी इलाका भी गुजरात की अपेक्षा बहुत कम है। मध्यप्रदेश के ग्रामीण मतदाता ही तय करते हैं कि प्रदेश में किसकी सरकार बने! मध्यप्रदेश के किसानों को भी सरकार से विभिन्न मुद्दों पर सरकार से नाराजी रही है। फसलों के समर्थन मूल्य, भावान्तर योजना और मंदसौर कांड ऐसे मसले हैं, जिन पर किसानों की नाराजी खुलकर सामने आ चुकी है। मध्यप्रदेश के लोगों को सबसे ज्यादा आपत्ति अफसरशाही के बढ़ते प्रभाव और भाजपा नेताओं के अहम् को लेकर भी है। सरकार की घोषणाएं और उनका जमीनी क्रियान्वयन ठीक से न होने से भी लोग नाराज हैं। बेरोजगारी की स्थिति ये है कि प्रदेश का हर 70 वां व्यक्ति ये नौकरी पाना चाहता है। मध्यप्रदेश में पिछले 14 साल से भाजपा की सरकार है। अगले चुनाव में भाजपा अपनी सरकार के कामकाज का दावा करके तो वोट मांग नहीं सकती! क्योंकि, बीते 14 सालों में सरकार का विकास का मॉडल ही स्पष्ट नहीं हो पाया! 
  गुजरात विधानसभा के इन चुनाव नतीजों से मध्यप्रदेश के कांग्रेसी नेताओं का उत्साह तो बल्लियों उछल रहा है, पर सिर्फ उत्साह से सत्ता नहीं पाई जा सकती! कांग्रेस के लिए भी मंजिल आसान भी नहीं है। क्योंकि, गुजरात में भी कांग्रेस की किनारे पर नैया डूबने का एक बड़ा कारण उसके संगठनात्मक नेटवर्क की कमजोरी ही रही! मतदाताओं ने कांग्रेस को भाजपा का विकल्प तो माना, पर उन्हें लगा कि अभी उसके पास सरकार चलाने लायक क्षमता नहीं है। यही हालात मध्यप्रदेश में भी है। कांग्रेस को अपनी पार्टी के संगठनात्मक ढाँचे को फिर से खड़ा करना पड़ेगा, तभी मतदाताओं की नजर में वो सशक्त विकल्प बनकर उभरेगी! मध्यप्रदेश में कांग्रेस के तीन दिग्गजों की ताकत जब तक भाजपा से मुकाबले के लिए साझा नहीं होगी, मतदाताओं को कांग्रेस की ताकत का भरोसा नहीं दिलाया जा सकता।    
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Sunday, December 10, 2017

उस हमले से कैसे बचकर उभरा ये सिनेमा!


- हेमंत पाल

  फिल्म इंडस्ट्री पर टेलीविजन के हमले का असर कम नहीं है! समझा जाए तो ये अनुमान से कहीं बहुत ज्यादा है! दशकों तक जो दर्शक मनोरंजन के लिए सिर्फ फिल्मों पर आश्रित था, टिकट खरीदकर सिनेमाघर तक जाता था, वो घरों में और अब मोबाइल की स्क्रीन में कैद हो गया! दो दशकों में आया ये बदलाव छोटी बात नहीं है। जब टेलीविजन के इस हमले का भविष्य के लिए अनुमान लगाया गया था, तब भी फिल्मों से जुड़े लोगों ने ये सब नहीं सोचा गया था जो आज सामने आया है। इस संभावित हमले से बचने के लिए क्या-क्या किया गया, ये शायद कभी आम दर्शकों के सामने नहीं आया! 1984 में जब टीवी के छोटे परदे पर फिल्मों का प्रसारण विस्तारित हुआ, तभी फिल्म से जुड़े लोगों ने भांप लिया था कि आगे क्या होने वाला है! क्योंकि, रविवार शाम जब टीवी पर फिल्म आती थी, सिनेमाघर खाली हो जाते!  
  इसके बाद के 10 साल में धीरे-धीरे टीवी के कदम आगे बढ़ते रहे और इसके दर्शक भी! जो दर्शक फिल्मों के टिकट के लिए खिड़की पर धक्का-मुक्की करते थे, वो घर में टीवी के सामने सोफे पर हाथ में पॉपकॉर्न लेकर पसरने लगे! इसके बाद हुए वीडियो कैसेट के प्रभाव ने फिल्मों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुँचाया! फिल्म के रिलीज होते ही चोरी से उन्हें रिकॉर्ड करके बेचा जाने लगा! इसका सबसे ज्यादा असर पड़ा फिल्म वितरकों और एक्सीबिटर्स (सिनेमाघर मालिकों) को! क्योंकि, फिल्म निर्माता तो फिल्म बनाकर, बेचकर उसकी कीमत वसूलकर हाथ झाड़ लेते, पर वितरक और एक्सीबिटर्स पिसते रहे। जब उन्होंने इसे खुद पर सीधा हमला महसूस किया तो इससे निपटने के भी उपाय किए जाने लगे। लेकिन, ये एक अजीब सी जंग थी। सिनेमा की लड़ाई सिनेमा से ही होने लगी!     
  इसलिए कि एक तरफ तो सिनेमा पर सरकारी अंकुश था, मनोरंजन टैक्स की मार थी, पर चोरी से पाइरेटेड वीडियो कैसेट बनाकर फिल्म बेचने वाले आजाद थे। यहाँ तक कि उन पर भी कोई नियम लागू नहीं होता जो विदेश के लिए फिल्मों की बकायदा कैसेट बनाते और बेचते थे। ये दो सिनेमाओं के बीच एक तरह की प्रतिस्पर्धा ही थी। जब घरों में टीवी के परदे को वीडियो कैसेट देखने के लिए उपयोग किया जाने लगा तो सिनेमाघरों में दर्शकों की संख्या तेजी से घटने लगी! इससे सिनेमाघरों की आमदनी भी घटी! ये भी समझ आने लगा कि यदि ये सब होता रहा, तो एक दिन सिनेमाघरों का अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा! 
   ये 1994 की बात है जब केंद्र और राज्य सरकारों को सिनेमा उद्योग की समस्याओं से वितरकों ने अवगत कराया! इसके बाद ही केंद्र सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से फिल्म दिखाए जाने पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए! कॉपीराइट सशोधन विधेयक संसद में पारित होने के बाद कानून बना। संसद में केबल टीवी नेटवर्क विधेयक भी लाया गया। राज्यों के सूचना मंत्रियों के 21वें सम्मलेन में सिनेमा उद्योग के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें भी की गई! इस सम्मेलन में मनोरंजन कर की दरों में कमी, कम्पाउंडिंग पद्धति को लागू किए जाने, वीडियो तथा केबल टीवी को टैक्स के दायरे में लाने, शॉपिंग काम्प्लेक्स बनाते समय सिनेमा को बरक़रार रखने जैसे फैसले किए गए।      
  इस खतरे को देखते हुए कुछ फिल्म उद्योग के हित में कुछ ठोस कदम भी उठाए! 'फिल्म मेकर्स कम्बाइन' तथा फिल्म वितरकों की संस्था 'फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर्स कौंसिल' ने 10 जून 1994 को एक समझौता किया है। इस समझौते के तहत निर्माताओं और वितरकों ने तय किया है कि कोई भी निर्माता किसी भी फिल्म को वीडियो के जरिए घरों में देखने के लिए फिल्म के प्रदर्शन के दो सप्ताह तक जारी नहीं करेगा। निर्माता अपनी फिल्म के केबल राइट्स फिल्म की रिलीज के छह महीने तक भारत या नेपाल में टीवी के प्रदर्शन के लिए नहीं देगा। इसके अलावा टीवी चैनल, सेटेलाइट चैनल पर पाँच साल तक फिल्म प्रदर्शन के अधिकार नहीं देगा।        
  इस सबका एक असर ये भी हुआ कि सिनेमाघरों के कायाकल्प की कोशिशें शुरू हुई। दर्शकों के लिए नई सुविधाएँ जुटाने की तरफ सिनेमाघर मालिकों का ध्यान गया! तभी ये बात भी उठी थी कि यदि सिनेमा पर सिनेमा की प्रतिस्पर्धा से मुकाबला करना है तो वक़्त के तकाजे को पहचाना जाए और सिनेमाघरों को आधुनिक रूप देकर दर्शकों के लिए ऐसा चुंबकीय आकर्षण पैदा करें कि उनके लिए सिनेमा पहले की तरह आदत बन जाए। आज हम जो सुविधाजनक मल्टीप्लेक्स देख रहे हैं, वो सब उसी असर है जो सिनेमा पर हमले की तरह महसूस किया गया था। जिस वीडियो को सिनेमा का खतरा समझा गया था, आज वक़्त उससे बहुत आगे निकल गया! लेकिन, सिनेमाघर मालिकों ने इस सबको स्वीकार कर लिया और फिल्म देखने को इतना सुखद बना दिया कि अब ये सिर्फ मनोरंजन नहीं बचा, उससे बहुत आगे निकल गया है!   
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Saturday, December 9, 2017

