- हेमंत पाल
जब टीवी ने परिवारों के बीच एक कोने में अपने लिए जगह बनाई थी, तब समझा गया था कि इससे पारिवारिक संस्कारों की नई नींव पड़ेगी और दरकती परंपराओं को बचाया जा सकेगा! रिश्तों के प्रति विश्वास और श्रद्धा बढ़ेगी और एक नया समाज आकार लेगा! लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ! टीवी सीरियलों ने परिवारों के आपसी विश्वास को चकनाचूर करते हुए ऐसा आभासी संसार रच डाला जहाँ साजिश, अविश्वास और अपमान के अलावा और कुछ नहीं है। जबकि, तर्क ये दिया जाता रहा कि इन सीरियलों में सामाजिक संरचना में आ रहे बदलाव का प्रतिबिंब दिखाया जाता है।
आज तो हर कहानी में विवाह के पहले या विवाहेतर रिश्तों को सहज बताकर उसे स्थापित करने तक की कोशिश की जाती है। साजिश और हिंसा का वही अंदाज हर सीरियल में नजर आने लगा जो फिल्मों की पुरानी विषयवस्तु रहा है। अधिकांश सीरियल बड़े परिवारों और बिजनेस टाइकून लोगों के बीच चलने वाली प्रतिद्वंदिता पर केंद्रित होते है। जिसका आम दर्शकों से कोई सरोकार नहीं होता। करीब पचास-साठ साल पहले जब हिंदी फ़िल्में बेरंग हुआ करती थीं, तब इसमें पात्रों में स्पष्टतः दो चेहरे होते थे। एक प्रेम, त्याग और सहनशीलता की पराकाष्ठा था तो दूसरा साजिश, कपट और क्रूरता का प्रतिक! आज के कई सीरियलों में यही सब साफ देखा जाता है।
पारिवारिक रिश्तों की मधुरता और बुजुर्गों का सम्मान तो जैसे सीरियलों से गायब ही होता जा रहा है। इन सीरियलों में संयुक्त परिवारों का आदर्श रूप न दिखाकर उनके नकारात्मक पक्ष को ज्यादा उबारा जा रहा! टीवी पर जब सीरियलों का दौर शुरू हुआ था, तब परिवार के बुजुर्ग सदस्यों का सकारात्मक चेहरा सामने रखा गया था। ‘हम लोग’ की भागवंती जैसी मां और ‘बुनियाद’ के हवेली राम व लाजो जी जैसे बुजुर्ग अब किसी सीरियल में नजर नहीं आते! अब तो 'दिल से दिल तक' के दादाजी ज्यादा दिखाई देते हैं, जो दो प्रेमियों को मिलाने जुगत लगाते ज्यादा नजर आते हैं। सच्चाई ये है कि आज टीवी सीरियलों में समाज और परिवार की अलग तरह से व्याख्या होने लगी है।
बुजुर्गों के सम्मान को भी इन सीरियलों ने ही सबसे ज्यादा मटियामेट किया। ‘हवन’ नाम के एक शो में बड़ी बहू अपने ससुर से इतना चिढ़ती है कि उसके सम्मान को कुचलने के लिए हमेशा साजिशों के जाल बुनती रहती है। उसकी करतूतों को समझने के बाद भी परिवार वाले असहाय बने रहते हैं? इसके पीछे कथानक कुछ भी हो, लेकिन ये सीरियल एक रिश्ते को तो कलंकित करता ही है। लम्बे समय तक चले सीरियल ‘दिया बाती और हम’ में भी सास को बहू के पढ़े लिखे होने और बेटे के अनपढ़ होने का दर्द सालता रहता है। बार-बार संस्कार और परंपराओं की दुहाई देने वाली सास बहू को प्रताड़ित करने का कोई मौका नहीं छोड़ती!
एक सीरियल ‘प्रतिज्ञा’ भी बना, जिसमें मुखिया एक लड़की को ब्याह लाता है तो उसकी पत्नी अपनी बहू को मारने के लिए साजिशें रचती रहती है। कुछ सालों में इश्कबाज, हिटलर दीदी, मधुबाला, कबूल है, सरस्वती चंद्र, अमृत मंथन और कुमकुम भाग्य जैसे सीरियलों ने रिश्तों की ऐसी विकृत परिभाषा गढ़ दी, जिसमें चाचा, बुआ या मामा जैसे रिश्ते ही नहीं मां, भाई व बहन तक भरोसे के लायक नहीं रह गए। टीवी को रचनात्मक अभिव्यक्ति की आजादी देने का मतलब ये कतई नहीं है कि परिवार की दादी सिर्फ अपना आधिपत्य बनाने के लिए परिवार के हर सदस्य को अपनी साजिश का मोहरा बना ले। जबकि, समाज में दादी को प्रेम और वात्सल्य का सबसे सही रूप माना जाता है। कल्पना कीजिए कि ये आभासी दुनिया एक दिन कैसा वास्तविक संसार रचेगी?
------------------------------------------------------------------
No comments:
Post a Comment