शांति के टापू पर दुष्कर्म और अपराधों की लहलहाती फसल

- हेमंत पाल

   मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने दो साल पहले दिल्ली में एक सेमिनार में कहा था 'मध्यप्रदेश शांति का टापू' है। यहाँ उद्योग लगाने वालों को 'शांति का माहौल' मिलेगा! लेकिन, प्रदेश में जिस तरह से अपराध बढ़ रहे हैं, वो 'शांति के टापू' की कलई खोलते हैं! मध्यप्रदेश में महिलाओं की सुरक्षा का दावा करने के बावजूद सबसे ज्यादा बढ़ोतरी महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की ही है! नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के मामले में भी प्रदेश देश में अव्वल है। इस मामले में प्रदेश ने एक बार फिर देशभर में बाजी मार ली! नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड्स (एनसीआरबी) की ताजा रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है। अन्य आपराधिक घटनाओं में भी उत्तरप्रदेश के बाद मध्यप्रदेश दूसरे नंबर पर है। लगता है प्रदेश की कानून व्यवस्था का अपराधियों पर कोई अंकुश नहीं रहा! क्या कानून-व्यवस्था की बिगड़ती स्थिति सरकार की चिंता का कारण नहीं है?
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    किसी भी प्रदेश की कानून व्यवस्था की स्थिति जानने का सबसे अच्छा जरिया होता है 'नेशनल क्राइम ब्यूरो रिकार्ड्स' (एनसीआरबी) की सालाना रिपोर्ट। ब्यूरो के आंकड़े राजनीतिक बयानबाजी से परे सच का आईना होते हैं। हाल ही में पिछले साल देशभर में हुए अपराधों का राज्यवार ब्यौरा सामने आया है, जिसमें मध्यप्रदेश में महिला दुष्कर्म को लेकर होने वाले अपराधों के जो आंकड़े सामने आए, वो आँख खोलने वाले हैं। इन आंकड़ों के नजरिए से ही सामने आया कि शांति का ये कथित टापू अशांति का जंगल बनता जा रहा है! सबसे ज्यादा ख़राब स्थिति महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की है! ये तो वे मामले हैं, जिनकी शिकायत दर्ज हुई! ऐसे भी कई मामले होंगे, जिनमें पीड़िता सामाजिक कारणों और बदनामी के भय से पुलिस के पास तक नहीं आती! ये आंकड़े बताते हैं कि मध्यप्रदेश में महिलाएं कितनी सुरक्षित और निर्भीक हैं! सरकार, प्रशासन, पुलिस और जानकारों का यह दावा है कि मध्यप्रदेश में शत-प्रतिशत अपराध थानों में पंजीबद्ध किए जाते हैं, इसलिए यह आंकड़ा ज्यादा नजर आता है। अन्य राज्यों में तो दुष्कर्म से लेकर अन्य गंभीर अपराध दर्ज ही नहीं किए जाते। यदि यह बात मान भी ली जाए, तो इसका मतलब यही हुआ कि अपराध तो मध्यप्रदेश में हुए ही हैं, जो बकायदा थानों पर दर्ज भी किए गए!
  एनसीआरबी की 2016 की रिपोर्ट में जो आंकड़े सामने आए हैं, उसमें मध्यप्रदेश दुष्कर्म के मामले में देशभर में सबसे ऊपर है। 2016 में दुष्कर्म के 4882 मामले दर्ज किए गए, जो  2015 के मुकाबले 12.5 प्रतिशत अधिक हैं। यानी कम होने के बजाए ये आंकड़ा बढ़ा ही है! दुष्कर्म के मामलों में उत्तरप्रदेश दूसरे नंबर पर है, जहां 4816 मामले दर्ज किए गए। यह 2015 के मुकाबले 12.4 प्रतिशत अधिक हैं। तीसरा नंबर महाराष्ट्र का आता है, जहां 10.7 प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ 4189 मामले दर्ज किए गए। रिपोर्ट के मुताबिक सामान्य अपराधिक घटनाओं में उत्तर प्रदेश के बाद मध्यप्रदेश का ही नाम है। उत्तरप्रदेश सभी तरह के अपराधों के मामले में पूरे भारत में सबसे ऊपर है। उत्तर प्रदेश में अकेले पूरे भारत के 9.5 प्रतिशत अपराध हुए हैं। जबकि, मध्यप्रदेश 8.9 प्रतिशत के साथ दूसरे, महाराष्ट्र 8.8 प्रतिशत के साथ तीसरे और 8.7 प्रतिशत के साथ केरल चौथे नंबर पर है। आबादी के नजरिए से देखा जाए तो उत्तरप्रदेश की आबादी मध्यप्रदेश से बहुत ज्यादा है। 
  यदि आंकड़ों के बजाए आबादी के हिसाब से अपराधों का औसत निकाला जाए, तो मध्यप्रदेश ही अव्वल होगा! फिर ये 'शांति का टापू" कैसे रहा? इसके साथ ही नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के मामले में भी मध्यप्रदेश देश में अव्वल स्थान पर है। मध्यप्रदेश में इस तरह के 2479 मामले दर्ज किए गए। जबकि, इस मामले में महाराष्ट्र 2310 और उत्तरप्रदेश 2115 के आंकड़े के साथ क्रमशः दूसरे और तीसरे नंबर पर है। इस अवधि में पूरे भारत में 16,863 नाबालिग बालिकाओं के साथ दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए हैं। प्रदेश सरकार का 'विजन-2018' घरेलू हिंसा की तो बात करता है, लेकिन उसमें भी वह सिर्फ उनके लिए चलाई जा रही योजनाओं को बताता है! कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि सरकार महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए क्या कदम उठा रही है! 
  2001 में दुष्कर्म के 2851 मामले सामने आए थे। जबकि, 2013 में 4335 मामले दर्ज किए गए। ये वे मामले हैं, जो पुलिस के रिकॉर्ड में आए! कई बार तो लोग पुलिस कार्रवाई और कोर्ट के चक्करों से बचने के लिए शिकायत तक नहीं करते! महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर तो मध्यप्रदेश हमेशा ही सुर्ख़ियों में रहा है! लेकिन, अब प्रदेश में नाबालिग अपराधियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। ये बाल अपराधी लूट, अपहरण, छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों में भी पीछे नहीं हैं! एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक नाबालिगों के खिलाफ दर्ज अपराधों में प्रदेश 2014-15 में देश में सबसे ऊपर रहा था! नाबालिगों पर दर्ज 7,802 अपराधों में सबसे ज्यादा बाल अपराधी इंदौर, ग्वालियर जैसे बड़े शहरों से हैं! प्रदेश की आर्थिक राजधानी कहे जाने वाले इंदौर का नाम सबसे ऊपर हैं। संस्कारधानी कहे जाने वाले शहर जबलपुर के नाबालिग भी संस्कार नहीं पा सके!   
  अपराधों के मामले में प्रदेश का सबसे आधुनिक शहर इंदौर लगातार असुरक्षित होता जा रहा है! अमन पसंद और चैन की जिंदगी जीने वालों का ये शहर कुछ सालों से हत्या, लूटपाट,अवैध हथियारों और ड्रग्स के कारोबार, कॉन्ट्रैक्ट किलिंग और भू-माफिया के विवादों के कारण लगातार चर्चित है! जमीन की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि और रियल इस्टेट कारोबार बढ़ने के कारण अवैध वसूली करने वाले गुंडे राजनीतिक संरक्षण में पनप रहे हैं! इस कारण इंदौर को अपराधों के मामले में देश के शीर्ष 10 शहरों में लाकर खड़ा कर दिया है। अकसर होने वाली लूटपाट से कारोबारियों का इंदौर पर से भरोसा उठने भी लगा! अपराधों के बढ़ते आंकड़ों के कारण इंदौर एक तरह से आपराधिक राजधानी बनता जा रहा है। महिलाओं से होने वाली लूटपाट आम बात हो गई! एक काला सच ये भी है कि शरीफ लोग तो अपनी बात कहने थाने जाने से ही घबराते हैं! सरकार थानों का माहौल ऐसा नहीं बना सकी कि आम शहरी निश्चिंत होकर शिकायत लिखवाने थाने जा सके! जब तक थानों का खौफ नहीं घटेगा, अपराध कैसे कम होंगे?
  आदतन अपराधियों के आंकड़ों से अलग नजर दौड़ाएं तो मध्यप्रदेश में एक और अपराधी गिरोह पनप रहा है 'खनन माफिया' का! इनमें सबसे सक्रिय है 'रेत माफिया!' प्रतिबंध के बावजूद नदियों से रेत निकालकर बेचने वाले इस गिरोह को लगता है किसी का खौफ नहीं है! न पुलिस का, न खनिज विभाग का और न प्रशासन का! सरकार ने भले ही मशीनों से रेत निकालने पर प्रतिबंध लगा दिया हो, पर चोरी-छुपे और सरकारी संरक्षण में ये धंधा आज  बेख़ौफ़ जारी है। ये अवैध कारोबार करने वालों ने अपराधियों का एक गिरोह खड़ा कर लिया है, जो अफसरों और पुलिस पर भी हमले करने से बाज नहीं आता! प्रदेश में खनन माफिया का आतंक थमने का नाम नहीं ले रहा! मुद्दे बात ये कि इस तरह के अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण मिलने के आरोप भी लगते रहते हैं! 
   प्रदेश में बढ़ते अपराधों का सबसे बड़ा कारण छोटे शहरों के संसाधनों पर बढ़ती जनसंख्या का दबाव है। राजनीतिक संरक्षण, पुलिसकर्मियों की अपराधियों से सांठगांठ, अपर्याप्त पुलिस बल और कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगवाने वाले पुराने कानून इस मसले को और गंभीर बना रहे हैं। इस बात से इंकार नहीं कि राजनीति संरक्षण प्रदेश में अपराधों के बढ़ने का एक बड़ा कारण है! नेताओं के आस-पास समर्पित कार्यकर्ताओं के बजाए अपराधिक गतिविधियों में संलग्न गुंडों की भीड़ बढ़ती जा रही है! राजनीति से भयभीत होकर पुलिस भी उनपर हाथ डालने से डरती है! यही कारण है कि अपराधों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है! ऐसे में सरकार का ये दावा कहाँ गया कि मध्यप्रदेश 'शांति का टापू' है?
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Sunday, December 3, 2017

कला और नग्नता का जीवंत सवाल!

हेमंत पाल

  फिल्मों में सेक्स एवं ग्लैमर हमेशा से ही चर्चा और विवाद का विषय बना रहा है। आजादी के बाद जब देशप्रेम वाली फिल्मों की संख्या कम हुई, तो फिल्मकारों ने नए विषयों की खोज की! इसके बाद ही नायिका के अंग-प्रत्यंग से दर्शकों को लुभाने के प्रयास शुरू हुए! इस आँधी से राजकपूर व मनोज कुमार जैसे सार्थक फिल्म बनाने वाले निर्माता भी नहीं बच सके। राजकपूर ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' व 'राम तेरी गंगा मैली' में तथा मनोज कुमार ने अपनी लगभग सभी फिल्मों में ग्लैमर, सेक्स व अंग प्रदर्शन को बखूबी से भुनाया। लेकिन, इन दोनों ही फिल्मकारों ने ग्लैमर को बहुत ही कलात्मक ढंग और ऐसे दृश्यों को फिल्माया कि उन पर जिस्म प्रदर्शन का आरोप नहीं लगा! जबकि, दूसरी तरफ हृषिकेश मुखर्जी, गुलजार, श्याम बेनेगल तथा प्रकाश झा जैसे फिल्मकारों की ऐसी जमात थी, जो इस आँधी के बीच भी मकसदपूर्ण फिल्में बनाने में लगे रहे! 

 एक दौर ऐसा भी आया जब ऐसी फ़िल्में खूब बनी। 90 और 2000 के दशक को इसी रूप में जाना जाता है, जब सेक्स और व एक्शन फिल्में बहुत बनी! कहा यह गया ये सब डूबते फिल्म उद्योग व ग्लैमर व्यवसाय को बचाने के नाम पर किया गया। 2000 के बाद का दशक जरूरत से ज्यादा बोल्ड निकला। सेक्स व अंग प्रदर्शन के इस फॉमूले को इस दौर में ज्यादा विकृत तरीके से फिल्माया गया। सशक्त एवं सार्थक फिल्म बनाने वाले महेश भट्ट व उनकी अभिनेत्री बेटी पूजा भट्ट ने जिस्म, पाप, मर्डर जैसी फिल्में बनाकर इसे नया चेहरा दे दिया। इन फिल्मों की बॉक्स ऑफिस पर रिकार्डतोड़ सफलता ने फिल्म-निर्माण की दिशा में एक नया हंगामा पैदा कर दिया। बहुत सारे फिल्म निर्माता एवं निर्देशक अपनी फिल्मों में नायिकाओं एवं अन्य अभिनेत्रियों के शरीर के अधिक से अधिक कपड़े उतारने में जुट गए। 
 उधर, रातों-रात शोहरत और पैसा कमाने के लालच में कई अभिनेत्रियों ने भी हर तरह के समझौते किए। देखा जाए तो कला का इससे अधिक पतन दूसरी किसी विधा में नहीं हुआ। आदिकाल से ये सवाल जिंदा रहा है कि कला वास्तव में कला के लिए है या जीवन के लिए? कंदराओं में बैठकर कोई कलाकार क्या लिखता, चित्रित करता अथवा गाता है उसका तो समाज पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता! पर, जब जनता के लिए कोई रचना गढ़ी जाती है तो उसका असर मानव मन पर ही नहीं, अंतर्मन पर भी गहरा पड़ता है। यह सर्वमान्य है कि दृश्य काव्य बहुत शीघ्र तथा अधिक काल तक अपना प्रभाव रखता है। देश में महिलाओं को अशिष्ट रूप में प्रस्तुत करने पर दंड देने के लिए कानून है। सीधा सा अर्थ है कि अश्लीलता का मतलब है नग्नता! जबकि, फिल्मों में कई बार कला और कथित स्टोरी की डिमांड के नाम पर महिला शरीरों को निर्लज्जतापूर्वक लगभग बिना कपड़ों के ही दर्शाया जाता है। इसे कौन स्वीकारेगा? 
  जबकि, ऐसी फिल्मों के समर्थक और 'लव इन इंडिया' और 'गांडू' जैसी चर्चित फिल्मों के निर्देशक कौशिक मुखर्जी का मानना है कि भारतीय फिल्मों को अगले स्तर पर ले जाने के लिए दोहरी मानसिकता से निजात पाना जरूरी है। उनका कहना है कि हम खजुराहो जाते हैं और वहां नग्न मूर्तियों को देखकर उसे कला कहते हैं। जबकि, फिल्मों में अगर नग्नता दिखाई जाए तो हम हाय-तौबा मचाते हैं! इस दोहरी मानसिकता से और इस पाखंड से हमें निकलना होगा। अब वक्त आ गया है कि सरकार और सेंसर बोर्ड को अपनी मानसिकता बदलना होगी। 
 हॉलीवुड की फिल्मों में नग्नता और हिंसा के चरम सीमा पर पहुँच जाने, फिल्म-निर्माताओं की असीम आकांक्षा, लालसा और ललक ने भी फिल्म के कलापक्ष का ताबूत खड़ा करने का प्रयास किया! लेकिन, बॉलीवुड के निर्माता यह तथ्य भूल गए कि तीन दशक पहले इसी सेक्स और हिंसा की बैसाखी पर खड़ी जापानी, फ्रेंच, स्वीडन एवं ब्राजील की फिल्मों ने भले ही विश्व बाजार में खड़े होने के पायदान ढूंढ लिए थे। लेकिन, अंततः उनकी यही लालसा उनके पतन का कारण भी बनी! अंत में सशक्त एवं संवेदनशील फिल्मों की ओर लौटकर उन्हें अपनी अस्मिता बचानी पड़ी थी। अन्यथा उस दौर में उन्मुक्त सेक्स व नग्नता का जितना खुला प्रदर्शन जापान, फ्रांस, स्वीडन, बाजील व पोलैंड की फिल्मों में हुआ था, उतना अन्यत्र कहीं नहीं! यहाँ तक कि हॉलीवुड भी इसमें पीछे रह गया था। अब इस दौराहे पर भारतीय फ़िल्मकार क्या करें? सवाल लाख टके का है, पर जवाब तो दर्शक ही देंगे कि वे क्या देखना पसंद करेंगे? 
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Friday, December 1, 2017

एक चेहरे की चमक से चमकेगा कांग्रेस का 'मिशन 2018'


- हेमंत पाल

  कांग्रेस में किसी चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने की परंपरा कम ही रही! केंद्र में तो बरसों तक गाँधी परिवार का वर्चस्व रहा, इसलिए वहाँ किसी चेहरे को प्रोजेक्ट करने का तो सवाल ही नहीं उठता! लेकिन, राज्यों में पार्टी सिर्फ अपने चुनाव चिन्ह पर मैदान में उतरी और जीतने के बाद सारा दारोमदार हाईकमान के हाथ में सौंप दिया जाता रहा! इसका एक कारण ये भी माना जाना चाहिए कि कांग्रेस ने कभी राज्य से बड़े नेता को उभरने नहीं दिया! मध्यप्रदेश की बात की जाए तो यहाँ जब अर्जुन सिंह का कद बढ़ता दिखाई दिया था तो उन्हें दूसरी बार चुनाव जीतने के अगले ही दिन पंजाब का राज्यपाल बनाकर हटा दिया गया था। लेकिन, आप कांग्रेस को भी धरातल पर उतरना पड़ रहा है। पंजाब के बाद अब मध्यप्रदेश में भी एक चेहरे को सामने रखकर चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई जाने वाली है। अभी घोषणा तो नहीं हुई, पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस 'मिशन 2018' के लिए मध्यप्रदेश में अपना चुनावी चेहरा बना रही है। 
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  मुख्यमंत्री उम्मीदवार का चेहरा सामने न रखकर सिर्फ अपने दम पर चुनाव लड़ने में विश्वास रखने वाली कांग्रेस की राजनीतिक शैली में बदलाव आ रहा है। कांग्रेस ने पंजाब में पिछला चुनाव कैप्टन अमरेंद्रसिंह को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर लड़ा और उसे सफलता भी मिली। अब लगता है पार्टी यही प्रयोग आगे होने वाले सभी विधानसभा चुनाव में करने जा रही है। मध्यप्रदेश में भी अगले साल के अंत में चुनाव होना हैं। रिसकर बाहर आने वाली ख़बरें बताती है कि पार्टी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने का फैसला कर लिया है। लेकिन, अभी औपचारिक घोषणा होना बाकी है। इसे संयोग भी माना जाना चाहिए कि कुछ महीने पहले इसी तरह की मांग खुद ज्योतिरादित्य ने भी की थी, पर तब इस तरह की रणनीति की कोई रुपरेखा तक नहीं बनी थी।      
   मध्यप्रदेश में कांग्रेस पिछले डेढ़ दशक से जिस स्थिति में हैं, पार्टी के लिए कोई नया प्रयोग करना जरुरी भी था। भाजपा ने अपने लगातार तीन कार्यकाल में अपनी जड़ों को काफी गहरा कर लिया है। आज के हालात में कांग्रेस के पास ऐसा कोई हथियार नहीं है, जो भाजपा की जड़ों को हिला सके। भाजपा को चुनाव में यदि नुकसान होगा तो उसका कारण एंटी-इनकम्बेंसी के अलावा और कुछ  नहीं है। ऐसे में प्रदेश के मतदाताओं को रिझाने के लिए कांग्रेस को कोई नया फार्मूला लाना था तो वो ज्योतिरादित्य सिंधिया के रूप में सामने आता दिखाई दे रहा है। समय, काल और परिस्थितियां व्यक्ति को सब कुछ सीखा देती हैं और तय है कि डेढ़ दशक तक सत्ता से बाहर रहकर कांग्रेस ने भी निर्वासन के दर्द से बहुत कुछ सीखा ही होगा! 
  प्रदेश में कांग्रेस के तीन प्रभावशाली नेता हैं उनमें एक खुद ज्योतिरादित्य हैं। दूसरे बड़े नेता कमलनाथ है, जिन्हें पार्टी के ज्योतिरादित्य को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के फैसले से शायद कोई आपत्ति नहीं हैं। तीसरे हैं दिग्विजय सिंह जो फिलहाल नर्मदा परिक्रमा पर हैं और अभी उनकी राजनीति भविष्य की गर्भ में हैं। कमलनाथ के बारे में पहले लगा था कि उन्हें शायद ज्योतिरादित्य का नाम मंजूर नहीं था, पर पार्टी हाईकमान के फैसले के सामने उन्हें झुकने पर मजबूर होना पड़ा। वैसे पिछले चुनाव में भी सिंधिया को चुनाव अभियान की कमान सौंपी गई थी, पर वे कोई कमाल नहीं कर सके थे। यदि इसके कारणों की तह में जाया जाए तो कई कारण निकलकर बाहर आएंगे, पर सभी कारण 2013 की मोदी आँधी में दबकर रह गए! तब नरेंद्र मोदी के नाम की जो आँधी चली थी, उसने विपक्ष के कई किले ढहा दिए थे। लेकिन, इस बार के चुनाव में कोई लहर या आँधी की फिलहाल तो उम्मीद दिखाई नहीं दे रही! ऐसे में कांग्रेस और भाजपा के लिए ये चुनाव बराबरी का ही लग रहा है।      
  कांग्रेस में बरसों से गांधी परिवार को सामने रखकर चुनाव लड़ने की परंपरा रही है। फिर वो लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव! उनके अलावा कोई और चेहरा कभी चुनावी नजरिए से कारगर माना गया हो, ऐसा तो याद नहीं आता! केंद्र में कांग्रेस की विरासत एक परिवार के हाथ में रहें, इसलिए राज्यों में किसी नेता के कद को ज्यादा बड़ा नहीं होने दिया गया। चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना पार्टी की इसी परंपरा पर नकेल डालने जैसी बात है। क्योंकि, यदि पार्टी चुनाव जीतती है तो सारा श्रेय पार्टी के बजाए उसी नेता को जाएगा, जिसे मुख्यमत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया है। ऐसे में यदि चेहरा घोषित हो गया, तो चुनाव नतीजे के बाद हाईकमान की भूमिका भी लगभग समाप्त ही समझी जाएगी! पार्टी के नेता चयन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी भी हाईकमान के हाथ से निकल जाएगी। क्योंकि, कांग्रेस की परंपरा है कि पार्टी के क्षत्रपों को तो चुनाव में सिर्फ मेहनत करना है। आखिरी वक्त पर राजा की कुर्सी पर कौन विराजित होगा, ये फैसला तो वही नेता करते हैं, हाईकमान जिनकी मुट्ठी में हाईकमान होता है। 
  कांग्रेस के इतिहास के पन्ने पलटे जाएं तो पार्टी ने बरसों तक देश और प्रदेश में अपने तमाम क्षत्रपों को अकसर ताश के पत्तों की तरह फेंटा ही है। ये सिलसिला जवाहरलाल नेहरू से लगाकर इंदिरा गाँधी से होता हुआ राजीव गांधी तक सिलसिला निर्बाध चलता रहा! मध्यप्रदेश भी इससे बचा नहीं रहा! द्वारकाप्रसाद मिश्र से लगाकर अर्जुन सिंह तक को कांग्रेस आलाकमान ने ऐसे ही फेंटा और चुना था! लेकिन, इन्हीं क्षत्रपों ने ही कांग्रेस को मजबूती भी दी। जब ये क्षत्रप कमजोर हुए तो पार्टी की जड़ें भी ढीली पड़ गई। इसी निरंतरता में पार्टी कमजोर होते-होते यहाँ तक पहुंची है। लेकिन, तब देश और प्रदेश में कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं था। अब वो हालात नहीं हैं। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में जहाँ दो दलीय शासन व्यवस्था है, कांग्रेस लगातार तीन चुनाव से बाहर है।
   मध्यप्रदेश में कैलाशनाथ काटजू और अर्जुन सिंह के बाद दिग्विजय सिंह ही तीन ऐसे कांग्रेसी मुख्यमंत्री रहे, जिन्होंने अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया था। 1985 में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद अर्जुन सिंह जब दुबारा चुनाव जीते, तो मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के अगले ही दिन उन्हें पंजाब का राज्यपाल बना दिया गया! इस मामले में दिग्विजय सिंह किस्मत के धनी निकले जो लगातार दो बार मुख्यमंत्री बने! इसका एक कारण ये भी है कि जिस दौर में वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, तब केंद्र में कांग्रेस कमजोर थी। तब कांग्रेस में नरसिम्हाराव का दौर चल रहा था। सोनिया गांधी उस समय पार्टी में ज्यादा सक्रिय नहीं थीं। हाईकमान की परिस्थितियां इतनी मजबूत नहीं थी कि दिग्विजय सिंह को हिला सकें! लेकिन, तब भी कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह के चेहरे को सामने रखकर पर चुनाव नहीं लड़ा था। 2004 में जब कांग्रेस यूपीए के साथ सत्ता में लौटीं, तब  दिग्विजय सिंह अपना दस साल का कार्यकाल पूरा कर चुके थे। 
  इस बार का विधानसभा चुनाव जिस रणनीति के तहत लड़ा जाएगा, उसमें कांग्रेस की आक्रामकता ही उसकी सफलता का आधार बन सकती है। क्योंकि, कांग्रेस के पास खोने को और छुपाने को कुछ नहीं है और पाने को बहुत कुछ है। जबकि, भाजपा को बजाए आक्रामक होने के रक्षात्मक रणनीति के तहत और अपनी उपलब्धियों को सामने रखकर चुनाव लड़ना है। लेकिन, इस सबके लिए जरुरी होगा कि कांग्रेस के सभी क्षत्रप उस एक चेहरे को जिताने के लिए  एक जुट हों! क्योंकि, यदि यहाँ क्षत्रपों की इच्छाएं पनपी तो पार्टी को फिर पांच साल के लिए मन मसोसकर इंतजार करना होगा! आज के हालात में ज्योतिरादित्य सिंधिया का चयन गलत नहीं हैं। कांग्रेस की ताकत एक चेहरे के साथ सिमट जाए तो पांसा पलटा भी जा सकता है। लेकिन, सबसे बड़ी दिक्कत है कि कांग्रेस के सामने बाहर से बड़ी लड़ाई पार्टी के भीतर की है। कांग्रेस का हर बड़ा नेता हाईकमान की डोर से बंधकर किसी भी दौड़ते हुए को गिरा सकता है।
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Sunday, November 26, 2017

'पद्मावती' जैसा विवाद नया नहीं!

- हेमंत पाल 

  संजय लीला भंसाली की इतिहास के कथानक पर बनी फिल्म 'पद्मावती' को लेकर विवाद कुछ ज्यादा ही गहरा गया। पहले समझा जा रहा था कि फिल्म की कथित तथ्यात्मक गलती ही विरोध का मुद्दा है, पर अब इस विवाद की गर्भ से राजनीति ने जन्म ले लिया। फिल्म में रानी पद्मावती के किरदार को किस तरह पेश किया गया और मुग़ल बादशाह अलाउद्दीन खिलची और पद्मावती के बीच प्रेम का स्वप्नदृश्य जैसा कोई सीन है या नहीं, अभी ये सिर्फ कयास हैं। क्योंकि, किसी ने फिल्म नहीं देखी। 'पद्मावती' को लेकर इन दिनों देश में जो हालात बने हैं, उसके पीछे राजनीतिक स्वार्थ और तुष्टिकरण नीति काम कर रही है। क्योंकि, जो फिल्म अभी सेंसर के पास नहीं पहुँची, किसी ने उसे देखा नहीं, फिर भी विवाद आसमान पर पहुँच गया?
  ये पहला अवसर नहीं है, जब किसी फिल्म को राजनीतिक कारणों से विरोध झेलना पड़ा हो! 'पद्मावती' से पहले भी ऐसी कई फ़िल्में बनी हैं, जिनके परदे पर नहीं उतर पाने के पीछे राजनीतिक कारण रहे हैं। कुछ फ़िल्में तो काटछांट के बाद रिलीज हो गई, लेकिन ऐसी भी फ़िल्में हैं जिन्होंने अभी तक परदे का मुँह नहीं देखा। लेकिन, इन फिल्मों को लेकर जो भी आपत्तियाँ उठी, उन सभी में सेंसर बोर्ड की भूमिका रही! यदि उन फिल्मों को बैन भी किया गया तो वो काम भी सेंसर ने ही किया, किसी नेता ने नहीं! लेकिन, 'पद्मावती' संभवतः पहली फिल्म है, जिसे शूटिंग के वक़्त से ही विरोध का सामना करना पड़ा! सेंसर के सामने जाने से पहले सिर्फ अनुमान के आधार पर ही फिल्म का विरोध सड़क पर उतर आया।     
  हिंदी फिल्मों को बैन किए जाने का इतिहास टटोला जाए तो 1921 बनी मूक फ़िल्म ‘भक्त विदुर’ भारतीय इतिहास की पहली ऐसी फिल्म थी, जिसे बैन किया गया था। इस फिल्म में एक हिंदू पौराणिक किरदार विदुर था। उसके और महात्मा गाँधी के बीच काफ़ी समानताएं दिखाई गई थी। इस  किरदार ने गाँधी टोपी पहनी थी, और फिल्म को बैन करने की यही सबसे बड़ी वजह भी यही मानी गई थी। इसके बाद आपातकाल के समय 1977 में आई 'किस्सा कुर्सी का' लेकर जमकर विवाद हुआ था। अमृत नाहटा की इस फिल्म की कहानी गंगू नाम के एक किरदार की थी, है जो जनता को मूर्ख बनाकर राष्ट्रपति बन जाता है। माना गया था कि इस फिल्म जरिए इंदिरा गांधी की सरकार की आलोचना की गई थी। सेंसर ने इस फिल्म  51 आपत्तियां लगाई गए थी। फिल्म के मूल प्रिंट को संभवतः जला तक दिया गया था। आपातकाल के बाद फिल्म दोबारा बनी, रिलीज पर चली नहीं!
   गुलजार की 1975 में आई फिल्म 'आंधी' को रिलीज के 26 हफ्ते बाद बैन कर दिया गया। संजीव कुमार और सुचित्रा सेन ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई थी। सुचित्रा ने एक नेता आरती देवी का किरदार निभाया, जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन से प्रेरित बताया गया था। इसके बाद आपातकाल लग गया। 1977 में आम चुनाव हुए और नई सरकार बनी, तब इसे फिर रिलीज किया गया। 2005 में बनी टीडी कुमार की फिल्म 'सोनिया' की कहानी सोनिया गाँधी से प्रेरित थी, इसलिए फिल्म को सेंसर में उलझना ही था और वही हुआ भी! सेंसर ने इसे पास करने से मना कर दिया था। निर्माता से कहा कि पहले सोनिया गांधी से अनुमति ले! फिल्म में कोई भी बड़ा एक्टर नहीं था. अंततः ये रिलीज ही नहीं हुई!
  इसी साल मधुर भंडारकर की फिल्म 'इंदू सरकार' के परदे पर आने से पहले ही विवाद हो गया था। आरोप था कि ये फिल्म संजय गाँधी को लेकर बनाई गई थी। फिल्म पर रोक लगवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका तक दाखिल की गई! अंततः फिल्म रिलीज तो हुई, पर दर्शकों को आकर्षित सकी! ये तो वो फ़िल्में हैं जो किसी राजनीतिक व्यक्ति के जीवन पर बनी, इसलिए उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा! लेकिन, अपने आपत्तिजनक विषय, अत्यधिक खुलेपन और ज्यादा हिंसात्मक दृश्यों के कारण भी कई फिल्मों को बैन किया गया है। लेकिन, 'पद्मावती' पहली ऐसी फिल्म है जिसे ऐतिहासिक तथ्यों पर ही संदेह किया जा रहा है और जिसे सेंसर ने भी नहीं देखा, पर विरोध का गुबार आसमान तक पहुँच गया!
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Friday, November 24, 2017

धार की धारदार राजनीति में चुनाव 'शून्यता' का तड़का!

- हेमंत पाल 

  मध्यप्रदेश में धार की राजनीतिक जागरूकता बेजोड़ है! प्रदेश के जिन इलाकों को अपनी राजनीतिक चैतन्यता के लिए उँगलियों पर गिना जाता है, उनमें धार भी है। इंदौर की जीवन शैली से प्रभावित और आदिवासी इलाके की सीमा से लगे धार को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के नेताओं का गढ़ माना जाता है। यहाँ की राजनीतिक जागरूकता का आलम ये है कि 
  मध्यप्रदेश में धार की राजनीतिक जागरूकता बेजोड़ है! प्रदेश के जिन इलाकों को अपनी राजनीतिक चैतन्यता के लिए उँगलियों पर गिना जाता है, उनमें धार भी है। इंदौर की जीवन शैली से प्रभावित और आदिवासी इलाके की सीमा से लगे धार को कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों के नेताओं का गढ़ माना जाता है। यहाँ की राजनीतिक जागरूकता का आलम ये है कि 
यहाँ के लोग हर वक़्त राजनीति में ही जीते हैं। राजनीति को ही ओढ़ते हैं और वही बिछाते भी हैं। यही कारण है कि ये शहर हमेशा ही राजनीति की ख़बरों में की सुर्ख़ियों में रहता है। आजादी के बाद ये शहर बरसों तक हिन्दू महासभा के प्रभाव में रहा। इसके बाद यहाँ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी जड़ें जमाई! भाजपा के पितृपुरुष कहे जाने वाले कुशाभाऊ ठाकरे, बसंतराव प्रधान और विक्रम वर्मा जैसे बड़े नेता इसी शहर से राजनीति के शिखर पर पहुँचे! बरसों तक यहाँ की राजनीति में केशरिया रंग घुला रहा! लेकिन, सुरेंद्रसिंह नीमखेड़ा, शिवभानुसिंह सोलंकी, जमुनादेवी और प्रतापसिंह बघेल जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं ने भी समय-समय पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई! फिलहाल धार अपने नाम के अनुरूप फिर चर्चा में है। यहाँ की भाजपा विधायक नीना वर्मा के चुनाव को अदालत ने लगातार दूसरी बार शून्य घोषित कर दिया।  

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  धार विधानसभा क्षेत्र का पिछला चुनाव नतीजा एक बार फिर सुर्खियों में है। हाई कोर्ट ने इस बार भी भाजपा विधायक नीना वर्मा का चुनाव शून्य घोषित कर दिया। वे 
भाजपा के बड़े नेता और पूर्व केन्द्रीय मंत्री विक्रम वर्मा की पत्नी हैं। 
ये लगातार दूसरी बार है, जब हाई कोर्ट ने नीना वर्मा का चुनाव तकनीकी आधार पर रद्द किया है। धार के मतदाता और कर सलाहकार सुरेशचंद्र भंडारी ने 
याचिका दायर करते हुए आरोप लगाया था कि नीना वर्मा ने अपने नामांकन फॉर्म में कई अधूरी जानकारियां दी थीं। कुछ जानकारियाँ तो उन्होंने दी ही नहीं, जिनके आधार पर उनका चुनाव शून्य किया जाना चाहिए। इसी तरह 2008 के विधानसभा चुनाव में एक वोट से चुनाव हारे कांग्रेस उम्मीदवार बालमुकुंद गौतम ने भी कोर्ट में याचिका लगाकर वोटों की गिनती के समय निरस्त किए गए तीन डाक मतपत्रों को चुनौती दी थी। हाई कोर्ट ने इस चुनौती को सही माना और न्याय के इतिहास में पहली बार ऐतिहासिक फैसला देते हुए पराजित उम्मीदवार गौतम को विधायक घोषित किया। ये लगातार दूसरा मौका है, जब एक ही भाजपा विधायक का चुनाव दूसरी बार अदालत ने शून्य घोषित किया है। जबकि, 2013 में पराजित कांग्रेस उम्मीदवार गौतम ने भी याचिका दायर की है, जिसका फैसला होना बाकी है।   
  अदालत द्वारा भाजपा विधायक नीना वर्मा का विधानसभा चुनाव शून्य घोषित किया जाना एक न्यायिक प्रक्रिया का हिस्सा है। लेकिन, बड़ा सवाल ये है कि जिस भाजपा विधायक का चुनाव शून्य घोषित किया गया, उनके पति विक्रम वर्मा खुद पाँच बार विधायक, राज्यसभा सदस्य और राज्य तथा केंद्र में मंत्री रह चुके हैं। वे विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। यदि उनकी पत्नी का ही चुनाव नामांकन फॉर्म गलत भरा जाए, ये बात आसानी से गले नहीं उतरती! दूसरा सवाल ये है कि यदि नामांकन फॉर्म में कोई खामी थी, तो तत्कालीन चुनाव अधिकारी ने उस अधूरे भरे नामांकन फॉर्म को किस आधार पर स्वीकार किया? उम्मीदवार की इस गलती को तो हाई कोर्ट में मान लिया और सजा भी सुना दी, पर उस चुनाव अधिकारी की गलती की सजा कौन देगा, जिसने अधूरे भरे नामांकन फॉर्म को स्वीकार किया था? पिछले विधानसभा चुनाव में भी अदालत ने नीना वर्मा का निर्वाचन शून्य घोषित किया था। तब भी तकनीकी त्रुटि को आधार माना गया था। डाक मतपत्रों की गिनती करते समय जो मतपत्र सही पाए गए थे, बाद में उनमें से तीन मतपत्रों को रद्द करके नीना वर्मा को एक वोट से विजयी घोषित किया गया था। बाद में अदालत ने उन मतपत्रों को वैध माना और कांग्रेस के निकटतम प्रतिद्वंदी बालमुकुंद गौतम को विधानसभा की सदस्यता दिलाने का आदेश दिया। 
गौतम कुछ समय के लिए विधायक भी रहे और उन्हें ही 2008 से 2013 के लिए विधायक माना जाता है।    
  
नीना वर्मा के नामांकन फॉर्म पर सवाल उठाते हुए सुरेशचंद्र भंडारी ने उनके चुनाव के खिलाफ चुनाव नतीजों के बाद 23 जनवरी 2014 को नीना वर्मा के खिलाफ ये याचिका लगाई थी। मामले में अंतिम सुनवाई 21 सितंबर को हुई, जिस पर कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। न्यायाधीश आलोक वर्मा ने फैसला सुनाते हुए विधायक नीना वर्मा का चुनाव शून्य घोषित कर दिया। हालांकि, हाईकोर्ट ने नीना को सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए 45 दिन का समय भी दिया है। याचिका दायर करने वाले भंडारी की और से अदालत के सामने सूचना के अधिकार कानून के तहत मिले दस्तावेज पेश करके कहा था कि नीना वर्मा ने वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव के लिए अपना नामांकन चुनाव आयोग के नियमों के मुताबिक दाखिल नहीं किया था। श्रीमती वर्मा के की और से प्रस्तुत नामांकन पत्र के 24 स्तंभ खाली छोड़े गए, जो कि चुनाव आयोग के नियमों का उल्लंघन है। अदालत के समक्ष इस याचिका पर 142 बार सुनवाई हुई, जिसमें नीना वर्मा की ओर से 38 अंतरिम आवेदन पेश कर, विचार की प्रार्थना की गई। 
  इससे पहले 2008 में हुए विधानसभा चुनाव में भी नीना वर्मा मात्र एक वोट से विजयी घोषित हुई थीं। दूसरे नंबर पर आने वाले कांग्रेस के बालमुकुंद गौतम ने इसको लेकर लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी थी। अंततः अदालत ने नीना वर्मा का निर्वाचन रद्द करके गौतम को विधायक पद की शपथ दिलाने के निर्देश दिए थे। 2013 में फिर विधानसभा के चुनाव हुए। भाजपा उम्मीदवार के तौर पर नीना वर्मा ने अपने पिछले प्रतिद्वंदी बालमुकुंद गौतम को दस हज़ार से ज्यादा बड़े अंतर से उन्हें हराकर चुनाव जीता और विधायक बनी। लेकिन, इस बार फिर दो चुनाव याचिकाएं लगाई गई। एक याचिका सुरेशचंद्र भंडारी की थी, जिसपर फैसला आ गया, जबकि दूसरी याचिका पराजित कांग्रेस उम्मीदवार बालमुकुंद गौतम की है। सुरेशचंद्र भंडारी की याचिका पर तो हाई कोर्ट ने फैसला सुना दिया। पर, अभी बालमुकुंद गौतम की याचिकाओं पर फैसला आना बाकी है। 
  बालमुकुंद गौतम ने अपनी याचिका में आरोप लगाया है कि मतदान से ठीक पहले 72 ईवीएम मशीनें बदली गई। जब निर्वाचन अधिकारी को इस बारे में शिकायत की गई, तो उन्होंने इससे इंकार किया, लेकिन बाद में इस बात को स्वीकार किया कि ईवीएम मशीनों की कंट्रोल यूनिट और बैलेट यूनिट बदली गई थी। गौतम की इसी याचिका में नीना वर्मा को भ्रष्ट आचरण के तहत अयोग्य घोषित करने की भी मांग की गई है। चुनाव प्रचार के दौरान गौतम को अपंग कांग्रेस का उम्मीदवार बताया गया, जिसका कोई तार्किक आधार नहीं बनता! गौतम के कारोबार को चुनाव प्रचार का मुद्दा बनाया गया, जो कि चुनाव आयोग के दिशा-निर्देशों के मुताबिक अनुचित है। एक अन्य चुनाव प्रचार भाषण में कांग्रेस उम्मीदवार गौतम को 'भूत' कहकर उसे बोतल में बंद करके गाड़ने तक की बात कही गई! अभी इस याचिका पर फैसला लंबित है। वास्तव में ये फैसला चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों और निर्वाचन व्यवस्था के लिए भी एक सबक है।  
  नीना वर्मा के निर्वाचन के खिलाफ लगी याचिका में जो फैसला आया, इसके बाद धार प्रदेश में एक पहली ऐसी विधानसभा बन गई, जहां लगातार दो बार चुनाव याचिका के कारण परिणाम प्रभावित हुए हैं। हालांकि, विधायक नीना वर्मा को 45 दिन का स्टे मिला हुआ है। इस समयावधि में वे विधायक रहेंगी। वहीं वे सुप्रीम कोर्ट की शरण में भी जा सकती हैं। इन सबके बावजूद ये विधानसभा क्षेत्र न केवल प्रदेश में बल्कि देशभर में इस तरह के फैसले के मामले में सुर्खियों में आ गया। धार विधानसभा में चुनाव याचिकाएं 2008 से ही चली आ रही हैं। आमतौर पर यह माना जाता था कि चुनाव याचिकाओं को लेकर परिवर्तन की स्थिति नहीं बनती! लेकिन, धार विधानसभा ऐसा क्षेत्र बन गया हैं, जहां पर लगातार दो बार हाईकोर्ट ने फैसले देकर स्थितियों को पलटा है। 
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Sunday, November 19, 2017

फ्लॉप फिल्म का घाटा डिस्ट्रीब्यूटर्स ही क्यों झेले?


- हेमंत पाल 

   फिल्म एक ऐसा बिजनेस है, जिसमें सफलता की कोई गारंटी नहीं! यानी पूरी तरह से असुरक्षित बिजनेस! बड़े बड़ा कलाकार और निर्देशक दावे से नहीं कह सकता कि उसकी फ़िल्में चलेंगी ही! ऐसे सैकड़ों उदाहरण है, जब भारी भरकम बजट से बनी फिल्म को दर्शकों ने नकार दिया। ऐसी स्थिति में सबसे ज्यादा नुकसान भोगता है फिल्म को खरीदकर सिनेमाघरों में चलाने वाला डिस्टीब्यूटर। निर्माता तो फिल्म के बनने से पहले ही बेचकर मुनाफा कमाकर बाहर निकल जाता है। जब से फिल्म के संगीत, ओवरसीज, डिजिटल और इसी तरह के दूसरे अधिकार बिकने लगे हैं, फिल्म लागत निकालना ज्यादा आसान हो गया! अब पहले जैसे हालात नहीं है जब 'मेरा नाम जोकर' के फ्लॉप होने के बाद राजकपूर परिवार संकट में आ गया था! आज तो 'ट्यूबलाइट' के फ्लॉप होने पर भी कबीर खान और सलमान खान करोड़ों कमा लेते हैं।     
  सामान्यतः किसी फिल्म के फ्लॉप होने पर कोई भी निर्माता कंपनी डिस्ट्रीब्यूटर्स को पैसा नहीं लौटाती! लेकिन, सलमान खान ने आगे का सोचकर 'ट्यूबलाइट' के कुछ घाटे को खुद भी सहा और डिस्ट्रीब्यूटर्स को आधा पैसा लौटाया। जबकि, फ्लॉप फिल्म से भी सलमान खान ने 180 से 200 करोड़ रुपए की कमाई की है। 35 करोड़ रुपए लौटाने पर भी उन्हें खास फर्क नहीं पड़ा। सलमान खान ने फिल्म की रिलीज से पहले देश में फिल्म के थिएटर अधिकार 132 करोड़ रुपए में, संगीत अधिकार 20 करोड़ में, सैटेलाइट और इंटरनेट अधिकार बेचकर करीब 210 करोड़ रुपए जमा कर लिए थे। ये फिल्म सलमान और कबीर ने मिलकर बनाई थी, तो निश्चित रूप से सलमान का हिस्सा ज्यादा होगा! सलमान और कबीर तो फायदे में रहे, लेकिन जो नुकसान हुआ वो डिस्ट्रीब्यूटर्स का हुआ! मीडिया में भले ही सलमान के इस कदम की वाहवाही हो रही हो, पर सलमान के पहले कई और कलाकार ये काम चुके हैं।
   शाहरुख़ खान भी 'दिलवाले' की असफलता पर डिस्ट्रीब्यूटर्स को पैसा दे चुके हैं। 'दिलवाले' ने बॉक्स ऑफिस पर 150 करोड़ रुपए का कारोबार किया था। लेकिन, फिल्म के डिस्ट्रीब्यूटर्स को घाटा उठाना पड़ा। फिल्म के निर्माण शारुखान की कंपनी रेड चिलीज एंटरटेनमेंट और रोहित शेट्टी प्रोडेक्शन ने मिल कर किया था लेकिन इतनी बड़ी स्टारकास्ट और भारी प्रमोशन भी फिल्म को डूबने से नहीं बचा पाया। इससे पहले 2001 और 2005 में भी शाहरुख खान डिस्ट्रीब्यूटर्स के घाटे को सहन कर चुके हैं। 2001 में रिलीज हुई 'अशोका' और 2005 में 'पहेली' बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप साबित हुई थी, जिस कारण डिस्ट्रीब्यूटर्स को भारी नुकसान हुआ!
  सलमान खान की पिछली बड़ी फ्लॉप फिल्म 'वीर' थी। सलमान ने वादा किया था कि अगर फिल्म नहीं चली तो वो डिस्ट्रीब्यूटर्स के पैसे लौटा देंगे। लेकिन, 'वीर' बुरी तरह फ्लॉप हो गई थी, पर सलमान ने किसी के पैसे नहीं लौटाए। इसके बाद सलमान खान का सिक्का चलने लगा। सालों बाद उन्हें फिर झटका मिला और 'ट्यूबलाइट' बुझ गई! दूसरी तरफ शाहरूख खान हैं, जो हर बार ये काम करते रहे हैं। अशोका, पहेली और दिलवाले तीनों ही बार शाहरूख ने डिस्ट्रीब्यूटर्स का पैसा लौटाया।
   रणबीर कपूर और कटरीना कैफ की फिल्म 'जग्गा जासूस' रिलीज़ भी हुई पर फ्लॉप भी हो गई! इस फिल्म को रणबीर, अनुराग बसु और सिद्धार्थ रॉय कपूर ने बनाया था। रणबीर कपूर ने कहा था कि यदि फिल्म कमाई नहीं कर पाती, तो वे डिस्ट्रिब्यूटर्स के पैसे लौटा देंगे। लेकिन, अभी ऐसी कोई खबर बाहर नहीं आई कि 'जग्गा जासूस' से घाटा खाए डिस्ट्रीब्यूटर्स नुकसान की भरपाई करने की कोशिश हुई है। रणबीर ने तो ये तक कहा था कि ये 1950 में मेरे दादाजी राज कपूर की फिल्मों के जमाने से होता आ रहा है। जब 'मेरा नाम जोकर' रिलीज़ हुई थी, तब डिस्ट्रिब्यूटर्स ने घाटा झेला था। लेकिन, जब 'बॉबी' हिट हुई तो मेरे दादाजी ने फायदे का एक बड़ा हिस्सा सिनेमाघर मालिकों की जगह डिस्ट्रिब्यूटर्स को दिया था। अगर मैं अपनी फिल्मों से पैसा कमा रहा हूँ तो घाटा होने पर ड्रिस्ट्रिब्यूटर्स का पैसा लौटा दूंगा। यदि ये परंपरा चल गई तो फिल्म इंडस्ट्री को संभालना आसान जाएगा। क्योंकि, हिट फिल्म से केवल निर्माता ही नहीं, डिस्ट्रिब्यूटर्स और सिनेमा मालिक तक पैसा कमाते हैं। कई बार इसमें घाटा भी हो जाता है। अगर घाटा होता है तो उसकी भरपाई करना अच्छा बात है। शाहरुख़ और सलमान के अलावा अन्य कलाकार भी पहल करें तो इसमें बुराई क्या है?
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Friday, November 17, 2017

इंदौर की राजनीतिक जागरूकता को किसकी नजर लगी?

- हेमंत पाल 

   इंदौर में भाजपा के चार विधायक और नामचीन सांसद होते हुए भी चारों तरफ राजनीतिक ख़ामोशी जैसा माहौल है। किसी का भी पूरे शहर पर दबदबा दिखाई नहीं देता! भाजपा के सभी विधायक अपने-अपने क्षेत्र तक सिमटे हुए हैं। कैलाश विजयवर्गीय के पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और दिल्ली चले जाने से शहर में राजनीतिक खालीपन साफ़ नजर आने लगा। भाजपा के शहर अध्यक्ष कैलाश शर्मा को तो ज्यादातर लोग चेहरे से भी नहीं जानते! ऐसी ही स्थिति कांग्रेस में भी है। खबरिया चैनलों के कैमरों के सामने नकली आंदोलन करके कुछ नेता विरोध की औपचारिकता जरूर पूरी कर लेते हैं, पर उससे लोग प्रभावित नहीं होते! राऊ क्षेत्र से कांग्रेस के विधायक जीतू पटवारी हैं, पर उनकी सक्रियता को गिनती में नहीं लिया जा सकता! क्योंकि, उनकी हर गतिविधि प्रायोजित होती है। उनके धरने, प्रदर्शनों से कोई राजनीतिक हलचल नहीं होती!  कहने को प्रमोद टंडन शहर अध्यक्ष हैं, पर वे भी कहने को! उनका ज्यादातर वक़्त और ऊर्जा अपनी ही पार्टी में खुद को विरोधियों से बचाने में ही खर्च होता है।   

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   इंदौर में पिछले करीब दो साल से अजीब सा राजनीतिक सन्नाटा है। न कोई हलचल, न राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के हथकंडे और न सालभर बाद होने वाले चुनाव को लेकर कोई तैयारी! कांग्रेस और भाजपा दोनों ही पार्टियों में कहीं कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आती! प्रदेश में सरकार भाजपा की है, पर इंदौर का कोई भी भाजपा नेता शहर में अपनी सक्रियता दिखाने को आतुर दिखाई नहीं देता! कहने को इंदौर में भाजपा के चार विधायक हैं और जिले में सात, फिर भी चारों तरफ खामोशी है। प्रदेश के मंत्रिमंडल में इंदौर का नेतृत्व क्या गायब हुआ, शहर की राजनीतिक जागरूकता को ही जंग लग गया! शुरू में समझा गया था कि ये सन्नाटा किसी बड़े तूफान के अंदेशे का संकेत है। लेकिन, अब लग रहा है कि शहर से धीरे-धीरे राजनीतिक चैतन्यता ही गायब हो रही है। कहा जा सकता है कि इससे पहले शहर में जो राजनीतिक हलचल दिखाई देती थी, उसका कारण सिर्फ कैलाश विजयवर्गीय थे। उनके इंदौर से दिल्ली जाने के बाद से शहर की राजनीतिक जीवंतता को जैसे ग्रहण लग गया! 
  आज भी इस शहर में थोड़ी राजनीति तभी दिखाई देती है, जब कैलाश विजयवर्गीय इंदौर में नजर आते हैं। दरअसल, कोई नेता किसी शहर को कितनी ऊर्जा दे सकता है, ये कैलाश विजयवर्गीय के दिल्ली चले जाने के बाद इंदौर को महसूस हुआ! उनके पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनने और मंत्री पद छोड़ देने के बाद से ही इंदौर में राजनीतिक सुप्तता जैसी स्थिति है। इसलिए कि बाकी के चारों भाजपा विधायक सुदर्शन गुप्ता, उषा ठाकुर, महेंद्र हार्डिया और रमेश मेंदोला अपने-अपने इलाकों तक सीमित हैं। ये चारों एक साथ भी तभी नजर आते हैं, जब कोई राजनीतिक मज़बूरी हो! महू से खुद विजयवर्गीय ही विधायक हैं, सांवेर और देपालपुर के विधायक भी हाशिए पर हैं। ये विधायक भी शहर भीड़ बढ़ाते तभी नजर आते हैं, जब पार्टी का कोई बड़ा नेता शहर में होता है। 
 पिछले दो दशक में कैलाश विजयवर्गीय अकेले ऐसे नेता हैं, जिन्होंने इंदौर में अपनी राजनीतिक चातुर्यता से यहाँ की नब्ज को कब्जे में रखा! उनके काम करने और संपर्कों की शैली भी ऐसी है कि किसी को कभी नहीं लगा कि वे पार्टी और सरकार में बड़ा असर रखते हैं। वे जिस भी राजनीतिक या अराजनीतिक कार्यक्रम में होते हैं, माहौल बना देते हैं। उनके रहते लोगों को कभी किसी नेता की कमी महसूस नहीं हुई। लेकिन, अब लोग ये जरूर मानने लगे हैं कि शहर में राजनीतिक रिक्तता आ गई है। कैलाश विजयवर्गीय की कमी खलने का एक कारण ये भी कि लोगों के सामने अब कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी निजी समस्याओं को निपटने में उनकी मदद कर सके! अभी जो नेता इंदौर में हैं, उनसे लोगों के संतुष्ट न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। किसी नेता के मिल न पाने से लोग नाराज हैं, कोई लोगों की समस्याएं सुनने में रूचि नहीं लेता तो कुछ नेता ऐसे भी हैं, जो हमेशा ही अपने गुर्गों से ही घिरे रहते है! आज भी उनके शहर में होने पर जो राजनीतिक ऊर्जा दिखाई देती है, वो सामान्य दिनों में नदारद ही रहती है।   
   दो-ढाई दशक पहले तक कैलाश विजयवर्गीय का कार्यक्षेत्र (विधानसभा क्षेत्र क्रमांक-2) इंदौर के सबसे पिछड़े इलाकों में था। परदेशीपुरा, नंदानगर, क्लर्क कॉलोनी, सुखलिया और मालवा मिल, कल्याण मिल को इंदौर की पॉश कॉलोनी में रहने वाले लोग पिछड़ा इलाका कहते थे। इस बात से विजयवर्गीय अनभिज्ञ नहीं थे! उन्हें पता था कि गरीब मिल मजदूरों वाले उनके कार्यक्षेत्र से इंदौर के लोग कटकर रहते हैं। एक चुनावी सभा में विजयवर्गीय ने कहा भी था कि यदि में चुनाव जीता तो लोग खरीददारी के लिए राजबाड़ा जाना भूल जाएंगे! आज वो स्थिति आ भी गई! उन्होंने इस इलाके की कमान सँभालते ही पहला काम ये किया कि परदेशीपुरा, नंदानगर और पाटनीपुरा जैसे इलाके को व्यावसायिक रूप देना शुरू किया! धीरे-धीरे इस इलाके में व्यावसायिक गतिविधियाँ आकार लेने लगी! आज यहाँ सभी बड़े ब्रांड्स के शोरूम और दुकानें हैं। इंदौर के सराफा बाजार जैसी यहाँ सोने-चाँदी की कई बड़ी दुकानें हैं। अपने इलाके का चेहरा बदलने की कोशिश को सिर्फ राजनीति नहीं कहा जा सकता! कुछ मायनों में ये राजनीति तो थी, पर उसके पीछे दूरदृष्टि थी! जिस परदेशीपुरा के लोगों को अपना पता बताने में संकोच होता था, आज उन्हें वही पता बताने में फख्र होता है। दरअसल, ये एक नेता का स्तुतिगान नहीं, उनकी उस राजनीतिक शैली की बानगी है जिसका बाकी नेताओं में घोर अभाव नजर आता है। लेकिन, उनकी इस कार्य शैली की सराहना करने वाले कम, आलोचक ज्यादा हैं! 
  यदि बात कांग्रेस की राजनीति की जाए तो इंदौर में महेश जोशी और कृपाशंकर शुक्ला ने जिस तरह की राजनीति की है, वो कोई दूसरा नहीं कर सका! इन दोनों नेताओं ने दमदारी से शहर में बरसों तक कांग्रेस को एक सूत्र में बाँधे रखा! चुनावी राजनीति में ये दोनों नेता बहुत ज्यादा सफल भले ही न हो सके हों, पर शहर में कांग्रेस की मौजूदगी इनके कारण ही नजर आती रही! कृपाशंकर शुक्ला आज भी हर राजनीतिक और सरकारी आयोजनों में दिख जाते हैं। उनकी आवाज में अभी भी खनक मौजूद है, जो किसी और नेता में नहीं! महेश जोशी ने लम्बे समय तक अपने आपको राजनीति से अलग कर लिया था। लेकिन, पिछले करीब एक साल में फिर नजर आने लगे हैं। लेकिन, उनकी सक्रियता में कमी है। इसे उम्र का असर भी कहा जा सकता है, लेकिन उनकी जुबान का कड़वापन अब पार्टी के कार्यकर्ताओं को रास आएगा, इस बात में शंका है। क्योंकि, प्रदेश से कांग्रेस की सत्ता को गए पंद्रह साल हो गए और इस दौरान कार्यकर्ताओं की नई फ़ौज आ गई, जिसे कड़वी भाषा सुनने की आदत नहीं है। ऐसी स्थिति में शहर में वे फिर अपना असर कायम कर पाएंगे, ये नहीं कहा जा सकता।  
  शहर में राजनीतिक सन्नाटा बढ़ाने में कांग्रेस के बयानवीर नेताओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। भाजपा सरकार के किसी भी फैसले और नीतियों पर सतही बयान देकर कांग्रेस के कुछ अखबारी नेता अपनी कॉलर भले खड़ी कर लेते हों, पर जमीन पर उनकी कहीं कोई पकड़ नहीं है। शहर में कांग्रेस का सिर्फ एक विधायक राऊ से जीतू पटवारी है। लेकिन, इंदौर में उसके समर्थक भी उँगलियों पर गिने जाने वाले चेहरों से ज्यादा नहीं हैं। जब से प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गई है, सत्ता के गोंद से चिपके नेता भी आजाद हो गए! कांग्रेस गुटों में बंट गई और क्षत्रपों ने कमान संभालकर घर की फ़ौज मारना शुरू कर दी! आज स्थिति यह है कि पार्टी के हर कार्यक्रम में पार्टी टुकड़ों में बंटी नजर आती है। हो सकता है भाजपा में राजनीतिक सन्नाटा अस्थाई हो, पर कांग्रेस तो अब हमेशा ही इस स्थिति को भोगने  अभिशप्त है! इसलिए कि पार्टी में कोई नया नेतृत्व उभर नहीं पा रहा है, और जो बचे हैं वो भी किनारे होने लगे! 
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Monday, November 13, 2017

कभी भी, कहीं भी मनोरंजन यानी 'वेब सीरीज'

- हेमंत पाल 

  आजादी से पहले और आजादी के बाद के कई सालों तक हमारे मनोरंजन का सिर्फ एक माध्यम था सिनेमा! जब भी किसी को लगता कि वो काम से थक गया है, उसके कदम सिनेमा की तरफ मुड़ जाते थे। फिर आया टेलीविजन का दौर। 80 के दशक के मध्य से टीवी ने अपने पंख फैलाए और घर के सदस्यों को एक कोने तक समेट दिया। तब से अभी तक टीवी की दुनिया में बहुत कुछ बदलता गया। फिर मोबाइल में फोन करने और सुनने के अलावा नए विकल्प खुले। दुनिया डिजिटल हुई तो घर के कोने में रखा बड़ा टीवी साढ़े पांच इंच के मोबाइल में समा गया! टीवी के दर्शक मोबाइल तक पहुँच गए। लेकिन, डिजिटल का अपना अलग आनंद है। यहीं से उपजा मनोरंजन का नया माध्यम 'वेब सीरीज!' अब आप कभी भी, कहीं भी मोबाइल फोन या लैपटॉप जरिए वेब सीरीज तक जा सकते हैं। 

  दरअसल, बड़े और छोटे परदे के बीच मनोरंजन का ये नया माध्यम मोबाइल की स्क्रीन पर उभर रहा है। ये गाने, गेम्स या फिल्में नहीं बल्कि सीरीज हैं। यानी सीरीयलनुमा छोटे-छोटे एपीसोड्स, जो सिर्फ ऑनलाइन ही उपलब्ध होते हैं। उन्हें मोबाइल, टैब या कम्प्यूटर पर ही देखा जा सकता है। ये सीरीज आज का यूथ बेहद पसंद करता है। इसका ट्रेंड इतनी तेजी से बढ़ा कि टीवी और फिल्मों के कई बड़े प्रोडक्शन हाउस भी वेब सीरीज बनाने में जुट गए। 
  अमेरिका में वेब सीरीज का चलन 2003 से है। लेकिन, हमारे देश में ये शुरुआती दौर हैं और इनके सब्जेक्ट यूथ तक सीमित हैं। लेकिन, उम्मीद की जा रही है कि भविष्य में वेब सीरीज में हर किसी के लिए कुछ न कुछ होगा। इसमें दर्शकों के लिए मनोरंजन है, तो प्रोडक्शन हाउसेस के लिए पैसा भी! इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि यशराज, इरोज-नाऊ और बालाजी जैसे कई बड़े प्रोडक्शन हाउस वेब सीरीज बनाने लगे। कई कंपनियां तो फिल्म और टीवी के कंटेंट को सीरीज बनाकर मोबाइल पर ले आई! अमेरिकी घरों में फिल्म और सीरियल पहुंचाने वाली कंपनी ने अनुराग कश्यप की ‘गैंग्स आफ वासेपुर’ को भी वेब सीरीज में तब्दील कर अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों तक पहुँचा दिया। 'यशराज' भी अपनी फिल्मों को इसी तरह उतारने की तैयारी में है। 
  समझा जा रहा है कि वेब सीरीज की पहुँच बहुत तेजी बढ़ेगी, क्योंकि कई कंपनियां इनमें बिजनेस की संभावनाएं देख रही हैं। इसे वेब क्रांति का नाम भी दिया जा रहा है। जैसे-जैसे वेब सीरीज के दर्शक बढ़ेंगे, उतनी ही तेजी से इसका बिजनेस बढ़ेगा। फिलहाल डिजिटल विज्ञापन का बाजार करीब 4 हज़ार करोड़ रुपए का है। वेब सीरीज को मिलने वाले विज्ञापनों से अब ये बाजार तेजी से बढ़ रहा है। यूवा  दर्शकों को हमेशा कुछ नया चाहिए और वेब सीरीज में वो उन्हें फ्री मिल रहा है। स्वाभाविक है कि इसके दर्शक तो बढ़ेंगे ही। लेकिन, वेब सीरीज के कंटेंट को हमेशा ताजा बनाकर रखना  है। क्योंकि, वेब या मोबाइल पर दर्शक का पूरा कंट्रोल होता है। वह मर्जी से अपना मनोरंजन चुन सकता है।
  फिल्म और टीवी के अलावा मनोरंजन के इस नए माध्यम का आसानी मिलने का है, जो न सिर्फ आसानी से उपलब्ध होगा, बल्कि समय की बाध्यता से भी मुक्त होगा। ये युवाओं को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं। लेकिन, भविष्य में ये दौर बदलेगा और हर उम्र को ध्यान में रखकर काम होगा। वेब सीरीज का टारगेट फिलहाल युवा केंद्रित है, इसलिए इसकी भाषा में खुलापन भी ज्यादा है। इसलिए इसे पारिवारिक मनोरंजन नहीं कहा जा सकता। लेकिन, मोबाइल पर होने से यह माध्यम निजी मनोरंजन से जुड़ा है और दर्शक अपनी समझ से कंटेंट का चुनाव कर सकते हैं। इसे फिल्म या टीवी का विकल्प समझना भी गलती होगी। वास्तव में वेब सीरीज की असली टक्कर तो अपने आप से है। यदि दर्शकों को बेहतर कंटेंट मिलता रहा तो वे इसमें बंध जाएंगे। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वेब सीरीज के दर्शकों के दिमाग से उतरने में देर नहीं लगेगी।
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Friday, November 10, 2017

दिग्विजय की नर्मदा परिक्रमा को यहाँ से देखिए!

- हेमंत पाल

  मध्यप्रदेश में इन दिनों राजनीति के बाजार में सबसे ज्यादा शोर कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा का है। जो यात्रा गैर-राजनीतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक है, उसकी राजनीति में सबसे ज्यादा चर्चा है। भाजपा इस यात्रा के संभावित निष्कर्षों को भांपने कोशिश कर रही है, तो कांग्रेस में भी नए-नए कयास लगाए जा रहे हैं। कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया के इस यात्रा में शामिल होने के बाद राजनीतिक विघ्नसंतोषियों की जुबान भी बंद है। स्वामी सत्यमित्रानंद गिरी के पत्र ने संघ और भाजपा को परेशान कर दिया। इस यात्रा से दिग्विजय सिंह की लोकप्रियता जिस तरह बढ़ रही है, उससे भाजपा के साथ कांग्रेस के नेता भी सहम गए! क्योंकि, विधानसभा चुनाव से पहले यदि दिग्विजय के राजनीतिक पुनर्वास के हालात मजबूत हो गए तो कई कांग्रेस नेताओं की नींव दरक सकती है। जबकि, भाजपा और संघ दोनों में इस यात्रा को लेकर घबराहट नजर आने लगी है। 
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  राजनीति से जुड़े हर नेता की नजर इस यात्रा पर लगी है। नर्मदा परिक्रमा के मायने ढूंढ जा रहे हैं। लेकिन, अभी तक किसी के हाथ ऐसा कोई सूत्र नहीं लगा, जिससे दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा की अबूझ तिजोरी को खोला जा सके! दिग्विजय ने खुद भी स्पष्ट कर दिया कि फिलहाल राजनीति पर कोई बात नहीं! अभी सिर्फ नर्मदा और परिक्रमा के बारे में चर्चा कीजिए। वे यात्रा के दौरान तो कोई राजनीतिक चर्चा नहीं कर रहे! पर, परिक्रमा के बाद वे सरकार पर बड़ा हमला बोलेंगे, ये तय है। दिग्विजय की इस यात्रा को राजनीति की चौंसर पर 'मास्टर स्ट्रोक' माना जा रहा है। क्योंकि, प्रदेश के राजनीतिक हलकों में दिग्विजय सिंह लम्बे समय से खामोश हैं! उन्हें पता है कि मतदाताओं के बीच अभी उनकी छवि चुनाव जिताने वाली नहीं है। लेकिन, प्रदेश में सबसे बड़ी कांग्रेस लॉबी आज भी उनके पास है। गाँव-गाँव में उनके समर्थकों की फ़ौज है। इस परिक्रमा के बाद इसमें इजाफा हो रहा है।
  कांग्रेस मान रही है कि भले ही ये दिग्विजय की ये यात्रा निजी हो, पर इससे पार्टी को ताकत मिलेगी और विधानसभा चुनाव में पार्टी उभरकर सामने आएगी! लेकिन, जब कोई नेता धार्मिक या आध्यात्मिक यात्रा करे और राजनीति से विलग रहे, ये संभव नहीं है? राजनीति में चौंकाना हमेशा ही दिग्विजय सिंह का शगल रहा है। तय है कि असली दिग्विजय सिंह नर्मदा परिक्रमा के बाद ही सामने आएंगे! तब उनके पास भाजपा सरकार के खिलाफ बोलने के लिए बहुत कुछ होगा! उनकी ख़ामोशी में भी एक गर्जना छुपी होती है, बस उसे सुनने और समझने वाले चाहिए! इस यात्रा के बाद जो दिग्विजय सिंह सामने आएंगे, वो शायद उनका नया रूप होगा। 
 नर्मदा परिक्रमा का अहम पहलू यह है कि दिग्विजय यात्रा पूरी होने तक नर्मदा का तट छोड़कर कहीं नहीं जाएंगे। ये शिवराजसिंह चौहान की उस शाही नर्मदा परिक्रमा से अलग है, जो टुकड़ों-टुकड़ों में जश्न माहौल में पूरी हुई थी। दिग्विजय ने अपनी इस यात्रा में कांग्रेस के झंडे तक का इस्तेमाल नहीं किया। क्योंकि, वे इस यात्रा पर कोई सियासी लेबल लगाना नहीं चाहते, पर यही वो तरीका था जिससे वो लगातार चर्चा में भी बने हुए हैं। उनकी नर्मदा परिक्रमा ने दलगत राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। इसका नतीजा ये हुआ कि आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा समर्थित लोग भी उनके स्वागत के लिए आगे आ गए। दिग्विजय की कार्यशैली दर्शाती है कि उनसे नेताओं के वैचारिक मतभेद राजनीतिक दलों की भिन्न विचारधारा की वजह से है, किसी दुश्मनी से नहीं! 
  दिग्विजय सिंह ने इस यात्रा को आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रूप दिया है। यही कारण है कि वे राजनीतिक भेदभाव भी नहीं कर रहे। ये भी एक कारण है कि भाजपा में घबराहट है। परिक्रमा करते-करते वे भाजपा के बड़े नेता प्रह्लाद पटेल के घर भी पहुंच गए! प्रह्लाद ने मौका मिला तो नर्मदा भक्त होने के नाते वे भी इस परिक्रमा यात्रा में शामिल होंगे। भाजपा के पूर्व विधायक राणा रघुराज सिंह तोमर ने भी इस परिक्रमा के दौरान दिग्विजय सिंह का स्वागत करके सियासी हड़कंप मचा दिया। तोमर इन दिनों भाजपा की सक्रिय राजनीति से दूर हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह से मुलाकात के लिए वे राजनीति की स्क्रीन पर दिखाई दिए। दिग्विजय सिंह जब सिंगाजी पहुँचे तो राणा रघुराज सिंह तोमर उनके स्वागत में खड़े थे। तोमर को देखते ही दिग्विजय सिंह ने उन्हे गले लगा लिया।
   भाजपा और संघ में इसलिए भी तनाव है कि हरिद्वार स्थित भारत माता मंदिर के संस्थापक और पूर्व शंकराचार्य ज्योर्तिमठ स्वामी सत्यमित्रानंद गिरि ने दिग्विजय सिंह को पत्र लिखकर उनकी नर्मदा परिक्रमा की सराहना की। सत्यमित्रानंद को संघ के काफी नजदीक माना जाता है। अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि नर्मदा की परिक्रमा का महत्व हमारे शास्त्रों में वर्णित है। यह यात्रा एक आदर्श की स्थापना में सहायक होगी! मेरी नर्मदा माता से प्रार्थना है कि वे आपका मनोरथ पूरा करने की कृपा करें। सत्यमित्रानंद ने अपने पत्र में परिक्रमा में शामिल होने की भी इच्छा भी व्यक्त की। जवाब में दिग्विजय ने उन्हें लिखा कि आपकी उपस्थिति और प्रत्यक्ष आशीर्वाद मेरे लिए एक अद्वितीय और अनमोल उपहार होगा। लेकिन, आपके स्वास्थ्य और हरिद्वार से मां नर्मदा के तट की दूरी को दृष्टिगत रखते हुए मैं आपसे प्रार्थना करूंगा कि आप इतनी दूर आने का कष्ट न उठाएं! परिक्रमा पूरी होने पर आशीर्वाद के लिए मैं स्वयं हरिद्वार आऊँगा। सत्यमित्रानंद गिरी और दिग्विजय सिंह के बीच पत्राचार की खबर के सामने आने के बाद संघ में हलचल हुई, उसकी लहर को सभी ने महसूस किया। इस पत्राचार के तत्काल बाद संघ प्रमुख मोहनराव भागवत ने अपनी इंदौर यात्रा के दौरान स्वामी सत्यमित्रानंद से मुलाकात की, जिसके ख़ास मायने हैं।
  दिग्विजय सिंह की छह महीने लंबी नर्मदा परिक्रमा से पहले ये नहीं समझा गया था कि ये खामोश यात्रा सियासत को झकझोरने लगेगी! पर ये होता दिखाई देने लगा है। जैसे-जैसे परिक्रमा आगे बढ़ती जा रही है, उसके सियासी मंतव्य खोजे जाने लगे हैं। इसके चलते संघ और भाजपा के साथ कांग्रेस में भी मंथन होता दिखाई देने लगा है। दिग्विजय सिंह ने तो इसे निजी और नितांत धार्मिक यात्रा पर बताया और राजनीतिक चर्चा से भी उन्होंने दूरी बना रखी है! लेकिन, उनके हर इशारे को सियासत से जोड़कर देखा जा रहा है। सरकार भी इस परिक्रमा पर नजर रखने में कोई कोताही नहीं बरत रही। सरकार पर यात्रा के असर का अंदाज़ इससे लगाया जा सकता है, कि कई अधिकारियों ने लाइव अपडेट के लिए दिग्विजय सिंह के 'फेसबुक' पेज को लाइक किया है। परिक्रमा से पहले सरकार इस मसले पर तवज्जो नहीं दे रही थी, लेकिन अब वो स्थिति नहीं है।
  इस यात्रा में पहले प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव और फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमलनाथ के शामिल होने के बाद इसके सियासी मतलब निकाले जाने लगे हैं। लेकिन, यदि ज्योतिरादित्य और कमलनाथ नहीं आते, तो दूसरी तरह की चर्चाओं का दौर चलता। ज्योतिरादित्य खंडवा जिले के मोरटक्का में दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा में शामिल हुए और करीब 7 किलोमीटर साथ चले। जबकि, कमलनाथ खरगोन जिले के कसरावद क्षेत्र में इस यात्रा का हिस्सा बने। दोनों कांग्रेस नेताओं ने नर्मदा परिक्रमा को दिग्विजय की संकल्प यात्रा बताया। इस पूरे घटनाक्रम पर राजनीति को समझने वालों नजर रही। क्योंकि, ये तीनों बड़े नेता प्रदेश में कांग्रेस में सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी माने जाते हैं। इन तीनों के साथ आने से जहाँ कांग्रेस को ताकत मिली, वहीं भाजपा की रात की नींद भी हराम हुई है। क्योंकि, ये मिलन कहीं न कहीं भाजपा के लिए परेशानी का कारण बन सकता है। 
  अपनी सियासी मुखरता के लिए चर्चित दिग्विजय सिंह की परिक्रमा के दौरान ख़ामोशी को गंभीरता से समझा जा रहा है। परिक्रमा के दौरान राजनीति को लेकर मीडिया के सवालों पर उनका मौन किसी बड़े धमाके का संकेत है। वे बाद में भी खामोश रहेंगे, वे ऐसा भी नहीं भी नहीं कहते! लेकिन, वे जो बोलेंगे वो सरकार के लिए बड़ी परेशानी का कारण ही बनेगा। यह यात्रा मध्यप्रदेश के 110 और गुजरात के 20 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरेगी। जब ये नर्मदा परिक्रमा प्रदेश के करीब आधे विधानसभा क्षेत्रों की जमीनी हकीकत का जायजा लेकर बरमान घाट पर पूरी होगी, तब चुनाव की बिसात बिछ चुकी होगी। इसके बाद जब दिग्विजय सिंह अपने वादे के मुताबिक़ खुलासे करेंगे, तब चुनाव सामने होंगे। दिग्विजय सिंह खुद तो चुनाव नहीं लड़ेंगे, मगर चुनाव में वो जो बोलेंगे उसके कुछ ठोस मायने होंगे, जिनका भाजपा के पास जवाब नहीं होगा! इस परिक्रमा के बहाने मध्यप्रदेश की राजनीति में वो चेहरा फिर प्रासंगिक हो गया जिसे दौड़ से बाहर समझ लिया गया था।
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Sunday, November 5, 2017

इस बार का 'बिग बॉस' पटरी से उतरा!

- हेमंत पाल 

  'बिग बॉस' एक समय टेलीविजन के सबसे लोकप्रिय रियलिटी शो में था। दर्शकों को इस शो का आठ महीने तक इंतजार होता था। लेकिन, लगता है अब ये शो दर्शकों की नजर से उतर रहा है। अभी तक इस रियलिटी शो के दस सीजन आ चुके हैं, ग्यारहवां सीजन हाल ही में शुरू हुआ। कलर्स चैनल पर आ रहा ये शो नीदरलैंड के 'बिग ब्रदर' का भारतीय संस्करण है। 'बिग बॉस' ऐसा शो है जिसमें बीस से ज्यादा प्रतियोगियों को एक साथ एक ही घर में लगभग तीन महीने रहना पड़ता है। बाहरी दुनिया से इनका कोई संबंध नहीं होता! इन्हें न तो समय का पता होता है न दिन का! इन पर सौ से ज्यादा कैमरे नजर रखते हैं और एक अज्ञात व्यक्ति इस शो को संचालित करता रहता है! इसी का नाम 'बिग बॉस' है। इस व्यक्ति की मौजूदगी केवल आवाज़ से प्रतीत होती है। इस घर में रहने के कुछ सख्त नियम-कायदे हैं, जिनका सभी को पालन करना होता है। कभी भी कोई नियम हटाया या बदला नहीं जा सकता! यही कारण है कि ये रियलिटी शो लोकप्रिय हुआ।  

  'बिग बॉस' के नौ सीजन में सिर्फ सेलिब्रिटी को ही प्रतियोगी बनाया जाता था। लेकिन, पिछले शो से प्रतियोगियों में आम लोगों को भी शामिल करने का सिलसिला शुरू हुआ! जितने सेलिब्रिटी थे, उतने ही आम लोग! लेकिन, पिछली बार आम लोगों में दो ऐसे बदमिजाज प्रतियोगी थे, जिन्हें बीच शो से होस्ट सलमान खान ने बाहर किया था। 'बिग बॉस' के सीजन-11 की शुरूआत करते हुए सलमान खान ने अपने सभी प्रतियोगियों को सख्त हिदायत दी थी कि कोई भी प्रतियोगी किसी तरह की बदतमीजी न करें! किन्तु, लगता है सलमान की इस हिदायत का किसी प्रतियोगी पर असर नहीं हुआ! इस बार भी शो के एक प्रतियोगी जुबैर खान को पहले ही हफ्ते में बाहर किया गया। जुबैर ने खुद को दाऊद की बहन हसीना पार्कर का करीबी बताया और घर में बदतमीजी की। जुबैर को उसके खराब व्यवहार के कारण शो से बाहर का रास्ता दिखाया गया है। आकाश ददलानी ने भी खुद को संगीतकार विशाल ददलानी के खानदान का होने का दावा किया था। ऐसा ही कुछ झूठ अर्शी खान भी बोल चुकी है। 
  पिछले शो में दो लोग ही बदतमीज थे, इस बार अधिकांश प्रतियोगी झगड़ालू, बदतमीज और नकचढ़े हैं। सबसे ज्यादा बदमिजाज महिला प्रतियोगी शिल्पा शिंदे, अर्शी खान, सपना चौधरी और हिना खान हैं।  जबकि, पुरुष प्रतियोगियों में आकाश ददलानी, प्रियांक भी इसी श्रेणी के हैं। दो प्रतियोगी शिल्पा और विकास गुप्ता के बीच पुराना विवाद है जो 'बिग बॉस' के घर में नए सिरे से पनप गया! इसमें भी शिल्पा की चीख और चिल्लाहट दर्शकों को भी खलने लगी है। जिस तरह की भाषा इस रियलिटी शो में बोली जा रही है, वो सामान्य तौर पर सभ्य घरों में नहीं बोली जाती।      
 ऐसी ही एक प्रतियोगी है हिना खान। टीवी पर जब 'ये रिश्ता क्या कहलाता है' सीरियल शुरू हुआ था, तब दर्शकों ने अक्षरा के किरदार में हिना खान को पसंद किया था। उसमें उन्हें आदर्श भारतीय बहू नजर आई थी! लेकिन, जब से दर्शकों ने हिना को 'बिग बॉस' में देखा, उससे चिढ़ सी होने लगी! अक्षरा का जो किरदार दिलों पर चढ़ा था, उसे उतरने में महीना भर नहीं लगा! अक्षरा सिर्फ एक किरदार था और 'बिग बॉस' की हिना असलियत है। 'बिग बॉस' का इतिहास बताता है कि यहाँ जिसकी भी नकारात्मक छवि बनी है वो परदे पर फिर ज्यादा दिन दिखाई नहीं दिया! क्योंकि, किरदार वाले जिस चरित्र को दर्शक वास्तविकता में ढूंढते हैं, वो तो सामने आ चुका होता है।    
 वाइल्ड कार्ड के जरिए घर में एंट्री लेने वाली यूट्यूब की अटपटी गायिका ढिंचैक पूजा का 'बिग बॉस' के घर में भद्दा मजाक उड़ चुका है अर्शी और हिना खान ने तो पूजा के सिर में जूं होने तक की बात कह दी। दरअसल, 'बिग बॉस' के घर में कब क्या हो जाए, कुछ भी कह पाना मुश्किल है! यहाँ कौन किसके साथ दुश्मनी कर बैठे या किसका दिल किससे जुड़ जाए इसका भी पता नहीं। अभी तक आए दस सीजन में दो हफ्ते बाद रोचकता आने लगती थी, पर इस बार के सीजन में सिवा विवाद, झगडे और छेड़छाड़ के और कुछ दिखाई नहीं दे रहा! इस बार शो में जिस तरह के प्रतियोगियों को चुना गया है, वो सही नहीं लगते! शो की निर्माण कंपनी इंडेमोल को यदि शो की लोकप्रियता को बनाए रखना है तो उन्हें भविष्य में प्रतियोगियों के चुनाव में सावधानी बरतना पड़ेगी। 
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